सूत उवाच :-
इत्थं पतिव्रताधर्ममाकर्ण्य नारदो मुनिः, किञ्चित्प्रष्टुमना विप्रा मुनिमाह पुरातनम् ॥ १ ॥
नारद उवाच :-
सर्वदानाधिकं कांस्यसम्पुटं परिकीर्तितम्, एतत्कारणमव्यक्तंर वद मे बदरीपते ॥ २ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
एकदैतद्व्रतं ब्रह्मन्नचीकरदुमा पुरा, तदापृच्छन्महादेवं किं देयं दानमुत्तमम् ॥ ३ ॥
येन सम्पूर्णतां याति व्रतं मे पौरुषोत्तमम्, तन्मे वद दयासिन्धो सर्वेषां हितहेतवे ॥ ४ ॥
तच्छ्रुत्वा मनसि ध्यात्वा ध्यायन् श्रीपुरुषोत्तमम्, उमामजीगदच्छम्भुः सर्वलोकहितैषिणीम् ॥ ५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
सूतजी बोले – हे विप्रो! नारद मुनि इस प्रकार पतिव्रता के धर्म को सुनकर कुछ पूछने की इच्छा से पुरातन नारायण मुनि से बोले ॥ १ ॥
नारदजी बोले – हे बदरीपते! आपने समस्त दानों में अधिक फल को देने वाला काँसा के सम्पुट का दान कहा है, इसे स्पष्ट करके मुझसे कहिये ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले – हे ब्रह्मन्! प्रथम एक समय पार्वती ने इस व्रत को किया था, उस समय श्रीमहादेवजी से पूछा कि हे महादेवजी! इस व्रत में उत्तम दान क्या देना चाहिये ॥ ३ ॥
जिसके देने से मेरा पुरुषोत्तम व्रत सम्पूर्ण हो जावे, हे दयासिन्धो! समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये उस दान को मेरे से कहिये ॥ ४ ॥
पार्वती की वाणी सुन शम्भु ने श्रीपुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान करते हुए मन में इस बात का विचार कर समस्त लोक के हित को चाहने वाली उमा से कहा ॥ ५ ॥
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श्रीमहादेव उवाच :-
न शक्यं किञ्चिदेवास्ति दानं श्रीपुरुषोत्तमे, व्रतपूर्णविधिं कर्तुमपर्णे छन्दसि क्कचित् ॥ ६ ॥
यद्यद्दानं गिरिसुते ह्युत्तमं परिकीतितम्, श्रीकृष्णवल्लाभे मासि तत्सर्वं गौणतां गतम् ॥ ७ ॥
तस्मादेतादृशं दानं नैवास्ति क्वापि सुन्दरि, येन ते व्रतसम्पूर्तिर्भ वेच्छ्रीपुरुषोत्तमे ॥ ८ ॥
पुरुषोत्तममासेऽस्मिन् व्रतसम्पूर्णहेतवे, ब्रह्माण्डं सम्पुटाकारं तदर्हं देयमङ्गने ॥ ९ ॥
न शक्यं तत्तु केनापि दातुं क्वापि वरानने, तस्मादेतत्प्रतिनिधि कृत्वा कांस्यस्य सम्पुटम् ॥ १० ॥
तन्मध्ये पूरयित्वैवापूपांस्त्रिंशन्मितान्मुदा, सप्ततन्तुभिरावृत्य सम्पूज्य विधिवत्प्रिये ॥ ११ ॥
देयं विप्राय विदुषे व्रतसम्पूर्तिहेतवे, एवं त्रिंशन्मितान्येव देयानि सति वैभवे ॥ १२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीमहादेवजी बोले – हे अपर्णे! श्रीपुरुषोत्तम मास में व्रतविधि को पूर्ण करने के योग्य वेद में कहीं पर भी कोई दान नहीं है ॥ ६ ॥
हे गिरिसुते! जो-जो उत्तम दान कहे हैं वे सब श्रीकृष्ण के प्रिय पुरुषोत्तम मास में गौण हो गये हैं ॥ ७ ॥
हे सुन्दरि! कहीं भी ऐसा दान नहीं है जिसको श्रीपुरुषोत्तम मास में करने से तुम्हारा व्रत पूर्ण हो ॥ ८ ॥
