लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको नैमिषारण्ये
शौनकस्य कुलपतेादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ॥१॥
नैमिषारण्यमें
कुलपति शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें उपस्थित महर्षियोंके समीप एक
दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणोंकी कथा कहनेमें कुशल थे ॥ १॥
पौराणिकःपुराणे कृतश्रमः स कृताञ्जलिस्तानुवाच।
किं भवन्तः श्रोतुमिच्छन्ति किमहं ब्रवाणीति ॥२॥
वे पुराणोंके
ज्ञाता थे । उन्होंने पुराणविद्यामें बहुत परिश्रम किया था। वे नैमिषारण्यवासी
महर्षियोंसे हाथ जोड़कर बोले--पूज्यपाद महर्षिगण ! आपलोग क्या सुनना चाहते - हैं ? मैं किस प्रसङ्गपर बोलूँ ?' ॥ २॥
तमृषय ऊचुः परमं लोमहर्षणे वक्ष्यामस्त्वां न
प्रतिवक्ष्यसि वचःशुश्रूषतां कथायोगं नः कथायोगे ॥ ३॥
तब ऋषियोंने
उनसे कहा-लोमहर्षणकुमार! हम आपको उत्तम प्रसङ्ग बतलायेंगे और कथा-प्रसङ्ग प्रारम्भ
होनेपर सुननेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंके समक्ष आप बहुत-सी कथाएँ कहेंगे ॥३॥
तत्र भवान् कुलपतिस्तु शौनकोऽग्निशरणमध्यास्ते ॥४॥
किंतु
पूज्यपाद कुलपति भगवान् शौनक अभी अग्निकी उपासनामें संलग्न हैं ॥ ४ ॥
योऽसौ दिव्याः कथा वेद देवतासुरसंश्रिताः।
मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वशः ॥ ५॥
वे देवताओं और
असुरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी दिव्य कथाएँ जानते हैं। मनुष्यों, नागों तथा गन्धर्वोकी कथाओंसे भी वे सर्वथा परिचित हैं
॥५॥
स चाप्यस्मिन् मखे सौते विद्वान् कुलपतिर्द्विजः।
दक्षो धृतव्रतो धीमाञ्छास्त्रे चारण्यके गुरुः ॥ ६॥
सूतनन्दन ! वे
विद्वान् कुलपति विप्रवर शौनकजी भी इस यशमें उपस्थित हैं। वे चतुर, उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान् हैं। शास्त्र (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) तथा आरण्यक. (बृहदारण्यक आदि ) के तो वे आचार्य
ही है ॥६॥
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः।
सर्वेषामेव नो मान्यः स तावत् प्रतिपाल्यताम् ॥ ७॥
वे सदा सत्य
बोलनेवाले, मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर, तपस्वी और नियमपूर्वक व्रतको निबाहनेवाले हैं। वे हम सभी
लोगोंके लिये सम्माननीय हैं; अतः जबतक उनका आना न
हो, तबतक प्रतीक्षा कीजिये ॥ ७ ॥
तस्मिन्नध्यासति गुरावासनं परमार्चितम् ।
ततो वक्ष्यसि यत्वां स प्रक्ष्यति द्विजसत्तमः॥८॥
गुरुदेव शौनक
जब यहाँ उत्तम आसनपर विराजमान हो जायँ उस समय वे द्विजश्रेष्ठ आपसे जो कुछ पूछे, उसी प्रसङ्गको लेकर आप बोलियेगा ॥ ८ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
एवमस्तु गुरौ तस्मिन्नुपविष्टे महात्मनि ।
तेन पृष्टः कथाःपुण्या वक्ष्यामि विविधाश्रयाः ॥ ९ ॥
उग्रश्रवाजीने
कहा- 🗣️
एवमस्तु (ऐसा
ही होगा), गुरुदेव महात्मा शौनकजीके बैठ जानेपर उन्हींके पूछने के
अनुसार में नाना प्रकारकी पुण्यदायिनी कथाएँ कहूँगा ॥९॥
सोऽथ विप्रर्षभः सर्वे कृत्वा कार्य यथाविधि।
देवान् वाग्भिः पितृनद्भिस्तर्पयित्वाऽऽजगाम ह॥ १०॥
यत्र ब्रह्मर्षयः सिद्धाः सुखासीना धृतव्रताः ।
यज्ञायतनमाथित्य सूतपुत्रपुरःसराः ॥ ११ ॥
तदनन्तर
विप्रशिरोमणि शौनकजी क्रमशः सब कार्योंका विधिपूर्वक सम्पादन करके वैदिक स्तुतियों
द्वारा देवताओंको और जलकी अञ्जलिद्वारा पितरोंको तृप्त करनेके पश्चात् उस स्थानपर
आये, जहाँ उत्तम व्रतधारी सिद्ध-ब्रह्मर्षिगण यज्ञमण्डपमें
सूतजीको आगे विराजमान करके सुखपूर्वक बैठे थे ॥१०-११॥
ऋत्विक्ष्वथ सदस्येषु स वै गृहपतिस्तदा ।
उपविष्टेषूपविष्टः शौनकोऽथाब्रवीदिदम् ॥ १२ ॥
ऋत्विजों और सदस्योंके बैठ जानेपर कुलपति शौनकजी भी वहाँ बैठे और इस प्रकार बोले ॥ १२ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि कथाप्रवेशो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
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