(जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तङ्ककी गुरुभक्ति तथा उत्तङ्कका सर्पयज्ञके लिये जनमेजयको प्रोत्साहन देना)
सौतिरुवाच 🗣️
जनमेजयः पारीक्षितः सह भ्रातृभिः कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रमुपास्ते ।
तस्य भ्रातरस्त्रयः श्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति ।
तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत् सारमेयः ॥ १॥
उग्रश्रवाजी कहते है- 🗣️
परीक्षित् के पुत्र जनमेजय अपने भाइयोंके साथ कुरुक्षेत्रमें दीर्घकालतक चलनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे-श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञमें बैठे थे। इतनेमें ही देवताओंकी कुतिया सरमाका पुत्र सारमेय वहाँ आया ॥१॥
स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो रोख्यमाणो मातुः समीपमुपागच्छत् ॥ २॥
जनमेजयके भाइयोंने उस कुत्तेको मारा। तब वह रोता हुआ अपनी माँके पास गया ॥ २॥
तं माता रोख्यमाणमुवाच। किं रोदिषि केनास्यभिहत इति ॥ ३॥
बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्रसे माताने पूछा'बेटा ! क्यों रोता है ? किसने तुझे मारा है ? ॥ ३॥
स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोऽस्मीति ॥ ४॥
माताके इस प्रकार पूछनेपर उसने उत्तर दिया- 'माँ ! मुझे जनमेजयके भाइयोंने मारा है' ॥ ४॥
तं माता प्रत्युवाच व्यक्तं त्वया तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति ॥ ५॥
तब माता उससे बोली-बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकटरूपमें अपराध किया होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है' ॥ ५ ॥
स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिन्नावक्षे हवींषि नावलिह इति ॥ ६॥
तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा- मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनके हविष्यकी ओर देखा है और न उसे चाटा ही है ॥६॥
तच्छ्रुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजयः सह भ्रातृभिर्दीर्घसत्रमुपास्ते ॥ ७॥
यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे ॥ ७ ॥
स तया क्रुद्धया तत्रोकोऽयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींपि नावलेढि किमर्थमभिहत इति ॥ ८॥
वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा-मेरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा ?' ॥ ८॥
न किंचिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतोऽनपकारी तस्मादृष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति ॥ ९॥
किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमाने उनसे कहा, 'मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है। अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात् ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो ॥ ९ ॥
जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्चासीत् ॥ १०॥
देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुई और वे बहुत दुखी हो गये॥ १०॥
स तस्मिन् सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमानः परं यत्नमकरोद् यो मे पापकृत्यां शमयेदिति ॥ ११॥
उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपने योग्य पुरोहितकी खोज करते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त कर दे ॥ ११ ॥
स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित् स्वविषय आश्रममपश्यत् ॥ १२॥
एक दिन परीक्षित्-पुत्र जनमेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हीके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था ॥ १२ ॥
तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम । तस्य तपस्यभिरतः पुत्र आस्ते सोमश्रवा नाम ॥ १३ ॥
उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे । उनके पुत्रका नाम था सोमश्रवा । सोमश्रवा सदा तपस्या में ही लगे रहते थे ॥ १३ ॥
तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः पारीक्षितः पौरोहित्याय वत्रे ॥ १४ ॥
परीक्षित्-कुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाका पुरोहित पदके लिये वरण किया ॥ १४ ॥
स नमस्कृत्य तमृपिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति ॥ १५॥
राजाने पहले महर्षि को नमस्कार करके कहा-'भगवन् ! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों ॥ १५॥
स एवमुक्तः प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पत्रोऽयं मम सर्प्यो जातो महातपस्वी स्वाध्यायसम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भृतो मच्छुकं पीतवत्यास्तस्थाः कुक्षौ जातः॥ १६॥
उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया-महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीने मेरा वीर्य-पान कर लिया था, अतः उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है ॥ १६॥
समर्थोऽयं भवतः सर्वाः पापकृत्याः शमयितुमन्तरेण महादेवकृत्याम् ॥ १७ ॥
यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों) का निवारण करने में समर्थ है। केवल भगवान् शङ्करकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता ॥ १७ ॥
अस्य त्वेकमुपांशुव्रतं यदेनं कश्चिद् ब्राह्मणः कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयं यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति ॥ १८॥
किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी वस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक इसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तो इसे ले जाओ' ॥ १८ ॥
तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ॥ १९ ॥
श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया'भगवन्! सब कुछ उनकी रुचिके अनुसार ही होगा॥ १९ ॥
स तं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातृनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत् कार्यमविचारयद्भिर्भवद्भिरिति । तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्रुः । स तथा भ्रातृन् संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थेतंच देशं वशे स्थापयामास ॥ २०॥
फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले- 'इन्हें मैने अपना उपाध्याय(पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच विचारके पालन करना चाहिये। ' जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकी प्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंको पूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने अधिकार में कर लिया ॥ २० ॥
एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिर्धौम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो वभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति ॥ २१ ॥
(गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसङ्ग कहा जाता है-) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य हुए-उपमन्यु, आरुणि पाञ्चाल तथा वेद ॥ २१॥
स एक शिष्यमारुणि पाञ्चाल्यं प्रेषयामास गच्छकेदारखण्डं वधानेति ॥ २२॥
एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पाञ्चालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और कहा- वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो' ॥ २२ ॥
स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाश्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं व नाशकत् । स क्लिश्यमानोऽपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि ॥ २३ ॥
उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पाञ्चालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा। परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम करतेकरते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा--'अच्छा; ऐसा ही करूँ ॥ २३ ॥
स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ ॥ २४ ॥
वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका बहता हुआ जल रुक गया ॥२४॥
ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्यानपृच्छत् क्व आरुणिः पाञ्चाल्यो गत इति ॥ २५॥
फिर कुछ कालके पश्चात् उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा--'पाञ्चालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया ? ॥ २५॥
ते तं प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति । स एवमुक्तस्ताञ्छिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति ॥ २६ ॥
शिष्योंने उत्तर दिया-भगवन् ! आप हीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि 'जाओ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।' शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा'तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है ॥ २६ ॥
स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार । भो आरुणे पाञ्चाल्य क्वासि वत्सहीति ॥ २७ ॥
वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी - पाञ्चालनिवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स ! यहाँ आओ ॥२७॥
स तच्छ्रुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डात् सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ॥२८॥
उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पाञ्चाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया ॥ २८ ॥
प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थितः ॥ २९ ॥
फिर उनसे विनयपूर्वक बोला-भगवन्! मैं यह हुँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ ॥ २९॥
तदभिवादये भगवन्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थ करवाणीति ॥ ३०॥
'मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये मैं कौन-सा कार्य करूँ?' ॥ ३० ॥
स एवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच यस्माद् भवान् केदारखण्डं विदार्योत्थितस्तस्माद्दालक एवं नाना भवान् भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीतः ॥ ३१ ॥
आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-'तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे। ' ऐसा कहकर उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया ॥ ३१ ॥
यस्माच त्वया मद्वचनमनुष्ठितं तस्माच्छ्योऽवाप्स्यसि । सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ॥ ३२॥
