(शापसे कुपित हुए अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना)
सौतिरुवाच 🗣️
शप्तस्तु भृगुणा
वह्निः क्रुद्धों वाक्यमथाब्रवीत् ।
किमिदं साहसं ब्रह्मन्
कृतवानसि मां प्रति ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते
हैं-- 🗣️
महर्षि भृगुके शाप
देनेपर अग्निदेवने कुपित होकर यह बात कही-ब्रह्मन् ! तुमने मुझे शाप देनेका यह
दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया है ? ॥१॥
धर्मे प्रयतमानस्य
सत्यं च वदतः समम्।
पृष्टो यदब्रवं सत्यं
व्यभिचारोऽत्र को मम ॥ २॥
मैं सदा धर्मके लिये
प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षसके पूछनेपर यदि मैने सच्ची बात कह दी तो
इसमें मेरा क्या अपराध है ? ॥२॥
पृष्टोहि
साक्षीयःसाक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथावदेत्।
स पूर्वानात्मनः सप्त
कुले हन्यात् तथा परान् ॥ ३ ॥
जो साक्षी किसी बातको
ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछनेपर कुछ-का-कुछ कह देता-झूठ बोलता है, वह अपने कुलमें पहले और पीछेकी सात-सात पीढ़ियों का नाश
करता-उन्हें नरकमें ढकेलता है ॥ ३ ॥
यश्च
कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते ।
सोऽपि तेनैव पापेन
लिप्यते नात्र संशयः ॥ ४ ॥
इसी प्रकार जो किसी
कार्यके वास्तविक रहस्यका ज्ञाता है, वह उसके पूछने
पर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता मौन रह जाता है, तो वह भी उसी पापसे लिप्त होता है। इसमें संशय नहीं है ॥
४॥
शक्तोऽहमपि शप्तुं
त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम ।
जानतोऽपि च ते
ब्रह्मन् कथयिष्ये निबोध तत् ॥ ५॥
मैं भी तुम्हें शाप
देनेकी शक्ति रखता हूँ, तो भी नहीं
देता हूँ; क्योंकि
ब्राह्मण मेरे मान्य हैं । ब्रह्मन् ! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो ॥ ५ ॥
योगेन बहुधात्मानं
कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु ।
अग्निहोत्रेषु सत्रेषु
क्रियासु च मखेषु च ॥ ६॥
'मैं
योगसिद्धिके बलसे अपने आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि
आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये
जानेवाले अग्निहोत्रोंमें, अनेक
व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रोंमें, गर्भाधान आदि
क्रियाओंमें तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ ॥ ६ ॥
वेदोक्तेन विधानेन मयि
यद्धयते हविः ।
देवताः पितरश्चैव तेन
तृप्ता भवन्ति वै ॥ ७ ॥
'मुझमें
वेदोक्त विधिसे जिस हविष्यकी आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं ॥
७ ॥
आपो देवगणाः सर्वे आपः
पितृगणास्तथा।
दर्शश्च पौर्णमासश्च
देवानां पितृभिः सह ॥ ८॥
'जल ही देवता
है, तथा जल ही पितृगण हैं
। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओंके लिये किये जाते हैं ॥८॥
देवताः पितरस्तस्मात्
पितरश्चापि देवताः ।
एकीभूताश्च पूज्यन्ते
पृथक्त्वेन च पर्वसु ॥ ९॥
'अतः देवता
पितर हैं और पितर ही देवता हैं । विभिन्न पर्वोपर ये दोनों एक रूपमें भी पूजे जाते
हैं और पृथकपृथक् भी ॥ ९॥
देवताः पितरश्चैव
भुञ्जते मयि यद्धतम् ।
देवतानां पितॄणां च
मुखमेतदहं स्मृतम् ॥ १० ॥
'मुझमें जो
आहुति दी जाती है, उसे देवता और
पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरोंका मुख माना जाता हूँ॥
१० ॥
अमावास्यां हि पितरः
पौर्णमास्यां हि देवताः ।
मन्मुखेनैव हूयन्ते
भुञ्जते च हुतं हविः ॥ ११ ॥
सर्वभक्षः कथं त्वेषां
भविष्यामि मुखं त्वहम् ।
अमावास्याको पितरों के
लिये और पूर्णिमाको देवताओंके लिये मेरे मुखसे ही आहुति दी जाती है और उस आहुतिके
