१.२ - पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः


(समन्तपञ्चकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण, महाभारतमें वर्णित पर्वो और उनके संक्षिप्त विषयों का संग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल)


ऋषय ऊचुः 🗣️

समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन ।

एतत् सर्वे यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥१॥

ऋषि बोले- 🗣️

सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समन्तपञ्चक (कुरुक्षेत्र) की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध ) के सम्बन्धमें पूर्ण रूपसे सब कुछ यथावत् सुनना चाहते हैं ॥१॥

सौतिरुवाच 🗣️

शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः ।

समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः ॥२॥

उग्रश्रवाजीने कहा- 🗣️

साधुशिरोमणि विप्रगण ! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ। उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसङ्गमें समन्तपञ्चकक्षेत्रका वर्णन भी सुन लीजिये ॥२॥

त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः ।

असकृत् पार्थिवं क्षत्रं जघानामपंचोदितः ॥३॥

त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने क्षत्रियों के प्रति क्रोधसे प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओंका संहार किया ॥३॥

स सर्व क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः ।

समन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान् हदान् ॥४॥

अग्निके समान तेजस्वी परशुरामजीने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण क्षत्रियवंशका संहार करके समन्तपञ्चकक्षेत्रमें रक्तके पाँच सरोवर बना दिये ॥४॥

स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूञ्छितः ।

पितॄन संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् ॥५॥

क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमें रक्ताञ्जलिके द्वारा अपने पितरोंका तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है ॥५॥

अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन् ।

राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव ॥६॥

अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।

वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते ॥७॥

तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजी के पास आकर बोले-'महाभाग राम! सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँग लो' ॥६-७॥

राम उवाच 🗣️

यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि ।

यञ्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ॥८॥

अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः।

हृदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः ॥९॥

परशुरामजी ने कहा- 🗣️

यदि आप सब हमारे पितर मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रहका पात्र समझते हैं, तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंशका विध्वंस किया है, इस कुकर्मके पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वीमें प्रसिद्ध तीर्थ हो जायँ । यही वर मैं आपलोगोंसे चाहता हूँ॥८-९॥

एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रवन् ।

तं क्षमस्वेति निपिषिधुस्ततः स विरराम ह ॥१०॥

तदनन्तर ऐसा ही होगा' यह कहकर पितरोंने वरदान दिया । साथ ही 'अब बचे-खुचे क्षत्रियवंशको क्षमा कर दोऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियोंके संहारसे भी रोक दिया । इसके पश्चात् परशुरामजी शान्त हो गये ॥१०॥

तेषां समीपे यो देशो हृदानां रुधिराम्भसाम् ।

समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत् परिकीर्तितम् ॥ ११ ॥

उन रक्तसे भरे सरोवरोंके पास जो प्रदेश है, उसे ही समन्तपञ्चक कहते हैं । यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है ॥११॥

येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते ।

तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः ॥ १२॥

जिस चिह्नसे जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानोंका कहना है, कि उस देशका वही नाम रखना चाहिये ॥ १२ ॥

अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत् ।

समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ १३ ॥

जब कलियुग और द्वापरकी सन्धिका समय आया, तब उसी समन्तपञ्चकक्षेत्रमें कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंका परस्पर भीषण युद्ध हुआ ॥ १३ ॥

तस्मिन् परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते ।

अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ॥ १४ ॥

भूमिसम्बन्धी दोषोंसे रहित उस परम धार्मिक प्रदेशमें युद्ध करनेकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थीं ॥ १४ ॥

समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः ।

एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः ॥ १५॥

ब्राह्मणो ! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुई और वहीं नष्ट हो गयीं । द्विजवरो ! इसीसे उस देशका नाम समन्तपञ्चकर पड़ गया ॥ १५ ॥

पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।

तदेतत् कथितं सर्व मया ब्राह्मणसत्तमाः ।

यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः ॥ १६ ॥

वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है । उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! तीनों लोकोंमें जिस प्रकार उस देशकी प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आपलोगोंसे कह दिया ॥ १६ ॥

ऋषय ऊचुः 🗣️

अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन ।

एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ॥ १७ ॥

ऋषियोंने पूछा- 🗣️

सूतनन्दन ! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्दका उच्चारण किया है, इसके सम्बन्धमें हमलोग सारी बातें यथार्थरूपसे सुनना चाहते हैं ॥ १७ ॥

अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम् ।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव ॥ १८ ॥

अक्षौहिणी सेनामें कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं ? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है ॥ १८ ॥

सौतिरुवाच 🗣️

एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः ।

त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ १९ ॥

उग्रश्रवाजीने कहा- 🗣️

एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बसः इन्हींको सेनाके मर्मज्ञ विद्वानोंने पत्ति' कहा है ॥ १९ ॥

पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः ।

त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ॥ २०॥

इसी पत्तिकी तिगुनी संख्याको विद्वान् पुरुष सेनामुख' कहते हैं। तीन सेनामुखोंको एक 'गुल्म' कहा जाता है ॥२०॥

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः ।

स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः ॥ २१॥

तीन गुल्मका एक 'गण' होता है, तीन गणकी एक 'वाहिनी' होती है और तीन वाहिनियोंको सेनाका रहस्य जाननेवाले विद्वानोंने 'पृतना' कहा है ॥ २१॥

चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्चस्त्वनीकिनी।

अनीकिनी दशगुणां प्राहुरोहिणी वुधाः ॥ २२॥


तीन पृतनाकी एक चमू', तोन चमू की एक अनीकिनी' और दस अनीकिनीकी एक अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानोंका कथन है ॥ २२ ॥

अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः।

संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः ॥ २३ ॥

शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः ।

गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत् ॥ २४ ॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! गणितके तत्वज्ञ विद्वानोंने एक अक्षौहिणी सेनामें रथोंकी संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१८७०) बतलायी है । हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये ॥ २३-२४ ॥

शेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु ।

नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः ॥ २५ ॥

निष्पाप ब्राह्मणो ! एक अक्षौहिणीमें पैदल मनुष्योंकी संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (१०९३५०) जाननी चाहिये ॥ २५ ॥

पञ्चपष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च ।

दशोत्तराणि पट प्राहुर्यथावदिह संख्यया ॥ २६॥

एक अक्षौहिणी सेनामें घोड़ोंकी ठीक ठीक संख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (६५६१०) कही गयी है ॥ २६॥

एतामक्षौहिणी प्राहुः संख्यातत्वविदो जनाः।

यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः ॥ २७ ॥

तपोधनो ! संख्याका तत्त्व जाननेवाले विद्वानोंने इसीको अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आपलोगोंको विस्तारपूर्वक बताया है ॥ २७ ॥

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयोः ।

अक्षौहिग्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु ॥ २८ ॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! इसी गणनाके अनुसार कौरव-पाण्डव दोनों सेनाओंकी संख्या अठारह अक्षौहिणी थी ॥ २८ ॥

समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः ।

कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा ॥ २९ ॥

अद्भुत कर्म करनेवाले कालकी प्रेरणासे समन्तपञ्चक क्षेत्रमें कौरवोंको निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई - और वहीं नाशको प्राप्त हो गयीं ॥ २९ ॥

अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्।

अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम् ॥ ३०॥

अस्त्र शस्त्रोंके सर्वोपरि मर्मज्ञ भीष्मपितामहने दस दिनोंतक युद्ध किया, आचार्य द्रोणने पाँच दिनोंतक कौरव-सेनाकी रक्षा की ॥ ३० ॥

अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परवलार्दनः ।

शल्योऽर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम् ॥ ३१ ॥

शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले वीरवर कर्णने दो दिन युद्ध किया और शल्यने आधे दिनतक । इसके पश्चात् (दुर्योधन और भीमसेनका परस्पर) गदायुद्ध आधे दिनतक होता रहा ॥३१॥

तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः।

प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जन्नुर्योधिष्ठिरं बलम् ॥ ३२॥

अठारहवाँ दिन बीत जानेपर रात्रिके समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्यने निःशङ्क सोते हुए युधिष्ठिरके सैनिकोको मार डाला ॥ ३२॥

यत्त सौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम् ।

जनमेजयम्य तत् सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ॥ ३३॥

कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्य महीक्षिताम् ।

पौष्यं तत्रच पौलोममास्तीकं चादितःस्मृतम् ॥ ३४ ॥

शौनकजी ! आपके इस सत्सङ्ग-सत्र में मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ, यही जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीके बुद्धिमान् शिष्य वैशम्पायनजीके द्वारा भी वर्णन किया गया था। उन्होंने बड़े बड़े नरसतियोंके यश और पराक्रमका विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये प्रारम्भमें पौष्य, पौलोम और आस्तीक-इन तीन पाका स्मरण किया है ॥३३-३४॥

विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् ।

प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः ॥ ३५॥

जैसे मोक्ष चाहनेवाले पुरुष पर वैराग्यकी शरण ग्रहण करते हैं, वैसे ही प्रज्ञावान् मनुष्य अलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अद्भुत आख्यान और भाँति-भाँतिकी परस्पर विलक्षण मर्यादाओंसे युक्त इस महाभारतका आश्रय ग्रहण करते हैं ॥ ३५॥

आत्मेव वेदितव्येपु प्रियेष्विव हि जीवितम् ।

इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेप्वयम् ॥ ३६॥

जैसे जाननेयोग्य पदार्थीमें आत्मा, प्रिय पदार्थोंमें अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप प्रयोजनको पूर्ण करनेवाला यह इतिहास श्रेष्ठ है ॥ ३६॥

अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।

आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ॥ ३७॥

जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही हम इतिहासका आश्रय लिये बिना पृथ्वीपर कोई कथा नहीं है॥ ३७॥

तदेतद् भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते।

उदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः ॥ ३८॥

जैसे अपनी उन्नति चाहनेवाले महत्त्वाकाङ्क्षी सेवक अपने कुलीन और सद्भावसम्मन्न स्वामीकी सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसारके श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी सेवा करके ही अपने काव्यकी रचना करते हैं ॥ ३८॥

इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा ।

खरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक ॥ ३९ ॥

जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकारके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाली सम्पूर्ण वाणी स्वरों एवं व्यञ्जनों में समायी रहती है, वैसे ही ( लोक, परलोक एवं परमार्थसम्बन्धी विद्या-बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहासमें भरी हुई है ॥ ३९ ॥

तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः।

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च ॥ ४०॥

भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः।

पर्वानुक्रमणी पूर्व द्वितीयः पर्वसंग्रहः ॥ ४१॥

यह महाभारत इतिहास ज्ञानका भण्डार है। इसमें सूक्ष्मसे-सूक्ष्म पदार्थ और उसका अनुभव करानेवाली युक्तियाँ भरी हुई हैं ! इसका एक-एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है तथा यह भेदों के धर्ममय अर्थसे अलंकृत है। अब इसके पर्वोकी संग्रह-सूची सुनिये । पहले अध्यायमें पर्वानुक्रमणी है और दूसरेमें पर्वसंग्रह ॥ ४०-४१ ॥

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।

ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ ४२ ॥

इसके पश्चात् पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदिअंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तर सम्भवपर्वका वर्णन है, जो अत्यन्त अद्भुत और रोमाञ्चकारी है ॥ ४२ ॥

दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते।

ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः ॥ ४३ ॥

इसके पश्चात् जतुगृह ( लाक्षाभवन ) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवधपर्व है, फिर बकवध और उसके बाद चैत्ररथपर्व है ॥ ४३ ॥

ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते ।

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ॥ ४४॥

उसके बाद पाञ्चालराजकुमारी देवी द्रौपदीके स्वयंवरपर्वके तथा क्षत्रियधर्मसे सब राजाओंपर विजय प्राप्तिपूर्वक वैवाहिक-पर्वका वर्णन है ॥ ४४ ॥

विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च ।

अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः ॥ ४५ ॥

विदुरागमन-राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात् अर्जुन-वनवासपर्व और फिर सुभद्रा-हरणपर्व है ॥ ४५ ॥

सुभद्राहरणादू ज्ञेया हरणहारिका ।

ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् ॥ ४६॥

सुभद्राहरणके बाद हरणाहरणपर्व है, पुनः खाण्डवदाहपर्व है, उसीमें मय-दानवके दर्शनकी कथा है ॥ ४६॥

सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम् ।

जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा ॥ ४७ ॥

इसके बाद क्रमशः सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वधपर्व और दिग्विजयपर्वका प्रवचन है ॥ ४७ ॥

पर्व दिग्विजयादूर्ध्व राजसूयिकमुच्यते।

ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः॥४८॥

तदनन्तर राजसूय, अर्घाभिहरण और शिशुपालवधपर्व कहे गये हैं ॥४८॥

द्युतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यतमतः परम् ।

तत आरण्यक पर्व किर्मीरवध एव च ॥ ४९ ॥

इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्युतपर्व हैं। तत्पश्चात् वनयात्रापर्व तथा किर्मीरवधपर्व है ॥ ४९ ॥

अर्जुनस्याभिगमनं पर्व शेयमतः परम् ।

ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम् ॥ ५० ॥

इसके बाद अर्जुनाभिगमनपर्व जानना चाहिये और फिर कैरात-पर्व आता है, जिसमें सर्वेश्वर भगवान् शिव तथा अर्जुनके युद्धका वर्णन है ॥ ५० ॥

इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम् ॥ ५१ ॥

तत्पश्चात् इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यान-पर्व है ॥ ५१ ॥

तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः।

जटासुरवधः पर्व यज्ञयुद्धमतः परम् ॥ ५२ ॥

तदनन्तर बुद्धिमान् कुरुराजका तीर्थयात्रा पर्व, जटासुरवध-पर्व और उसके बाद यक्ष-युद्धपर्व है ॥ ५२ ॥

निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः।

मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते ॥ ५३ ॥

इसके पश्चात् निवातकवच-युद्ध, आजगर और मार्कण्डेयसमास्यापर्व क्रमशः कहे गये हैं ॥ ५३ ॥

संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः ।

घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः॥ ५४॥

व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च ।

द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम् ॥ ५५ ॥

इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामाके संवादका पर्व, इसके अनन्तर घोषयात्रा-पर्व है, उसीमें मृगस्वानोद्भव और व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्युम्नका आख्यान और उसके बाद द्रौपदीहरण-पर्व है । उसीमें जयद्रथविमोक्षण-पर्व है ॥५४-५५॥

पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्चैवमद्भुतम् ।

रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ॥५६॥

इसके बाद पतिव्रता सावित्रीके पातिव्रत्यका अद्भुत माहात्म्य है । फिर इसी स्थानपर रामोपाख्यान-पर्व जानना चाहिये ॥ ५६ ॥

कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते ।

आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम् ।

पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम् ॥ ५७ ॥

इसके बाद क्रमशः कुण्डलाहरण और आरणेय-पर्व कहे गये हैं। तदनन्तर विराटपर्वका आरम्भ होता है, जिसमें पाण्डवोंके नगर-प्रवेश और समय-पालनसम्बन्धी पर्व हैं ॥५७॥

कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः।

अभिमन्योश्च वैराटयाः पर्व वैवाहिकं स्मृतम् ॥५८ ॥

इसके बाद कीचक-वध-पर्व, गोग्रहण ( गोहरण ) पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तराके विवाहका पर्व है ॥५८ ॥

उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्व महाद्भुतम् ।

ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम् ॥ ५९॥

प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।

पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम् ॥ ६०॥

इसके पश्चात् परम अद्भुत उद्योग-पर्व समझना चाहिये। इसीमें सञ्जययान-पर्व कहा गया है। तदनन्तर चिन्ताके कारण धृतराष्ट्र के रातभर जागनेसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रजागर-पर्व समझना चाहिये। तत्पश्चात् वह प्रसिद्ध सनत्सुजात-पर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीय अध्यात्मदर्शनका समावेश हुआ है ॥५९-६०॥

यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च।

मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ॥६१॥

सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च ।

जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजिकम् ॥ ६२॥

इसके पश्चात् यानसन्धि तथा भगवद्यान-पर्व है, इसीमें मातलिका उपाख्यान, गालव-चरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक-उपाख्यान आते हैं ॥ ६१-६२ ॥

सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम् ।

उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ॥ ६३ ॥

फिर श्रीकृष्णका सभा-प्रवेश, विदुलाका अपने पुत्रके प्रति उपदेश, युद्धका उद्योग, सैन्य-निर्याण तथा विश्वोपाख्यानइनका क्रमशः उल्लेख हुआ है ॥ ६३ ॥

ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः ।

निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ ६४ ॥

इसी प्रसङ्गमें महात्मा कर्णका विवाद-पर्व है । तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव सेनाका निर्याण-पर्व है ॥ ६४ ॥

रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम् ।

उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम् ॥ ६५ ॥

तत्पश्चात् रथातिरथ-संख्यापर्व और उसके बाद क्रोधकी आग प्रज्वलित करनेवाला उलूकदूतागमन-पर्व है ॥ ६५ ॥

अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते ॥६६॥

इसके बाद ही अम्बोपाख्यान-पर्व है । तत्पश्चात् अद्भुत भीष्माभिषेचन-पर्व कहा गया है ॥६६॥

जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम् ।

भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम् ॥ ६७॥

इसके आगे जम्बूखण्ड-विनिर्माण-पर्व है । तदनन्तर भूमिपर्व कहा गया है, जिसमें द्वीपोंके विस्तारका कीर्तन किया गया है॥ ६७॥

पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः ।

द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः ॥ ६८ ॥

इसके बाद क्रमशः भगवद्गीता, भीष्म-वध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवध-पर्व हैं ॥ ६८ ॥

अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते ।

जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः ॥ ६९॥

इसके बाद अभिमन्युवध-पर्व, प्रतिज्ञा-पर्व, जयद्रथवध-पर्व और घटोत्कचवध-पर्व हैं ॥ ६९॥

ततो द्रोणवधः पर्व विशेयं लोमहर्षणम् ।

मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते ॥ ७० ॥

फिर रोंगटे खड़े कर देनेवाला द्रोणवध-पर्व जानना चाहिये । तदनन्तर नारायणास्त्र-मोक्षपर्व कहा गया है ॥ ७० ॥

कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम् ।

हृदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम् ॥ ७१ ॥

फिर कर्ण पर्व और उसके बाद शल्य-पर्व है। इसी पर्वमें ह्रद-प्रवेश और गदायुद्ध-पर्व भी हैं ॥ ७१ ॥

सारखतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।

अत ऊर्य सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ॥ ७२॥

तदनन्तर सारस्वत-पर्व है, जिसमें तीर्थों और वंशोंका वर्णन किया गया है । इसके बाद है अत्यन्त बीभत्स सौप्तिकपर्व ॥ ७२॥

ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वे सुदारुणम् ।

जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम् ॥ ७३ ॥

इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीक-पर्वकी कथा है ।

फिर जलप्रदानिक और स्त्रीविलाप-पर्व आते हैं ॥ ७३ ॥

श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौलदेहिकम् ।

चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः ॥ ७४॥

तत्पश्चात् श्रादपर्व है, जिसमें मृत कौरवोंकी अन्त्येष्टिक्रियाका वर्णन है । उसके बाद ब्राह्मणवेषधारी राक्षस चार्वाकके निग्रहका पर्व है ॥ ७४ ॥

आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः ।

प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम् ॥ ७५॥

तदनन्तर धर्मबुद्धिसम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिरके अभिषेकका पर्व है तथा इसके पश्चात् गृह-प्रविभाग-पर्व है ॥ ७५ ॥

शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम् ।

आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम् ॥ ७६ ॥

इसके पश्चात् शान्तिपर्व प्रारम्भ होता है। जिसमें राजधर्मानुशासन, आपद्धर्म और मोक्षधर्म-पर्व हैं ॥ ७६ ॥

शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम् ।

प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया ॥ ७७ ॥

फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्रह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासाका प्रादुर्भाव और मायासंवाद-पर्व हैं ॥ ७७ ॥

ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् ।

स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः ॥ ७८॥

इसके बाद धर्माधर्मका अनुशासन करनेवालाआनुशासनिकपर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान् भीष्मजीका स्वर्गारोहण-पर्व है ॥ ७८ ॥

ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम् ।

अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् ॥ ७९ ॥

अब आता है आश्वमेधिकपर्व, जो सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। उसीमें अनुगीतापर्व है, जिसमें अध्यात्मज्ञानका सुन्दर निरूपण हुआ है ॥ ७९ ॥

पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च ।

नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते ॥ ८०॥

इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्रदर्शन और तदनन्तर नारदागमन-पर्व कहे गये हैं ॥ ८०॥

मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम् ।

महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः ॥ ८१॥

इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसल-पर्व । तत्पश्चात् महाप्रस्थान-पर्व और स्वर्गारोहण-पर्व आते हैं ॥ ८१॥

हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंशितम्।

विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा ॥ ८२॥

इसके बाद हरिवंश-पर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट ) पुराण भी कहते हैं, इसमें विष्णुपर्व श्रीकृष्णकी बाललीला एवं कंस-वधका वर्णन है ॥ ८२॥

भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्।

पतत् पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना ॥ ८३ ॥

इस खिल-पर्वमें भविष्यपर्व भी कहा गया है, जो महान् अद्भुत है। महात्मा श्रीव्यासजीने इस प्रकार पूरे सौ पर्वोकी रचना की है ॥ ८३ ॥

यथावत् सूतपुत्रेण लोमहर्षणिना ततः।

उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ॥ ८४ ॥

सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाजीने व्यासजीकी रचना पूर्ण हो जानेपर नैमिषारण्य-क्षेत्रमें इन्हीं सौ पर्वोको अठारह पर्वोके रूपमें सुव्यवस्थित करके ऋषियोंके सामने कहा ॥ ८४ ॥

समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः ।

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ॥ ८५॥

सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बवकयोर्वधः ।

तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः ॥ ८६॥

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।

विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च ॥ ८७ ॥

वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः।

हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च ॥ ८८ ॥

मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते ।

इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे महाभारतके पर्वोका संग्रह बताया गया है। पौष्य, पौलोम, आस्तीक आदि-अंशावतरण सम्भव ' लाक्षागृह, हिडिम्ब-वध, बक-वध, चैत्ररथ, देवी द्रौपदीका स्वयंवर, क्षत्रियधर्मसे राजाओंपर विजय प्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन, राज्यलम्भ, अर्जुनका वनवास, सुभद्राका हरण, हरणाहरण, खाण्डव-दाह तथा मय दानवसे मिलनेका प्रसङ्ग-यहाँतककी कथा आदिपर्वमें कही गयी है ॥८५-८८३॥

पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तङ्कस्योपवर्णितम् ॥ ८९ ॥

पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः।

आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः ॥९०॥

पौष्य-पर्वमें उत्तङ्कके माहात्म्यका वर्णन है । पौलोमपर्वमें भृगुवंशके विस्तारका वर्णन है। आस्तीकपर्वमें सब नागों तथा गरुड़की उत्पत्तिकी कथा है ॥ ८९-९०॥

क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा ।

यजतः सर्पसत्रण राज्ञः पारीक्षितस्य च ॥९१॥

कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम् ।

विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि ॥ ९२ ॥

अन्येषां चैव शूराणामृपेद्वैपायनस्य च ।

अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् ॥ ९३॥

इसी पर्वमें क्षीरसागरके मन्थन और उच्चैःश्रवा घोड़ेके जन्मकी भी कथा है । परीक्षित्-नन्दन राजा जनमेजयके सर्पयज्ञमें इन भरतवंशी महात्मा राजाओंकी कथा कही गयी है। सम्भवपर्वमें राजाओंके भिन्न-भिन्न प्रकारके जन्मसम्बन्धी वृत्तान्तोंका वर्णन है । इसीमें दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि दैपायनके जन्मकी कथा भी है। यही देवताओंके अंशावतरणकी कथा कही गयी है ॥ ९१-९३ ॥

दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम् ।

नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम् ॥ ९४ ॥

अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः।

महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः ॥ ९५॥

शकुन्तलायां दुष्यन्ता भरतश्चापि जज्ञिवान् ।

यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ॥ ९६ ॥

इसी पर्वमें अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथा अन्य विविध प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है। परम तपस्वी महर्षि कण्वके आश्रममें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतके जन्मकी कथा भी इसीमें है । उन्हीं महात्मा भरतके नामसे यह भरतवंश संसारमें प्रसिद्ध हुआ है ॥ ९४-९६॥

वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम् ।

शान्तनाश्मनि पुनस्तेगं चारोहणं दिवि ॥ ९७ ॥

इसके बाद महाराज शान्तनुके गृहमें भागीरथी गङ्गाके गर्भसे महात्मा वसुओं की उत्पत्ति एवं फिरसे उनके स्वर्गमें जानेका वर्णन किया गया है ॥ ९७ ॥

तेजोऽशानांच सम्पातोभीष्मस्याप्यत्र सम्भवः।

राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः॥९८॥

प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च ।

हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः ॥ ९९ ॥

विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम् ।

धर्मस्य नृपु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा ॥१००॥

कृष्णद्वैपायानाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा।

धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः ॥१०१॥

इसी पर्वमें वसुओंके तेजके अंशभूत भीष्मके जन्मकी कथा भी है। उनकी राज्यभोगसे निवृत्ति, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित रहने की प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्राङ्गदकी रक्षा और चित्राङ्गदकी मृत्यु हो जानेपर छोटे भाई विचित्रवार्यकी रक्षा, उन्हें राज्य-समर्पण, अणीमाण्डव्यके शापसे भगवान् धर्म की विदुरके रूपमें मनुष्योंमें उत्पत्ति, श्रीकृष्णद्वैपायनके वरदानके कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डुका जन्म और इसी प्रसङ्ग में पाण्डवोंकी उत्यत्ति-कथा भी है ॥ ९८-१०१॥

वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च ।

कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेपणं पाण्डवान् प्रति ॥१०२॥

हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः ।

विदुरेण कृतो यत्र हितार्थ म्लेच्छभाषया ॥१०३॥

लाक्षागृह-दाहपर्वमें पाण्डवोंकी वारणावतयात्राके प्रसङ्गमें दुर्योधनके गुप्त षड्यन्त्रका वर्णन है। उसका पाण्डवोंके पास कूटनीतिज्ञ पुरोचनको भेजनेका भी प्रसङ्ग है । मार्गमें विदुरजीने बुद्धिमान् युधिष्ठिरके हितके लिये म्लेच्छभाषामें जो हितोपदेश किया, उसका भी वर्णन है ॥ १०२-१०३ ॥

विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया।

निपाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि ॥१०४॥

पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम् ।

पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम् ॥१०५॥

तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महावलात् ।

घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता ॥१०६॥

फिर विदुरकी बात मानकर सुरंग खुदवाने का कार्य आरम्भ किया गया । उसी लाक्षागृहमें अपने पाँच पुत्रोंके साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे-यह सब कथा कही गयी है । हिडिम्बवधपर्व में घोर वनके मार्गसे यात्रा करते समय पाण्डवोंको हिडिम्बाके दर्शन, महाबली भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरके वध तथा घटोत्कचके जन्मकी कथा कही गयी है ॥१०४-१०६॥

महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः ।

तदाशयकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ॥१०७॥

अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेगं प्रकीर्तितः ।

वकम्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः ॥१०८॥

अमिततेजस्वी महर्षि व्यासका पाण्डवोंसे मिलना और उनकी आज्ञासे एकचक्रा नगरी में ब्राह्मणके घर पाण्डवोंके गुप्त निवासका वर्णन है । वहीं रहते समय उन्होंने बकासुरका वध किया, जिसमे नागरिकोंको बड़ा भारी आश्चर्य हुआ ॥ १०७-१८ ॥

सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह।

ब्राह्मणात् समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः ॥१०९॥

द्रौपदी प्रार्थयन्तस्ते खयंवरदिदृाया।

पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः ॥११०॥

इसके अनन्तर कृष्णा द्रौपदी और उसके भाई धृष्टद्युम्नकी उत्पत्तिका वर्णन है । जब पाण्डवोंको ब्राह्मणके मुखसे यह संवाद मिला, तब वे महर्षि व्यासकी आज्ञासे द्रौपदीकी प्राप्ति के लिये कौतूहलपूर्ण चित्तसे स्वयंवर देखने पाञ्चाल देशकी ओर चल पड़े ॥ १०९-११० ॥

अङ्गारपर्णे निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा ।

सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रये ॥१११॥

तापत्यमथ वासिष्टमौर्वे चाख्यानमुत्तमम् ।

भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ ॥११२॥

पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः।

द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम् ॥११३॥

भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान् पृथिवीपतीन् ।

शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे ॥११४॥

चैत्ररथ पर्वमें गङ्गाके तटपर अर्जुनने अङ्गारपर्ण गन्धर्वको जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसीके मुखसे तपती, वसिष्ठ और और्वके उत्तम आख्यान सुने । फिर अर्जुनने वहाँसे अपने सभी भाइयोंके साथ पाञ्चालकी ओर यात्रा की। तदनन्तर अर्जुनने पाञ्चालनगरके बड़े-बड़े राजाओंसे भरी सभामें लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया-यह कथा भी इसी पर्वमें है । वहीं भीमसेन और अर्जुनने रणाङ्गणमें युद्धके लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओंको तथा शल्य और कर्णको भी अपने पराक्रमसे पराजित कर दिया॥१११-११४ ॥

दृणा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम् ।

शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती ॥११५॥

जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि ।

पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च ॥११६॥

महामति बलराम एवं भगवान् श्रीकृष्णने जब भीमसेन एवं अर्जुनके अपरिमित और अतिमानुष बल-वीर्यको देखा, तब उन्हें यह शङ्का हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घर आये । इसके पश्चात् दुपदने 'पाँचों पाण्डवोंकी एक ही पत्नी कैसे होसकती है। इस सम्बन्ध विचार-विमर्श किया ॥११५-११६॥

पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते ।

द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः ॥११७॥

इस वैवाहिक-पर्वमें पाँच इन्द्रोंका अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदीके देवविहित तथा मनुष्यपरम्पराके विपरीत विवाहका वर्णन हुआ है ॥ ११७ ॥

क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।

विदुरस्य च सम्प्राप्तिदर्शनं केशवस्य च ॥११८॥

इसके बाद धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पास विदुरजीको भेजा है, विदुरजी पाण्डवोंसे मिले हैं तथा उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ ॥ ११८ ॥

खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसर्जनम् ।

नारदस्याशया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया ॥११९॥

इसके पश्चात् धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थमें पाण्डवोका निवास करना एवं नारदजीकी आज्ञासे द्रौपदीके पास आने-जानेके सम्बन्धमें समय-निर्धारण आदि विषयोंका वर्णन है ॥ ११९ ॥

सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम् ।

अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम् ॥१२०॥

अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम् ।

मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थ कृतनिश्चयः ॥१२१॥

समयं पालयन् वीरो वनं यत्र जगाम ह।

पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः ॥१२२॥

इसी प्रसङ्गमें सुन्द और उपसुन्दके उपाख्यानका भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदीके साथ बैठे हुए थे । अर्जुनने ब्राह्मणके लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मणकी वस्तु उसे प्राप्त करा दी और दृढ़ निश्चय करके वीरताके साथ मर्यादापालनके लिये वनमें चले गये। इसी प्रसङ्गमें यह कथा भी कही गयी है, कि वनवासके अवसरपर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपीका मेल-मिलाप हो गया ॥ १२०-१२२॥

पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रवाहनजन्म च।

तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसःशुभाः ॥१२३॥

शापाद् ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्ते तपखिनः ।

प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः ॥१२४॥

इसके बाद अर्जुनने पवित्र तीर्थोकी यात्रा की है। इसी समयचित्राङ्गदाके गर्भसे बभ्रुवाहनका जन्म हुआ है और इसी यात्रामें उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओंको मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मणके शापसे ग्राह हो गयी थीं। फिर प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्ण और अर्जुनके मिलनका वर्णन है ॥१२३-१२४॥

द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी ।

वासुदेवस्थानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ॥१२५॥

तत्पश्चात् यह बताया गया है, कि द्वारकामें सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक दूसरेपर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्णकी अनुमतिसे अर्जुनने सुभद्राको हर लिया ॥१२५॥

गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने।

अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः ॥१२६॥

तदनन्तर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवोंके पास पहुँचनेकी और सुभद्राके गर्भसे परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्युके जन्मकी कथा है ॥ १२६ ॥

द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।

विहारार्थ च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु ॥१२७॥

सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम् ।

मयस्य मोक्षोज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम् ॥१२८॥

इसके पश्चात् द्रौपदीके पुत्रोंकी उत्पत्तिकी कथा है । तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुनाजीके तटपर विहार करनेके लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुषकी प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है । साथ ही खाण्डववनके दाह, मय दानवके छुटकारे और अग्निकाण्डसे सर्पके सर्वथा बच जानेका वर्णन हुआ है ॥ १२७-१२८ ॥

महर्षेर्मन्दपालस्य शाङ्गों तनयसम्भवः।

इत्येतदादिपर्वोकं प्रथमं बहुविस्तरम् ॥१२९॥

इसके बाद महर्षि मन्दपालका शार्ङी पक्षीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करनेकी कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्वका सबसे प्रथम निरूपण हुआ है ॥ १२९ ॥

अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा।

सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा ॥१३०॥

परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यासने इस पर्वमें दो सौ सत्ताईस ( २२७) अध्यायोंकी रचना की है ॥ १३० ॥

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।

श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना ॥१३१॥

महात्मा व्यास मुनिने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायोंमें आठ हजार आठ सौ चौरासी (८८८४) श्लोक कहे हैं ॥१३१॥

द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते ।

सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम् ॥१३२॥

लोकपालसभाख्यानं नारदाद् देवदर्शिनः ।

राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा ॥१३३॥

गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम् ।

तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः ॥१३४॥

दूसरा सभापर्व है । इसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन है । पाण्डवोंका सभानिर्माण, किङ्कर नामक राक्षसोंका दीखना, देवर्षि नारदद्वारा लोकपालोंकी सभाका वर्णन, राजसूय यज्ञका आरम्भ एवं जरासन्ध-वध, गिरिव्रजमें बंदी राजाओंका श्रीकृष्णके द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजयका भी इसी सभापर्वमें वर्णन किया गया है ॥१३२-१३४ ॥

राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महाक्रतो ।

राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा ॥१३५॥

राजसूय महायज्ञमें उपहार ले-लेकर राजाओंके आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषयको लेकर छिड़े हुए विवादमें शिशुपाल के वधका प्रसङ्ग भी इसी सभापर्वमें आया है ॥१३५॥

यशे विभूति तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च ।

दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले ॥१३६॥

यज्ञमें पाण्डवोंका यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईर्ष्यासे मन-ही-मनमें जलने लगा । इसी प्रसङ्गमें सभाभवनके सामने समतल भूमिपर भीमसेनने उसका उपहास किया ॥१३६॥

यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यू तमकारयत् ।

यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत् ॥१३७॥

उसी उपहासके कारण दुर्योधनके हृदयमें क्रोधाग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूएके खेलका षड्यन्त्र रचा । इसी जूएमें कपटी शकुनिने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जीत लिया ॥१३७॥

यत्र द्यूतार्ण वे मनां द्रौपदी नौरिवार्णवात् ।

धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम् ॥१३८॥

तारयामास तांस्तीर्णान् ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः।

पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान् ॥१३९॥

जैसे समुदमें डूबी हुई नौकाको कोई फिरसे निकाल ले, वैसे ही द्यूतके समुद्रमें डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्रवधू द्रौपदीको परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्रने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधनको जूएकी विपत्तिसे पाण्डवोंके बच जानेका समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पितासे आग्रह करके) जूएके लिये बुलवाया ॥ १३८-१३९ ॥

जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः ।

एतत् सर्व सभापर्व समाख्यातं महात्मना ॥१४०॥

दुर्योधनने उन्हें जूएमें जीतकर वनवासके लिये भेज दिया । महर्षि व्यासने सभापर्वमें यही सब कथा कही है ॥१४०॥

अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया ।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च ॥१४१॥

श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन् द्विजोत्तमाः।

अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत् ॥१४२॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या अठहत्तर (७८) है और श्लोकोंकी संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (२५११) बतायी गयी है। इसके पश्चात् महत्त्वपूर्ण वनपर्वका आरम्भ होता है ॥ १४१-१४२॥

वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।

पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः ॥१४३॥

जिस समय महात्मा पाण्डव वनवासके लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत-से पुरवासी लोग बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चलने लगे ॥ १४३ ॥

अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना ।

द्विजानां भरणार्थे च कृतमाराधनं रवेः ॥१४४॥

महात्मा युधिष्ठिरने पहले अनुयायी ब्राह्मणोंके भरणपोषणके लिये अन्न और ओषधियाँ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे सूर्य भगवान्की आराधना की ॥ १४४ ॥

धौम्योपदेशात् तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः ।

हितंच ब्रुवतःक्षत्तः परित्यागोऽम्बिकासुतात् ॥१४५॥

त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा ।

पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥१४६॥

कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ।

वनस्थान पाण्डवान् हन्तुंमन्त्रो दुर्योधनस्य च॥१४७॥

महर्षि धौम्यके उपदेशसे उन्हें सूर्य भगवान्की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्नका पात्र मिला । उधर विदुरजी धृतराष्ट्रको हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धृतराष्ट्रने उनका परित्याग कर दिया । धृतराष्ट्र के परित्यागपर विदुरजी पाण्डवोंके पास चले गये और फिर धृतराष्ट्रका आदेश प्राप्त होनेपर उनके पास लौट आये । धृतराष्ट्रनन्दन दुर्मति दुर्योधनने कर्ण के प्रोत्साहनसे वनवासी पाण्डवोंको मार डालनेका विचार किया ॥ १४५-१४७ ॥

तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम् ।

निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च ॥१४८॥

दुर्योधनके इस दूषित भावको जानकर महर्षि व्यास झटपट वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने दुर्योधनकी यात्राका निषेध कर दिया। इसी प्रसङ्गमें सुरभिका आख्यान भी है ॥ १४८ ॥

मैत्रेयागमनं चात्र राक्षश्चैवानुशासनम् ।

शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च ॥१४९॥

मैत्रेय ऋषिने आकर राजा धृतराष्ट्रको उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधनको शाप दे दिया ॥ १४९ ॥

किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे।

वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः ॥१५०॥

इसी पर्वमें यह कथा है कि युद्ध में भीमसेनने किर्मीरको मार डाला | पाण्डवोंके पास वृष्णिवंशी और पाञ्चाल आये। पाण्डवोंने उन सबके साथ वार्तालाप किया ॥ १५०॥

श्रुत्वा शकुनिना द्युते निकृत्या निर्जितांश्च तान् ।

कुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना ॥१५१॥

जब श्रीकृष्णने यह सुना कि शकुनिने जूए में पाण्डवोंको काटसे हरा दिया है, तब वे अत्यन्त क्रोधित हुए; परंतु अर्जुनने हाथ जोड़कर उन्हें शान्त किया ॥ १५१ ॥

परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिधौ।

आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम् ॥१५२॥

द्रौपदी श्रीकृष्णके पास बहुत रोयी-कलपी। श्रीकृष्णने दुःखार्त द्रौपदी को आश्वासन दिया। यह सब कथा वनपर्वमें है ॥१५२॥

तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा ।

सुभद्रायाः सुपुत्रायाः कृष्णेन द्वारका पुरीम् ॥१५३॥

नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह।

प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः ॥१५४॥

इसी पर्व में महर्षि व्यासने सौभवधकी कथा कही है । श्रीकृष्ण सुभद्राको पुत्रसहित द्वारकामें ले गये । धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंको अपने साथ लिवा ले गये । तदनन्तर पाण्डवोंने परम रमणीय द्वैतवनमें प्रवेश किया ॥१५३-१५४||

धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह ।

संवादश्च तथा राशा भीमस्यापि प्रकीर्तितः ॥१५५॥

इसी पर्वमें युधिष्ठिर एवं द्रौपदीका संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेनके संवाद का भलीभाँति वर्णन किया गया है॥१५५॥

समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा ।

प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राझो महर्षिणा ॥१५६॥

महर्षि व्यास पाण्डवोंके पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति नामक मन्त्रविद्याका उपदेश दिया ॥१५६॥

गम काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः।

अस्त्रतोर्विवासश्च , प्रार्थस्यामिततेजसः ॥१५७॥

व्यासजीके चले जानेपर पाण्डवोंने काम्यकवनकी यात्रा की । इसके बाद अमिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करनेके लिये अपने भाइयोंसे अलग चले गये ॥ १५७ ॥

महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह ।

दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च ॥१५८॥

वहीं किरात वेशधारी महादेवजीके साथ अर्जुनका युद्ध हुआ, लोकपालोंके दर्शन हुए और अस्त्रकी प्राप्ति हुई ॥१५८॥

महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः ।

यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी ॥१५९॥

इसके बाद अर्जुन अस्त्र के लिये इन्द्रलोकमें गये-यह सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ता हुई ॥ १५९॥

दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षे वितात्मनः ।

युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम् ॥१६०॥

इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्वका दर्शन हुआ । युधिष्ठिरने आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया ॥ १६० ॥

नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम् ।

दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ॥१६१॥

इसी प्रसङ्गमें नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मनिष्ठा का अनुपम आदर्श है और जिसे पढ़-सुनकर हृदयमें करुणा की धारा बहने लगती है । दमयन्तीका दृढ़ धैर्य और नलका चरित्र यहीं पढ़नेको मिलते हैं ॥ १६१ ॥

तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः।

लोमशस्यागमस्तत्र खर्गात् पाण्डुसुतान् प्रति ॥१६२॥

वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् ।

स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै ॥१६३॥

उन्हीं महर्षिसे पाण्डवोंको अक्ष हृदय (जूएके रहस्य ) की प्राप्ति हुई । यहीं स्वर्गसे महर्षि लोमश पाण्डवोंके पास पधारे । लोमशने ही वनवासी महात्मा पाण्डवों को यह बात बतलायी कि अर्जुन स्वर्गमें किस प्रकार अस्त्र-विद्या सीख रहे हैं ॥ १६२-१६३ ॥

संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया।

तीर्थानां च फलप्राप्तिःपुण्यत्वं चापि कीर्तितम् ॥१६४॥

इसी पर्वमें अर्जुनका संदेश पाकर पाण्डवोंने तीर्थयात्रा की। उन्हें तीर्थयात्राका फल प्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं- इस बातका वर्णन हुआ है ॥ १६४ ॥

पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा।

तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम् ॥१६५॥

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।

तथा यशविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता ॥१६६॥

इसके बाद महर्षि नारदने पुलस्त्य तीर्थकी यात्रा करने की प्रेरणा दी और महात्मा पाण्डवोंने वहाँकी यात्रा की । यहीं इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वञ्चित करनेका तथा राजा गयके यज्ञवैभवका वर्णन किया गया है ॥ १६५-१६६ ॥

आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम् ।

लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृपेस्तथा ॥१६७॥

इसके बाद अगस्त्य चरित्र है, जिसमें उनके वातापिभक्षण तथा संतान के लिये लोपामुद्राके साथ समागमका वर्णन है॥१६७॥

ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः।

जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः ॥१६८॥

इसके पश्चात् कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यशृङ्गका चरित्र है। फिर परम तेजस्वी जमदग्मिनन्दन परशुरामका चरित्र है॥१६८॥

कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते ।

प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः ॥१६९॥

इसी चरित्रमें कार्तवीर्य अर्जुन तथा हैहयवंशी राजाओंके वधका वर्णन किया गया है । प्रभासतीर्थमें पाण्डवों एवं यादवोंके मिलने की कथा भी इसी में है ॥ १६९ ॥

सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः ।

शर्यातियशे नासत्यौ कृतवान् सोमपीतिनौ ॥१७०॥

इसके बाद सुकन्याका उपाख्यान है । इसीमें यह कया है कि भृगुनन्दन च्यवनने शर्यातिके यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बना दिया ॥ १७० ॥

ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः।

मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम्॥१७१॥

उन्हीं दोनोंने च्यवन मुनिको बूढ़ेसे जवान बना दिया। राजा मान्धाताकी कथा भी इसी पर्वमें कही गयी है ॥१७१॥

जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः।

पुत्रार्थमयजद् राजा लेभे पुत्रशतं च सः ॥१७२॥

यही जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमकने बहुत-से पुत्र प्राप्त करनेके लिये एक पुत्रसे यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये ॥ १७२ ॥

ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम् ।

इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थ शिविं नृपम् ॥१७३॥

इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर) का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबिके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये आये हैं ॥ १७३ ॥

अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र वन्दिना ।

अष्टावक्रस्य विप्रर्जनकस्याध्वरेऽभवत् ॥१७४॥

नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च ।

पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ॥१७५॥

विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः।

यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः ।

गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे ॥१७६॥

इसी पर्वमें अष्टावक्रका चरित्र भी है। जिसमें बन्दीके साथ जनकके यज्ञमें ब्रह्मर्षि अष्टावक्रके शास्त्रार्थका वर्णन है । वह बन्दी वरुणका पुत्र था और नैयायिकोंमें प्रधान था । उसे महात्मा अष्टावक्रने वाद-विवादमें पराजित कर दिया । महर्षि अष्टावक्रने बन्दीको हराकर समुद्रमें डाले हुए अपने पिताको प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्यका उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवोंकी गन्धमादन-यात्रा और नारायणाश्रममें निवासका वर्णन है॥ १७४-१७६ ॥

नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने ।

व्रजन् पथि महाबाहुर्दष्टवान् पवनात्मजम् ॥१७७॥

कदलीखण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महावलम् ।

यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनी तामधर्षयत् ॥१७८॥

द्रौपदीने सौगन्धिक कमल लानेके लिये भीमसेनको गन्धमादन पर्वत पर भेजा । यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेनने मार्गमें कदली-वनमें महाबली पवननन्दन श्रीहनुमान जीका दर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमलके लिये भीमसेनने सरोवरमें घुसकर उसे मथ डाला || १७७-१७८ ॥

यत्रास्य युद्धमभवत् सुमहद् राक्षसः सह ।

यक्षैश्चैव महावीर्यमणिमत्प्रमुखैस्तथा ॥१७९॥

वहीं भीमसेनका राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान् आदि यक्षोके साथ घमासान युद्ध हुआ ॥१७९॥

जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात।

वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम् ॥१८०॥

आर्टिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च ।

प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः ॥१८१॥

कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः।

युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह ॥१८२॥

तत्पश्चात् भीमसेनके द्वारा जटासुर राक्षसका वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वृषपर्वा और आर्ष्टिषेणके आश्रमपर गये और वहीं रहने लगे । यही द्रौपदी महात्मा भीमसेनको प्रोत्साहित करती रही । भीमसेन कैलास-पर्वतपर चढ़ गये । यहीं अपनी शक्तिके नशेमें चूर मणिमान् आदि यक्षोंके साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ ॥ १८०-१८२॥

समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च ।

समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह ॥१८३॥

यहीं पाण्डवोंका कुबेरके साथ समागम हुआ । इसी स्थानपर अर्जुन आकर अपने भाइयोंसे मिले ॥१८३॥

अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना ।

निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः ॥१८४॥

इधर सव्यसाची अर्जुनने अपने बड़े भाईके लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवोंके साथ उनका घोर युद्ध हुआ ॥ १८४ ॥

निवातकवचैोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः ।

पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः ॥१८५॥

वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता।

अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ ॥१८६॥

वहाँ देवताओंके शत्रु भयंकर दानव निवातकवच पौलोम और कालकेयोंके साथ अर्जुनने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान् अर्जुनने स्वयं राजा युधिष्ठिरको सुनाया । इसके बाद अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरके पास अपने अस्त्र-शस्त्रोका प्रदर्शन करना चाहा ॥ १८५-१८६ ॥

पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा ।

अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात् ॥१८७॥

इसी समय देवर्षि नारदने आकर अर्जुनको अस्त्र-प्रदर्शनसे रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वतसे नीचे उतरने लगे॥१८७॥

भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्मणा ।

भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन् सुगहने वने ॥१८८॥

फिर एक बीहड़ वनमें पर्वतके समान विशाल शरीरधारी बलवान् अजगरने भीमसेनको पकड़ लिया ॥ १८८ ॥

अमोक्षयद् यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः।

काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम् ॥१८९॥

धर्मराज युधिष्ठिरने अजगर-वेषधारी नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको छुड़ा लिया । इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवनमें आये ॥ १८९ ॥

तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान् पुरुषर्षभान् ।

वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम् ॥१९०॥

जब नरपुङ्गव पाण्डव काम्यकवनमें निवास करने लगे। तब उनसे मिलनेके लिये वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये-यह कथा इसी प्रसङ्गमें कही गयी है ॥१९०॥

मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः ।

पृथोवैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा ॥१९१॥

पाण्डवोंका महामुनि मार्कण्डेयके साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षिने बहुत-से उपाख्यान सुनाये । उनमें वेनपुत्र पृथुका भी उपाख्यान है ॥ १९१॥

संवादश्च सरखत्यास्तायः सुमहात्मनः ।

मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम् ॥१९२॥

इसी प्रसङ्गमें प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताय और सरस्वतीका संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है ॥१९२॥

मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते।

ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ॥१९३॥

इसी मार्कण्डेय-समागममें पुराणोंकी अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्नका उपाख्यान तथा धुन्धुमारकी कथा भी है ॥१९३॥

पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम् ।

द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया ॥१९४॥

पतिव्रताका और आङ्गिरसका उपाख्यान भी इसी प्रसङ्गमें है। द्रौपदीका सत्यभामाके साथ संवाद भी इसीमें है ॥१९४॥

पुनद्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः।

घोषयात्रा च गन्धवैर्यत्र बद्धः सुयोधनः॥१९५॥

तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुनः दैत-वनमें आये। कौरवोंने घोषयात्रा की और गन्धर्वोने दुर्योधनको बंदी बना लिया ॥१९५॥

ह्रियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौकिरीटिना।

धर्मराजस्य चात्रैव मृगखप्ननिदर्शनम् ॥१९६॥

वे मन्दमति दुर्योधनको कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुनने युद्ध करके उसे छुड़ा लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको स्वप्नमें हरिणके दर्शन हुए ॥ १९६ ॥

काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते।

वीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ॥१९७॥

इसके पश्चात् पाण्डवगण काम्यक नामक श्रेष्ठ वनमें फिरसे गये । इसी प्रसङ्गमें अत्यन्त विस्तारके साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है ॥१९७ ॥

दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् ॥१९८॥

इसीमें दुर्वासाजीका उपाख्यान और जयद्रथके द्वारा आश्रमसे द्रौपदीके हरणकी कथा भी कही गयी है ॥ १९८ ॥

यत्रैनमन्वयाद भीमो वायुवेगसमो जवे ।

चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः ॥१९९॥

उस समय महाबली भयंकर भीमसेनने वायुवेगसे दौड़कर उसका पीछा किया था तथा जयद्रथके सिरके सारे बाल मूंड़कर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं ॥ १९९ ॥

रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।

यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि ॥२००॥

वनपर्वमें बड़े ही विस्तारके साथ रामायणका उपाख्यान है, जिसमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने युद्धभूमिमें अपने पराक्रमसे रावणका वध किया है ॥ २०० ॥

सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात्॥२०१॥

इसके बाद ही सावित्रीका उपाख्यान और इन्द्र के द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वञ्चित कर देनेकी कथा है ॥ २०१॥

यत्रास्य शक्ति तुष्टोऽसावदादेकवधाय च ।

आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात् सुतम् ॥२०२॥

इसी प्रसङ्गमें इन्द्रने प्रसन्न होकर कर्णको एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीर मारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय-उपाख्यान, जिसमें धर्मराजने अपने पुत्र युधिष्ठिरको शिक्षा दी है ॥ २०२ ॥

जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम् ।

एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम् ॥२०३॥

अत्राध्यासते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते ।

एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः ॥२०४॥

और उनसे बरदान प्राप्तकर पाण्डवोंने पश्चिम दिशाकी यात्रा की। यह तीसरे वनपर्वकी सूची कही गयी। इस पर्वमें गिनकर दो सौ उनहत्तर ( २६९) अध्याय कहे गये हैं ॥ २०३-२०४ ॥

एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट् शतानि च ।

चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाःपर्वण्यस्मिन् परिकीर्तिताः॥२०५॥

ग्यारह हजार छः सौ चौंसठ ( ११६६४ ) श्लोक इस पर्वमें हैं ॥ २०५ ॥

अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम् ।

विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम् ॥२०६॥

दृष्ट्वा संनिधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत ।

यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते ॥२०७॥

इसके बाद विराटपर्वकी विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवोंने विराट-नगरमें जाकर श्मशानके पास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा । उसीपर उन्होंने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र रख दिये । तदनन्तर उन्होंने नगरमें प्रवेश किया और छद्मवेशमें वहाँ निवास करने लगे ॥ २०६-२०७ ॥