साथ ही यह भी कहा कि, 'तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम कल्याणके भागी होओगे । सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित हो जायँगे' ॥ ३२॥
स एवमुक्त उपाध्यायेनेप्टं देशं जगाम। अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्युर्नाम ॥३३॥
उसे उपाध्यायने आदेश दिया, वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो' ॥ ३४ ॥
स उपाध्यायवचनादरक्षद गाः स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ३४-३५ ॥
उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता ॥३५ ॥
तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति ॥३६॥
उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा- बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो जिससे इतने अधिक दृष्ट-पुष्ट हो रहे हो ॥ ३६ ॥
स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्येण वृत्ति कल्पयामीति ॥ ३७ ॥
उसने उपाध्यायसे कहा- 'गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवननिर्वाह करता हूँ ॥ ३७ ॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्य नोपयोक्तव्यमिति। स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ॥ ३८॥
यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले- मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्न अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये। उपमन्युने बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा ॥ ३८ ॥
स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात्। स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद्गाः गाः। अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ३९ ॥
उपाध्याय उपमन्युसे सारी मिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु 'तथास्तु' कहकर पुनः पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहता और (संध्याके समय) पुनः गुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था ॥ ३९ ॥
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्टोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भक्ष्यं गृह्णामि केनेदानी वृत्तिं कल्पयसीति ॥ ४० ॥
उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत् हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा-बेटा उपमन्यु ! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ,फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करते हो ? ॥ ४० ॥
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति ॥ ४१ ॥
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया'भगवन् ! पहले की लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविका चलाता हूँ' ॥ ४१ ॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति ॥ ४२ ॥
यह सुनकर उपाध्यायने कहा-'यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है । तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षाजीवी लोगों की जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये।) ॥ ४२ ॥
स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् । रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ४३ ॥
उसने 'तथास्तु' कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा । एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया ॥ ४३ ॥
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्व भक्ष्यं गृह्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्ति कल्पयसीति ॥४४॥
उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा 'बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो ?' ॥ ४४ ॥
स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति । तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्त भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति ॥ ४५॥
इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उत्तर दिया-भगवन् ! मैं इन गौओंके दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ।' (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा- मैंने तुम्हें दूध पीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओंके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है' ॥ ४५ ॥
स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पनरुपाध्याय गृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ४६॥
उपमन्युने 'बहुत अच्छा' कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गोपालन करता रहा । एक दिन गोचारणके पश्चात् वह पुनः उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया ॥ ४६ ॥
तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्रोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्रासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानी वृत्तिं कल्पयसीति ॥.४७ ॥
उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछाबेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?' ॥४७॥
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातॄणां स्तनात् पिबन्त उद्विरन्ति ॥४८॥
इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दियाभगवन् ! ये बछड़े अपनी माताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसीको पी लेता हूँ' ॥४८॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच-एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति । तदेषामपि वत्सानां वृत्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः। फेनमपि भवान् न पातुमर्हतीति। स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गाः ॥४९॥
यह सुनकर उपाध्यायने कहा- ये बछड़े उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दया करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकी जीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अतः आजसे फेन भी न पिया करो।' उपमन्युने बहुत अच्छा' कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा ॥४९॥
तथा प्रतिपिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयुङक्ते । स कदाचिदरण्ये क्षुधातोऽर्कपत्राण्यभक्षयत् ॥५०॥
इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता । न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूख रहने लगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चवा लिये ॥५०॥
स तैरर्कपत्रैक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुप्युपहतोऽन्धो बभूव । ततः सोऽन्धोऽपि चङक्रम्यमाणः कूपे पपात ॥५१॥
आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते है); अतः उनको खानेसे उपमन्युकी आँखों की ज्योति नष्ट हो गयी । वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधर-उधर घूमता रहा। अतः कुएँ में गिर पड़ा ॥ ५१ ॥
अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्-नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति ॥५२॥
तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरु के घरपर नहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा---'उपमन्यु क्यों नहीं आया? ' वे बोले- वह तो गाय चराने के लिये वनमें गया था ॥ ५२ ॥
तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याहानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्कासि वत्सैहीति ॥ ५३॥
तब उपाध्यायने कहा-मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये। ऐसा कहकर शिष्यों के साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसे बुलाने के लिये आवाज दी-ओ उपमन्यु ! कहाँ हो बेटा! चले आओ' ॥ ५३ ॥
स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन् कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन् कृपे पतित इति ॥ ५४॥
उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया-गुरुजी! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ। ' तब उपाध्यायने उससे पूछा--वत्स ! तुम कुएँ में कैसे गिर गये ?' ॥ ५४ ॥
स उपाध्यायं प्रत्युवाच--अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति ॥ ५५॥
उसने उपाध्यायको उत्तर दिया--भगवन् ! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँ में गिर गया' ॥ ५५॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच--अश्विनौ स्तुहि । तो देवभिपजौ त्वां चक्षुप्मन्तं कर्तागविति । स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्चिनौ स्तोतुमुपचक्रमे देवाश्चिनौ वाग्भिग्भिः ॥५६॥
तब उपाध्यायने कहा--'वत्स ! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम इन्हींकी स्तुति करो । वे तम्हारी आँखें ठीक कर देंगे|' उपाध्यायके ऐसा कहने पर उपमन्युने अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की ॥ ५६ ॥
प्रपूर्वगौ पूर्वजो चित्रभानू गिरा वाऽऽशंसामि तपसा हानन्तौ । दिव्यौ सुपर्णो विरजौ विमाना वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ॥ ५७ ॥
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों सृष्टि से पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं । मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्यस्वरूप हैं । सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्य तथा अभिमानसे रहित हैं । सम्पूर्ण विश्वमें आरोग्यका विस्तार करते हैं ॥५७ ॥
हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ
नासत्यदस्त्रौ सुनसौ वै जयन्तौ । शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमा वधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः ॥ ५८॥
सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं । पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्त्र-ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आप ही वियम्वान् (सूर्यदेव) के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गोंको प्राप्त कराते हैं ॥ ५८ ॥
ग्रस्तां सुपर्णस्य वलेन वर्तिका ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय । तावत् सुवृत्तावनमन्त मायया वसत्तमा गा अरुणा उदावहन् ॥ ५९॥
परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रक्खा है । आप दोनों अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान् सौभाग्यकी प्राप्ति के लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है। मायाके सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तक रहते हैं, तबतक वे अपने आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं ॥ ५९ ॥
