१.१५ - आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा)

सौतिरुवाच 🗣️

मात्रा हि भुजगाः शप्ताः पूर्वे ब्रह्मविदां वर ।

जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः ॥ १॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं-- 🗣️

ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ शौनक ! पूर्वकालमें नागमाता कद्रूने सर्पोको यह शाप दिया था, कि तुम्हें जनमेजयके यज्ञमें अग्नि भस्म कर डालेगी ॥१॥

तस्य शापस्य शान्त्यर्थे प्रददौ पन्नगोत्तमः ।

खसारमृषये तस्मै सुव्रताय महात्मने ॥ २॥

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टन कर्मणा।

आस्तीको नाम पुत्रश्च तस्यां जज्ञे महामनाः ॥३॥

उसी शापकी शान्तिके लिये नागप्रवर वासुकिने सदाचारका पालन करनेवाले महात्मा जरत्कारुको अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारुने शास्त्रीय विधिके अनुसार उस नागकन्याका पाणिग्रहण किया और उसके गर्भसे आस्तीक नामक पुत्रको जन्म दिया ॥ २-३ ॥

तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः।

समः सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापहः॥४॥

आस्तीक वेद-वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, सब लोगोंके प्रति समान भाव रखनेवाले तथा पितृकुल और मातृकुलके भयको दूर करनेवाले थे ॥ ४ ॥

अथ दीर्घस्य कालस्य पाण्डवेयो नराधिपः।

आजहार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुतिः ॥५॥

तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै।

मोचयामास तान् नागानास्तीकः सुमहातपाः ॥ ६॥

तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् पाण्डववंशीय नरेश जनमेजयने सर्पसत्र नामक महान् यज्ञका आयोजन किया, ऐसा सुननेमें आता है। सर्पोंके संहारके लिये आरम्भ किये हुए उस सत्रमें आकर महातपस्वी आस्तीकने नागोंको मौतसे छुड़ाया ॥ ५-६ ॥

भ्रातृ॑श्च मातुलांश्चैव तथैवान्यान् स पन्नगान् ।

पितूंश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा ॥ ७ ॥

उन्होंने मामा तथा ममेरे भाइयोंको एवं अन्यान्य सम्बन्धोमें आनेवाले सब नागोंको संकटमुक्त किया । इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादनद्वारा उन्होंने पितरोंका भी उद्धार किया ॥ ७ ॥

व्रतैश्च विविधैर्ब्रह्मन् खाध्यायैश्वानृणोऽभवत् ।

देवांश्च तर्पयामास यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ॥ ८॥

ऋषींश्च ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान् ।

अपहृत्य गुरुं भारं पितॄणां संशितव्रतः॥९॥

जरत्कारुर्गतः स्वर्ग सहितः स्वैः पितामहैः ।

आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्मे चानुत्तमं मुनिः॥१०॥

जरत्कारुः सुमहता कालेन वर्गमेयिवान् ।

एतदाख्यानमास्तीकं यथावत् कथितं मया।

प्रब्रूहि भृगुशार्दूल किमन्यत् कथयामि ते ॥११॥

ब्रह्मन् ! भाँति-भाँतिके व्रतों और स्वाध्यायोंका अनुष्ठान करके वे सब प्रकारके ऋणोंसे उऋण हो गये । अनेक प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं, ब्रह्मचर्यव्रतके पालनसे ऋषियों और संतानकी उत्पत्तिद्वारा पितरोंको तृप्त किया । कठोर व्रतका पालन करनेवाले जरत्कारु मुनि पितरोंकी चिन्ताका भारी भार उतारकर अपने उन पितामहोंके साथ स्वर्गलोकको चले गये। आस्तीक-जैसे पुत्र तथा परम धर्मकी प्राप्ति करके मुनिवर जरत्कारुने दीर्घकालके पश्चात् स्वर्गलोककी यात्रा की। भृगुकुलशिरोमणे ! इस प्रकार मैंने आस्तीकके उपाख्यानका यथावत् वर्णन किया है । बताइये, अब और क्या कहा जाय ? ॥८-११॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

 इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में सर्पोंको मातृशाप प्राप्त होने की प्रस्तावनासे युक्त पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५॥

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका

No comments:

Post a Comment

Followers