१.२८ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे अष्टाविंशोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

 (गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना)

सौतिरुवाच 🗣️

इत्युक्तो गरुडः सर्पैस्ततो मातरमब्रवीत् ।

गच्छाम्यमृतमाहर्तुं भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम् ॥ १ ॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️

सर्पोकी यह बात सुनकर गरुड अपनी मातासे बोले--मा ! मैं अमृत लानेके लिये जा रहा हूँ, किंतु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना चाहता हूँ ॥ १ ॥

विनतोवाच 🗣️

समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम् ।

निषादानां सहस्राणि तान् भुक्त्वामृतमानय ॥ २ ॥

विनताने कहा- 🗣️

समुद्र के बीचमें एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेशमें निषादों (जीवहिंसकों) का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्हींको मारकर खा लो और अमृत ले आओ ॥ २ ॥

न च ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन ।

अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः ॥ ३ ॥

किंतु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मणको मारनेका विचार नहीं करना चाहिये। क्योंकि ब्राहाण समस्त प्राणियों के लिये अवध्य है । वह अग्निके समान दाहक होता है ॥ ३ ॥

अग्निरर्को विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोषितः ।

गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः ॥ ४॥

कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्रके समान भयंकर होता है। ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंका गुरु कहा गया है ॥ ४ ॥

एवमादिस्वरूपैस्तु सतां वै ब्राह्मणो मतः ।

स ते तात न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वथा ॥ ५ ॥

इन्हीं रूपोंमें सत्पुरुषोंके लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है । तात ! तुम्हें क्रोध आ जाय तो भी ब्राह्मणकी हत्यासे सर्वथा दूर रहना चाहिये ॥ ५ ॥

ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्यः कथंचन ।

न ह्येवमग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात् तथानघ ॥ ६ ॥

यथा कुर्यादभिकृद्धो ब्राह्मणः संशितव्रतः।

तदेतैर्विविधैर्लिङ्गैस्त्वं विद्यास्तं द्विजोत्तमम् ॥ ७ ॥

भूतानामग्रभूर्विप्रो वर्णश्रेष्ठः पिता गुरुः ।

ब्राह्मणों के साथ किसी प्रकार द्रोह नहीं करना चाहिये । अनघ ! कठोर व्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण क्रोधमें आनेपर अपराधीको जिस प्रकार जलाकर भस्म कर देता है, उस तरह अग्नि और सूर्य भी नहीं जला सकते। इस प्रकार विविध चिन्होके द्वारा तुम्हें ब्राह्मणको पहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंका अग्रज, सब वणों में श्रेष्ठ, पिता और गुरु है ॥६-७॥

गरुड उवाच 🗣️

किरूपो ब्राह्मणो मातः किंशीलः किं पराक्रमः ॥ ८ ॥

गरुडने पूछा-- 🗣️

मा ! ब्राह्मणका रूप कैसा होता है ? उसका शील-स्वभाव कैसा है ? तथा उसमें कौन-सा पराक्रम है ॥ ८ ॥

किंस्विदग्निनिभो भाति किंस्वित् सौम्यप्रदर्शनः ।

यथाहमभिजानीयां ब्राह्मणं लक्षणैः शुभैः ॥ ९ ॥

तन्मे कारणतो मातः पृच्छतो वक्तमर्हसि ।

वह देखनेमें अग्नि-जैसा जान पड़ता है । अथवा सौम्य दिखायी देता है ? मा ! जिस प्रकार शुभ लक्षणोंद्वारा मैं ब्राह्मणको पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ ॥९॥

विनतोवाच 🗣️

यस्ते कण्ठमनुप्राप्तो निगीर्णे बडिशं यथा ॥ १०॥

दहेदङ्गारवत् पुत्रं तं विद्या ब्राह्मणर्षभम् ।

विप्रस्त्वया न हन्तव्यः संकुद्धेनापि सर्वदा ॥११॥

विनता बोली-- 🗣️

बेटा ! जो तुम्हारे कण्ठमें पड़नेपर अङ्गारकी तरह जलाने लगे और मानो बंसीका काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वों में श्रेष्ठ ब्राह्मण समझना । क्रोधमें भरे होनेपर भी तुम्हें ब्रह्महत्या नहीं करनी चाहिये ॥ १०-११ ॥

