त्र्यम्बकेश्वर कथा

  

🕉️ त्र्यम्बकेश्वर कथा 🕉️

----- शिवमहापुराण, कोटिरुद्र संहिता - अध्याय २४-२६

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सूतजी कहते हैं-

मुनिवरो! सुनो, मैंने सद्गुरु व्यासजीके मुखसे जैसी सुनी है, उसी रूपमें एक पापनाशक कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पूर्वकालकी बात है, गौतम नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे, जिनकी परम धार्मिक पत्नीका नाम अहिल्या था। दक्षिण दिशामें जो ब्रह्मगिरि है, वहीं उन्होंने दस हजार वर्षतक तपस्या की थी। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो! एक समय वहाँ सौ वर्षोतक बड़ा भयानक अवर्षण हो गया। सब लोग महान् दुःखमें पड़ गये। इस भूतलपर कहीं गीला पत्ता भी नहीं दिखायी देता था। फिर जीवोका आधारभूत जल कहाँसे दृष्टिगोचर होता। उस समय मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी ओर मृग- सब वहाँसे दसों दिशाओंको चले गये। तब गौतम ऋषिने छः महीनेतक तप करके वरुणको प्रसन्न किया। वरुणने प्रकट होकर वर माँगनेको कहा-ऋषिने वृष्टिके लिये प्रार्थना की। 

वरुणने कहा-

'देवताओके विधानके विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इछाके अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहनेवाला जल देता हूँ। तुम एक गड्ढा तैयार करो।'

उनके ऐसा कहनेपर गौतमने एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा और वरुणने उसे दिव्य जलके द्वारा भर दिया तथा परोपकारसे सुशोभित होनेवाले मुनिश्रेष्ठ गौतमसे कहा - महामुने! कभी क्षीण न होनेवाला यह जल तुम्हारे लिये तीर्थरूप होगा और पृथ्वीपर तुम्हारे ही नामसे इसकी ख्याति होगी। यहाँ किये हुए दान, होम, तप, देवपूजन तथा पितरोका श्राद्ध-सभी अक्षय होगे।

ऐसा कहकर उन महर्षिसे प्रशंसित हो वरुणदेव अन्तर्धांन हो गये। उस जलके द्वारा दूसरोंका उपकार करके महर्षि गौतमको भी बड़ा सुख मिला। महात्मा पुरुषका आश्रय मनुष्योंके लिये महत्त्वकी ही प्राप्ति करानेवाला होता है। महान् पुरुष ही महात्माके उस स्वरूपको देखते और समझते है, दूसरे अधम मनुष्य नहीं। मनुष्य जैसे पुरुषका सेवन करता है, वैसा ही फल पाता है। महान् पुरुषकी सेवासे महत्ता मिलती है और क्षुद्रकी सेवासे क्षुद्रता। उत्तम पुरुषोंका यह स्वभाव ही है, कि वे दूसरोके दुःखको नहीं सहन कर पाते। अपनेको दुःख प्राप्त हो जाये, इसे भी स्वीकार कर लेते हैं किंतु दूसरोंके दुःखका निवारण ही करते हैं। दयालु, अभिमानशून्य, उपकारी और जितेन्द्रिय-ये पुण्यके चार खंभे हैं, जिनके आधारपर यह पृथ्वी टिकी हुई है।

तदनन्तर गौतमजी वहाँ उस परम दुर्लभ जलको पाकर विधिपूर्वक नित्य नैमित्तिक कर्म करने लगे। उन मुनीश्वरने वहाँ नित्य-होमकी सिद्धिके लिये धान, जौ और अनेक प्रकारके नीवार बोआ दिये। तरह-तरहके धान्य, भाँति-भाँतिके वृक्ष और अनेक प्रकारके फल-फूल वहाँ लहलहा उठे। यह समाचार सुनकर वहाँ दूसरे-दूसरे सहस्रं ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी तथा बहुसंख्यक जीव आकर रहने लगे। वह वन इस भूमण्डलमें बड़ा सुन्दर हो गया। उस अक्षय जलके संयोगसे अनावृष्टि वहाँके लिये दुःखदायिनी नहीं रह गयी। उस वनमें अनेक शुभकर्म-परायण ऋषि अपने शिष्य, भार्या और पुत्र आदिके साथ वास करने लगे। उन्होंने कालक्षेप करनेके लिये वहाँ धान बोआ दिये। गौतमजीके प्रभावसे उस वनमें सब ओर आनन्द छा गया।

