१.२६ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे षड्विंशोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(इन्द्रद्वारा की हुई वर्षासे सर्पोंकी प्रसन्नता)

सौतिरुवाच 🗣️

एवं स्तुतस्तदा कवा भगवान् हरिवाहनः।

नीलजीमूतसंघातैः सर्वमम्बरमावृणोत् ॥१॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं 🗣️

नागमाता कद्रूके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् इन्द्रने मेघोंकी काली घटाओंद्वारा सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर दिया ॥ १ ॥

मेघानाज्ञापयामास वर्षध्वममृतं शुभम् ।

ते मेघा मुमुचुस्तोयं प्रभूतं विद्युदुज्ज्वलाः ॥२॥

साथ ही मेघोंको आज्ञा दी-तुम सब शीतल जलकी वर्षा करो।' आज्ञा पाकर बिजलियोंसे प्रकाशित होनेवाले उन मेघोंने प्रचुर जलकी दृष्टि की ॥ २॥

परस्परमिवात्यर्थ गर्जन्तः सततं दिवि ।

संवर्तितमिवाकाशं जलदैः सुमहाद्भुतैः ॥ ३॥

सृजद्भिरतुलं तोयमजस्रं सुमहारवैः।

सम्प्रनृत्तमिवाकाशं धारोर्मिभिरनेकशः ॥४॥

वे परस्पर अत्यन्त गर्जना करते हुए आकाशसे निरन्तर पानी बरसाते रहे। जोर-जोरसे गर्जने और लगातार असीम जलकी वर्षा करनेवाले अत्यन्त अद्भुत जलघरोंने सारे आकाशको घेर-सा लिया था। असंख्य धारारूप लहरोंसे युक्त वह व्योमसमुद्र मानो नृत्य-सा कर रहा था ॥ ३-४ ॥

मेघस्तनितनिर्घोषैर्विद्युत्पवनकम्पितैः ।

तैर्मेघैः सततासारं वर्षर्द्भिरनिशं तदा ॥५॥

नष्टचन्द्रार्ककिरणमम्बरं समपद्यत ।

नागानामुत्तमो हर्षस्तथा वर्षति वासवे ॥६॥

भयंकर गर्जन-तर्जन करनेवाले वे मेघ बिजली और वायुसे प्रकम्पित हो उस समय निरन्तर मूसलाधार पानी गिरा रहे थे। उनके द्वारा आच्छादित आकाशमें चन्द्रमा और सूर्यकी किरणें भी अदृश्य हो गयी थीं। इन्द्रदेवके इस प्रकार वर्षा करनेपर नागोंको बड़ा हर्ष हुआ ॥ ५-६ ॥

आपूर्यत मही चापि सलिलेन समन्ततः ।

रसातलमनुप्राप्तं शीतलं विमलं जलम् ॥ ७॥

पृथ्वीपर सब ओर पानी-ही-पानी भर गया। वह शीतल और निर्मल जल रसातलतक पहुँच गया ॥ ७ ॥

तदा भूरभवच्छन्ना जलोर्मिभिरनेकशः।

रामणीयकमागच्छन् मात्रा सह भुजङ्गमाः॥८॥

उस समय सारा भूतल जलकी असंख्य तरङ्गोंसे आच्छादित हो गया था। इस प्रकार वर्षासे संतष्ट हुए सर्प अपनी माताके साथ रामणीयक द्वीपमें आ गये ॥ ८॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुडचरित्रविषयक छब्बीसवा अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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