१.१६ - आस्तीकपर्वणि सार्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(कद्रू और विनताको कश्यपजीके वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी प्राप्ति)

शौनक उवाच 🗣️

सौते त्वं कथयस्वेमां विस्तरेण कथां पुनः ।

आस्तीकस्य कवेःसाधोः शुश्रूषा परमा हि नः ॥ १ ॥

शौनकजी बोले - 🗣️

सूतनन्दन ! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीककी इस कथाको पुनः विस्तारके साथ कहिये । हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १॥

मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया ।

प्रीयामहे भृशं तात पितेवेदं प्रभाषसे ॥ २ ॥

सौम्य ! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं । उसका एक-एक अक्षर और एक-एक पद कोमल हैं। तात ! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है । आप अपने पिता लोमहर्षणकी भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं ॥ २॥

अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव ।

आचष्टैतद् यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद॥ ३ ॥

आपके पिता सदा हमलोगोंकी सेवामें लगे रहते थे । उन्होंने इस उपाख्यानको जिस प्रकार कहा है, उसी रूपमें आप भी कहिये ॥ ३॥

सौतिरुवाच  🗣️

आयुष्मन्निदमाख्यानमास्तीकं कथयामि ते ।

यथाश्रुतं कथयतः सकाशाद् वै पितुर्मया ॥ ४॥

उग्रश्रवाजीने कहा-  🗣️

आयुष्मन् ! मैंने अपने कथावाचक पिताजीके मुखसे यह आस्तीककी कथा, जिस रूपमें सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ ॥ ४ ॥

पुरा देवयुगे ब्रह्मन् प्रजापतिसुते शुभे ।

आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेतेऽद्भुतेऽनघ ॥ ५ ॥

ते भार्ये कश्यपस्यास्तां कद्रूश्च विनता च ह ।

प्रादात् ताभ्यां वरं प्रीतः प्रजापतिसमः पतिः ॥ ६ ॥

कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युतः।

वरातिसर्गे श्रुत्वैवं कश्यपादुत्तमं च ते ॥ ७ ॥

हर्षादप्रतिमां प्रीति प्रापतुः स्म वरस्त्रियौ।

वो कद्रूः सुतान् नागान् सहस्रं तुल्यवर्चसः ॥ ८॥

ब्रह्मन् ! पहले सत्ययुगमें दक्ष प्रजापतिकी दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं--कद्रू और विनता । वे दोनों बहिने रूपसौन्दर्यसे सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ ! उन दोनोंका विवाह महर्षि कश्यपजीके साथ हुआ था । एक दिन प्रजापति ब्रह्माजीके समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यपने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा--'तुममेंसे जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।' इस प्रकार कश्याजीसे उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नताके कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियोंको अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रूने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा ॥ ५-८॥

द्वौ पुत्री विनता वब्रे कद्रूपुत्राधिकौ बले।

तेजसा वपुषा चैव विक्रमेणाधिकौ च तौ ॥ ९ ॥

विनताने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रममें कद्रूके पुत्रोंसे श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे ॥ ९॥

तस्यै भर्ता वरं प्रादादत्यर्थं पुत्रमीप्सितम् ।

एवमस्त्विति तं चाह कश्यपं विनता तदा ॥ १०॥

विनताको पतिदेवने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रोंके होनेका वरदान दे दिया। उस समय विनताने कश्यपजीसे 'एवमस्तु' कहकर उनके दिये हुए वरको शिरोधार्य किया ॥ १० ॥

यथावत् प्रार्थितं लब्ध्वा वरं तुष्टाभवत् तदा ।

कृतकृत्या तु विनतालब्ध्वा वीर्याधिको सुतौ ॥ ११ ॥

अपनी प्रार्थनाके अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई । कद्रूके पुत्रोंसे अधिक बलवान् और पराक्रमीदो पुत्रोंके होने का वर प्राप्त करके विनता अपनेको कृतकृत्य मानने लगी ॥ ११ ॥

कद्रूश्च लब्ध्वा पुत्राणां सहस्रं तुल्यवर्चसाम् ।

धार्यौ प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपाः ॥ १२॥

ते भार्ये वरसंतुष्टे कश्यपो वनमाविशत्।

समान तेजस्वी एक हजार पुत्र होनेका वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी उन धर्मपत्नियोंसे यह कहकर कि 'तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भकी रक्षा करना' महातपस्वी कश्यपजी वनमें चले गये ॥ १२॥

