१.२४ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विशोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका 


(गरुडके द्वारा अपने तेज और शरीरका संकोच तथा सूर्यके क्रोधजनित तीव्र तेजकी शान्ति के लिये अरुणका उनके रथपर स्थित होना)

सौतिरुवाच 🗣️

स श्रुत्वाथात्मनो देहं सुपर्णः प्रेक्ष्य च स्वयम् ।

शरीरप्रतिसंहारमात्मनः सम्प्रचक्रमे ॥१॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️

शौनकादि महर्षियो ! देवताओंद्वारा की हुई स्तुति सुनकर गरुडजीने स्वयं भी अपने शरीरकी ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेनेकी तैयारी करने लगे ॥१॥

सुपर्ण उवाच 🗣️

न मे सर्वाणि भूतानि विभियुर्देहदर्शनात् ।

भीमरूपात् समुद्विग्नास्तस्मात् तेजस्तु संहरे ॥ २॥

गरुडजीने कहा- 🗣️

देवताओ ! मेरे इस शरीरको देखनेसे संसारके समस्त प्राणी उस भयानक स्वरूपसे उद्विग्न होकर डर न जायँ इसलिये मैं अपने तेजको समेट लेता हूँ ॥ २॥

सौतिरुवाच 🗣️

ततः कामगमः पक्षी कामवीर्यो विहंगमः ।

अरुणं चात्मनः पृष्ठमारोप्य स पितुर्गृहात् ॥ ३॥

मातुरन्तिकमागच्छत् परं तीरं महोदधेः।

उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️

तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम प्रकट करनेवाले पक्षी गरुड अपने भाई अरुणको पीठपर चढ़ाकर पिताके घरसे माताके समीप महासागरके दूसरे तटपर आये ॥ ३३ ॥

तत्रारुणश्च निक्षिप्तो दिशं पूर्वी महाद्युतिः ॥ ४॥

सूर्यस्तेजोभिरत्युप्रैर्लोकान् दग्धुमना यदा ।

जब सूर्यने अपने भयंकर तेजके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध करने का विचार किया उस समय गरुडजी महान् तेजस्वी अरुणको पुनः पूर्व दिशामें लाकर सूर्यके समीप रख आये ॥४॥

रुरुरुवाच 🗣️

किमर्थे भगवान सूर्यो लोकान् दग्धुमनास्तदा ॥ ५॥

किमस्यापहृतं देवैर्येनेमं मन्युराविशत्।

रुरुने पूछा- 🗣️

पिताजी ! भगवान् सूर्यने उस समय सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध कर डालनेका विचार क्यों किया ? देवताओंने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मनमें क्रोधका संचार हो गया ॥ ५॥

प्रमतिरुवाच 🗣️

चन्द्रार्काभ्यां यदा राहुराख्यातो ह्यमृतं पिबन् ॥ ६॥

वैरानुबन्धं कृतवांश्चन्द्रादित्यौ तदानघ ।

वध्यमाने ग्रहेणाथ आदित्ये मन्युराविशत् ॥ ७॥

प्रमति ने कहा-- 🗣️

अनघ ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्यने उसका भेद बता दिया। इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्य से भारी वैर बाँध लिया और उन्हें सताने लगा । राहुसे पीड़ित होनेपर सूर्यके मनमें क्रोधका आवेश हुआ ॥ ६-७ ॥

सुरार्थाय समुत्पन्नो रोषो राहोस्तु मां प्रति ।

बनर्थकरं पापमेकोऽहं समवाप्नुयाम् ॥ ८॥

वे सोचने लगे, 'देवताओंके हितके लिये ही मैंने राहुका भेद खोला था जिससे मेरे प्रति राहुका रोष बढ़ गया । अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःखके रूपमें अकेले मुझे प्राप्त होता है ॥ ८॥

सहाय एव कार्येषु न च कृच्छ्रेषु दृश्यते ।

पश्यन्ति ग्रसमानं मां सहन्ते वै दिवौकसः ॥ ९॥

संकटके अवसरोंपर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवतालोग मुझे राहुसे ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं ॥ ९ ॥

तस्माल्लोकविनाशार्थ ह्यवतिष्ठे न संशयः।

एवं कृतमतिः सूर्यो ह्यस्तमभ्यगमद गिरिम् ॥१०॥

अतः सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये निःसंदेह मैं अस्ताचलपर जाकर वहीं ठहर जाऊँगा।' ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये ॥१०॥