हे अंगने! इस पुरुषोत्तम मास व्रत की पूर्ति के लिये सम्पुटाकार ब्रह्माण्ड का दान है उसको देना चाहिये ॥ ९ ॥
हे वरानने! वह दान किसी से देने योग्य नहीं है, इस ब्रह्माण्ड के बदले में काँसे का सम्पुट बनाकर ॥ १० ॥
हे प्रिये! उसके भीतर प्रसन्नता से ३० मालपूआ रखकर, सात तन्तु से बाँध कर, विधिपूर्वक पूजन करके ॥ ११ ॥
व्रतपूर्ति के लिये विद्वान् ब्राह्मण को देवे, यदि विभव हो तो तीस सम्पुट देवे ॥ १२ ॥
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इत्याकर्ण्य वचो रम्यं धूर्जटेरुपकारकम्, अबीभवदुमा हृष्टा सर्वलोकहितैषिणी ॥ १३ ॥
त्रिंशत्कांस्यानि विद्वद्भ्यः सम्पुटानि व्यतीर्य सा, पूर्णं व्रतविधिं कृत्वा मुमोदातीव नारदः ॥ १४ ॥
सूत उवाच :-
इत्याकर्ण्य मुनिविप्रा नारायणवचोऽमृतम्, पुनराहातितृप्ताऽसौ नामं नामं पुनः पुनः ॥ १५ ॥
नारद उवाच :-
सर्वेभ्यः साधनेभ्योऽयं मासः श्रीपुरुषोत्तमः, वरीयान्निश्चतयो मेऽद्य श्रुत्वा माहात्म्यमुत्तमम् ॥ १६ ॥
श्रुत्वापि जायते भक्त्या महापापक्षयो नृणाम्, किं पुनः श्रद्धया कर्तुविधिना चेति मे मतिः ॥ १७ ॥
अतः परं न किञ्चिन्मे श्रोतव्यमवशिष्यते, पीयूषात्यन्तसन्तृप्ता नान्यत्तोयं समीहते ॥ १८ ॥
सूत उवाच :-
इत्युक्त्वा विरतो विप्रो नारदो मुनिसत्तमः, अनीनमत्पादपद्मं पुरातनमुनेः परम् ॥ १९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
धूर्जटि भगवान् के उपकारक और सुन्दर वचन को सुनकर पार्वती प्रसन्न हो गईं ॥ १३ ॥
हे नारद! पार्वती तीस काँसे के सम्पुट को विद्वान् ब्राह्मणों को देकर तथा व्रतविधि को पूर्ण कर अत्यन्त प्रसन्न हुईं ॥ १४ ॥
सूतजी बोले – हे विप्र लोग! इस प्रकार नारद मुनि नारायण की वाणी सुन अत्यन्त तृप्त हो बारम्बार नमस्कार कर पुनः बोले ॥ १५ ॥
नारद मुनि बोले – सब साधनों से श्रेष्ठ यह पुरुषोत्तम मास है, इसका उत्तम माहात्म्य सुन मेरे को ऐसा निश्चय हुआ ॥ १६ ॥
केवल भक्ति पूर्वक श्रवण करने से भी मनुष्यों के महान् पापों का क्षय हो जाता है तो श्रद्धा और विधि से करनेवाले का फिर कहना ही क्या है? ऐसा मेरा मत है ॥ १७ ॥
इसके बाद मेरे को सुनने को कुछ भी शेष नहीं रहा है; क्योंकि अमृत से तृप्त मनुष्य दूसरे जल की इच्छा नहीं करता है ॥ १८ ॥
सूतजी बोले – मुनिश्रेष्ठ विप्र नारदजी इस प्रकार कह कर चुप हो गये और प्राचीन मुनि नारायण के श्रेष्ठ चरणकमल को नमस्कार किये ॥ १९ ॥
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भारते जनुरासाद्य पुरुषोत्तममुत्तमम्, न सेवन्ते न श्रृण्वन्ति गृहासक्ता नराधमाः ॥ २० ॥
गतागतं भजन्तेऽत्र दुर्भगा जन्मजन्मनि, पुत्रमित्रकलत्राप्तवियोगाद्दुःखभागिनः ॥ २१ ॥
अस्मिन्मासे द्विजश्रेष्ठा नासच्छात्राण्युदाहरेत्, न स्वपेत परशय्यायां नालपेद्वितथं क्वचित् ॥ २२ ॥
परापवादान्न ब्रूयान्न कथञ्चित्कदाचन, परान्नं च न भुञ्जी्त न कुर्वीत परक्रियाम् ॥ २३ ॥
वित्तशाठयमकुर्वाणो दानं दद्याद्द्विजातये, विद्यमाने धने शाठयं कुर्वाणो रौरवं व्रजेत् ॥ २४ ॥