पाञ्चाली प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः ।

दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात् ॥२०८॥

कीचक स्वभावसे ही दुष्ट था। द्रौपदीको देखते ही उसका मन काम बाणसे घायल हो गया । वह द्रौपदीके पीछे पड गया। इसी अपराधसे भीमसेनने उसे मार डाला । यह कथा इसी पर्वमें है ॥ २०८॥

पाण्डवान्वेषणार्थं च यज्ञो दुर्योधनस्य च ।

चायःप्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम्॥२०९॥

राजा दुर्योधनने पाण्डवोंका पता चलाने के लिये बहुत-से निपुण गुप्तचर सब ओर भेजे ॥ २०९॥

नच प्रवृत्तिस्तैलब्धा पाण्डयानां महात्मनाम् ।

गोप्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तेः प्रथमं कृतः ॥२१०॥

परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवों की गतिविधिका कोई हालचाल न मिला । इन्हीं दिनों त्रिगौने राजा विराट की गौओंका प्रथम बार अपहरण कर लिया ॥ २१० ॥

यत्रास्य युद्धं सुमहत् तैरासील्लोमहर्पणम् ।

ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः ॥२११॥

राजा विराटने त्रिगतोंके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घमासान युद्ध किया । त्रिगर्त विराटको पकड़कर लिये जा रहे थे; किंतु भीमसेनने उन्हें छुड़ा लिया ॥२११॥

गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः ।

अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम् ॥२१२॥

साथ ही पाण्डवोंने उनके गोधनको भी त्रिगतोंसे छुड़ा लिया। इसके बाद ही कौरवोंने विराट-नगरपर चढ़ाई करके उनकी उत्तर दिशाकी गायोंको लूटना प्रारम्भ कर दिया ॥२१२॥

समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि ।

प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ॥२१३॥

इसी अवसरपर किरीटधारी अर्जुनने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्रामभूमिमें सम्पूर्ण कौरवोंको पराजित कर दिया और विराटके गोधनको लौटा लिया ॥२१३॥

विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः ।

अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् ॥२१४॥

(पाण्डवोंके पहचाने जानेपर ) राजा विराटने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती सुभद्रानन्दन अभिमन्युसे विवाह करनेके लिये पुत्रवधूके रूपमें अर्जुनको दे दी ॥२१४॥

चतुर्थमेतद् विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम् ।

अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा ॥२१५॥

सप्तपष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु ।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु ॥२१६॥

उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन् महर्षिणा ।

उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम् ॥२१७॥

इस प्रकार इस चौथे विराटपर्वकी सूचीका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया । परमर्षि व्यास जी महाराजने इस पर्वमें गिनकर सड़सठ ( ६७ ) अध्याय रखे हैं । अब तुम मुझसे श्लोकोंकी संख्या सुनो। इस पर्वमें दो हजार पचास (२०५०) श्लोक वेदवेत्ता महर्षि वेदव्यासने कहे हैं। इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये । अब तुम उसकी विषय-सूची सुनो ॥ २१५-२१७ ॥

उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया ।

दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ ॥२१८॥

जब पाण्डव उपप्लव्य नगर में रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजयकी आकाङ्क्षासे भगवान् श्रीकृष्णके पास उपस्थित हुए ॥ २१८ ॥

साहाय्यमस्मिन् समरे भवान् नौ कर्तुमर्हति ।

इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः ॥२१९॥

दोनोंने ही भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना की कि आप इस युद्ध में हमारी सहायता कीजिये ।' इसपर महामना श्रीकृष्णने कहा-॥ २१९ ॥

अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभी।

अक्षौहिणींवासैन्यस्य कस्य किंवाददाम्यहम्॥२२०॥

'दुर्योधन और अर्जुन! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एकका मन्त्री बन जाऊँगा और दूसरेको एक अक्षौहिणी सेना दे दूंगा। अब तुम्ही दोनों निश्चय करो कि किसे क्या दूँ ?' ॥ २२० ॥

वब्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः।

अयुध्यमानं सचिवं वब्रे कृष्णं धनञ्जयः ॥२२१॥

अपने स्वार्थके सम्बन्धमें अनजान एवं खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने एक अक्षौहिणी सेना माँग ली और अर्जुनने यह माँग की कि 'श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बन जायँ' ॥ २२१ ॥

मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान् प्रति।

उपहारैर्वश्चयित्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः ॥२२२॥

वरदं तं वरं वत्रे साहाय्यं क्रियतां मम ।

शल्यस्तस्मैप्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्॥२२३॥

शान्तिपूर्व चाकथयद् यत्रेन्द्रविजयं नृपः ।

पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान् प्रति ॥२२४॥

मद्रदेशके अधिपति राजा शल्य पाण्डवौकी ओरसे युद्ध करने आ रहे थे, परन्तु दुर्योधनने मार्गमें ही उपहारोंसे धोखेमें डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायक नरेशसे यह वर माँगा कि मेरी सहायता कीजिये ।' शल्यने दुर्योधनसे सहायताकी प्रतिज्ञा कर ली। इसके बाद वे पाण्डवोंके पास गये और बड़ी शान्तिके साथ सब कुछ समझाबुझाकर सब बात कह दी। राजाने इसी प्रसङ्गमें इन्द्रकी विजयकी कथा भी सुनायी । पाण्डवोंने अपने पुरोहितको कौरवोंके पास भेजा ॥२२२-२२४॥

वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः।

तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः ॥२२५॥

संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान् प्रति ।

यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् ॥२२६॥

धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पुरोहितके इन्द्र-विजयविषयक वचनको सादर श्रवण करते हुए उनके आगमनके औचित्यको स्वीकार किया। तत्पश्चात् परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्रने भी शान्तिकी इच्छासे दूतके रूपमें संजयको पाण्डवोके पास भेजा ॥२२५-२२६॥

श्रुत्वा च पाण्डवान् यत्र घासुदेवपुरोगमान् ।

प्रजागरः सम्प्रजशे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ॥२२७॥

विदुरोयत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च ।

श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् ॥२२८॥

जब धृतराष्ट्रने सुना कि पाण्डवोंने श्रीकृष्णको अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हें आगे करके युद्ध के लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ताके कारण उनकी नींद भाग गयी–वे रातभर जागते रह गये । उस समय महात्मा विदुरने मनीषी राजा धृतराष्ट्रको विविध प्रकारसे, अत्यन्त आश्चर्यजनक नीतिका उपदेश किया है ( वही विदुरनीतिके नामसे प्रसिद्ध है)॥ २२७-२२८ ॥

तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् ।

मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः ॥२२९॥

उसी समय महर्षि सनत्सुजातने खिन्नचित्त एवं शोकविहल राजा धृतराष्ट्रको सर्वोत्तम अध्यात्मशास्त्रका श्रवण कराया ॥ २२९॥

प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः।

ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ॥२३०॥

प्रातःकाल राजसभामें संजयने राजा धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके ऐकात्म्य अथवा मित्रताका भलीभाँति वर्णन किया ॥२३०॥

यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन् महामतिः।

स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम् ॥२३१॥

इसी प्रसंगमें यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दया-भावसे युक्त हो शान्ति-स्थापनके लिये सन्धि करानेके उद्देश्यसे स्वयं हस्तिनापुर नामक नगरमें पधारे ॥२३१॥

प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै।

शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम् ॥२३२॥

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षोंका हित चाहते थे और शान्तिके लिये प्रार्थना कर रहे थे, परंतु राजा दुर्योधनने उनका विरोध कर दिया ॥ २३२ ॥

दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः ॥२३३॥

इसी पर्वमें दम्भोद्भवकी कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलिका अपनी कन्याके लिये वर ढूँढनेका प्रसंग भी है ॥ २३३॥

महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै।

विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम् ॥२३४॥

इसके बाद महर्षि गालवके चरित्रका वर्णन है। साथ ही विदुलाने अपने पुत्रको जो शिक्षा दी है, वह भी कही गयी है॥२३४॥

कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम् ।

योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम् ॥२३५॥

भगवान् श्रीकृष्णने कर्ण और दुर्योधन आदिकी दूषित मन्त्रणाको जानकर राजाओंकी भरी सभामें अपने योगैश्वर्यका प्रदर्शन किया ॥ २३५ ॥

रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः ।

उपायपूर्व शौटीर्यात् प्रत्याख्यातश्च तेन सः ॥२३६॥

भगवान् श्रीकृष्णने कर्णको अपने रथपर बैठाकर उसे (पाण्डवोंके पक्षमें आनेके लिये ) अनेक युक्तियोंसे बहुत समझाया-बुझाया, परंतु कर्णने अहंकारवश उनकी बात अस्वीकार कर दी ॥२३६॥

आगम्य हास्तिनपुरादुपप्लव्यमरिन्दमः ।

पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान् हरिः ॥२३७॥

शत्रुसूदन श्रीकृष्णने हस्तिनापुरसे उपलव्य नगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सब पाण्डवोंको कह सुनाया ॥ २३७ ॥

ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम् ।

सांग्रामिकं ततः सर्व सज्ज चकुः परंतपाः ॥२३८॥

शत्रुघाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करने में हमारा हित है-यह परामर्श करके युद्ध-सम्बन्धी सब सामग्री जुटाने में लग गये ॥ २३८ ॥

ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः ।

नगराद्धास्तिनपुराद् बलसंख्यानमेव च ॥२३९॥

इसके पश्चात् हस्तिनापुर नामक नगरसे युद्ध के लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंकी चतुरंगिणी सेनाने कूच किया । इसी प्रसङ्गमें सेनाकी गिनती की गयी है ॥२३९॥

यत्र राज्ञा ह्यलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।

श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान् प्रभुः ॥२४०॥

फिर यह कहा गया है कि शक्तिशाली राजा दुर्योधनने दूसरे दिन प्रातःकालसे होनेवाले महायुद्धके सम्बन्ध उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजा ॥ २४० ॥

रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च।

एतत् सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते ॥२४१॥

इसके अनन्तर इस पर्वमें रथी, अतिरथी आदिके स्वरूपका वर्णन तथा अम्बाका उपाख्यान आता है । इस प्रकार महाभारतमें उद्योगपर्व पाँचवाँ पर्व है और इसमें बहुत-से सुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त हैं ॥२४१॥

उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम् ।

अध्यायानां शतं प्रोक्तं पडशीतिमहर्षिणा ॥२४२॥

श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।

श्लोकाश्च नवतिःप्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना ॥२४३॥

व्यासेनोदारमतिना पर्वयस्मिस्तपोधनाः।

इस उद्योगपर्वमें श्रीकृष्णके द्वारा सन्धि-संदेश और उलूकके विग्रह संदेशका महत्त्वपूर्ण वर्णन हुआ है। तपोधन महर्षियो ! विशालबुद्धि महर्षि व्यासने इस पर्वमें एक सौ छियासी अध्याय रखे हैं और श्लोकोंकी संख्या छः हजार छ: सौ अहानबे (६६९८) बतायी है ॥२४२-२४३॥

अतः परं विचित्रार्थ भीष्मपर्व प्रचक्षते ॥२४४॥

जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह ।

यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत् परम् ॥२४५॥

यत्र युद्धमभूद् घोरं दशाहानि सुदारुणम् ।

कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः ॥२४६॥

मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः।

समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः ॥२४७॥

रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः ।

प्रतोदपाणिराधावद् भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः ॥२४८॥

इसके बाद विचित्र अर्थोंसे भरे भीष्मपर्वकी विषय सूची कही जाती है, जिसमें संजयने जम्बूद्वीपकी रचना-सम्बन्धी कथा कही है। इस पर्वमें दस दिनोंतक अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध होनेका वर्णन आता है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाके अत्यन्त दुखी होनेकी कथा है। इसी युद्धके प्रारम्भमें महातेजस्वी भगवान् वासुदेवने मोक्ष-तत्त्वका ज्ञान करानेवाली युक्तिोद्वारा अर्जुनके मोहजनित शोक-संतापका नाश किया था (जो कि भगवद्गीताके नामसे प्रसिद्ध है)। इसी पर्वमें यह कथा भी है कि युधिष्ठिरके हितमें संलग्न रहनेवाले निर्भय, उदारबुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी शिथिलता देख शीघ्र ही हाथमें चाबुक लेकर भीष्मको मारनेके लिये स्वयं रथसे कूद पड़े और बड़े वेगसे दौड़े ॥ २४४-२४८ ॥

वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः ।

गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥२४९॥

साथ ही सब शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गाण्डीवधन्वा अर्जुनको युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णने व्यङ्गय वाक्यके चाबुकसे मार्मिक चोट पहुँचायी ॥ २४९ ॥

शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः।

विनिघ्नन निशितैर्वाणै रथाद भीष्मपातयत् ॥२५०॥

तब महाधनुर्धर अर्जुनने शिखण्डीको सामने करके तीखें बाणोंसे घायल करते हुए भीष्मपितामहको रथसे गिरा दिया ॥ २५० ॥

शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह ।

पष्ठमेतत् समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम् ॥२५१॥

जब कि भीष्मपितामह शरशय्यापर शयन करने लगे । महाभारतमें यह छठा पर्व विस्तारपूर्वक कहा गया है ॥२५१॥

अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे ।

पञ्चश्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च ॥२५२॥

श्लोकश्च चतुराशीतिरस्मिन् पर्वणि कीर्तिताः ।

व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ॥२५३॥

वेदके मर्मज्ञ विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने इस भीष्मपर्वमें एक सौ सत्रह अध्याय रखे हैं । श्लोकोंकी संख्या पाँच हजार आठ सौ चौरासी (५८८४ ) कही गयी है ॥ २५२-२५३ ॥

द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते ।

सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यःप्रतापवान् ॥२५४॥

तदनन्तर अनेक वृत्तान्तोंसे पूर्ण अद्भुत द्रोणपर्वकी कथा आरम्भ होती है, जिसमें परम प्रतापी आचार्य द्रोणके सेनापति-पदपर अभिषिक्त होनेका वर्णन है ॥२५४॥

दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थ प्रतिजज्ञे महास्त्रवित् ।

ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः ॥२५५॥

वहीं यह भी कहा गया है कि अस्त्र-विद्याके परमाचार्य द्रोणने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेकी प्रतिज्ञा कर ली ॥ २५५ ॥

यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात् ।

भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि ॥२५६॥

सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।

इसी पर्वमें यह बताया गया है, कि संशप्तक योद्धा अर्जुनको रणाङ्गणसे दूर हटा ले गये । वहीं यह कथा भी आयी है, कि ऐरावतवंशीय सुप्रतीक नामक हाथीके साथ महाराज भगदत्त भी, जो युद्धमें इन्द्र के समान थे, किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मौतके घाट उतार दिये गये ॥२५६॥

यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः ॥२५७॥

जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम् ।

इसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि शूरवीर बालक अभिमन्युको, जो अभी जवान भी नहीं हुआ था और अकेला था, जयद्रथ आदि बहुत-से विख्यात महारथियोंने मार डाला ॥ २५७॥

हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ॥२५८॥

अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।

अभिमन्युके वधसे कुपित होकर अर्जुनने रणभूमिमें सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करके राजा जयद्रथको भी मार डाला ॥ २५८३ ॥

यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः ॥२५९॥

अन्वेषणार्थ पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाशया।

प्रविष्टौ भारती सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि ॥२६०॥

उसी अवसरपर महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि धर्मराज युधिष्ठिरकी आशासे अर्जुनको ढूँढ़नेके लिये कौरवों की उस सेनामें घुस गये, जिसकी मोर्चेबंदी बड़े-बड़े देवता भी नहीं तोड़ सकते थे ॥ २५९-२६० ॥

संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे।

संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम् ॥२६१॥

किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम् ।

धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्व तथा पाषाणयोधिनः ॥२६२॥

नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः।

अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान् ॥२६३॥

सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।

घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि ॥२६४॥

अर्जुनने, संशप्तकोंमेंसे जो बच रहे थे, उन्हें भी युद्धभूमिमें निःशेष कर दिया। महामना संशप्तक वीरोंकी संख्या नौ करोड़ थी; परंतु किरीटधारी अर्जुनने आक्रमण करके अकेले ही उन सबको यमलोक भेज दिया। धृतराष्ट्रपुत्र, बड़े-बड़े पाषाण-खण्ड लेकर युद्ध करनेवाले म्लेच्छ-सैनिक, समराङ्गणमें युद्धके विचित्र कला-कौशलका परिचय देनेवाले नारायण नामक गोप, अलम्बुष, श्रुतायु, पराक्रमी जलसन्ध, भूरिश्रवा, विराट, महारथी द्रुपद तथा घटोत्कच आदि जो बड़े-बड़े वीर मारे गये हैं, वह प्रसङ्ग भी इसी पर्वमें है ॥ २६१-२६४ ॥

अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते।

अखं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः ॥२६५॥

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि युद्ध में जब पिता द्रोणाचार्य मार गिराये गये, तब अश्वत्थामाने भी शत्रुओंके प्रति अमर्षमें भरकर 'नारायण' नामक भयानक अस्त्रको प्रकट किया था ॥ २६५ ॥

आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम् ।

व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः ॥२६६॥

इसीमें आग्नेयास्त्र तथा भगवान् रुद्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया गया है। व्यासजीके आगमन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके माहात्म्यकी कथा भी इसीमें है ॥ २६६ ॥

सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम् ।

यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः ॥२६७॥

द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः।

अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः ॥२६८॥

अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च ।

श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ॥२६९॥

पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि ।

महाभारतमें यह सातवाँ महान् पर्व बताया गया है। कौरवपाण्डव-युद्धमें जो नरश्रेष्ठ.नरेश शूरवीर बताये गये हैं, उनमेंसे अधिकांशमें मारे जानेका प्रसङ्ग इस द्रोणपर्वमें ही आया है। तत्वदर्शी पराशरनन्दन मुनिवर व्यासने भलीभाँति सोचविचारकर द्रोणपर्वमें एक सौ सत्तर अध्यायों और आठहजार नौ सौ नौ ( ८९०९) श्लोकोंकी रचना एवं गणना की है ॥ २६७-२६९ ॥

अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्तम् ॥२७०॥

सारथ्ये विनियोगश्च मदराजस्य धीमतः ।

आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् ॥२७१॥

इसके बाद अत्यन्त अद्भुत कर्ण-पर्वका परिचय दिया गया है। इसीमें परम बुद्धिमान् मद्रराज शल्यको कर्णके सारथिं बनानेका प्रसङ्ग है, फिर त्रिपुरके संहारकी पुराणप्रसिद्ध कथा आयी है ॥२७०-२७१॥

प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः ।

हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम् ॥२७२॥

युद्धके लिये जाते समय कर्ण और शल्यमें जो कठोर संवाद हुआ है, उसका वर्णन भी इसी पर्वमें है । तदनन्तर हंस और कौएका आक्षेपपूर्ण उपाख्यान है ॥२७२॥

वधःपाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्नामहात्मना ।

दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ॥२७३॥

उसके बाद महात्मा अश्वत्थामाके द्वारा राजा पाण्ड्य के वधकी कथा है । फिर दण्डसेन और दण्डके वधका प्रसङ्ग है॥२७३॥

द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।

संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम् ॥२७४॥

इसी पर्वमें कर्णके साथ युधिष्ठिरके द्वैरथ ( द्वन्दु ) युद्ध का वर्णन है, जिसमें कर्णने सब धुरन्धर वीरोंके देखते-देखते धर्मराज युधिष्ठिरके प्राणोंको संकटमें डाल दिया था ॥२७४॥

अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः।

यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि ॥२७५॥

तत्पश्चात् युधिष्ठिर और अर्जुनके एक-दूसरेके प्रति क्रोधयुक्त उद्गार हैं, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको समझा-बुझाकर शान्त किया है ॥२७५॥

प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च ।

भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान् यत्र संयुगे ॥२७६॥

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि भीमसेनने पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार दुश्शासनका वक्षःस्थल विदीर्ण करके रक्त पीया था ॥२७६॥

द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः।

अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद् भारतचिन्तकैः ॥२७७॥

तदनन्तर द्वन्द-युद्ध में अर्जुनने महारथी कर्णको जो मार गिराया, वह प्रसङ्ग भी कर्णपर्वमें ही है। महाभारतका विचार करनेवाले विद्वानोंने इस कर्णपर्वको आठवाँ पर्व कहा है॥२७७॥

एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि ।

चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च ॥२७८॥

चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः।

कर्णपर्वमें उनहत्तर अध्याय कहे गये हैं और चार हजार नौ सौ चौंसठ (४९६४ ) श्लोकोंका पाठ इस पर्वमें किया गया है ॥ २७८३ ॥

अतः परं विचित्रार्थ शल्यपर्व प्रकीर्तितम् ॥२७९॥

तत्पश्चात् विचित्र अर्थयुक्त विषयोंसे भरा हुआ शल्यपर्व कहा गया है ॥ २७९ ॥

हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत् ।

यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ॥२८०॥

इसीमें यह कथा आयी है कि जब कौरव-सेनाके सभी प्रमुख वीर मार दिये गये, तब मद्रराज शल्य सेनापति हुए । वहीं कुमार कार्तिकेयका उपाख्यान और अभिषेक-कर्म कहा गया है ॥ २८० ॥

वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः।

विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते ॥२८१॥

शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः ।

शकुनेश्च वोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे ॥२८२॥

साथ ही वहाँ रथियोंके युद्धका भी विभागपूर्वक वर्णन किया गया है । शल्यपर्वमें ही कुरुकुलके प्रमुख वीरों के विनाशका तथा महात्मा धर्मराजद्वारा शल्यके वधका वर्णन किया गया है। इसी में सहदेवके द्वारा युद्ध में शकुनिके मारे जानेका प्रसङ्ग है ॥ २८१-२८२ ॥

सैन्ये च हतभूयिष्ठे किचिच्छिष्टे सुयोधनः ।

ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः ॥२८३॥

जब अधिक-से-अधिक कौरवसेना नष्ट हो गयी और थोड़ी-सी बच रही, तब दुर्योधन सरोवरमें प्रवेश करके पानीको स्तम्भित कर वहीं विश्रामके लिये बैठ गया ॥२८३॥

प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः ।

क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः ॥२८४॥

ह्रदात् समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः।

भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान् सह ॥२८५॥

किंतु व्याधोंने भीमसेनसे दुर्योधनकी यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान् धर्मराजके आक्षेपयुक्त वचनोंसे अत्यन्त अमर्षमें भरकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन सरोवरसे बाहर निकला और उसने भीमसेनके साथ गदायुद्ध किया । ये सब प्रसन शल्यपर्वमें ही हैं ॥२८४-२८५॥

समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम् ।

सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ॥२८६॥

गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम् ।

उसीमें युद्ध के समय बलरामजीके आगमनकी बात कही गयी है। इसी प्रसङ्गमें सरस्वतीतटवर्ती तीर्थोके पावन माहात्म्यका परिचय दिया गया है। शल्यपर्वमें ही भयङ्कर गदायुद्ध का वर्णन किया गया है ॥२८६॥

दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे ॥२८७॥

ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया ।

नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत् ॥२८८॥

जिसमें युद्ध करते समय भीमसेनने हठपूर्वक (युद्धके नियमको भङ्ग करके ) अपनी भयानक वेगशालिनी गदासे राजा दुर्योधनकी दोनों जाँघे तोड़ डाली, यह अद्भुत अर्थसे युक्त नवम पर्व बताया गया है ॥ २८७-२८८ ॥

एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः ।

संख्याताबहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते ॥२८९॥

इस पर्वमें उनसठ (५९) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत से वृत्तान्तोंका वर्णन आया है। अब इसकी श्लोकसंख्या कही जाती है ॥ २८९ ॥

त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा ।

मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता ॥२९०॥

कौरव-पाण्डवोंके यशकापोषण करनेवाले मुनिवर व्यासने इस पर्वमें तीन हजार दो सौ बीस ( ३२२०) श्लोकोंकी रचना की है ॥ २९०॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम् ।

भग्नोरं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम् ॥२९१॥

अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः।

कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम् ॥२९२॥

इसके पश्चात् मैं अत्यन्त दारुण सौप्तिकपर्वकी सूची बता रहा हूँ, जिसमें पाण्डवोके चले जानेपर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनके पास, जो खूनसे लथपथ हुआ पड़ा था, सायंकालके समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा-ये तीन महारथी आये ॥ २९१-२९२ ॥

समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि ।

प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणियंत्र महारथः ॥२९३॥

अहत्या सर्वपञ्चालान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।

पाण्डवांश्च सहामात्यान् विमोक्ष्यामि दंशनम् ॥२९४॥

निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन युद्ध के मुहानेपर इस दुर्दशामें पड़ा था । यह देखकर महारथी अश्वत्थामाको बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि मैं धृष्टद्युम्न आदि सम्पूर्ण पाञ्चालों और मन्त्रियोसहित समस्त पाण्डवोंका वध किये बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा' ॥२९३-२९४॥

यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः।

सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद् वनम् ॥२९५॥

सौप्तिकपर्वमें राजा दुर्योधनसे ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँसे चले गये और सूर्यास्त होते-होते एक बहुत बड़े वनमें जा पहुँचे ॥ २९५ ॥

न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद् व्यवस्थिता ।

ततःकाकान् बहून रात्रौ दृष्ट्वोलूकेन हिंसितान॥२९६॥

द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन् ।

पञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे ॥२९७॥

वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगदके नीचे विश्रामके लिये बैठे । तदनन्तर वहाँ एक उल्लूने आकर रातमें बहुत-से कौओंको मार डाला। यह देखकर क्रोध भरे अश्वत्थामाने अपने पिताके अन्यायपूर्वक मारे जानेकी घटनाको स्मरण करके सोते समय ही पाञ्चालोंके वधका निश्चय कर लिया ॥ २९६-२९७ ॥

गत्वा च शिविरद्वारि दुर्द्दशं तत्र राक्षसम् ।

घोररूपमपश्यत् स दिवमावृत्य धिष्ठितम् ॥२९८॥

तत्पश्चात् पाण्डवोंके शिविरके द्वारपर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयङ्कर राक्षस, जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वीसे लेकर आकाशतकके प्रदेशको घेर रखा था ॥२९८ ॥

तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च।

द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः ॥२९९॥

अश्वत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था । यह देखकर द्रोणकुमारने तुरंत ही भयंकर नेत्रोंवाले भगवान् रुद्रकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया ॥ २९९॥

