सौतिरुवाच 🗣️
सम्प्रहृष्टास्ततो
नागा जलधाराप्लुतास्तदा ।
सुपर्णेनोह्यमानास्ते
जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
गरुडपर सवार होकर
यात्रा करनेवाले वे नाग उस समय जलधारासे नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही
रामणीयक द्वीपमें जा पहुँचे ॥ १ ॥
तं द्वीपं मकरावासं
विहितं विश्वकर्मणा ।
तत्र ते लवणं घोरं
ददृशुः पूर्वमागताः ॥ २ ॥
विश्वकर्माजीके बनाये
हुए उस द्वीपमें, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बार
नाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुरका दर्शन हुआ था ॥२॥
सुपर्णसहिताः सर्पाः
काननं च मनोरमम् ।
सागराम्बुपरिक्षिप्तं
पक्षिसङ्घनिनादितम् ॥ ३ ॥
सर्प गरुडके साथ उस
द्वीपके मनोरम वनमें आये,
जो चारों ओरसे
समुद्रद्वारा घिरकर उसके जलसे अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी कलरव
कर रहे थे ॥३॥
विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम्
।
भवनैरावृतं रम्यैस्तथा
पद्माकरैरपि ॥ ४ ॥
विचित्र फूलों और
फलोंसे भरी हुई वनश्रेणियाँ उस दिव्य वनको घेरे हुए थी । वह वन बहुत-से रमणीय
भवनों और कमलयुक्त सरोवरोंसे आवृत था ॥ ४ ॥
प्रसन्नसलिलैश्चापि
हृदैर्दिव्यैविभूषितम् ।
दिव्यगन्धवहैः
पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् ॥ ५ ॥
स्वच्छ जलवाले कितने
ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्धका भार वहन करनेवाली पावन वायु
मानो वहाँ चॅंवर डुला रही थी ॥५॥
उत्पतद्भिरिवाकाशं
वृक्षैर्मलयजैरपि ।
शोभितं पुष्पवर्षाणि
मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः ॥ ६ ॥
वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज
वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे,
मानो आकाशमें उड़े जा
रहे हों । वे वायुके वेगसे विकम्पित हो फूलोंकी वर्षा करते हुए उस प्रदेशकी शोभा
बढ़ा रहे थे ॥६॥
वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि
पादपैः।
किरद्भिरिव तत्रस्थान
नागान् पुष्पाम्बुवृष्टिभिः॥ ७ ॥
हवाके झोंकेसे
दूसरे-दूसरे वृक्षोंके भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँके
वृक्षसमूह वहाँ उपस्थित हुए नागोंपर फूलोंकी वर्षा करते हुए उनके लिये अर्घ्य दे
रहे हो ॥ ७ ॥
मनःसंहर्षजं दिव्यं
गन्धर्वाप्सरसां प्रियम् ।
मत्तभ्रमरसंघुष्टं
मनोशाकृतिदर्शनम्॥ ८ ॥
वह दिव्य वन हृदयके
इर्षको बढानेवाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंद करती थीं । मतवाले भ्रमर
वहाँ सब ओर गूंज रहे थे । अपनी मनोहर छटाके द्वारा वह अत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता
था ॥ ८॥
रमणीयं शिवं पुण्यं
सर्वैर्जनमनोहरैः ।
नानापक्षिरुतं रम्यं
कद्रू पुत्रप्रहर्षणम् ॥ ९ ॥
वह वन रमणीय, मङ्गलकारी और पवित्र होने के साथ ही लोगोंके मनको
मोहनेवाले सभी उत्तम गुणों से युक्त था । भाँतिभाँतिके पक्षियोंके कलरवोंसे
व्याप्त एवं परम सुन्दर होने के कारण वह कद्रुके पुत्रों का आनन्द बढ़ा रहा था ॥ ९
॥
तत् ते वनं समासाद्य
विजहः पन्नगास्तदा ।
अबुवंश्च महावीर्ये
सुपर्णे पतगेश्वरम् ॥१०॥
उस वनमें पहुँचकर वे
सर्व उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमी पक्षिराज गरुडसे इस प्रकार बोले
--॥१०॥
वहास्मानपरं द्वीपं
सुरम्यं विमलोदकम् ।
त्वं हि देशान् बहन
रम्यान् व्रजन् पश्यसि खेचर॥११॥
खेचर ! तुम आकाशमें
उड़ते समय बहुत-से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमें
निर्मल जलवाले किसी दूसरे रमणीय द्वीपमें ले चलो' ॥११॥
स विचिन्त्याब्रवीत् पक्षी
मातरं विनतां तदा ।
किं कारणं मया मातः
कर्तव्यं सर्पभाषितम् ॥१२॥
गरुडने कुछ सोचकर अपनी
माता विनतासे पूछा'मा ! क्या कारण है कि मुझे सपा की आज्ञाका पालन करना
पड़ता है ? ॥१२॥
विनतोवाच 🗣️
दासीभूतास्मि
दुर्योगात् सपत्न्याः पतगोत्तम ।
पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना
कृतम् ॥ १३ ॥
विनता बोली-- 🗣️
बेटा पक्षिराज ! मैं
दुर्भाग्यवश सौतकी दासी हूँ, इन सर्पोने छल करके
मेरी जीती हुई बाजीको पलट दिया था ॥ १३ ॥
तस्मिंस्तु कथिते
मात्रा कारणे गगनेचरः।
उवाच वचनं सर्पोस्तेन
दुःखेन दुःखितः ॥१४॥
माताके यह कारण
बतानेपर आकाशचारी गरुडने उस दुःखसे दुखी होकर सर्पोंसे कहा--|॥ १४ ॥
किमाहृत्य विदित्वा वा
किं वा कृत्वेह पौरुषम् ।
दास्याद् वो
विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः ॥१५॥
जीभ लपलपानेवाले सर्पो
! तुमलोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ ? किस विद्याका
लाभ करा दूं अथवा यहाँ कौन-सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ जिससे मुझे तथा मेरी माताको
तुम्हारी दासतासे छुटकारा मिल जाय ॥ १५ ॥
सौतिरुवाच 🗣️
श्रुत्वा तमब्रुवन्
सर्पा आहरामृतमोजसा ।
ततो दास्याद्
विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ॥ ६॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
🗣️
गरुडकी बात सुनकर सर्पोंने कहा -'गरुड ! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो । इससे तुम्हें दास्यभावसे छुटकारा मिल जायगा' ॥ १६ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे
सप्तविंशोऽध्यायः ॥२७॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व
में गरुड चरित्रविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२७॥
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