🙏🏻 नम्र निवेदन 🙏🏻


महाभारत हिंदु-संस्कृति तथा भारतीय सनातनधर्मका एक अत्यन्त आदरणीय और महान प्रमुख ग्रन्थ है। यह अनन्त अमूल्य रसत्नोंका अपार भण्डार है। भगवान् वेदव्यास स्वयं कहते हैं, कि 'इस महाभारतमें मैंने वेदोंके रहस्य और विस्तार, उपनिषदोके सम्पूर्ण सार, इतिहास-पुराणों के उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्यके विधान, पुराणों के आशय, ग्रह-नक्षत्र-तारा आदिके परिमाण, न्याय शिक्षा, चिकित्सा दान पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा), तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रोंका भी वर्णन किया है।' अतएव महाभारत महाकाव्य है, गुढ़ार्थमय ज्ञान- विज्ञान शास्त्र है, धर्मग्रन्थ है, राजनीतिक दर्शन है, निष्काम कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, हिंदु-संस्कृति का इतिहास है और सर्वार्थसाधक तथा सर्वशास्त्रसंग्रह है। सबसे अधिक महत्वकी बात तो यह है, कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान्, सर्व-लोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्न, सृष्टि-स्थिति प्रलयकारी, विचित्र लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्, भक्त-सर्वस्य, निखिलरसामृतसिन्धु, अनन्तप्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दघन, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण के गुण गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है। औपनिषद ऋषिने भी इतिहास-पुराणको पञ्चम वेद बताकर महाभारतकी सर्वोपरि महत्ता स्वीकार की है।

महाभारतमें बहुत पाठभेद हैं। दक्षिण और उत्तरके ग्रन्थोंमें हजारों श्लोकोंका अन्तर दृष्टिगोचर होता है। इन सारे पाठ-भेदोंको देखकर एक सुनिश्चित पाठ प्रस्तुत करना बहुत ही कठिन कार्य है। इसी महान् कार्यके लिये पूणे भाण्डारकर संस्थानके विद्वान् वर्षोंसे सचेष्ट और सक्रिय थे और उनके द्वारा संशोधित महाभारत अधिकांश प्रकाशित भी हो चुका था, परंतु यह तो कोई भी नहीं कह सकता, कि उनके द्वारा निर्मित पाठ सर्वसम्मत पाठ है, या वही सर्वधा सत्य एवं शुद्ध है। अवश्य ही उनका सचाईसे भरा प्रयन्त सर्वथा स्तुत्य है और उससे पाठ-निर्णयमें गीता प्रेस गोरखपुर को पर्याप्त सहायता मिली है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि समय-समयपर अपनी-अपनी रुचिके अनुसार लोगोने अनेक कारणोंसे इस ग्रंथमें प्रक्षिप्त अंश नहीं जोड़े हैं अथवा मूलपाठको नहीं बदला या नहीं निकाला है। कहीं- कहीं तो प्रत्यक्ष परस्परविरोधी वर्णन आने से यह संदेह और भी दृढ़ हो जाता है। इसीलिये इसका पाठ-निर्णय बहुत ही कठिन कार्य है। इसलिए प्राचीन पाठोंको लेना ही उचित समझा गया और तदनुसार उत्तर भारतमें सर्वाधिक प्रचलित तथा प्रायः सर्वमान्य 'नीलकण्ठी' टीकासे पाठ लेनेका निश्चय किया गया। इसमें लगभग चौरासी हजार श्लोक हैं और इनके साथ हुरिवंशके सोलह हजार श्लोकोंको जोड़नेपर एक लाखके लगभग संख्या हो जाती है। कुछ महानुभावोंका यह मत है, कि हरिवंशको इसमें नहीं जोड़ना चाहिये। इसमें तो अब कोई संदेह ही नहीं रह गया है, कि महाभारत अत्यन्त प्राचीन ग्रम्थ है। आश्वलायन सूत्रमें महाभारतका प्रत्यक्ष उल्लेख है, जो पाणिनिके समयसे प्राचीन सिद्ध हो चुका है। श्रीव्यासरचित महाभारतमें एक लाख श्लोक थे - यह कोई नयी धारणा नहीं है। यह सत्य तथ्य है।

दक्षिण- भारतके ग्रन्थोंमें एक लाखके लगभग श्लोकोंका पाठ है भी दाक्षिणात्य ग्रन्थोंके उन बढ़े हुए श्लोकोमें भी बहुत अच्छी-अच्छी कथाएँ हैं। उस पाठको वहाँके लोग बहुत ही प्राचीन मानते हैं। एक लाख श्लोकोके उस महाभारतकी एक 'लक्षालङ्कर' नामक अति प्राचीन टीका भी है। उसके कुछ अंश तो मिले हैं, परंतु पूरी टीका उपलब्ध नहीं है। अतएव इस पाठकी भी अवहेलना नहीं की जा सकती। नीलकण्ठने भी अपनी टीकामें दाक्षिणात्य पाठके नाल्यायनीय प्रसङ्गका उल्लेख किया है। इससे भी उसकी प्राचीनता और प्रामाणिकता सिद्ध होती है। गीताप्रेसके इस महाभारतमें मुख्यतः नीलकण्ठीके अनुसार पाठ लेनेपर भी दाक्षिणात्य पाठके उपयोगी अंशोंको सम्मिलित किया गया है और इसीके अनुसार बीच-बीचमें उसके श्लोक अर्थसहित दे दिये गये हैं। पर उन श्लोकोंकी श्लोक संख्या न तो मूलमें दी गयी है, न अर्थमें ही। अध्यायके अन्तमें दाक्षिणात्य पाठके श्लोककी संख्या अलग बताकर उक्त अध्यायकी पूर्ण श्लोक-संख्या बता दी गयी है और इसी प्रकार पर्वके अन्तमें लिये हुए दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग-अलग बताकर उस पर्वकी पूर्ण श्लोक-संख्या भी दे दी गयी है।

गीताप्रेसके इस महाभारतमें अनुष्टुप छन्दके हिसाबसे तथा उवाच' जोड़कर कुल श्लोक-संख्या १००२१७ है। इसमें उत्तर भारतीय पाठकी ८६६००, दाक्षिणात्य पाठकी ६५८४ तथा 'उवाच' की ७०३३ है।

इस विशाल ग्रन्थके हिंदी-अनुवादका प्रायः सारा कार्य गीताप्रेसके प्रसिद्ध तथा सिद्धहस्त भाषान्तरकार संस्कृत-हिंदी दोनों भाषाओंके सफल लेखक तथा कविः परम विद्वान् पण्डितप्रवर श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री महोदयने किया है। इसीसे अनुवादकी भाषा सरल होने के साथ ही इतनी सुमधुर हो सकी है। दार्शनिक वयोवृद्ध विद्वान् डा० श्रीभगवानदासजीने इस अनुवादकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

गीता प्रेस गोरखपुर के इसी संस्करण से महाभारत महाकाव्य को आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।


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