(रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद)
रुरुरुवाच 🗣️
मम प्राणसमा भार्या
दष्टासीद् भुजगेन ह।
तत्र मे समयो घोर
आत्मनोरग वै कृतः ॥ १ ॥
भुजनं वै सदा हन्यां
यं यं पश्येयमित्युत ।
ततोऽहं त्वां
जिघांसामिजीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ॥ २॥
रुरु बोला - 🗣️
सर्प ! मेरी प्राणों
के समान प्यारी पत्नीको एक साँपने डॅंस लिया था। उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा
कर ली कि जिस-जिस सर्पको देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार
डालूँगा। उसी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ । अतः आज
तुम्हें अपने प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा ॥१-२॥
डुण्डुभ उवाच 🗣️
अन्ये ते भुजगा
ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान् ।
डुण्डुभानहिगन्धेन न
त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ३ ॥
डण्डुभने कहा- 🗣️
ब्रह्मन् ! वे दूसरे
ही साँप हैं जो इस लोकमें मनुष्योको डॅंसते हैं । साँपोंकी आकृतिमात्रसे ही तुम्हें
डुण्डुभोंको नहीं मारना चाहिये ॥ ३ ॥
एकानर्थान्
पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।
डुण्डुभान् धर्मविद्
भूत्वान त्वं हिंसितुमर्हसि ॥४॥
अहो ! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगनेमें सब सर्पोंके साथ एक हैं।
परंतु उनका स्वभाव दूसरे सर्पोंसे भिन्न है। तथा दुःख भोगनेमें तो वे सब सर्पोंके
साथ एक हैं; किंतु सुख सबका अलग-अलग है । तुम धर्मज्ञ हो, अत: तुम्हें डुण्डुभोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥४॥
सौतिरुवाच 🗣️
इति श्रुत्वा वचस्तस्य
भुजगस्य रुरुस्तदा।
नावधीद्
भयसविग्नमृर्षि मत्वाथ डुण्डुभम् ॥ ५ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
डुण्डुभ ! सर्पका यह
वचन सुनकर रुरुने उसे कोई भयभीत ऋषि. समझा. अतः उसका वध नहीं किया ॥ ५॥ उवाच चैनं
भगवान् रुरुः संशमयन्निव।
कामं मां भुजंग ब्रूहि
कोऽसीमां विक्रियां गतः॥ ६ ॥
इसके सिवा बड़भागी
रुरुने उसे शान्ति प्रदान करते हुए-से कहा-भुजङ्गम ! बताओ इस विकृत (सर्प) योनिमें
पड़े हुए तुम कौन हो? ॥ ६ ॥
डुण्डुभ उवाच 🗣️
अयं पुरा रुरो नाम्ना
ऋषिरासं सहस्रपात् ।
सोऽहं शापेन. विप्रस्य
भुजगत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
डुण्डुभने कहा- 🗣️
रुरो ! मैं
पूर्वजन्ममें सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मणके
शापसे मुझे इस सर्पयोनिमें आना पड़ा है ॥ ७॥
रुरुरुवाच 🗣️
किमर्थे शप्तवान्
क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम ।
कियन्तं चैव कालं ते
वपुरेतद् भविष्यति ॥ ८ ॥
रुरुने पूछा- 🗣️
भुजगोत्तम ! उस ब्राह्मणने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया ? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा ? ॥ ८ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि
रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोमपर्व में रुरु-डुण्डुम-संवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥
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