एक बार वहाँ गौतमके आश्रममें जाकर बसे हुए ब्राह्मणोंकी स्त्रियाँ जलके प्रसङ्गको लेकर अहिल्यापर नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियोंको उकसाया। उन लोगोंने गौतमका अनिष्ट करनेके लिये गणेशजीकी आराधना की। भक्तपराधीन गणेशजीने प्रकट होकर वर माँगनेके लिये कहा-तब वे बोले-भगवन्! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं, तो ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे समस्त ऋषि डाट-फटकारकर गौतमको आश्रमसे बाहर निकाल दें।

गणेशजीने कहा-

ऋषियो! तुम सब लोग सुनो। इस समय तुम उचित कार्य नहीं कर रहे हो। बिना किसी अपराधके उनपर क्रोध करनेके कारण तुम्हारी हानि ही होगी। जिन्होंने पहले उपकार किया हो, उन्हें यदि दुःख दिया जाय तो वह अपने लिये हितकारक नहीं होता। जब उपकारीको दुःख दिया जाता है, तब उससे इस जगत्में अपना ही नाश होता है।" ऐसी तपस्या करके उत्तम फलकी सिद्धि की जाती है। स्वयं ही शुभ फलका परित्याग करके अहितकारक फलको नहीं प्रहण किया जाता। ब्रह्माजीने जो यह कहा है, कि असाधु कभी साधुताको और साधु कभी असाधुताको नहीं ग्रहण करता, यह बात निश्चय ही ठीक जान पड़ती है। पहले उपवासके कारण तुम लोगोंको दुःख भोगना पड़ा था, तब महर्षि गौतमने जलकी व्यवस्था करके तुम्हें सुख दिया, परंतु इस समय तुम सब लोग उन्हें दुःख दे रहे हो। संसारमें ऐसा कार्य करना कदापि उचित नहीं। इस बातपर तुम सब लोग सर्वथा विचार कर लो। स्त्रियोकी शक्तिसे मोहित हुए तुमलोग यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा यह बर्ताव गौतमके लिये अत्यन्त हितकारक ही होगा, इसमें संशय नहीं है। ये मुनिश्रेष्ठ गौतम तुम्हें पुनः निश्चय ही सुख देंगे। अतः उनके साथ छल करना कदापि उचित नहीं। इसलिये तुमलोग कोई दूसरा वर माँगो।

सूतजी कहते हैं-

ब्राह्मणों! महात्मा गणेशजीने ऋषियोंसे जो यह बात कही, वह यद्यपि उनके लिये हितकर थी, तो भी उन्होंने इसे नहीं स्वीकार किया। तब भक्तोके अधीन होनेके कारण उन शिवकुमारने कहा - "तुम लोगोंने जिस वस्तुके लिये प्रार्थना की है, उसे मैं अवश्य करूगा पीछे जो होनहार होगी, वह होकर ही रहेगी।" ऐसा कहकर वे अन्तर्धांन हो गये। मुनीश्वरो! उसके बाद उन दुष्ट ऋषियोंके प्रभावसे तथा उन्हें प्राप्त हुए वरके कारण जो घटना घटित हुई, उसे सुनो। वहाँ गौतमके खेतमें जो धान और जौ थे, उनके पास गणेशजी एक दुर्बल गाय बनकर गये। दिये हुए वरके कारण यह गौ काँपती हुई वहाँ जाकर धान और जौ चरने लगी। इसी समय दैववश गौतमजी वहाँ आ गये। वे दयालु ठहरे, इसलिये मुट्ठीभर तिनके लेकर उन्हींसे उस गौको हाँकने लगे। उन तिनकोंका स्पर्श होते ही वह गौ पृथ्वीपर गिर पड़ी और ऋषिके देखते-देखते उसी क्षण मर गयी।

