१.२२ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका 


(नागोंद्वारा उच्चैःश्रवाकी पूँछको काली बनाना; कद्रू और विनताका समुद्रको देखते हुए आगे बढ़ना)

सौतिरुवाच 🗣️

नागाश्च संविदं कृत्वा कर्तव्यमिति तद्वचः।

निःस्नेहा वै दहेन्माता असम्प्राप्तमनोरथा ॥ १ ॥

प्रसन्ना मोक्षयेदस्मांस्तस्माच्छापाच्च भामिनी।

कृष्णं पुच्छं करिष्यामस्तुरगस्य न संशयः ॥ २॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं-- 🗣️

महर्षियो ! इधर नागोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया, कि हमें माताकी आज्ञाका पालन करना चाहिये । यदि इसका मनोरथ पूरा न होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी । यदि इच्छा पूर्ण हो जानेसे प्रसन्न हो गयी तो वह भामिनी हमें अपने शापसे मुक्त कर सकती है, इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़ेकी पूँछको काली कर देंगे' ॥ १-२ ॥

तथा हिगत्वा ते तस्य पुच्छे वाला इवस्थिताः।

एतस्मिन्नन्तरे ते तु सपत्न्यौ पणिते तदा ॥ ३ ॥

ततस्ते पणितं कृत्वा भगिन्यौ द्विजसत्तम ।

जग्मतुः परया प्रीत्या परं पारं महोदधेः॥ ४ ॥

कद्रूश्च विनता चैव दाक्षायण्यौ विहायसा।

आलोकयन्त्यावक्षोभ्यं समुद्रंनिधिमम्भसाम् ॥ ५ ॥

वायुनातीव सहसा क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ।

तिमिङ्गिलसमाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ॥ ६ ॥

संयुतं बहुसाहस्त्रैः सत्त्वैर्नानाविधैरपि ।

घोरैर्घोरमनाधृष्यं गम्भीरमतिभैरवम् ॥ ७ ॥

ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंगके बाल बनकर उसकी पूँछमें लिपट गये । द्विजश्रेष्ठ ! इसी बीचमें बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहिनें पुनः अपनी शर्तको दुहराकर बड़ी प्रसन्नताके साथ समुद्रके दूसरे पार जा पहुँची। दक्षकुमारी कद्रू और विनता आकाशमार्गसे अक्षोभ्य जलनिधि समुद्रको देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर अत्यन्त प्रबल वायुके थपेड़े खाकर सहसा विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोरकी गर्जना होती थी। तिमिङ्गिल और मगर-मच्छ आदि जल जन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे । नाना प्रकारके भयंकर जन्तु सहस्रोंकी संख्यामें उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होने के साथ ही अत्यन्त भयंकर था ॥ ३-७ ॥

आकर सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च ।

नागानामालयं चापि सुरम्यं सरितां पतिम् ॥ ८ ॥

नदियों का वह स्वामी सब प्रकारके रत्नोंकी खान, वरुणका निवासस्थान तथा नागोंका सुरम्य गृह था ॥ ८॥

पातालज्वलनावासमसुराणां तथाऽऽलयम्।

भयंकराणां सत्त्वानां पयसो निधिमव्ययम् ॥ ९॥

वह पातालव्यापी बड़वानलका आश्रय, असुरोंके छिपनेके स्थान, भयंकर जन्तुओंका घर, अनन्त जलका भण्डार और अविनाशी था ॥९॥

शुभ्रं दिव्यममानाममृतस्याकरं परम् ।

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलसम्मितम् ॥ १०॥

वह शुभ्र, दिव्य, अमरोंके अमृतका उत्तम उत्पत्ति-स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परम पवित्र जलसे परिपूर्ण था॥१०॥

महानदीभिर्वतीभिस्तत्र तत्र सहस्रशः।

आपूर्यमाणमत्यर्थ नृत्यन्तमिव चोर्मिभिः ॥११॥

बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रोंकी संख्यामें आकर उसमें यत्र-तत्र मिलती और उसे अधिकाधिक भरती रहती थी । वह भुजाओंके समान ऊँची लहरोंको ऊपर उठाये नृत्य-सा कर रहा था ॥ ११ ॥

इत्येवं तरलतरोर्मिसंकुलं तं गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम् ।

पातालज्वलनशिखाविदीपिताङ्गं गर्जन्तं द्रुतमभिजग्मतुस्ततस्ते ॥१२॥

इस प्रकार अत्यन्त तरल तरङ्गोंसे व्याप्त, आकाशके समान स्वच्छ, बड़वानलकी शिखाओंसे उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करनेवाले महासागरको देखती हुई वे दोनों बहिनें तुरंत आगे बढ़ गयीं ॥ १२ ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तिकपर्वमें गरुडचरितके प्रसङ्गमें समुद्रदर्शननामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२२॥

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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