१.११ - पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्ष एकादशोऽध्यायः

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश)

डुण्डुभ उवाच 🗣️

सखा बभूव में पूर्वे खगमो नाम वै द्विजः ।

भृशं संशितवाक् तात तपोबलसमन्वितः ॥ १ ॥

स मया क्रीडता वाल्ये कृत्वा ताण भुजङ्गमम् ।

अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै ॥ २ ॥

डुण्डुभने कहा- 🗣️

तात ! पूर्वकालमें खगम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्रमें लगा था। मैंने खिलवाड़में तिनकोंका एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया । वह भयके मारे मूर्च्छित हो गया ॥ १-२ ॥

लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः।

निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक संशितव्रतः ॥ ३ ॥

फिर होशमें आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरबती तपस्वी मुझे क्रोधसे दग्ध-सा करता हुआ बोला ॥ ३ ॥ यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्विभीषया ।

तथावीर्यो भुजङ्गस्त्वं मम शापाद् भविष्यसि ॥ ४ ॥

'अरे ! तूने मुझे डरानेके लिये जैसा अल्प शक्तिवाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्पशक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा' ॥ ४ ॥

तस्याहं तपसो वीर्य जानन्नासं तपोधन ।

भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा ॥ ५ ॥

प्रणतः सम्भ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः ।

सखेति सहसेदं ते नर्मार्थ वै कृतं मया ॥ ६ ॥

क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन् शापोऽयं विनिवर्त्यताम्।

सोऽथ मामब्रवीद् दृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम् ॥ ७ ॥

मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधनः।

नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन ॥ ८ ॥

तपोधन ! मैं उसकी तपस्याका बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े बेगसे उसके चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधनसे बोला-सखे ! मैंने परिहास के लिये सहसा यह कार्य कर डाला है । ब्रह्मन् ! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो । मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रममें पड़े हुए उस तस्वीने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती ॥५-८॥

यत्त वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन ।

श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ॥ ९ ॥

निष्पाप तपोधन ! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदयमें सदा धारण करो॥ ९ ॥

उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः।

तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ॥१०॥

भविष्यमें महर्षि प्रमतिके पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शापसे छुटकारा मिल जायगा' ॥ १० ॥

स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च ।

स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ११ ॥

जान पड़ता है तुम वहीं रुरु नामसे विख्यात महर्षि प्रमतिके पुत्र हो । अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ॥ ११ ॥

स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा ।

स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः ॥ १२॥

इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमोजसम् ।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर ॥१३॥

इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपादने डुण्डुभका रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूपको प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओजवाले रुझसे यह बात कही-समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण ! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ॥ १२-१३॥

तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद ब्राह्मणः क्वचित् ।

ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः॥१४॥

अतः ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये । ब्राह्मण इस लोकमें सदा सौम्य स्वभावका ही होता है, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन है ॥ १४ ॥

वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः ।

अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ॥ १५ ॥

ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च ।

क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स हि नेष्येत वै तव ॥ १६॥

वह वेद-वेदाङ्गोंका विद्वान् और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला होता है। अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदोंका स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मणके उत्तम धर्म हैं। क्षत्रियका जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ॥ १५-१६ ॥

दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम् ।

तदिदं क्षत्रियस्यासीत् कर्म वैशृणु मे रुरो ॥ १७ ॥

जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन् सर्पाणां हिंसनं पुरा।

परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ॥ १८॥

तपोवीर्यबलोपेताद् वेदवेदाङ्गपारगात्।

आस्तीकाद् द्विजमुख्याद वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम॥ १९ ॥

रुरो ! दण्डधारण, उग्रता और प्रजापालन-ये सब क्षत्रियोंके कर्म रहे हैं । मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजयके यज्ञमें सर्पोंकी बड़ी भारी हिंसा हुई । द्विजश्रेष्ठ ! फिर उसी सर्पसत्रमें तपस्याके बल-वीर्यसे सम्पन्न, वेद-वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान् विप्रवर आस्तीकनामक ब्राह्मणके द्वारा भयभीत सर्पोंकी प्राणरक्षा हुई ॥ १७-१९ ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्ष एकादशोऽध्यायः ॥ १॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोमपर्वमें डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

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