रूपमें प्राप्त हुए हविष्यका वे देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होनेगर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ ?' ॥ ११ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
चिन्तयित्वा ततो
वह्निश्चके संहारमात्मनः ॥ १२॥
द्विजानामग्निहोत्रेषु
यज्ञसत्रक्रियासु च ।
निरोकारवषटकाराः
स्वधास्वाहाविवर्जिताः ॥ १३ ॥
विनाग्निना
प्रजाःसर्वास्तत् आसन् सुदुःखिताः।
अथर्षयः समुद्विग्ना
देवान् गत्वावन् वचः ॥१४॥
उग्रश्रवाजी कहते
हैं-- 🗣️
महर्षियों! तदनंतर
अग्निदेव ने कुछ सोच-विचारकर दिनोंके अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कारसम्बन्धी क्रियाओं से अपने आपको समेट
लिया। फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐ कार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदिसे वञ्चित होकर अत्यन्त दुखी हो गयी।
तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओंके पास जाकर बोले-॥ १२-१४ ॥
अग्निनाशात्
क्रियाभ्रंशाद् भ्रान्तालोकास्त्रयोऽनघाः।
विधद्ध्वमत्र यत्
कार्येनस्यात् कालात्ययो यथा ॥१५॥
पापरहित देवगण !
अग्निके अदृश्य हो जानेसे अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है।
इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषयमें
जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें । इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये' ॥ १५ ॥
अथर्षयश्च देवाश्च
ब्रह्माणमुपगम्य तु।
अग्नेरावेदयञ्छापं
क्रियासंहारमेव च ॥१६॥
तत्पश्चात् ऋषि और
देवता ब्रह्माजीके पास गये और अग्निको जो शाप मिला था एवं अग्निने सम्पूर्ण क्रियाओंसे
जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन
करते हुए बोले--- ॥ १६ ॥
भृगुणा वै महाभाग
शप्तोऽग्निः कारणान्तरे ।
कथं देवमुखो भूत्वा
यज्ञभागाप्रभुक तथा ॥ १७ ॥
हुतभुक् सर्वलोकेषु
सर्वभक्षत्वमेष्यति ।
'महाभाग किसी कारणवश महर्षि भृगुने अग्निदेवको सर्वभक्षी
होनेका शाप दे दिया है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओंके मुख, यज्ञभागके अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकोंमें दी हुई
आहुतियोंका उपभोग करनेवाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे ? ॥ १७ ॥
श्रुत्वा तु तद्
वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत् ॥१८॥
उवाच वचनं श्लक्ष्णं
भूतभावनमव्ययम् ।
लोकानामिह सर्वेषां
त्वं कर्ता चान्त एव च ॥ १९॥
त्वं धारयसि
लोकांस्त्रीन् क्रियाणां च प्रवर्तकः।
स तथा कुरु लोकेश
नोच्छिोरन् यथा क्रियाः ॥२०॥
कस्मादेवं
विमूढस्त्वमीश्वरः सन् हुताशन ।
त्वं पवित्रं सदा लोके
सर्वभूतगतिश्च ह ॥ २१ ॥
देवताओं तथा ऋषियोंकी
बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्माजीने प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले अविनाशी अग्निको
बुलाकर मधुर वाणीमें कहा-'हुताशन ! यहाँ समस्त लोकोंके स्रष्टा और संहारक तुम्ही
हो, तुम्हीं तीनों लोकोंको धारण करनेवाले हो, सम्पूर्ण क्रियाओंके प्रवर्तक भी तुम्ही हो । अतः
लोकेश्वर ! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओंका लोप न हो। तुम सबके
स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ ( मोहग्रस्त ) कैसे हो गये ? तुम संसारमें सदा पवित्र हो, समस्त
प्राणियोंकी गति भी तुम्ही हो ॥ १८-२१ ॥
न त्वं सर्वशरीरेण
सर्वभक्षत्वमेष्यसि ।
अपाने ह्यर्चिषोयास्ते
सर्व भक्ष्यन्ति ताः शिखिन्॥२२॥
'तुम सारे शरीरसे सर्वभक्षी नहीं होओगे । अग्निदेव !