दिने दिने द्विजेन्द्राय दत्त्वा भोजनमुत्तमम्, दिवसस्याष्टमे भागे व्रती भोजनमाचरेत् ॥ २५ ॥
धन्यास्ते पुरुषा लोके ये नित्यं पुरुषोत्तमम्, अर्चयन्ति विधानेन भक्त्या प्रेमपुरःसरम् ॥ २६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जो प्राणी इस भारतवर्ष में जन्म को प्राप्त कर उत्तम श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन नहीं करते हैं, न श्रवण करते हैं, वे मनुष्य गृह में आसक्त रहने वाले मनुष्यों में अधम हैं ॥ २० ॥
इस संसार में जन्म और मरण को प्राप्त होते हैं और जन्म-जन्म में पुत्र, मित्र, स्त्री, श्रेष्ठ जन के वियोग से दुःख के भागी होते हैं ॥ २१ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ! इस पुरुषोत्तम मास में असत् शास्त्रों को नहीं कहे, दूसरे की शय्या पर शयन नहीं करे, कभी असत्य बातचीत नहीं करे ॥ २२ ॥
कभी दूसरे की निन्दा नहीं करे, परान्न को नहीं खाये और दूसरे की क्रिया को नहीं करे ॥ २३ ॥
शठता त्याग ब्राह्मण को दान देवे, धन रहने पर शठता करने वाला रौरव नरक को जाता है ॥ २४ ॥
प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन देवे और व्रत करने वाला दिन के चार बजने पर भोजन करे ॥ २५ ॥
वे पुरुष धन्य हैं जो इस लोक में भक्ति और विधान से प्रेमपूर्वक पुरुषोत्तम भगवान् का नित्य पूजन करते हैं ॥ २६ ॥
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इन्द्रद्युम्नः शतद्युम्नो यौवनाश्वो भगीरथः, पुरुषोत्तममाराध्य ययुर्भगवदन्तिकम् ॥ २७ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेयन संसेव्यः पुरुषोत्तमः, सर्वसाधनतः श्रेष्ठः सर्वार्थफलदायकः ॥ २८ ॥
गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्, गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम् ॥ २९ ॥
कौण्डिन्येन पुराप्रोक्तमिमं मन्त्रं पुनः पुनः, जपन्मासं नयेद्भक्त्या पुरुषोत्तममाप्नुयात् ॥ ३० ॥
ध्यायेन्नवघनश्यामं द्विभुजं मुरलीधरम्, लसत्पीतपटं रम्यं सराधं पुरुषोत्तमम् ॥ ३१ ॥
ध्यायं ध्यायं नयेन्मासं पूजयन्पुरुषोत्तमम्, एवं यः कुरुते भक्त्या स्वाभीष्टं सर्वमाप्नुयात् ॥ ३२ ॥
गुह्याद्गुह्यतरं चैतन्न वाच्यं यस्य कस्यचित्, मयाऽपि कथितं नैव कस्याऽप्यग्रे तपोधनाः ॥ ३३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
इन्द्रद्युम्न, शतद्युम्न, यौवनाश्व् और भगीरथ राजा पुरुषोत्तम का आराधन कर भगवान् के समीप चले गये ॥ २७ ॥
इसलिये समस्त साधनों से श्रेष्ठ, समस्त अर्थदायक पुरुषोत्तम भगवान् का सब तरह से सेवन करना चाहिये ॥ २८ ॥
गोवर्धनधारी, गोपस्वरूप, गापाल, गोकुल के उत्सवस्वरूप, ईश्वहर, गोपिकाओं के प्रिय, गोविन्द भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥
प्रथम कौण्डिन्य ऋषि ने इस मन्त्र को बार-बार कहा कि जो इस मन्त्र का भक्ति से जप करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करता है वह पुरुषोत्तम भगवान् को प्राप्त करता है ॥ ३० ॥