पष्टिश्च गावस्त्रिंशताश्च धेनव एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति । नानागोष्टा विहिता एकदोहना स्तावश्विनौ दुहतो धर्ममुक्थ्यम् ॥ ६० ॥
दिन एवं रात--ये मनोवाञ्छित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं । वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसे विभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं। उन सब क्रियाओंका एक (तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है । पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार ही दुहते हैं ॥ ६० ॥
एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः । अनेमि चक्र परिवर्ततेऽजरं मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी ॥ ६१ ॥
हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं । वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंको थामनेवाले पुट्ठों) में जुई हए है। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र विना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकी प्रजाओंका विनाश करता रहता है ॥ ६१ ॥
एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं पाण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् । यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता स्तावश्विनी मुञ्चतं मा विषीदतम् ॥ ६२॥
अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है । यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसी में सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं। आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ ॥ ६२॥
अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयो तिरोधत्ताममश्विनौ दासपत्नी। हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ तद्वष्टिमह्ना प्रस्थितौ बलस्य ॥ ६३ ॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा, अमृत तथा जलकी उज्ज्वलता को भी तिरस्कृत कर देते हैं । इस समय मेरु पर्वतको छोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं । आनन्द और बलकी वर्षा करने के लिये ही आप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं ॥ ६३ ॥
युवां दिशो जनयथो दशाग्रे समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति । तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६४ ॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वादि दसों दिशाओंको प्रकट करते-उनका ज्ञान कराते हैं । उन दिशाओंके मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष लोकमें रथसे यात्रा करनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँच भूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं । उन-उन दिशाओंमें सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकार के अनुसार) स्वर्ग या मर्त्यलोककी भूमिका उपयोग करते हैं ॥ ६४ ॥
युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां स्तेऽधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा । ते भानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६५ ॥
हे अश्विनीकुमारो ! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं । वे प्रकाशमान ओषधियाँसदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकारके अनुसार स्वर्ग और मर्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करते हैं ॥६५॥
तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य । तौ नासत्यावमृतावृतावृधावृते देवास्तत्प्रपदे न सूते ॥६६॥
अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों नासत्य' नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमलकी माला धारण कर रक्खी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ ही सत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातन सत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं ॥ ६६ ॥
मुखे न गर्भे लभेतां युवानौ गतासुरेतत् प्रपदेन सूते । सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भस्तावश्विनौ मुश्चथो जीवसे गाः ॥ ६७ ॥
युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहिले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं । तत्पश्चात् पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है । तत्पश्चात् जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंका दूध पीने लगता है। हे अश्विनीकुमारो ! पूर्वोक्त रूपसे संसार-बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्त करें ॥ ६७ ॥
स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ चक्षुविहीनः पथि सम्प्रमोहः । दुर्गेऽहमस्मिन् पतितोऽस्मि कूपे युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये ॥ ६८ ॥
अश्विनीकुमारो ! मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता । इस समय नेत्रहीन (अंधा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में भी भूल हो जाती है। इसीलिये इस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ ६८ ॥
इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति ॥ ६९ ॥
इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले-'उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं, यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है। इसे खा लो' ॥६९॥
स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति ॥७०॥
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला--भगवन् ! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता' ॥ ७० ॥
ततस्तमश्विनावूचतुः-आवाभ्यां पुरस्ताद् भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति ॥ ७१ ॥
तब दोनों अश्विनीकुमार बोले- वत्स ! पहले तुम्हारेउपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन किये बिना ही काममें ले लिया था । तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करो' ॥ ७१ ॥
स एवमुक्तः प्रत्युवाच-एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति ॥ ७२॥
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया- इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना मैं इस पूएको नहीं खा सकता' ॥ ७२ ॥
तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति ॥ ७३ ॥
तब अश्विनीकुमार उससे बोले, 'तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्यायके दाँत काले लोहे के समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायेंगे। तुम्हारी आँखें भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे' ॥ ७३ ॥
स एवमक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ॥ ७४॥
अश्विनीकुमारोंके ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके समीप आकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ७४॥
आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव ॥ ७५॥
तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं । उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए ॥ ७५ ॥
आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि ॥ ७६॥
और उससे बोले- जैसा अश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे ॥ ७६ ॥
सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति । एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः ॥ ७७ ॥
'तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायेंगे । इस प्रकार यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी ॥ ७ ॥
अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यता तावन्मम गृहे कंचित् कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति ॥ ७८ ॥
उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद । उन्हेंउपाध्यायने आशा दी, वत्स वेद ! तुम कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो । सदा शुश्रूषामें लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा' ॥ ७८ ॥
स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद् गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः परितोषं जगाम ॥ ७९ ॥
वेद बहुत अच्छा ' कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवा की । गुरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमी तथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे । इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरु जी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए ॥ ७९ ॥
तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप । एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ॥ ८० ॥
गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली ! इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाका वृत्तान्त कहा गया ॥ ८० ॥
स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद् गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत । तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति । दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष ॥ ८१॥
तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तनसंस्कारके पश्चात् स्नातक होकर गुरुगृहसे लौटे । घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया । अपने घरमें निवास करते समय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे, किंतु वे 'काम करो अथवा गुरुसेवामें लगे रहो' इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुके घरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे । इसलिये उनके मनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी ॥ ८१ ॥
अथ कस्मिंश्चित् काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियाबुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः ॥८२॥
स कदाचिद् याज्यकार्यणाभिप्रस्थित उत्तङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास ॥८३॥
भो यत् किचिदस्मद्गृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तई वेदः प्रवासं जगाम ॥ ८४॥