तस्माल्लोकविनाशाय संतापयत भास्करः ।

ततो देवानुपागम्य प्रोषुरेवं महर्षयः ॥११॥

और वहींसे सूर्यदेवने सम्पूर्ण जगत्का विनाश करनेके लिये सबको संताप देना आरम्भ किया । तब महर्षिगण देवताओंके पास जाकर इस प्रकार बोले-॥ ११ ॥

अद्यार्धरात्रसमये सर्वलोकभयावहः ।

उत्पत्स्यते महान् दाहस्त्रलोक्यस्य विनाशनः ॥१२॥

देवगण ! आज आधी रातके समय सब लोकोंको भयभीत करनेवाला महान् दाह उत्पन्न होगा, जो तीनों लोकोंका विनाश करनेवाला हो सकता है' ॥ १२ ॥

ततो देवाः सर्षिगणा उपगम्य पितामहम् ।

अब्रुवन् किमिवेहाद्य महद् दाहकृतं भयम् ॥१३॥

न तावद् दृश्यते सूर्यः क्षयोऽयं प्रतिभाति च ।

उदिते भगवन् भानौ कथमेतद् भविष्यति ॥१४॥

तदनन्तर देवता ऋषियोंको साथ ले ब्रह्माजीके पास जाकर बोले-भगवन् ! आज यह कैसा महान् दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है ? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भी ऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत्का विनाश हो जायगा । फिर सूर्योदय होनेपर गरमी कैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है ?' ॥१३-१४ ॥

पितामह उवाच 🗣️

एष लोकविनाशाय रविरुद्यन्तुमुद्यतः ।

दृश्यन्नेव हि लोकान् स भस्मराशीकरिष्यति ॥१५॥

ब्रह्माजीने कहा- 🗣️

ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करने के लिये ही उद्यत होना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टिमें आते ही सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगे ॥१५॥

तस्य प्रतिविधानं च विहितं पूर्वमेव हि ।

कश्यपस्य सुतो धीमानरुणेत्यभिविश्रुतः ॥१६॥

किंतु उनके भीषण संतापसे बचनेका उपाय मैंने पहलेसे ही कर रक्खा है। महर्षि कश्यपके एक बुद्धिमान् पुत्र हैं, जो अरुण नामसे विख्यात हैं ॥ १६ ॥

महाकायो महातेजाः स स्थास्यति पुरो रवेः।

करिष्यति च सारथ्यं तेजश्चास्य हरिष्यति ॥१७॥

लोकानां स्वस्ति चैवं स्याद् ऋषीणां च दिवौकसाम् ।

उनका शरीर विशाल है । वे महान् तेजस्वी हैं । वे ही सूर्यके आगे रथपर बैठेंगे । उनके सारथिका कार्य करेंगे और उनके तेजका भी अपहरण करेंगे। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण लोकों, ऋषि-महर्षियों तथा देवताओंका भी कल्याण होगा ॥१७॥

प्रमतिरुवाच 🗣️

ततः पितामहाशातः सर्व चक्रे तदारुणः ॥१८॥

उदितश्चैव सविता ह्यरुणेन समावृतः।

एतत् ते सर्वमाख्यातं यत् सूर्ये मन्युराविशत् ॥१९॥

प्रमति कहते हैं- 🗣️

तत्पश्चात् पितामह ब्रह्माजीकी आशासे अरुणने उस समय सब कार्य उसी प्रकार किया । सूर्य अरुणसे आवृत होकर उदित हुए । वत्स ! सूर्यके मनमें क्यों क्रोधका आवेश हुआ था, इस प्रश्नके उत्तरमें मैंने ये सब बातें कही हैं ॥ १८-१९ ॥

अरुणश्च यथैवास्य सारथ्यमकरोत् प्रभुः।

भूय एवापरं प्रश्नं शृणु पूर्वमुदाहृतम् ॥२०॥

शक्तिशाली अरुणने सूर्यके सारथिका कार्य क्यों किया, यह बात भी इस प्रसङ्गमें स्पष्ट हो गयी है। अब अपने पूर्वकथित दूसरे प्रश्नका पुनः उत्तर सुनो ॥ २० ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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