प्रसुप्तान निशि विश्वस्तान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।

पञ्चालान् सपरीवारान् द्रौपदेयाश्च सर्वशः ॥३००॥

कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजनिवान् ।

यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पश्च कृष्णवलाश्रयात् ॥३०१॥

सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः।

पञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद् वधः ॥३०२॥

धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः।

द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ॥३०३॥

तत्पश्चात् अश्वत्थामाने रातमें निःशङ्क सोये हुए धृष्टद्युम्न आदि पाञ्चालों तथा द्रौपदीपुत्रोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यकी सहायतासे परिजनोंसहित मार डाला । भगवान् श्रीकृष्णकी. शक्तिका आश्रय लेनेसे केवल पाँच पाण्डव और महान् धनुर्धर सात्यकि बच गये, शेष सभी वीर मारे गये । यह सब प्रसङ्ग सौप्तिकपर्वमें वर्णित है। वहीं यह भी कहा गया है, कि धृष्टद्युम्न के सारथिने जब पाण्डवोंको यह सूचित किया, कि द्रोणपुत्रने सोये हुए पाञ्चालोंका वध कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्रशोकसे पीड़ित तथा पिता और भाईकी इत्यासे व्यथित हो उठी ॥ ३००-३०३ ॥

कृतानशनसंकल्पा यत्र भनुपाविशत् ।

द्रौपदीवचनाद् यत्र भीमो भीमपराक्रमः ॥३०४॥

प्रियं तस्याश्चिकीर्षन वैगदामादाय वीर्यवान् ।

अन्वधावत् सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम् ॥३०५॥

वह पतियोंको अश्वत्थामासे इसका बदला लेने के लिये उत्तेजित करती हुई आमरण अनशन का संकल्प ले अन्न-जल छोड़कर बैठ गयी । द्रौपदीके कहनेसे भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन उसका प्रिय करनेकी इन्छासे हाथमें गदा ले अत्यन्त क्रोधमें भरकर गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़े ॥ ३०४-३०५ ॥

भीमसेनभयाद् यत्र देवनाभिप्रचादितः ।

अपाण्डवायेति रुपा द्रौणिरत्रमवासृजत् ॥३०६॥

तब भीमसेनके भयसे घबराकर दैवकी प्रेरणासे पाण्डवोंके विनाशके लिये अश्वत्थामाने रोषपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया ॥ ३०६ ॥

मैवमित्यब्रवीत् कृष्णः शमयंस्तस्य तद् वचः।

यत्रास्त्रमाण च तच्छमयामास फाल्गुनः ॥३०७॥

किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामाके रोषपूर्ण वचनको शान्त करते हुए कहा- मैवम्'–पाण्डवोंका विनाश न हो।' साथ ही अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्र द्वारा उसके अस्त्रको शान्त कर दिया ॥३०७॥

द्रौणेश्च द्रोहवुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा ।

द्रौणद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः ॥३०८॥

उस समय पापात्मा द्रोणपुत्रके द्रोहपूर्ण विचारको देखकर द्वैपायन व्यास एवं श्रीकृष्णने अश्वत्थामाको और अश्वत्थामाने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओरसे एक-दूसरेको शाप प्रदान किया गया ॥३०८॥

मणि तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात् ।

पाण्डवाः प्रददुईटा द्रौपद्ये जितकाशिनः ॥३०९॥

महारथी अश्वत्थामासे मणि छीनकर विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदीको दे दी ॥३०९॥

एतद् वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम् ।

अपादशास्मिन्नध्यायाः- पर्वण्युक्ता महात्मना ॥३१०॥

इन सब वृत्तान्तोंसे युक्त सौप्तिकपर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यासने इसमें अठारह अध्याय कहे हैं॥ ३१०॥

श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया ।

श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना ॥३११॥

इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनिने इस पर्वमें श्लोकोंकी संख्या आठ सौ सत्तर (८७०) बतायी है ॥३११॥

सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा ।

अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम् ॥३१२॥

उत्तम तेजस्वी व्यासजीने इस पर्वमें सौप्तिक और ऐषीक दोनोंकी कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद विद्वानोंने स्त्रीपर्व कहा है, जो करुणरसकी धारा वहानेवाला है ॥३१२॥

पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः ।

कृष्णोपनीतां यत्रासावायसी प्रतिमां दृढाम् ॥३१३॥

भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो वभञ्ज ह ।

तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥३१४॥

संसारगहनं बुद्धया हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः ।

विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम् ॥३१५॥

प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने पुत्रशोकसे संतप्त हो भीमसेनके प्रति द्रोह-बुद्धि कर ली और श्रीकृष्णद्वारा अपने समीर लायी हुई लोहेकी मजबूत प्रतिमाको भीमसेन समझकर भुजाओंमें भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको विदुरजीने मोक्षका साक्षात्कार करानेवाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धि के द्वारा संसारकी दुःखरूपताका प्रतिपादन करते हुए भलीभाँति समझा-बुझाकर शान्त किया ॥ ३१३-६१५॥

धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा ।

सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम् ॥३१६॥

इसी पर्वमें शोकाकुल धृतराष्ट्रका अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ कौरवोंके युद्धस्थानमें जानेका वर्णन है ॥३१६॥

विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः ।

क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारोधृतराष्ट्रयोः ॥३१७॥

वहीं वीरपत्नियोंके अत्यन्त करुणापूर्ण विलापका कथन है। वहीं गान्धारी और धृतराष्ट्रके क्रोधावेश तथा मूर्छित होने का उल्लेख है ॥३१७॥

यत्र तान् क्षत्रियाः शूरान् संग्रामेष्यनिवर्तिनः।

पुत्रान् भ्रातृन पितॄश्चैव ददृशुर्निहतान् रणे ॥३१८॥

उस समय उन क्षत्राणियोंने युद्ध में पीट न दिखानेवाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाइयों और पिताओंको रणभूमिमें मरा हुआ देखा ॥३१८॥

पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता ।

गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ॥३१९॥

पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित गान्धारीके पास आकर भगवान् श्रीकृष्णने उनके क्रोधको शान्त किया। इस प्रसङ्गका भी इसी पर्वमें वर्णन किया गया है ॥ ३१९ ॥

यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः।

राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः ॥३२०॥

वहीं यह भी कहा गया है, कि परम बुद्धिमान् और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने वहाँ मारे गये समस्त राजाओंके शरीरोंका शास्त्रविधिसे दाह-संस्कार किया और कराया ॥३२०॥

तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके।

गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः ॥३२१॥

सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा।

एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम् ॥३२२॥

प्रणीतं सजनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम् ।

सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः ॥३२३॥

श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता ।

संख्यया भारताख्यानमुक्त व्यासेन धीमता ॥३२४॥

तदनन्तर राजाओंको जलाञ्जलिदानके प्रसङ्गमें उन सबके लिये तर्पणका आरम्भ होते ही कुन्तीद्वारा गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्णका गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया। यह प्रसङ्ग आता है। महर्षि व्यासने ये सब बातें स्त्रीपर्वमें कही हैं । शोक और विकलताका संचार करनेवाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषों के चित्तको भी विह्वल करके उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा प्रवाहित करा देता है । इस पर्वमें सत्ताईस अध्याय कहे गये हैं । इसके श्लोकोंकी संख्या सात सौ पचहत्तर (७७५ ) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान् व्यास जीने महाभारतका यह उपाख्यान कहा है ॥३२१-३२४॥

अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम् ।

यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥३२५॥

घातयित्वा पितॄन् भ्रातृन पुत्रान् सम्बन्धिमातुलान् ।

शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः॥३२६॥

स्त्रीपर्व के पश्चात् बारहवाँ पर्व शान्तिपर्वके नामसे विख्यात है। यह बुद्धि और विवेकको बढ़ानेवाला है । इस पर्वमें यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरुजनों भाइयों, पुत्रों, सगे-सम्बन्धी एवं मामा आदिको मरवाकर राजा युधिष्ठिरके मनमें बड़ा निर्वेद ( दुःख एवं वैराग्य ) हुआ। शान्तिपर्वमें बाण-शय्यापर शयन करनेवाले भीष्मजीके द्वारा उपदेश किये हुए धर्मोंका वर्णन है ॥ ३२५-३२६ ॥

राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः ।

आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः ॥३२७॥

यान् बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक् सर्वशत्वमवाप्नुयात् ।

मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तयः ॥३२८॥

उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखनेवाले राजाओंको उन्हें भलीभाँति जानना चाहिये । उसी पर्वमें काल और कारणकी अपेक्षा रखनेवाले देश और कालके अनुसार व्यवहारमें लाने योग्य आपद्धर्मोका भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है । शान्तिपर्वमें विविध एवं अद्भुत मोक्षधर्मोंका भी बड़े विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है ॥ ३२७-३२८ ॥

द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत् प्राज्ञजनप्रियम् ।

अत्र पर्वणि विज्ञयमध्यायानां शतत्रयम् ॥३२९॥

त्रिशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः।

चतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च ॥३३०॥

सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया।

अत ऊर्ध्वे च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम् ॥३३१॥

इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनोंको अत्यन्त प्रिय है। इस पर्वमें तीन सौ उन्तालीस (३३९) अध्याय हैं और तपोधनो ! इसकी श्लोक-संख्या चौदह हजार सात सौ बत्तीस (१४७३२) है । इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना चाहिये ॥ ३२९-३३१ ॥

यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् ।

भीष्माभागीरथीपुत्रात् कुरुराजो युधिष्ठिरः ॥३३२॥

जिसमें कुरुराज युधिष्ठिर गङ्गानन्दन भीष्मजीसे धर्मका निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है ॥३३२॥

व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थी याप्रकीर्तितः।

विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः ॥३३३॥

इसमें धर्म और अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हितकारी आचार-व्यवहारका निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकारके दानोंके फल भी कहे गये हैं ॥ ३३३ ॥

तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः।

आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः ॥३३४॥

महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च ।

रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम् ॥३३५॥

एतत् सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम् ।

भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता ॥३३६॥

दानके विशेष पात्र, दानकी उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषणकी पराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणोंका माहात्म्य, धर्मोंका रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और पर्व) की महिमा- ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासनपर्व है। इसीमें भीष्मको स्वर्गकी प्राप्ति कही गयी है ॥ ३३४-३३६ ॥

एतत् त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् ।

अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु ॥३३७॥

धर्मका निर्णय करनेवाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (.१४६ ) अध्याय हैं ॥३३७॥

श्लोकानांतुसहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया।

ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोकं चतुर्दशम् ॥३३८॥

और पूरे आठ हजार (८०००) श्लोक कहे गये हैं । तदनन्तर चौदहवे आश्वमेधिक नामक पर्वकी कथा है ॥३३८॥

तत् संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम् ।

सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः ॥३३९॥

जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्तका उपाख्यान है। युधिष्ठिरको सुवर्ण के खजानेकी प्राप्ति और परीक्षित्के जन्मका वर्णन है ॥ ३३९ ॥

दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्व कृष्णात् संजीवनं पुनः।

चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः ॥३४०॥

तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्ररमर्षणैः ।

चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः ॥३४१॥

संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः ।

अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ॥३४२॥

इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम् ।

अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः॥३४३॥

त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।

विंशतिश्च तथा श्लोकाःसंख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥३४४॥

पहले अश्वत्थामाके अस्त्रकी अग्निसे दग्ध हुए बालक परीक्षित्का पुनः श्रीकृष्णके अनुग्रहसे जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रोंमें घूमने के लिये छोड़े गये अश्वमेध-सम्बन्धी अश्वके पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुनके जाने और उन-उन देशोंमें कुपित राजकुमारोंके साथ उनके युद्ध करनेका वर्णन है। पुत्रिकाधर्मके अनुसार उत्पन्न हुए चित्राङ्गदाकुमार बभ्रुवाहनने युद्ध में अर्जुनको प्राण-संकटकी स्थितिमें डाल दिया था। यह कथा भी अश्वमेधपर्वमें ही आयी है। वहीं अश्वमेघ-महायज्ञमें नकुलोपाख्यान आया है । इस प्रकार यह परम अद्भुत आश्वमेधिकपर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये हैं। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इस पर्वमें तीन हजार तीन सौ बीस (३३२०) श्लोकोंकी रचना की है ॥३४०-३४४॥

ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम् ।

यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः ॥३४५॥

धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह ।

यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा ॥३४६॥

पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता।

तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्वका वर्णन है। जिसमें गान्धारीसहित राजा धृतराष्ट्र और विदुरके राज्य छोड़कर वनके आश्रममें जानेका उल्लेख हुआ है । उस समय धृतराष्ट्रको प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनोंकी सेवामें अनुरक्त हो अपने पुत्रका राज्य छोड़कर उन्हींके पीछे-पीछे चली गयीं ॥३४५-३४६॥

यत्र राजा हतान् पुत्रान् पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान् ॥३४७॥