एक समयकी बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पासआकर 'जनमेजय और पौष्य' नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तङ्क नामवाले शिष्यको अग्रिहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा-वत्स उत्तङ्क ! मेरे घरमें मेरे बिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है ।' उत्तङ्कको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये ॥ ८२-८४ ॥
अथोत्तङ्कः शुश्रुषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म । स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः ॥ ८५॥
उत्तङ्क गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियोंने मिलकर बुलाया और कहा ॥ ८५॥
उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्चोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति ॥ ८६ ॥
तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो। इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं ॥ ८६ ॥
एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्य करणीयम् । न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति ॥ ८७ ॥
यह सुनकर उत्तङ्कने उत्तर दिया--मैं स्त्रियोंके कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्ध कर्म नहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आशा नहीं दी है कि 'तुम न करनेयोग्य कार्य भी कर डालना' ॥ ८७ ॥
तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात् प्रवासात् । स तु तद् वृत्तं तस्याशेषमुषलभ्य प्रीतिमानभूत् ॥ ८८॥
इसके बाद कुछ काल बीतनेपर उपाध्याय वेद परदेशसे अपने घर लौट आये । आनेपर उन्हें उत्तङ्कका सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए ॥ ८८ ॥
उवाच चैनं वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति । धर्मतो हि शुश्रषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धातदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति ॥ ८९॥
और बोले- बेटा उत्तङ्क ! तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ ! तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनोंकी एक-दूमरेके प्रति प्रीति बहुत बढ़ गयी है । अब मैं तुम्हें घर लौटनेकी आज्ञा देता हूँ--जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी' ॥ ८९ ॥
स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहुः ॥ ९० ॥
गुरुके ऐसा कहनेपर उत्तङ्क बोले- भगवन् ! मैं आपका कौन-सा प्रिया कार्य करूँ १ वृद्ध पुरुष कहते भी हैं ॥ ९० ॥
यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद् यश्चाधर्मेण पृच्छति । तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ९१ ॥
जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता है, उन दोनोंमेसे एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेषको प्राप्त होता है ॥ ९१ ॥
सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क उध्यतां तावदिति ॥ ९२ ॥
अतः आपकी आज्ञा मिलनेपर मैं अभीष्ट गुरु-दक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ। ' उत्तङ्कके ऐसा कहने पर उपाध्याय बोले--- बेटा उत्तङ्क ! तब कुछ दिन और यहीं ठहरो' ॥९२ ॥
स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तक्ङ आज्ञापयतु भवान् किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ॥ ९३ ॥
तदनन्तर किसी दिन उत्तङ्कने फिर उपाध्यायसे कहा'भगवन्! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन-सी प्रिय वस्तु गुरु-दक्षिणाके रूपमें भेंट करूँ ? ॥ ९३ ॥
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद् गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानी पृच्छ किमुपाहरामीति ॥ ९४ ॥ एषा यद् ब्रवीति तदुपाहरस्वेति।
यह सुनकर उपाध्यायने उनसे कहा--"वत्स उत्तङ्क! तुम बार-बार मुझसे कहते हो, कि 'मैं क्या गुरुदक्षिणा भेट करूँ ! अतः जाओ, घरके भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नीसे पूछ लो कि मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ ॥ ९४॥ वे जो बतायें वही वस्तु उन्हें भेंट करो।'
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद् भगवन्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुमिच्छामी; ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति ॥९५॥ तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उत्तङ्कने गुरुपत्नीसे पूछादेवि ! उपाध्यायने मुझे घर जानेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करके गुरुके ऋणसे उऋण होकर जाना चाहता हूँ ॥ ९५ ॥ अतः आप आज्ञा दें, मैं गुरुदक्षिणाके रूपमें कौन-सी वस्तु ला दूं।'
सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तकं प्रत्युवाच गच्छपौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे ॥ ९६ ॥
उत्तङ्कके ऐसा कहनेपर गुरुपत्नी उनसे बोली- वत्स ! तुम राजा पौष्यके यहाँ उनकी क्षत्राणी पत्नीने जो दोनों कुण्डल पहन रक्खे हैं, उन्हें माँग लाने के लिये जाओ ॥९६ ॥
ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान् परिवेष्टुमिच्छामि । तत् सम्पादयख एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति ॥ ९७ ॥
और उन कुण्डों को शीघ्र ले आओ। आज के चौथे दिन पुण्यक व्रत होनेवाला है, मैं उस दिन कानोंमें उन कुण्डलोंको पहनकर सुशोभित हो ब्राह्मणों को भोजन परोसना चाहती हूँ; अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा । अन्यथा कल्याण की प्राप्ति कैसे सम्भव है ||
स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तङ्कमभ्यभाषत ॥ ९८ ॥
गुरुपत्नी के ऐसा कहनेपर उत्तङ्क वहाँसे चल दिये । मार्गमें जाते समय उन्होंने एक बहुत बड़े बैलको और उसपर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषको भी देखा । उस पुरुषने उत्तङ्कसे कहा-॥ ९८॥
भो उत्तङ्कैतत् पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत् ॥ ९९ ॥
'उत्तङ्क ! तुम इस बैलका गोबर खा लो। किंतु उसके ऐसा कहनेपर भी उत्तङ्कको वह गोबर खानेकी इच्छा नहीं हुई।
तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्कमा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति ॥ १०० ॥
तब वह पुरुष फिर उनसे बोला- 'उत्तङ्क ! खा लो, विचार न करो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया था ॥ १०० ॥
स एवमुक्तो वाढमित्युक्त्वा तदा तद् वृषभस्य मत्र पुरीषं च भक्षयित्वोत्तङ्कः सम्भ्रमादुस्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे ॥ १०१ ॥
उसके पुनः ऐसा कहनेपर उत्तङ्कने बहुत अच्छा' कहकर उसकी बात मान ली और उस बैलके गोबर तथा मूत्रको खा-पीकर उतावली के कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया । फिर वे चल दिये ॥ १०१ ॥
यत्र सक्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तङ्कः। स उत्तङ्कस्तमुपेत्याशीभिरभिनन्द्योवाच ॥ १०२॥
जहाँ वे क्षत्रिय राजापौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तङ्कने देखा-- वे आसनपर बैठे हुए है, तब उत्तङ्कने उनके समीप जाकर आशीर्वादसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १०२॥
अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन् पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति ॥ १०३ ॥
'राजन् ! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।' राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा- भगवन् ! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ। कहिये, किस आज्ञाका पालन करूँ? ॥१०३||
तमुवाच गुर्वर्थ कुण्डल योरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति। ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान् दातुमहतीति ॥ १०४॥
उत्तङ्कने पौष्यसे कहा-राजन् ! मैं गुरुदक्षिणाके निमित्त दो कुण्डलोंके लिये आपके यहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणीने जिन्हें पहन रक्खा है। उन्हीं दोनों कुण्डलों को आप मुझे दे दें। यह आपके योग्य कार्य है ॥ १०४
॥
तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति । स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत् ॥ १०५॥
यह सुनकर पौष्यने उत्तङ्कसे कहा--'ब्रह्मन् ! आप अन्तःपुरमें जाकर क्षत्राणीसे वे कुण्डल माँग लें ।' राजाके ऐसा कहनेपर उत्तङ्कने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किंतु वहाँ उन्हें क्षत्राणी नहीं दिखायी दी ॥ १०५ ॥
स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि ॥ १०६॥
तब वे पुनः राजा पौष्य के पास आकर बोले-राजन् ! आप मुझे संतुष्ट करने के लिये झूठो बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुरमें क्षत्राणी नहीं है, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं ॥ १०६॥
स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्क प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुंपतिव्रतात्वात् सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति ॥ १०७ ॥
उत्तङ्कके ऐसा कहनेपर पौष्यने एक क्षणतक विचार करके उन्हें उत्तर दिया- निश्चय ही आप झुंटे मुँह है, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरी क्षत्राणी पतिव्रता होने के कारण उच्छिष्ट-अपवित्र मनुष्य के द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं । आप उच्छिष्ट होने के कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टि में नहीं आ रही हैं ॥ १०७ ॥
अथैवमुक्त उत्तङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टंगच्छता चेति । तं पौष्यः प्रत्युवाच-- एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति ॥ १०८॥
उनके ऐसा कहनेपर उत्तङ्कने स्मरण करके कहा-हाँ.अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है । यहाँकी यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है। ' तब पौष्यने उनसे कहा--ब्रह्मन् ! यही आपके द्वारा विधिका उल्लखन हुआ है । खड़े होकर और शीघ्रतापूर्वक चलते चलते किया हुआ आचमन नहीं के बराबर है' ॥ १०८ ॥
अथोत्तङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिहद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश ॥ १०९ ॥
तत्पश्चात् उत्तङ्क राजासे ठीक है' ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँह भलीभाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसनपर बैठे और हृदयतक पहुँचने योग्य शब्द तथा फेनसे रहित शीतल जलके द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठेके मूल भागसे मुख पोछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकों का जलसहित अङ्गुलि योद्वारा स्पर्श करके अन्तःपुर में प्रवेश किया ।। १०९ ॥ .
ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्, सा च दृष्ट्वैवोत्तकं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं , ते भगवन्नाज्ञापय कि करवाणीति ॥ ११० ॥
तब उन्हें क्षत्राणीका दर्शन हुआ । महारानी उत्तङ्कको देखते ही उठकर खड़ी हो गयी और प्रणाम करके बोली भगवन् ! आपका स्वागत है आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवाकरूँ? ॥ ११० ॥
स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थे मे भिक्षिते दातुमर्हसीति । सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह तक्षको नागराजःसुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति ॥ १११ ॥ ' '
उत्तङ्कने महारानीसे कहा-देवि ! मैंने गुरुके लिये आपके दोनों कुण्डलीकी याचना की है। वे ही मुझे दे दें।' महारानी उत्तङ्कके उस सद्भाव (गुरुभक्ति)से बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने यह सोचकर कि ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये ।' अपने दोनों कुण्डल स्वयं उतारकर उन्हें दे दिये और उनसे कहा-ब्रह्मन् ! नागराज तक्षक इन कुण्डलोंको पानेके लिये बहुत प्रयत्नशील हैं । अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना चाहिये ॥ १११॥
स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृता भव । न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति ॥ ११२॥
रानीके ऐसा कहनेपर उत्तङ्कने उन क्षत्राणीसे कहा'देवि ! आप निश्चिन्त रहे । नागराज तक्षक मुझसे भिड़नेका साहस नहीं कर सकता' ॥ ११२ ॥
स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत् । आह चैनं भोः पौष्य प्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्कं पौष्यःप्रत्युवाच ॥ ११३॥
महारानीसे ऐसा कहकर -- उनसे आज्ञा ले उत्तङ्क राजा पौष्यके निकट आये और बोले- महाराज पौष्य ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ)।' यह सुनकर पौष्यने उत्तङ्कसे कहा-॥ ११३ ॥
भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति ॥११४॥
भगवन् ! बहुत दिनोंपर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान् अतिथि पधारे हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये ॥ ११४ ॥
तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास ॥ ११५॥
तब उत्तङ्कने राजासे कहा--मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किंतु शीघ्रता चाहता हूँ। आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगाइये। ' राजाने 'बहुत अच्छा' कहकर जो भोजन-सामग्री प्रस्तुत थी. उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया ॥ ११५॥
अथोत्तङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति ॥ ११६॥
परंतु जब भोजन सामने आया, तब उत्तङ्कने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा हो चुका है। फिर तो यह अपवित्र अन्न है 'ऐसा निश्चय करके वे राजापौष्यसे बोले- आप मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं। अतः अन्धे हो जायेंगे ॥११६॥
तं पौष्यःप्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच ॥ ११७॥
तब पौष्यने भी उन्हें शापके बदले शाप देते हुए कहा - आप शुद्ध अन्नको भी दूषित बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायेंगे। ' तब उत्तङ्क राजा पौष्यसे बोले-॥११७॥
न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु । ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास ॥ ११८॥
महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदलेमें शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है । अतः पहले अन्नको ही प्रत्यक्ष देख लीजिये । तब पौष्यने उस अन्नको अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रताके कारणका पता लगाया ॥११८॥
अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रि यत् कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृपिमुत्तई प्रसादयामास ॥ ११९ ॥
वह भोजन खुले केशवाली स्त्रीने तैयार किया था । अतः उसमें केश पड़ गया था। देरका बना होनेसे वह ठण्डा भी हो गया था । इसलिये वह अपवित्र है। इस निश्चयपर पहुँचकर राजाने उत्तङ्क ऋषिको प्रसन्न करते हुए कहा ॥ ११९ ॥
भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत् क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुत्तङ्क: प्रत्युवाच ॥ १२०॥
भगवन् ! यह केशयुक्त और शीतल अन्न अनजानमें आपके पास लाया गया है । अतः इस अपराधके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्धा न होऊँ । ' तब उत्तङ्कने राजासे कहा- ॥ १२० ॥
न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो नचिरादनन्धो भविष्यसीति । ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति ॥ १२१ ॥
राजन् ! मैं झूठ नहीं बोलता आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनोंमें इस दोषसे रहित हो जायेंगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझपर लागू न हो' ॥ १२१ ॥
तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद् भवता न ज्ञायते यथा--॥ १२२ ॥
नवनीतं हृदयं . ब्राह्मणस्य वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः। तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम् । इति ॥१२३॥
यह सुनकर पौष्यने उत्तङ्कसे कहा--'मैं शापको लौटानेमें असमर्थ हूँ, मेरा क्रोध अभीतक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मणका हृदय मक्खनके समान मुलायम और जल्दी पिघलनेवाला होता है? केवल उसकी वाणीमें ही तीखी धारवाले छुरेका-सा प्रभाव होता है किंतु ये दोनों ही बातें क्षत्रियके लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीतके समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धारवाले छुरेके समान तीखा होता है ॥ १२२-१२३ ॥
तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात् तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति । तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक् च तेऽभिहितम् ॥ १२४ ॥
यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति । दुष्टे चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति ॥ १२५॥
'अतः ऐसी दशामें कठोरहृदय होने के कारण मैं उस शापको बदलने में असमर्थ हूँ। इसलिये आप जाइये।' तब उत्तङ्क बोले-राजन् ! आपने अन्न की अपवित्रता देखकर मुझसे क्षमाके लिये अनुनय-विनय की है, किंतु पहले आपने कहा था कि तुम शुद्ध अन्नको दूषित बता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे ।' इसके बाद अन्नका दोषयुक्त होना प्रमाणित हो गया, अत: आपका यह शाप मुझपर लागू नहीं होगा' ॥ १२४.१२५ ॥
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दश्यमानमदृश्यमानं च ॥ १२६ ॥
अब हम अपना कार्य साधन कर रहे हैं। ऐसा कहकर उत्तङ्क दोनों कुण्डलों को लेकर वहाँसे चल दिये। मार्गमें उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणकको देखा जो बार-बार दिखायी देता और छिप जाता था ॥ १२६ ॥
अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थे प्रचक्रमे । एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत् ॥ १२७॥
कुछ दूर जानेके बाद उत्तङ्कने उन कुण्डलोंको एक जलाशयके किनारे भूमिपर रख दिया और स्वयं जलसम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्या-तर्पण आदि) करने लगे । इतने में ही वह क्षपणक बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलों को लेकर चंपत हो गया ॥ १२७॥
तमुत्तङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात् ॥ १२८ ॥