प्रोवाच चैनं विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।

जठरे न च जीर्येद् यस्तं जानीहि द्विजोत्तमम् ॥१२॥

विनताने पुत्रके प्रति स्नेह होने के कारण पुनः इस प्रकार कहा- बेटा ! जो तुम्हारे पेटमें पच न सके, उसे ब्राह्मण जानना ॥ १२ ॥

पुनः प्रोवाच विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।

जानन्त्यप्यतुलं वीर्यमाशीर्वादपरायणा ॥१३॥

प्रीता परमदुःखार्ता नागैर्विप्रकृता सती ।

पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण विनताने पुनः इस प्रकार कहा ! वह पुत्रके अनुपम बलको जानती थी तो भी नागोंद्वारा ठगी जानेके कारण बड़े भारी दुःखसे आतुर हो गयी थी। अतः अपने पुत्रकोप्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी ॥१३॥

विनतोवाच 🗣️

पक्षौ ते मारुतः पातु चन्द्रसूर्यौ च पृष्टतः ॥१४॥

विनताने कहा- 🗣️

बेटा ! वायु तुम्हारे दोनों पडोंकी रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य पृष्ठभागका संरक्षण करें ॥ १४ ॥

शिरश्च पातु वह्निस्ते वसवः सर्वतस्तनुम् ।

अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा ॥१५॥

इहासीना भविष्यामि स्वस्तिकारे रता सदा ।

अरिष्टं व्रज पन्थानं पुत्र कार्यार्थसिद्धये ॥१६॥

अग्निदेव तुम्हारे शिरकी और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीरको सब ओरसे रक्षा करें । पुत्र ! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याणसाधक कर्ममें संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल मनाती रहूँगी । वत्स ! तुम्हारा मार्ग विघ्नरहित हो, तुम अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये यात्रा करो ॥ १५-१६ ॥

सौतिरुवाच 🗣️

ततः स मातुर्वचनं निशम्य वितत्य पक्षौ नभ उत्पपात ।

ततो निषादान् बलवानुपागतो बुभुक्षितः काल इवान्तकोऽपरः ॥१७॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️

शौनकादि महर्षियो ! माताकी बात सुनकर महाबली गरुड पङ्ख पसारकर आकाशमें उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराजकी भाँति उन निषादोंके पास जा पहुँचे ॥ १७ ॥

स तान् निषादानुपसंहरंस्तदा रजः समुद्धय नभःस्पृशं महत् ।

समुद्रकुक्षौ च विशोषयन् पयः समीपजान भूधरजान् विचालयन् ॥१८॥

उन निषादोंका संहार करने के लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो पृथ्वी से आकाशतक छा गयी । वहाँ समुद्रकी कुक्षिमें जो जल था, उसका शोषण करके उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षोंको भी विकम्पित कर दिया ॥ १८ ॥

ततः स चके महदाननं तदा निषादमार्गे प्रतिरुध्य पक्षिराट् ।

ततो निषादास्त्वरिताः प्रवब्रजुः यतो मुखं तस्य भुजङ्गभोजिनः ॥१९॥

इसके बाद पक्षिराजने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादों का मार्ग रोककर खड़े हो गये । तदनन्तर वे निषाद उतावलीमें पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजी गरुडका मुख था ॥ १९ ॥

तदाननं विवृतमतिप्रमाणवत् समभ्ययुगगनमिवार्दिताः खगाः।

सहस्रशः पवनरजोविमोहिता यथानिलप्रचलितपादपे वने ॥२०॥

जैसे आँधीसे कम्पित वृक्षवाले वनमें पवन और धूलसे विमोहित एवं पीड़ित सहस्रों पक्षी उन्मुक्त आकाशमै उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूलकी वर्षास बेसुध हुए हजारों निषाद गरुडके खुले हुए अत्यन्त विशाल मुखमें समा गये ॥२०॥

ततः खगो बदनममित्रतापनः समाहरत् परिचपलो महाबलः ।

निषूदयन् बहुविधमत्स्यजीविनो बुभुक्षितो गगनचरेश्वरस्तदा ॥२१॥

तत्पश्चात् शत्रुओंको संताप देनेवाले, अत्यन्त चपल, महाबली और क्षुधातुर पक्षिराज गरुडने मछली मारकर जीविका चलानेवाले उन अनेकानेक निषादोंका विनाश करनेके लिये अपने मुखको संकुचित कर लिया ॥ २१ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुडचरित्र-विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥

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