लोकान्तरगतान् वीरानपश्यत् पुनरागतान् ।

ऋषेः प्रसादात् कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ॥३४८॥

त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धि परमिकां गतः ।

यत्र धर्म समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः ॥३४९॥

संजयश्च सहामात्यो विद्वान् गावल्गणिर्वशी।

ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥३५०॥

जहाँ राजा धृतगष्ट्रने युद्ध में मरकर परलोकमें गये हुए अपने वीर पुत्रों, पौत्रों तथा अन्यान्य राजाओंको भी पुनः अपने पास आया हुआ देखा । महर्षि व्यास जीके प्रसादसे यह उत्तम आश्चर्य देखकर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रने शोक त्याग दिया और उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि विदुरजीने धर्मका आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की। साथ ही मन्त्रियोसहित जितेन्द्रिय विद्वान् गवल्गण-पुत्र संजयने भी उत्तम पद प्राप्त कर लिया। इसी पर्वमें यह बात भी आयो है कि धर्मराज युधिष्ठिरको नारदजीका दर्शन हुआ ॥३४७-३५०॥

नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् ।

एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम् ॥३५१॥

नारदजीसे ही उन्होंने यदुवंशियोंके महान् संहारका समाचार सुना । यह अत्यन्त अद्भुत आश्रमवासिकपर्व कहा गया है ॥३५१॥

द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया।

सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च ॥३५२॥

पडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।

अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम् ॥३५३॥

इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या बयालीस है । तत्त्वदर्शी व्यासजीने इसमें एक हजार पाँच सौ छः (१५०६ ) श्लोक रक्खे हैं। इसके बाद मौसलपर्वकी सूची सुनो-यह पर्व अत्यन्त दारुण है ॥३५२-३५३॥

यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि ।

ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः॥३५४॥

इसीमें यह बात आयी है, कि वे श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षारसमुद्रके तटपर आपसके युद्ध में अस्त्र-शस्त्रोंके स्पर्शमात्रसे मारे गये । ब्राह्मणोंके शापने उन्हें पहले ही पीस डाला था ॥३५४॥

आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः।

एरकारूपिभिर्वनिजघ्नुरितरेतरम् ॥३५५॥

उन सबने मधुपानके स्थानमें जाकर खूब पीया और नशेसे होश-हवास खो बैठे । फिर दैवसे प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज्रसे एक दूसरे को मार डाला ॥३५५॥

यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ ।

नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत् ॥३५६॥

वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइोंने समर्थ होते हुए भी अपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान् काल का उल्लङ्घन नहीं किया (महर्षियोंकी वाणी सत्य करने के लिये कालका आदेश स्वेच्छासे अङ्गीकार कर लिया ) ॥ ३५६ ॥

यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम् ।

दृष्ट्वा विषादमगमत् परां चाति नरर्षभः ॥३५७॥

वहीं यह प्रसंग भी है, कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारकामें आये और उमे वृष्णिवंशियोंसे सूनी देखकर विषादमें डूब गये । उस समय उनके मनमें बड़ी पीड़ा हुई ॥ ३५७ ॥

स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः ।

ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत् ॥३५८॥

उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेवज'का दाह-संस्कार करके आगनस्थानमें जा कर यदुवंशी वीरोंके विकट विनाशका रोमाञ्चकारी दृश्य देखा ॥ ३५८ ॥

शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः ।

संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः ॥३५९॥

वहाँमे भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधानप्रधान वृष्णिवंशी वीरोंके शरीरोंको लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया ॥ ३५९ ॥

स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम् ।

ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम् ॥३६०॥

तदनन्तर अर्जुनने द्वारकाके बालक, वृद्ध तथा स्त्रियोंको साथ ले वहाँसे प्रस्थान किया; परंतु उस दुःखदायिनी विपत्तिमें उन्होंने अपने गाण्डीव धनुषकी अभूतपूर्व पराजय देखी ॥३६०॥

सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् ।

नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावाणामनित्यताम् ॥३६१॥

दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः ।

धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत् ॥३६२॥

उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न-से होकर विस्मृत हो गये । वृष्णि कुलकी स्त्रियोंका देखते-देखते अपहरण हो जाना और अपने प्रभावोंका स्थिर न रहना-यह सब देखकर अर्जुनको बड़ा निर्वेद ( दुःख ) हुआ। फिर उन्होंने व्यासजीके वचनोंसे प्रेरित हो धर्मराज युधिष्ठिरसे मिलकर संन्यासमें अभिरुचि दिखायी ॥ ३६१-३६२ ॥

इत्येतन्मौसलं पर्वषोडशं परिकीर्तितम् ।

अध्यायाप्टौसमाख्याताःश्लोकानांच शतत्रयम् ॥३६३॥

श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।

महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम् ॥३६४॥

इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसलपर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासजीने गिनकर आठ अध्याय और तीन सौ बीस (३२०) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात् सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ॥ ३६३-३६४ ॥

यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।

द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः ॥३६५॥

जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदीके साथ महाप्रस्थानके पथपर आ गये ॥ ३६५ ॥

यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम् ॥

यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने ॥३६६॥

ददौ सम्पूज्य तद् दिव्यंगाण्डीवं धनुरुत्तमम् ।

यत्र भ्रातृन निपतितान् द्रौपदीं च युधिष्ठिरः ॥३६७॥

दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन् ।

एतत् सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम् ॥३६८॥

उस यात्रामें उन्होंने लाल सागरके पास पहुँचकर साक्षात् अग्निदेवको देखा और उन्हींकी प्रेरणासे पार्थने उन महात्माको आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष अर्पण कर दिया । उसी पर्वमें यह भी कहा गया है, कि राजा युधिष्ठिरने मार्गमें गिरे हुए अपने भाइयों और द्रौपदीको देखकर भी उनकी क्या दशा हुई यह जाननेके लिये पीछेकी ओर फिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ़ गये । यह सत्रहवाँ 'महाप्रस्थानिक' पर्व कहा गया है ॥३६६-३६८॥

यत्राध्यायास्त्रयःप्रोक्ताःश्लोकानां च शतत्रयम्।

विंशतिश्च तथा श्लोकाःसंख्यातास्तत्त्वदर्शिना॥३६९॥

इसमें तत्वज्ञानी व्यासजीने तीन अध्याय और एक सौ तेईस श्लोक गिनकर कहे हैं ॥ ३६९ ॥

स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत् तदमानुषम् ।

प्राप्तं देवरथं स्वर्गान्नेष्टवान् यत्र धर्मराट् ॥३७०॥

आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना।

तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थिति धर्मे महात्मनः ॥३७१॥

श्वरूपं यत्र तत् त्यक्त्वा धर्मणासौ समन्वितः।

स्वर्ग प्राप्तःस च तथा यातना विपुला भृशम् ॥३७२॥

देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम् ।

शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणा गिरः ॥३७३॥

निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम् ।

अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः ॥३७४॥

तदनन्तर स्वर्गारोहणपर्व जानना चाहिये । जो दिव्य वृत्तान्तोंसे युक्त और अलौकिक है। उसमें यह वर्णन आया है, कि स्वर्गसे युधिष्ठिरको लेनेके लिये एक दिव्य रथ आया किंतु महाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिरने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्तेको छोड़कर अकेले उसपर चढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिरकी धर्ममें इस प्रकार अविचल स्थिति जानकर कुत्तेने अपने मायामय स्वरूपको त्याग दिया और अब वह साक्षात् धर्मके रूपमें स्थित हो गया । धर्मके साथ युधिष्ठिर स्वर्गमें गये । वहाँ देवदूतने व्याजसे उन्हें नरककी विपुल यातनाओंका दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंकी करुणाजनक पुकार सुनी थी। वे सब वहीं नरक-प्रदेशमें यमराजकी आज्ञाके अधीन रहकर यातना भोगते थे । तत्पश्चात् धर्मराज तथा देवराजने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको वास्तवमें उनके भाइयोंको जो सद्गति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया ॥३७०-३७४॥

आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा समानुषम् ।

स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्ग प्राप्य स धर्मराट ॥३७५॥

मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रः सुरगणैः सह ।

एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता ॥३७६॥

इसके बाद धर्मराजने आकाश-गङ्गामें गोता लगाकर मानव शरीरको त्याग दिया और स्वर्गलोकमे अपने धर्मसे उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रआदि देवताओंके साथ उनसे सम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे । इस प्रकार बुद्धिमान् व्यासजीने यह अठारहवाँ पर्व कहा है ॥३७५-३७६॥

अध्यायाः पञ्चसंख्याताः पर्वण्यस्मिन् महात्मना ।

श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः ॥३७७॥

नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा ।

अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः ॥३७८॥

तपोधनो ! परम ऋषि महात्मा व्यासजीने इस पर्वमें गिने-गिनाये पाँच अध्याय और दो सौ नौ ( २०९) श्लोक कहे हैं । इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये हैं ॥ ३७७-३७८ ॥

खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम् ।

दशश्लोकसहस्राणि विशच्छ्लोकशतानि च ॥३७९॥

खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा ।

एतत् सर्वे समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः ॥३८०॥

खिल पर्वोमें हरिवंश तथा भविष्यका वर्णन किया गया है । हरिवंशके खिल पर्वोमें महर्षि व्यासने गणनापूर्वक बारह हजार (१२०००) श्लोक रक्खे हैं। इस प्रकार महाभारतमें यह सब पर्वोका संग्रह बताया गया है ॥३७९-३८०॥

अष्टदश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ।

तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् ॥३८१॥

कुरुक्षेत्रमें युद्ध की इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थी और वह महाभयंकर युद्ध अठारह दिनोंतक चलता रहा ॥ ३८१ ॥

यो विद्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः।

नचाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद् विचक्षणः॥३८२॥

जो द्विज अङ्गों और उपनिषदोसहित चारों वेदोंको जानता है, परंतु इस महाभारत इतिहासको नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान् नहीं है ॥ ३८२ ॥

अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् ।

कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना ॥३८३॥

असीम बुद्धिवाले महात्मा व्यासने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान् धर्मशास्त्र भी है। इसे काम-शास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही) ॥३८३॥

श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं धाव्यमन्यन्न रोचते ।

पुंस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्गस्य वागिव ॥३८४॥

इस उपाख्यानको सुन लेनेपर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। भला कोकिलका कलरब सुनकर कौओंकी कठोर 'काय-काय' किसे पसंद आयेगी ? ॥ ३८४ ॥

इतिहासोत्तमादस्माजायन्ते कविबुद्धयः ।

पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः ॥३८५॥

जैसे पाँच भूतोंसे त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) लोकसृष्टियाँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहाससे कवियोंको काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ३८५ ॥

अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः ।

अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः ॥३८६॥

द्विजवरो! इस महाभारत इतिहासके भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे आकाशमें ही चारों प्रकारकी प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज) विद्यमान हैं ॥ ३८६ ॥

क्रियागुणानां सर्वपामिदमाख्यानमाश्रयः ।

इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः ॥३८७॥

जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका आधार हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लौकिक वैदिक कर्मोके उत्कृष्ट फल-साधनोंका यह आख्यान ही आधार है ॥३८७॥

अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यत ।

आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ॥३८८॥

जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी कथा नहीं है जो इस महाभारतका आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो ॥३८८॥

इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते।

उदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः ॥३८९॥

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।

साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः ॥३९०॥

सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी कथाका आश्रय लेते हैं और लेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे उन्नति चाहनेवाले सेवक श्रेष्ठ स्वामीका सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ आश्रमसे बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसारके कवि इस महाभारत काव्यसे बढ़कर काव्य-रचना करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ॥ ३८९-३९० ॥

धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः ।

अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्तिन च स्थिरत्वम् ॥३९१॥

तपस्वी महर्षियो ! (तथा महाभारतके पाठको!) आप सब लोग सदा सांसारिक आसक्तियोंसे ऊँचे उठे और आपका मन सदा धर्ममें लगा रहे; क्योंकि परलोकमें गये हुए जीवका बन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियोंका सेवन तो करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठतापर विश्वास नहीं करते और न उन्हें स्थिर ही मानते हैं ॥३९१॥

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरंशिवं च ।

यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥३९२॥

जोव्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्करतीर्थके जलमें गोता लगानेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ३९२ ॥

यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन् ।

महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम् ॥३९३॥

ब्राह्मण दिनमें अपनी इन्द्रियोद्वारा जो पाप करता है। उससे सायंकाल महाभारतका पाठ करके मुक्त हो जाता है ॥३९३॥

यद् रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।

महाभारतमाख्याय पूर्वी संध्यां प्रमुच्यते ॥३९४॥

इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा रातमें जो पाप करता है, उससे प्रातःकाल महाभारतका पाठ करके छूट जाता है ॥ ३९४ ॥

यो गोशतं कनकङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय ।

पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ॥३९५॥

जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सौ गौएँ दान देता है और जो केवल महाभारत कथाका श्रवणमात्र करता है, इन दोनोंमेसे प्रत्येकको बराबर ही फल मिलता है ॥ ३९५ ॥

आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थे विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण ।

श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णलवणजलं यथा प्लवेन ॥३९६॥

यह महान् अर्थसे भरा हुआ परम उत्तम महाभारतआख्यान यहाँ पर्वसंग्रहाध्यायके द्वारा समझना चाहिये । इस अध्यायको पहले सुन लेनेपर मनुष्योंके लिये महाभारत-जैसे महासमुद्र में प्रवेश करना उसी प्रकार सुगम हो जाता है जैसे जहाजकी सहायतासे अनन्त जल राशिवाले समुद्र में प्रवेश सहज हो जाता है ॥३९६॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥

इस प्रकार महाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पर्वसंग्रहपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

॥पर्वसंग्रहपर्व सम्पूर्ण॥

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