उत्तङ्कने स्नान तर्पण आदि जलसम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर देवताओं तथा गुरुओंको नमस्कार किया और जलसे बाहर निकलकर बड़े वेगसे उस क्षपणकका पीछा किया ॥ १२८ ॥
तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः सदूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश ॥ १२९ ॥
वास्तवमें वह नागराज तक्षक ही था । दौड़नेसे उत्तङ्कके अत्यन्त समीपवती हो गया । उत्तङ्कने उसे पकड़ लिया । पकड़में आते ही उसने क्षपणकका रूप त्याग दिया और तक्षक नागका रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वीके एक बहुत बड़े विवर में घुस गया ॥ १२९ ॥
प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत् । अथोत्तस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत् ॥ १३० ॥
बिलमें प्रवेश करके वह नागलोकमें अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणीकी बातका स्मरण करके उत्तङ्कने नाग लोकतक उस तक्षकका पीछा किया ॥ १३० ॥
स तद् बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत् । तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत् स वज्रं प्रेषयामास ॥१३१॥
पहले तो उन्होंने उस विवरको अपने डंडे की लकड़ीसे खोदना आरम्भ किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता न मिली । उस समय इन्द्रने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायताके लिये अपना वज्र भेज दिया ।। १३१ ॥
गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति । अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद् बिलमदारयत् ॥१३२॥
उन्होंने वज्र
से कहा--'जाओ, इस ब्राह्मणकी सहायता करो। ' तब वज्रने डंडेकी लकड़ीमें प्रवेश करके उस बिलको विदीर्ण कर दिया (इससे पाताल लोकमें जानेके लिये मार्ग बन गया।) ॥ १३२ ॥
तमुत्तङ्कोऽनुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेक
विधप्रासादहऱ्यावलभीनिर्यहशत संकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्यस्थानावकीर्णमपश्यत् ॥ १३३ ॥
स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैःय ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः। क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः ॥१३४॥
तब उत्तङ्क उस बिलमें घुस गये और उसी मार्गसे भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोकका दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकारके मन्दिरों, महलों, झुके हुए छजोबाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपो तथा सैकड़ों दरवाजोंसे सुशोभित और छोटे बड़े अद्भुत क्रीडास्थानोंसे व्याप्त था। यहाँ उन्होंने इन श्लोकों द्वारा उन नार्गोका स्तवन किया--ऐरावत जिनके राजा है, जो समराङ्गणमें विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायुसे प्रेरित हो जलकी वर्षा करनेवाले बादलोंकी भाँति बाणोंकी धारावाहिक वृष्टि करते हैं, उन सर्पोकी जय हो ॥१३३-१३४॥
सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्मापकुण्डलाः। आदित्यवनाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्भवाः ॥१३५॥
ऐरावतकुल में उत्पन्न नागगणेंमेसे कितने ही सुन्दर रूपवाले हैं। उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाशमें सूर्यदेवकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते हैं ॥ १३५ ॥
बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे । तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम् ॥१३६॥
गङ्गाजीके उत्तर तटपर बहुत से नागों के घर हैं, वहाँ रहनेवाले बड़े-बड़े सर्पोंकी भी मैं स्तुति करता हूँ ॥ १३६ ॥
इच्छत् कोऽर्काशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना । शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ॥१३७॥
सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदैजति । ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः ॥१३८॥
अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः । यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत् पुरा ॥१३९॥
तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम् । तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ ॥१४०॥
कुरुक्षेत्रं च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु। जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः ॥१४१॥
अवसद् यो महद्युम्नि प्रार्थयन् नागमुण्यताम् । करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने ॥१४२॥
ऐरावत नागके सिवा दूमरा कौन है, जो सूर्यदेवकी प्रचण्ड किरणों के सैन्यमें विचरनेकी इच्छा कर सकता है ! ऐरावतके भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेवके साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अठ्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्यके घोड़ोंकी बागडोर बनकर जाते हैं। जो इनके साथ जाते हैं और जो दूरके मार्गपर जा पहुँचे हैं, ऐरावतके उन सभी छोटे बन्धुओंको मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डक्वनमें रहा है, उन नागराज तक्षककी मैं कुण्डलोंके लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन ये दोनों नाग सदा साथ विचरनेवाले हैं। ये दानों कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर रहा करते थे । जो तक्षकके छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नामसे जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोकमें नागराजकी पदवी पानेके लिये सूर्यदेवकी उपासना करते हुए कुरुक्षेत्रमें रहे हैं, उन महात्माको मैं सदा नमस्कार करता हूँ ॥ १३७-१४२ ॥
एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तङ्को भुजगोत्तमान् । नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत् ॥१४३॥
इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागोकी स्तुति करनेपर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तङ्क उन कुण्डलोंको न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ॥ १४३ ॥
एवं स्तुवन्नपि नागान् यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत् स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यौ । तस्मिस्तन्त्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवश्र्वकं चापश्यद् द्वादशारं षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम् ॥ १४४ ॥
स तान् सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवदेव श्लोकैः ॥ १४५॥
इस प्रकार नागों की स्तुति करते रहनेपर भी जब वे उन दोनों कुण्डलों को प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दी, जो सुन्दर करघेपर रखकर सूतके तानेमें वस्त्र बुन रही थीं. उस तानेमें उत्तङ्क मुनिने काले और सफेद दो प्रकारके सूत और बारह अरौंका एक चक्र भी देखा, जिसे छःकुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तङ्कने इन मन्त्रतुल्य श्लोकोंद्वारा उनकी स्तुति की- ॥ १४४-१४५ ॥
त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये पष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन् । चक्रे चतुर्विशतिपर्वयोगे षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति ॥१४६॥
यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्रको छ: कुमार घुमा रहे हैं ॥ १४६ ॥
तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ वयतस्तन्तून् सततं वर्तयन्तौ । कृष्णान् सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ भूतान्यजस्त्रं भुवनानि चैव ॥१४७॥