नवीन मेघ के समान श्याम, दो भुजावाले, मुरलीधर, शोभमान, पीतवस्त्रधारी, सुन्दर, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान करे ॥ ३१ ॥
पुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान और पूजन करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करे, इस प्रकार जो मनुष्य भक्ति से व्रत करता है वह अपने समस्त अभीष्ट को प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥
हे तपोधन! यह गुप्त से भी गुप्त व्रत जिस किसी को नहीं कहना चाहिये, मैंने भी किसी के सामने नहीं कहा है ॥ ३३ ॥
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श्रोतव्यमेतत्सततं पुराणमभीष्टदं पावनमादरेण, श्लोसकैकमात्रश्रवणेन पुंसामघानि सर्वाणि निहन्ति विप्राः ॥ ३४ ॥
गङ्गादिसर्वतीर्थेषु मज्जतो यत्फलं भवेत्, तत्फलं श्रृण्वतस्तस्य माहात्म्यं मुनिसत्तमाः ॥ ३५ ॥
इलां प्रदक्षिणीकुर्वन् यत्पुण्यं लभते नरः, तत्पुण्यं श्रृण्वतस्तस्य माहात्म्यं पौरुषोत्तमम् ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणो ब्रह्यवर्चस्वी क्षत्रियो वसुधाधिपः, वैश्यो धनपतिर्भूयाच्छूद्रः सत्तमतां लभेत् ॥ ३७ ॥
येऽन्ये किरातहूणाद्याः पशुचर्यापरायणाः, ते सर्वे मुक्तिमायान्ति श्रुत्वा माहात्म्यमुत्तमम् ॥ ३८ ॥
पुरुषोत्तममाहात्म्यं लेखयित्वा द्विजन्मने, सम्भूष्य वस्त्रभूषाभिर्विधिना यः प्रयच्छति ॥ ३९ ॥
कुलत्रयं समुद्घृत्यगोलोकं याति दुर्लभम्, यत्रास्ते गोपिकावृन्दैर्वेष्टितः पुरुषोत्तमः ॥ ४० ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे विप्रलोग! अभीष्ट फलदायक, पवित्र इस पुराण को आदरपूर्वक सर्वदा श्रवण करना चाहिये, एक श्लोाकमात्र के श्रवण से मनुष्यों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! गंगादि समस्त तीर्थों में स्नान से जो फल मिलता है वह फल पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से मिलता है ॥ ३५ ॥
मनुष्य पृथिवी की प्रदक्षिणा करता हुआ जिस पुण्य को प्राप्त करता है वह पुण्य पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से होता है ॥ ३६ ॥
ब्राह्मण ब्रह्मतेज वाला, क्षत्रिय पृथिवी का मालिक, वैश्य धन का मालिक होता है और शूद्र श्रेष्ठ हो जाता है ॥ ३७ ॥
और जो दूसरे पशुचर्या में तत्पर किरात, हूण आदि हैं वे सब पुरुषोत्तम के माहात्म्यश्रवण से मुक्ति को प्राप्त करते हैं ॥ ३८ ॥
जो पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को लिख कर और वस्त्र-आभूषण आदि से भूषित कर विधिपूर्वक ब्राह्मण को देता है ॥ ३९ ॥
वह तीनों कुलों का उद्धार करके जहाँ पर गोपिकाओं के समूह से घिरे हुए पुरुषोत्तम भगवान् हैं ऐसे दुर्लभ गोलोक को जाता है ॥ ४० ॥
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लिखित्वा धारयेद्यस्तु गृहे माहात्म्यमुत्तमम्, तद्गृहे सर्वतीर्थानि विलसन्ति निरन्तरम् ॥ ४१ ॥