सौतिरुवाच  🗣️

कालेन महता करण्डानां दशतीर्दश ॥ १३ ॥

जनयामास विप्रेन्द्र द्वे चाण्डे विनता तदा।

ब्रह्मन् ! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् कद्रूने एक हजार और विनताने दो अण्डे दिये ॥ १३ ॥

तयोरण्डानि निदधुः प्रहृष्टाः परिचारिकाः ॥ १४ ॥

सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पञ्चवर्षशतानि च ।

ततः पञ्चशते काले कदूपुत्रा विनिःसृताः ॥ १५॥

अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुनं न व्यदृश्यत ।

दासियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनोंके अण्डौको गरम बर्तनोंमें रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षोंतक उन्हीं बर्तनों में पड़े रहे । तत्पश्चात् पाँच सौ वर्ष पूरे होनेपर कदूके एक हजार पुत्र अण्डोंको फोड़कर बाहर निकल आये; परंतु विनताके अण्डोंसे उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये ॥१४-१५॥

ततः पुत्रार्थिनी देवी व्रीडिता च तपस्विनी ॥ १६ ॥

अण्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमपश्यत ।

पूर्वार्धकायसम्पन्नमितरेणाप्रकाशता ॥ १७ ॥

इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौतके सामने लजित हो गयौ । फिर उसने अपने हाथोंसे एक अण्डा फोड़ डाला । फूटनेपर उस अण्डे में विनताने अपने पुत्रको देखा, उसके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था, किंतु नीचेका आधा अङ्ग अभी अधूरा रह गया था ॥ १६-१७ ॥

स पुत्रः क्रोधसंरब्धः शशापैनामिति श्रुतिः।

योऽहमेवं कृतो नातस्त्वया लोभपरीतया ॥१८॥

शरीरेणासमग्रेण तस्माद् दासी भविष्यसि ।

पञ्चवर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धसे सह ॥ १९ ॥

सुना जाता है, उस पुत्रने क्रोधके आवेशमें आकर विनताको शाप दे दिया-मा ! तूने लोभके वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीरका बना दिया- मेरे समस्त अङ्गोंको पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया इसलिये जिस सौतके  साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसीकी पाँच सौ वर्षोंतक दासी बनी रहेगी ॥ १८-१९ ॥

एष च त्वां सुतो मातर्दासीत्वान्मोचयिष्यति ।

यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात् ॥ २० ॥

न करिष्यस्यनङ्गं वा व्यङ्गं वापि तपस्विनम् ।

और मा ! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, वही तुझे दासी-भावसे छुटकारा दिलायेगा; किंतु माता ! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्रको मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अङ्गहीन याअधूरे अङ्गोसे युक्त न बना देगी ॥२०॥ प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालोऽस्य धीरया ॥ २१ ॥

विशिष्टं बलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात् परः।

इसलिये यदि तू इस बालकको विशेष बलवान् बनाना चाहती है, तो पाँच सौ वर्षके बादतक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्मकी प्रतीक्षा करनी चाहिये' ॥ २१ ॥

एवं शप्त्वा ततः पुत्रो विनतामन्तरिक्षगः ॥ २२ ॥

अरुणो दृश्यते ब्रह्मन् प्रभातसमये सदा ।

आदित्यरथमध्यास्ते सारथ्यं समकल्पयत् ॥ २३ ॥

इस प्रकार विनताको शाप देकर वह बालक अरुण अन्तरिक्षमें उड़ गया । ब्रह्मन् ! तभीसे प्रातःकाल (प्राची दिशामें) सदा जो लाली दिखायी देती है। उसके रूपमें विनताके पुत्र अरुणका ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेवके रथपर जा बैठा और उनके सारथिका काम सँभालने लगा ॥२२-२३॥

गरुडोऽपि यथाकालं जज्ञे पन्नगभोजनः।

स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत् ॥ २४॥

आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्नं विहितमस्य यत् ।

विधात्रा भृगुशार्दूल क्षुधितः पतगेश्वरः ॥ २५॥

तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्पसंहारक गरुडका जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ | पक्षिराज गरुड जन्म लेते ही क्षुधासे व्याकुल हो गये और विधाताने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थको प्राप्त करने के लिये माता विनताको छोड़कर आकाशमें उड़ गये ॥ २४-२५ ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में सर्प आदिकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१६॥

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