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओंको इधर-उधर चलाती हुई इस वासना-जलरूपी वस्त्रको बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनोंका निरन्तर संचालन करती हैं ॥ १४७ ॥
वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता वृत्रस्य हन्ता नमुचेनिहन्ता । कृष्णे बसानो वसने महात्मा सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ॥१४८॥
यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति । नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय लोकत्रयेशाय पुरन्दराय ॥१४९॥
जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वध तथा नमुचि दानवका संहार किया है, जो काले रंगके दो वस्त्र पहनते और लोकमें सत्य एवं असत्यका विवेक करते हैं, जलसे प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्वको वाहन बनाकर उसपर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकोंके शासक हैं, उन जगदीश्वर पुरन्दरको मेरा नमस्कार है ॥ १४८-१४९॥
ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच ॥ १५० ॥
तब वह पुरुष उत्तङ्कसे बोला-'ब्रह्मन् ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ ?' यह सुनकर उत्तङ्कने कहा-॥ १५० ॥
नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाचएतमश्वमपाने धमस्वेति ॥ १५१ ॥
सब नाग मेरे अधीन हो जायँ' उनके ऐसा कहनेपर वह पुरुष पुनः उत्तङ्कसे बोला--'इस घोड़ेकी गुदामें फूंक मारो' ॥ १५१ ॥
ततोऽश्वस्यापानमधमत् ततोऽश्वाद्धम्यमानात् सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिषः सधूमा निष्पेतुः॥१५२॥
यह सुनकर उत्तङ्कने घोड़े की गुदामें फूंक मारी। फूंकने से घोड़ेके शरीरके समस्त छिद्रौसे धूएँसहित आगकी लपटें निकलने लगीं ।। १५२ ।।
ताभिर्नागलोक उपधृपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षको ऽग्नस्तेजोभयाद् विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्कम्योत्तङ्कमुवाच ॥ १५३ ॥
उस समय सारा नागलोक धूएँसे भर गया । फिर तो तक्षक घबरा गया और आगकी ज्वालाके भयसे दुखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घरसे निकल आया और उत्तङ्कसे बोला- ॥ १५३ ॥
इमे कुण्डले गृहातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत् ॥ १५४ ॥
बिह्मन् ! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये ।" उत्तङ्कने उन कुण्डलोंको ले लिया । कुण्डल लेकर वे सोचने लगे- ॥ १५४ ॥
अद्य तत् पुण्यकमुपाध्यायान्या दरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच ॥ १५५ ॥
'अहो ! आज ही गुरुपत्नीका वह पुण्यकव्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशामें किस प्रकार इन कुण्डलोद्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा ?' तब इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए उत्तङ्कसे उस पुरुषने कहा-॥ १५५ ॥
उत्तङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति ॥ १५६॥
'उत्तङ्क ! इसी घोड़े पर चढ़ जाओ। यह तुम्हें क्षणभर में उपाध्यायके घर पहुँचा देगा' ।। १५६ ।।
स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तको नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे ॥ १५७ ॥
बहुत अच्छा ' कहकर उत्तङ्क उस घोड़ेपर चढ़े और तुरंत उपाध्यायके घर आ पहुँचे । इधर गुरुपत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। 'उत्तङ्क अबतक नहीं आया' यह सोचकर उन्होंने शिष्यको शाप देने का विचार कर लिया ॥ १५७ ॥
अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीमभ्यवादयत् ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत् सा चैनं प्रत्युवाच ॥ १५८ ॥
इसी बीच में उत्तङ्कने उपाध्यायके घर में प्रवेश करके गुरुपत्नीको प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये । तब गुरुपत्नीने उत्तङ्कसे कहा-- ॥ १५८ ॥
उत्तङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति ॥ १५९ ॥
'उत्तङ्क तू ठीक समयपर उचित स्थानमें आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो बिना अपराधके ही तुझे शाप नहीं दिया । तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो ॥ १५९ ॥
अथोत्तङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत् । तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क खागतं ते किं चिरं कृतमिति ॥ १६०॥
तदनन्तर उत्तङ्कने उपाध्यायके चरणों में प्रणाम किया । उपाध्यायने उससे कहा-वत्स उत्तङ्क तुम्हारा स्वागत है। लौटनेमें देर क्यों लगायी?
॥ १६० ॥
तमुत्तङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन् कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः॥ १६१ ॥
तब उत्तङ्कने उपाध्यायको उत्तर दिया--भगवन् । नागराज तक्षकने इस कार्यमें विघ्न डाल दिया था । इसलिये मैं नागलोकमें चला गया था ॥ १६१ ॥
तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यी तसिश्च कृष्णाः सिताश्च तन्तवः किं तत् ॥१६२॥
वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखी, जो करघेपर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं । उस करघेमें काले और सफेद रङ्गके सूत लगे थे । वह सब क्या था ? ॥ १६२ ॥
तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट्चैनं कुमायः परिवर्तयन्ति तदपि किम् । पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः । अश्वश्वातिप्रमाणो दृष्टः स चापिकः ॥ १६३॥
वहीं मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छ: कुमार उस चक्रको घुमा रहे थे । वह भी क्या था ? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखनेमें आया था । वह कौन था ? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था ? ॥ १६३ ॥
पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उत्तङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषंभक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति ॥ १६४ ॥
इधरसे जाते समय मार्गमें मैंने एक बैल देखा, उसपर एक पुरुष सवार था। उस पुरुषने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा 'उत्तङ्क ! इस बैलका गोबर खा लो । तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया है ॥ १६४ ॥
ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तस चापि कः । तदेतद् भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच ॥ १६५ ॥
तब उस पुरुषके कहनेसे मैंने उस बैलका गोबर खा लिया । अतः वह बैल और पुरुष कौन थे ? मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था ?' उत्तङ्कके इस प्रकार पूछनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-- ॥ १६५ ॥
ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते राज्यहनी। तदपि तचक्रं द्वादशारं षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षड़् ऋतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम् ॥ १६६ ॥
ये जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं । जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरोसे युक्त चक्रको जो छः कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं । बारह महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर ही वह चक्र है ॥ १६६ ॥
यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छतादृष्टः स ऐरावतो नागराट्॥१६७॥
'जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) है । जो अश्व था, वह अग्नि है। इधरसे जाते समय मार्गमें तुमने जिस बैलको देखा था, वह नागराज ऐरावत है ॥ १६७ ॥
