१.१३ - आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(जरत्कारुका अपने पितरों के अनुरोधसे विवाह के लिये उद्यत होना)

शौनक उवाच 🗣️

किमर्थ राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः।

सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ॥ १ ॥

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः।

आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थ जपतां वरः ॥ २ ॥

मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः ।

कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ॥ ३ ॥

स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।

शौनकजीने पूछा- 🗣️

सूतजी! राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पाका अन्त किया ? यह प्रसङ्ग मुझसे कहिये । सूतनन्दन ! इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये ! जप-यज्ञ करनेवाले पुरुषों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोंको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था। किसके पुत्र थे ? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे ? यह मुझे बताइये ॥ १-३ ॥

सौतिरुवाच 🗣️

महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ॥ ४ ॥

सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।

उग्रश्रवाजीने कहा- 🗣️

ब्रह्मन् ! आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है । वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! यह प्रसङ्ग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ॥ ४॥

शौनक उवाच 🗣️

श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ॥ ५ ॥

आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः।

शौनकजीने कहा- 🗣️

सूतनन्दन ! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥

सौतिरुवाच 🗣️

इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ॥ ६ ॥

कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु।

पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ॥ ७ ॥

शिष्योव्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् ।

तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ८ ॥

उग्रश्रवाजीने कहा- 🗣️

शौनकजी ! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था । उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ॥ ६-८॥

इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते।

कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९ ॥

शौनकजी ! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है । आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ॥ ९॥

आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः ।

ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युने रतः सदा ॥ १०॥

आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे । ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। वे सदा उम्र तपस्यामें संलग्न रहते थे॥१०॥

जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्व रेता महातपाः।

यायावराणां प्रवरो धर्मशः संशितव्रतः॥११॥

स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः।

चचार पृथिवीं सर्वो यत्र सायंगृहो मुनिः ॥ १२॥

उनका नाम था जरत्कारु । ऊर्ध्वरेता और महान ऋषि थे। यायावरोंमें उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की । वे मुनिवृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ॥ ११-१२ ॥

तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः ।

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ॥ १३॥

वे सब तीर्थोमें स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी॥१३॥

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः।

इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ॥१४॥

अटमानः कदाचित् स्वान् सददर्श पितामहान् ।

लम्बमानान् महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान् ॥ १५॥

वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपने शरीरको सुखाते रहते थे। उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहोको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एक विशाल गड्डेमें लटक रहे थे ॥१४-१५॥

तानब्रवीत् स दृष्दैव जरत्कारुः पितामहान् ।

के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ने ह्यस्मिन्नधोमुखाः॥१६॥

उन्हें देखते ही जरत्कारने उनसे पूछा-'आपलोग कौन हैं ? जो इस गड्ढे में नीचेको मुख किये लटक रहे हैं॥ १६ ॥

वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते।

मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ॥ १७॥

आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंके समूह) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्डेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सब ओरसे प्रायः खा लिया है' ॥१७॥

पितर ऊचुः 🗣️

यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः।

संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ॥ १८॥

पितर बोले- 🗣️

ब्रह्मन् ! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे--पृथ्वीपर गिरना चाहते हैं ॥ १८॥

अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः।

मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एवसमास्थितः ॥ १९ ॥

हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु । हम भाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है ॥ १९॥

न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति ।

तेन लम्बामहे गर्ने संतानस्य क्षयादिह ॥ २०॥

अनाथास्तेन नाथेन यथा दुष्कृतिनस्तथा।

कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ॥ २१ ॥

शातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः।

किमर्थे चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ॥ २२ ॥

वह मूढ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्डेमें लटक रहे हैं । हमारी रक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हम अनाथ हो गये हैं । साधुशिरोमणे ! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँति हमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो ? ब्रह्मन् ! हम यह जानना चाहते हैं, कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो ? सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ ! हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो ॥ २०-२२ ॥

जरत्कारुरुवाच 🗣️

मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः।

ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं खयम् ॥ २३॥

जरत्कारुने कहा- 🗣️

महात्माओ ! आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं । स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ २३ ॥

पितर ऊचुः 🗣️

यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः।

आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ॥ २४ ॥

पितर बोले- 🗣️

तात ! तुम हमारे कुलकी संतानपरम्पराको बनाये रखनेके लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो । प्रभो ! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये यत्न करो ॥ २४ ॥

न हि धर्मफलस्तात न तपोभिः सुसंचितैः।

तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ॥२५॥

तात | पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहीं पाते ॥२५॥

तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु ।

पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ॥ २६॥

अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो और संतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो । यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात होगी ॥ २६ ॥

जरत्कारुरुवाच 🗣️

न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः।

भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ॥ २७॥

जरत्कारुने कहा-- 🗣️

पितामहगण ! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था, कि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और न धनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है, तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा ॥ २७ ॥

समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् ।

तथा याद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ॥ २८॥

किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्त के अनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं ॥ २८॥

सनाम्नी या भवित्री मेदिदित्साचैव बन्धुभिः।

भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ॥ २९॥

(वह शर्त यों है-) जिस कन्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहण करूँगा ॥ २९॥

दरिद्राय हि मे भार्यो को दास्यति विशेषतः।

प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ॥ ३०॥

विशेष बात तो यह है कि--मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनी कन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा ? इसलिये मेरा विचार है, कि यदि कोई भिक्षाके तौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा ॥ ३० ॥

एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः।

अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ॥ ३१॥

पितामहो ! मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा । इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा॥ ३१॥

तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै ।

शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ॥ ३२॥

इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह आपलोगोंका उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें ॥ ३२॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

 इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा उनके पितरोंका संवादनामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १३॥

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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