तुम्हारे अपानदेशमें जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण
करेंगी ॥ २२ ॥
क्रव्यादा च तनुर्या
ते सा सर्व भक्षयिष्यति ।
यथा सूर्याशुभिः
स्पृष्टं सर्वे शुचि विभाव्यते ॥ २३ ॥
तथा त्वदर्चिनिर्दग्धं
सर्वे शुचि भविष्यति ।
त्वमग्ने परमं तेजः
स्वप्रभावाद् विनिर्गतम् ॥ २४॥
स्वतेजसैव तं शापं
कुरु सत्यमृषेर्विभो ।
देवानां चात्मनो भागं
गृहाण त्वं मुखे हुतम् ॥ २५॥
इसके सिवा जो तुम्हारी
क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलानेवाली जो चिताकी आग है) वही सब कुछ
भक्षण करेगी । जैसे सूर्यकी किरणोंसे स्पर्श होनेपर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती
हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओंसे दग्ध होनेपर सब कुछ
शुद्ध हो जायगा । अग्निदेव ! तुम अपने प्रभावसे ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो ! अपने तेजसे ही महर्षिके उस शापको सत्य कर
दिखाओ और अपने मुखमें आहुतिके रूपमें पड़े हुए देवताओंके तथा अपने भागको भी ग्रहण
करो' ॥ २३-२५ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
एवमस्त्विति तं वह्निः
प्रत्युवाच पितामहम् ।
जगाम शासनं कर्तुं
देवस्य परमेष्ठिनः ॥२६॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
यह सुनकर अग्निदेवने
पितामह ब्रह्माजीसे कहा--'एवमस्तु ( ऐसा ही हो)।' यों कहकर वे
भगवान् ब्रह्माजीके आदेशका पालन करनेके लिये चल दिये ॥ २६ ॥
देवर्षयश्च
मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम् ।
ऋषयश्च यथापूर्व
क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे ॥ २७ ॥
इसके बाद देवर्षिगण
अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये । फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र
आदि सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्ववत् पालन करने लगे ॥ २७ ॥
दिवि देवा मुमुदिरे
भूतसङ्घाश्च लौकिकाः।
अग्निश्च परमां
प्रीतिमवाप हतकल्मषः ॥ २८ ॥
देवतालोग स्वर्गलोकमें
आनन्दित हो गये और इस लोकके समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए । साथ ही शापजनित
पाप कट जानेसे अग्निदेवको भी बड़ी प्रसन्नता हुई ॥२८॥
एवं स भगवाञ्छापं
लेभेऽग्निर्भृगुतः पुरा।
एवमेष पुरावृत्त
इतिहासोऽग्निशापजः।
पुलोम्नश्च विनाशोऽयं
च्यवनस्य च सम्भवः ॥ २९ ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान् अग्निदेवको महर्षि भृगुसे शाप प्राप्त हुआ था। यही अग्निशापसम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षसके विनाश और च्यवन मुनिके जन्मका वृत्तान्त भी यही है ॥ २९ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापमोचने
सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
इस प्रकार श्रीमहामारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्व में
अग्निशापमोचनसम्बन्धी सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
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