वे दूसरे - दूसरे (द्वेषी) ब्राह्मण और उनकी दुष्ट स्त्रियाँ वहाँ छिपे हुए सब कुछ देख रहे थे। उस गौके गिरते ही वे सब-के सब बोल उठे - "गौतमने यह क्या कर डाला?" गौतम भी आश्चर्यचकित हो, अहिल्याको बुलाकर व्यथित हृदयसे दुःखपूर्वक बोले - "देवि! यह क्या हुआा, कैसे हुआ? जान पड़ता है परमेश्वर मुझपर कुपित हो गये हैं। अब क्या करै? कहाँ जाऊ? मुझे हत्या लग गयी।"

इसी समय ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ गौतमको डाटने और दुर्वचनोंद्वारा अहिल्याको पीड़ित करने लगीं। उनके दुर्बुद्धि शिष्य और पुत्र भी गौतमको वारंवार फटकारने और धिक्कारने लगे।

ब्राह्मण बोले-

अब तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाना चाहिये। यहाँ से जाओ, जाओ। गोहत्यारेका मुह देखनेपर तत्काल वस्त्रसहित स्रान करना चाहिए। जबतक तुम इस आश्रम मे रहोगे, तबतक अग्निदेव और पितर हमारे दिये हुए किसी भी हव्य-कव्य को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिये पापी गोहत्यारे! तुम परिवारसहित यहाँसे अन्यत्र चले जाओ। विलम्ब न करो।

सूतजी कहते हैं-

ऐसा कहकर उन सबने उन्हें पत्थरोंसे मारना आरम्भ किया। वे गालियाँ दे-देकर गौतम और अहिल्याको सताने लगे। उन दुष्टोंके मारने और धमकानेपर गौतम बोले - "मुनियो! मैं यहाँ से अन्यत्र जाकर रहूँगा।" ऐसा कहकर गौतम उस स्थानसे तत्काल निकल गये और उन सबकी आज्ञासे एक कोस दूर जाकर उन्होंने अपने लिये आश्रम बनाया। वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणने कहा - "जबतक तुम्हारे ऊपर हत्या लगी है, तबतक तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिये। किसी भी वैदिक देवयज्ञ या पितृयज्ञके अनुष्ठानका तुम्हें अधिकार नहीं रह गया है।" मुनिवर गौतम उनके कथनानुसार किसी तरह एक पक्ष बिताकर उस दुःखसे दुःखी हो बारंबार उन मुनियोंसे अपनी शुद्धिके लिये प्रार्थना करने लगे। उनके दीनभावसे प्रार्थना करनेपर उन ब्राह्मणोंने कहा-"गौतम! तुम अपने पापको प्रकट करते हुए तीन बार सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीनेतक व्रत करो। उसके बाद इस ब्रह्मगिरिकी एक सौ एक परिक्रमा करनेके पश्चात् तुम्हारी शुद्धि होगी, अथवा यहाँ गङ्गाजीको ले आकर उन्हींके जलसे स्त्रान करो तथा एक करोड़ पार्थिवलिङ् बनाकर महादेवजीकी आराधना करो। फिर गङ्गामें स्रान करके इस पर्वतकी ग्यारह बार परिक्रमा करो। तत्पश्चात् सौ घड़ोंके जलसे पार्थिव शिवलिङ्गको स्नान करानेपर तुम्हारा उद्धार होगा। उन ऋषियोंके इस प्रकार कहनेपर गौतमने 'बहुत अच्छा कहकर उनकी बात मान ली।" वे बोले - "मुनिवरो। मैं आप श्रीमानोंकी आज्ञासे यहाँ पार्थिवपूजन तथा ब्रह्मगिरिकी परिक्रमा करूंगा।" ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतमने उस पर्वतकी परिक्रमा करनेके पश्चात् पार्थिवलिङ्गोंका निर्माण करके उनका पूजन किया। साध्वी अहिल्याने भी साथ रहकर वह सब कुछ किया। उस समय शिष्य-प्रशिष्य उन दोनोंकी सेवा करते थे।

सूतजी कहते हैं-

पत्नीसहित गौतम ऋषिके इस प्रकार आराधना करनेपर संतुष्ट हुए भगवान् शिव वहाँ शिवा और प्रमथगणोंके साथ प्रकट हो गये। तदनन्तर प्रसन्न हुए कृपानिधान शंकरने कहा - 'महामुने! मैं तुम्हारी उत्तम भक्तिसे वहुत प्रसन्न हैं। तुम कोई वर माँगो। उस समय महात्मा शम्भुके सुन्दर रूपको देखकर आनन्दित हुए गौतमने भक्तिभावसे शंकरको प्रणाम करके उनकी स्तुति की। लंबी स्तुति और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये और बोले - "देव! मुझे निष्पाप कर दीजिये।"