मासोत्तमस्य महिमानमनन्तपुण्यं श्रुत्वा सुविस्मितधियो मुनयश्चर सर्वे, ऊचुश्चि सूततनयं विनयेन विष्वक्सेनाङ्घ्रिसेवनविधौ निपुणा नितान्तम् ॥ ४२ ॥
ऋषय ऊचुः :-
सूत सूत महाभाग धन्योऽसि त्वं महामते, त्वन्मुखामृतपानेन कृतार्थाः स्मो वयं भृशम् ॥ ४३ ॥
चिरञ्जीव सदा सूत पौराणिकशिरोमणे, अस्तु ते शाश्वती कीर्तिर्जगत्पावनपावनी ॥ ४४ ॥
तुभ्यं प्रदत्तं निमिषालयस्थैर्ब्रह्मासनं पूज्यतमं मुनीशैः, त्वदायवक्त्राम्बुजनिर्गत श्रीमुकुन्दवार्तामृतपानलोलैः ॥ ४५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जो इस उत्तम माहात्म्य को लिखकर गृह में रखता है उसके गृह में समस्त तीर्थ निरन्तर विलास करते हैं ॥ ४१ ॥
अनन्त पुण्य को देने वाले महीनों में श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को सुन समस्त मुनि लोग आश्चैर्य करने लगे और वे भगवान् की चरण-सेवा में अत्यन्त निपुण मुनि लोग विनयपूर्वक सूतजी के पुत्र से बोले ॥ ४२ ॥
ऋषि लोग बोले – हे सूत! हे सूत! हे महाभाग! हे महामते! तुम धन्य हो। तुम्हारे मुख से अमृत पान कर हम सब अत्यन्त कृतार्थ हो गये ॥ ४३ ॥
हे सूत! हे पौराणिकों में शिरोमणि! तुम सदा चिरंजीवी होवो और तुम्हारी कीर्ति निरन्तर जगत् में पवित्रों को भी पवित्र करने वाली हो ॥ ४४ ॥
तुम्हारे मुखकमल से निकले हुए श्रीमुकुन्द के कथामृत के पान में लोल नैमिषारण्य में स्थित, मुनीन्द्रों द्वारा आपके लिए अत्यन्त पूज्य ब्रह्मा का आसन दिया गया ॥ ४५ ॥
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विष्टरश्रवस एव पवित्रा यावदेव वितता भुवि कीर्तिः, तावदत्र मुनिवर्यसमाजे श्रीहरेर्वद कथां कमनीयाम् ॥ ४६ ॥
इत्थं द्विजाशीर्वचनं प्रगृह्य प्रदक्षिणीकृत्य द्विजान्समस्तान्, नत्वाऽगमद्देवनदीं स्वकीयं कृत्यं विधातुं स च सूतसूनुः ॥ ४७ ॥
अन्योन्यमूचुर्निमिषालयस्था वरिष्ठमाहात्म्यमिदं पुराणम्, मासस्य दिव्यं पुरुषोत्तमस्य समीहितार्थार्पणकल्पवृक्षम् ॥ ४८ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तममासमाहात्म्यश्रवणफलकथनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
॥ समाप्तमिदं पुरुषोत्तममासमाहात्म्यम् ॥
हिंदी अनुवाद :-
जब तक विष्णु भगवान् की कीर्ति पृथिवी पर रहे तब तक इस पृथिवी पर मुनियों के समाज में हरि भगवान् की सुन्दर कथा को आप कहते रहें ॥ ४६ ॥
इस प्रकार ब्राह्मणों के आशीर्वाद को ग्रहण कर और समस्त ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा और नमस्कार कर अपने कृत्य को करने के लिए गंगा के तट पर सूत जी के पुत्र गये ॥ ४७ ॥
नैमिषारण्य में स्थित सब लोग परस्पर कहने लगे कि यह प्राचीन पुरुषोत्तम मास का श्रेष्ठ और दिव्य माहात्म्य इच्छित अर्थों को देने में कल्पवृक्ष ही है ॥ ४८ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तममासमाहात्म्यश्रवणफलकथनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
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