१.१४ - आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका 

(जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण)

सौतिरुवाच 🗣️

ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः।

महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ॥ १॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं- 🗣️

तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि नहीं हुई ॥ १ ॥

स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचःस्मरन् ।

चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ॥ २॥

एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारने पितरोंके वचनका स्मरण करके कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी-कोई भिक्षारूपमें कन्या दे जाय ॥ २॥

तं वासुकिः प्रत्यगृहादुद्यम्य भगिनीं तदा ।

न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ॥ ३॥

इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये और बोले, 'यह भिक्षा ग्रहण कीजिये ।' किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ॥ ३ ॥

सनाम्नी चोद्यतां भार्या गृह्णीयामिति तस्य हि ।

मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः॥ ४॥

उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था, कि मेरे-जैसे नामवाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ॥ ४ ॥

तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः।

किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ॥ ५॥

ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा-नागराज ! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है ? ॥ ५॥

वासुकिरूवाच 🗣️

जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम ।

प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् ।

त्वदर्थे रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ॥ ६॥

वासुकिने कहा – 🗣️

जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है । इस सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये । द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रक्खी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें ॥६॥

एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् ।

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ॥७॥

ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥७॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ

अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

  आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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