भगवान् शिवने कहा -

मुने! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टोंने तुम्हारे साथ छल किया। जगत् के लोग तुम्हारे दर्शनसे पापरहित हो जाते हैं। फिर सदा मेरी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले तुम क्या पापी हो? मुने! जिन दुरात्माओने तुमपर अत्याचार किया है, वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं। उनके दर्शनसे दूसरे लोग पापिष्ठ हो जायेंगे। वे सब-के सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता।

महादेवजीकी यह बात सुनकर महर्षि गौतम मन-ही-मन बड़े विस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़ पुनः इस प्रकार कहा। 

गौतम बोले - 

महेश्वर! उन ऋषियोंने तो मेरा बहुत बड़ा उपकार किया। यदि उन्होंने यह बर्ताव न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे होता? धन्य हैं वे महर्षि, जिन्होंने मेरे लिये परम कल्याणकारी कार्यं किया है। उनके इस दुराचारसे ही मेरा महान् स्वार्थ सिद्ध हुआ है।

गौतमजीकी यह बात सुनकर महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने गौतमको कृपादष्टिसे देखकर उन्हें शीघ्र ही यों उत्तर दिया।

शिवजी बोले - 

विप्रवर! तुम धन्य हो, सभी ऋषियोंमें श्रेष्ठतर हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ ऐसा जानकर तुम मुझसे उत्तम वर माँगो।

गौतम बोले - 

नाथ! आप सब कहते है, तथापि पाँच आदमियोंने जो कह दिया या कर दिया, वह अन्यथा नहीं हो सकता। अतः जो हो गया, सो रहे। देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझको गङ्गा प्रदान कीजिये और ऐसा करके लोकका महान् उपकार कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है, नमस्कार है।

यों कहकर गौतमने देवेश्वर भगवान् शिवके दोनों चरणारविन्द पकड़ लिये और लोकहितकी कामनासे उन्हें नमस्कार किया। तब शंकरदेवने पृथिवी और स्वर्गके सारभूत जलको निकालकर, जिसे उन्होंने पहलेसे ही रख छोड़ था और विवाहमें ब्रह्माजीके दिये हुए जलमेंसे जो कुछ शेष रह गया था, वह सब भक्तवत्सल शम्भुने उन गौतम मुनिको दे दिया। उस समय गङ्गाजीका जल परम सुन्दर स्त्रीका रूप धारण करके वहाँ खड़ा हुआ तब मुनिवर गौतमने उन गङ्गाजीकी स्तुति करके उन्हें नमस्कार किया।

गौतम बोले- 

गङ्गे! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो। तुमने सम्पूर्ण भुवनको पवित्र किया है। इसलिये निश्चित रूपसे नरकमें गिरते हुए मुझ गौतमको पवित्र करो।

तदनन्तर शिवजीने गङ्गसे कहा - 

देवि! तुम मुनिको पवित्र करो और तुरंत वापस न जाकर वैवस्वत मनुके अट्ठाईसवें कलियुगतक यहीं रहो।

गङ्गाने कहा - 

महेश्वर! यदि मेरा महात्म्य सब नदियोसे अधिक हो और अम्बिका तथा गणोंके साथ आप भी यहाँ रहें, तभी मैं इस धरातलपर रहुंगी।

गङ्गाजीकी यह बात सुनकर भगवान् शिव बोले -

गङ्गे! तुम धन्य हो। मेरी बात सुनो। मैं तुमसे अलग नहीं हूं, तथापि मैं तुम्हारे कथनानुसार यहाँ स्थित रहुंगा तुम भी स्थित होओ।