यश्चैनमधिरूढः पुरुषः स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन् नागभवने न व्यापन्नस्त्वम् ॥ १६८॥
और जो उसपर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र है। तुमने बैल के जिस गोबरको खाया है, वह अमृत था । इसी लिये तुम नागलोकमें नाकर मी मरे नहीं ॥ १६८ ॥
स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादिममनुग्रहं कृतवान् । तस्मात् कुण्डले गृहीत्वा पुनरागतोऽसि ॥ १६९ ॥
वे भगवान् इन्द्र मेरे सखा हैं । तुमपर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो ॥ १६९॥ ।
तत् सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति । स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुत्तङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे ॥१७०॥
अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जानेकी आज्ञा देता हूँ । तुम कल्याणके भागी होओगे ।' उपाध्यायकी आज्ञा पाकर उत्तङ्क तक्षकके प्रति कुपित हो उससे बदला लेनेकी इच्छासे हस्तिनापुरकी ओर चल दिये ॥ १७० ॥
स हास्तिनपुरं प्राप्य नचिराद् विप्रसत्तमः। समागच्छत राजानमुत्तको जनमेजयम् ॥१७१॥
हस्तिनापुरमें शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तङ्क राजा जनमेजयसे मिले ॥ १७१॥
पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम् ।
सम्यग्विजयिनं दृष्टा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम् ॥१७२॥
तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य स |
उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा ॥१७३॥
जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे । उत्तङ्कने मन्त्रियोंसे घिरे हुए उत्तम विजयसे सम्पन्न राजा जनमेजयको देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वक जयसम्बन्धी आशीर्वाद दिया । तत्पश्चात् उचित समयपर उपयुक्त शब्दोंसे विभूषित वाणीद्वारा उनसे इस प्रकार कहा-॥ १७२-१७३ ॥
उत्तङ्क उवाच 🗣️
अन्यस्मिन् करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम ।
बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ॥१७४॥
उत्तङ्क बोले- 🗣️
नृपश्रेष्ठ ! जहाँ तुम्हारे लिये करने योग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ अज्ञानवश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो ॥ १७४ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः ।
अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम् ॥१७५॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️
विप्रवर उतङ्कके ऐसा कहनेपर राजा जनमेजय उन द्विजश्रेष्ठका विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा ॥ १७५ ॥
जनमेजय उवाच 🗣️
आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्म परिपालयामि ।
प्रब्रूहि मे कि करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम् ॥१७६॥
जनमेजय बोले- 🗣️
ब्रह्मन् ! मैं इन प्रजाओंकी रक्षाद्वारा अपने क्षत्रियधर्मका पालन करता हूँ । बताइये, आज मेरे करनेयोग्य कौन-सा कार्य उपस्थित है ? जिसके कारण आप यहाँ पधारे हैं ।। १७६ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः।
उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्ये नृपते कुरुष्व ॥१७७॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️
राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयके इस प्रकार कहनेपर पुण्यात्माओंमें अग्रगण्य विप्रवर उत्तङ्कने उन उदार हृदयवाले नरेशसे कहा-महाराज | वह कार्य मेरा नहीं आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये ॥ १७७॥
उत्तङ्क उवाच 🗣️
तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता ।
तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने ॥१७८॥
इतना कहकर उत्तङ्क फिर बोले- 🗣️
भूपालशिरोमणे । नागराज तक्षकने आपके पिताकी हत्या की है। अतः आप उस दुरात्मा सर्पसे उसका बदला लीजिये ॥ १७८ ॥
कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
तद्गच्छापचिति राजन् पितुस्तस्य महात्मनः ॥१७९॥
मैं समझता हूँ, शत्रुनाशन-कार्यकी सिद्धि के लिये जो सर्पयज्ञरूप कर्म शास्त्रमें देखा गया है, उसके अनुष्ठानका यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन् अपने महात्मा पिताकी मृत्युका बदला आप अवश्य लें ॥१७९॥
तेन ह्यनपराधी स दुष्टो दुष्टान्तरात्मना ।
पश्चत्वमगमद् राजा वज्राहत इव द्रुमः ॥१८०॥
यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षितने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस दुष्टात्मा सर्पने उन्हें डॅंस लिया और वे वज्रके मारे हुए वृक्षकी भाँति तुरंत ही गिरकर काल के गालमें चले गये ॥ १८० ॥
बलदर्पसमुत्सितस्तक्षकः पन्नगाधमः।
अकार्य कृतघान् पापो योऽदशत् पितरं तव ॥१८१॥
सर्पोंमें अधम तक्षक अपने बलके घमण्डसे उन्मत्त रहता है। उस पापीने यह बड़ा भारी अनुचित कर्म किया जो आपके पिताको डॅंस लिया ॥ १८१ ॥
राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिम नृपम् ।
यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत् पापकृत् ॥१८२॥
वे महाराज परीक्षित् राजर्षिोंके वंशकी रक्षा करनेवाले और देवताओंके समान तेजस्वी थे, काश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिताकी रक्षा करनेके लिये उनके पास आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारीने उन्हें लौटा दिया ॥१८२ ॥
होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद् विधीयताम् ॥१८३॥
अतः महाराज ! आप सर्पयज्ञका अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्निमें उस पापीको होम दीजिये और जल्दी-सेजल्दी यह कार्य कर डालिये ॥ १८३ ॥
एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
मम प्रियं च सुमहत् कृतं राजन् भविष्यसि ॥१८४॥
कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना ।
विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थे चरतोऽनघ ॥१८५॥
ऐसा करके आप अपने पिताकी मृत्युका बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा। समूची पृथ्वीका पालन करनेवाले नरेश ! तक्षक बड़ा दुरात्मा है । पापरहित महाराज! मैं गुरुजीके लिये एक कार्य करने जा रहा था। जिसमें उस दुष्टने बहुत बड़ा विघ्न डाल दिया था ॥१८४-१८५॥
सौतिरुवाच 🗣️
एतच्छुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह ।
उत्तङ्कवाफ्यहविषा दीप्तोऽग्निहविषा यथा ॥१८६॥
उग्रश्रवाजी कहते है- 🗣️
महर्षियो ! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षकपर कुपित हो उठे। उत्तङ्कके वाक्यने उनकी क्रोधाग्निमें घीका काम किया। जैसे घीकीआहुति पड़नेसे अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोधसे अत्यन्त कुपित हो गये ॥ १८६ ॥
अपृच्छत् स तदाराजा मन्त्रिणस्तान सुदुःखितः।
उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगति प्रति ॥१८७॥
उस समय राजा जनमेजयने अत्यन्त दुखी होकर उत्तङ्कके निकट ही मन्त्रियोंसे पिताके स्वर्गगमनका समाचार पूछा ॥१८७॥
तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्।
यदैव वृत्तं पितरमुत्तङ्कादशृणोत् तदा ॥१८८॥
उत्तङ्कके मुखसे जिस समय उन्होंने पिताके मरनेकी बात सुनी उसी समय वे महाराज दुःख और शोकमें डूब गये ॥१८८॥
इति
श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि तृतीयोऽयायः ॥ ३ ॥
इस
प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत
पौष्यपर्वमें (पौष्याख्यानविषयक) तीसरा अध्याय
पूरा हुआ ॥ ३ ॥
॥पौष्यपर्व सम्पूर्ण॥
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