सौतिरुवाच 🗣️
एतत् ते कथितं
सर्वममृतं मथितं यथा ।
यत्र सोऽश्वः
समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ १ ॥
यं निशम्य तदा
कर्विनतामिदमब्रवीत् ।
उच्चैःश्रवा हि किं
वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ॥ २॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
शौनकादि महर्षियो !
जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसङ्ग मैंने
आपलोगोंसे कह सुनाया । उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व
उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रूने विनतासे कहा-भद्रे ! शीघ्र बताओ तो, यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंगका है ॥ १-२॥
विनतोवाच 🗣️
श्वेत एवाश्वराजोऽयं
किंवा त्वं मन्यसे शुभे ।
ब्रूहि वर्ण
त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ॥ ३ ॥
विनता बोली- 🗣️
शुभे! यह अश्वराज
श्वेत वर्णका ही है । तुम इसे कैसा समझती हो ? तुम भी इसका
रंग बताओ तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी ॥३॥
कद्रूरुवाच 🗣️
कृष्णवालमहं मन्ये
हयमेनं शुचिस्मिते।
एहि सार्धे मया दीव्य
दासीभावाय भामिनि ॥ ४ ॥
कद्रूने कहा- 🗣️
पवित्र मुसकानवाली
बहिन ! इस घोड़े( का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु इस ) की
पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि ! आओ, दासी होनेकी
शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ ( यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा)॥ ४ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
एवं ते समयं कृत्वा
दासीभावाय वै मिथः ।
जग्मतुः स्वगृहानेव
श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ॥ ५॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
इस प्रकार वे दोनों
बहिनें आपसमें एक दूसरेकी दासी होने की शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और
उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़ेको देखेंगी ॥ ५ ॥
ततः पुत्रसहस्रं तु
कद्रूर्जिह्म चिकीर्षती।
आज्ञापयामास तदा वाला
भूत्वाचनप्रभाः ॥ ६॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं
दासी न स्यामहं यथा ।
नावपद्यन्त ये वाक्यं
ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ॥ ७ ॥
सर्पसत्रे वर्तमाने
पावको वः प्रधक्ष्यति ।
जनमेजयस्य राजर्षेः
पाण्डवेयस्य धीमतः ॥ ८ ॥
कद्रू कुटिलता एवं
छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंको इस समय आज्ञा दी कि तुम काले
रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोड़ेकी पूँछमें लग जाओ, जिससे मुझे
दासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पोने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि
जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका
आरम्भ होनेपर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी' ॥ ६-८ ॥
शापमेनं तु शुश्राव
स्वयमेव पितामहः ।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं
कद्रवा दैवादतीव हि ॥ ९॥
इस शापको स्वयं
ब्रह्माजीने सुना । यह दैवसंयोगकी बात है कि सर्पोको उनकी माता कद्रूकी ओरसे ही
अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया ॥ ९ ॥
सार्धे देवगणैः
सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत ।
बहुत्वं प्रेक्ष्य
सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ॥१०॥
सम्पूर्ण देवताओंसहित
ब्रह्माजीने सर्पोकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासे कद्रूकी उस बातका
अनुमोदन ही किया ॥ १०॥
तिग्मवीर्यविषा ह्येते
दन्दशूका महाबलाः ।
तेषां
तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ॥ ११॥
युक्त मात्रा कृतं
तेषां परपीडोपसर्पिणाम् ।
अन्येषामपि सत्त्वानां
नित्यं दोषपरास्तु ये ॥ १२॥
तेषां प्राणान्तको
दण्डो दैवेन विनिपात्यते ।
एवं सम्भाष्य देवस्तु
पूज्य कद्रूं च तां तदा ॥ १३ ॥
आहूय कश्यपं देव इदं
वचनमब्रवीत् ।
यदेते दन्दशूकाश्च
सर्पा जातास्त्वयानघ ॥ १४ ॥
विषोल्बणा महाभोगा
मात्रा शप्ताः परंतप ।
तत्र मन्युस्त्वया तात
न कर्तव्यः कथंचन ॥ १५॥
दृष्टं पुरातनं
ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम् ।
इत्युक्त्वा
सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसार्य प्रजापतिम् ।
प्रादाद् विषहरी
विद्यां कश्यपाय महात्मने ॥१६॥
'ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं।
अपने तीखे विषके कारण ये सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं । अतः
समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे इन्हें शाप देकर माता कद्रूने उचित ही किया है।
जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर
दैवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है। ऐसी बात कहकर ब्रह्माजीने कद्रूकी
प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही--'अनघ !
तुम्हारे द्वारा जो ये लोगोंको डंसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं । परंतप !
इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है। इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपरक्रोध न करना ।
तात ! यज्ञमें सर्पोका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त
तुम्हारी दृष्टिमें भी है ही । ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको
प्रसन्न करके उन महात्माको सर्पोंका विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की ॥११-१६॥
( एवं शप्तेषु नागेषु
कद्रूवा च द्विजसत्तम ।
उद्विग्नः
शापतस्तस्याः कद्रं कर्कोटकोऽब्रवीत् ॥
मातरं परमप्रीतस्तदा
भुजगसत्तमः।
आविश्य वाजिनं मुख्यं
वालो भूत्वाचनप्रभः॥
दर्शयिष्यामि
तत्राहमात्मानं काममाश्वस।
एवमस्त्विति तं पुत्रं
प्रत्युवाच यशखिनी॥)
द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार माता कद्रूने जब नागोंको शाप दे दिया, तब उस शापसे उद्विग्न हो भुजङ्गप्रवर कर्कोटकने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी मातासे कहा-'मा ! तुम धैर्य रखो, मैं काले रंगका बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्वके शरीरमें प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछके रूपमें दिखाऊँगा ।' यह सुनकर यशस्विनी कद्रूने पुत्रको उत्तर दिया- बेटा ! ऐसा ही होना चाहिये ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार महाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित-विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥
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