अपने स्वामी परमेश्वर शिवकी यह बात सुनकर गङ्गाने मन-ही-मन प्रसन्न हो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी समय देवता, प्राचीन ऋषि, अनेक उत्तम तीर्थ और नाना प्रकारके क्षेत्र वहाँ आ पहुँचे। उन सबने बड़े आदरसे जय-जयकार करते हुए गौतम, गङ्गा तथा गिरिशायी शिवका पूजन किया। तदनन्तर उन सब देवताओने मस्तक झुका हाथ जोड़कर उन सबकी प्रसन्नतापूर्वक स्तुति की। उस समय प्रसन्न हुई गङ्गा और गिरीशने उनसे कहा-'श्रेष्ठ देवताओ! वर मांगो। तुम्हारा प्रिय करनेकी इच्छासे वह वर हम तुम्हें देंगे।

देवता बोले - 

देवेश्वर! यदि आप संतुष्ट हैं और सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गे। यदि आप भी प्रसन्न हैं तो हमारा तथा मनुष्योंका प्रिय करनेके लिये आपलोग कृपापूर्वक यहाँ निवास करें।

गङ्गा बोली - 

देवताओ! फिर तो सबका प्रिय करनेके लिये आपलोग स्वयं ही यहाँ क्यों नहीं रहते? मैं तो गौतमजीके पापका प्रक्षालन करके जैसे आयी हुं, उसी तरह लौट जाऊंगी। आपके समाजमें यहाँ मेरी कोई विशेषता समझी जाती है, इस बातका पता कैसे लगे ? यदि आप यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें तो मैं अवश्य यहाँ रहुंगी-इसमें संशय नहीं है।

सब देवताओंनि कहा - 

सरिताओंमे श्रेष्ठ गङ्गे सबके परम सुहद् बृहस्पतिजी जब-जब सिंह राशिपर स्थित होंगे, तब-तब हम सब लोग यहाँ आया करेंगे, इसमें संशय नहीं है। ग्यारह वर्षोतक लोगोंका जो पातक यहाँ प्रक्षालित होगा, उससे मलिन हो जानेपर हम उसी पापराशिको धोनेके लिये आदरपूर्यक तुम्हारे पास आयेंगे। हमने यह सर्वथा सच्ची बात कही है। सरिहरे! महादेवि! अतः तुमको और भगवान् शंकरको समस्त लोकोपर अनुग्रह तथा हमारा प्रिय करनेके लिये यहाँ नित्य निवास करना चाहिये। गुरु जबतक सिंह राशिपर रहेंगे, तभीतक हम यहाँ निवास करेंगे उस समय तुम्हारे जलमें त्रिकालस्नान और भगवान् शंकरका दर्शन करके हम शुद्ध होंगे। फिर तुम्हारी आज्ञा लेकर अपने स्थानको लौटेंगे।

सूतजी कहते हैं - 

इस प्रकार उन देवताओं तथा महर्षि गौतमके प्रार्थना करनेपर भगवान् शंकर और सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गा दोनों वहाँ स्थित हो गये। वहाँकी गङ्गा गौतमी (गोदावरी) नामसे विख्यात हुई और भगवान् शिवका ज्योतिर्मय लिङ्ग त्र्यंम्बक कहलाया। यह ज्योतिर्लिंङ्ग महान् पातकोंका नाश करनेवाला है। उसी दिनसे लेकर जब-जब बृहस्पति सिंह राशिमें स्थित होते हैं, तब-तब सब तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गङ्गा आदि नदियाँ तथा श्रीविष्णु आदि देवगण अवश्य ही गौतमीके तटपर पधारते और वास करते हैं। वे सब जबतक गौतमीके किनारे रहते हैं, तबतक अपने स्थानपर उनका कोई फल नहीं होता। जब वे अपने प्रदेशमें लौट आते हैं, तभी वहाँ इनके सेवनका फल मिलता है। यह त्र्यम्बक नामसे प्रसिद्ध ज्योतिर्लिङ्ग गौतमीके तटपर स्थित है और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। जो भक्ति-भावसे इस त्र्यम्बक लिङ्गका दर्शन, पूजन, स्तवन एवं बन्दन करता है, वह समस्त पापोसे मुक्त हो जाता है। गौतमके द्वारा पूजित त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिङ्ग इस लोकमें समस्त अभीष्टोंको देनेवाला तथा परलोकमें उत्तम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मुनीश्वरो! इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो, कहो। मैं उसे भी तुम्हें बताऊँगा, इसमें संशय नहीं है।

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