१.२१ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशतितमोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका 


(समुद्र का विस्तारसे वर्णन)

सौतिरुवाच 🗣️

ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ ।

कदूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ॥ १ ॥

अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा।

जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ २ ॥

उग्रश्रवाजी कहते है-- 🗣️

तपोधन ! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान् सूर्यका उदय हो गया। उस समय कद् और विनता दोनों बदिने बड़े जोश और रोषके साथ दासी होनेकी बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्वको निकटसे देखने के लिये गयीं ॥ १-२ ॥

दद्दशातेऽथ ते तत्र समुद्र निधिमम्भसाम् ।

महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ॥ ३ ॥

कुछ दूर जानेपर उन्होंने मार्गमें जलनिधि समुद्रको देखा, जो महान् होनेके साथ ही अगाध जलसे भरा था । मगर आदि जल जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोरकी गर्जना हो रही थी ॥ ३ ॥

तिमिङ्गिलझषाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ।

सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् ॥ ४ ॥

वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्यों को भी निगल जानेवाले तिमिङ्गिलों, मत्स्यों तथा मगर आदिसे व्यात था। नाना प्रकारकी आकृतिवाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे ॥ ४ ॥ भीषणैर्विकृतैरन्यौर्घोरैर्जलचरैस्तथा ।

उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् ॥ ५ ॥

विकट आकारवाले दूसरे दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओंके कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह निवास करते थे ॥ ५ ॥

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।

नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ॥ ६ ॥

सरिताओंका स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नोंकी खान, वरुणदेवका निवासस्थान और नागोंका रमणीय उत्तम गृह है ॥ ६ ॥

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ।

भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ॥ ७ ॥

पातालकी अग्नि-बड़वानलका निवास भी उसीमें है। असुरोंको तो वह जलनिधि समुद्र भाई-बन्धुकी भाँति शरण देनेवाला है तथा दूसरे थलचर जीवोंके लिये अत्यन्त भयदायक है ॥७॥

शुभं दिव्यममानाममृतस्याकरं परम् ।

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् ॥ ८॥

अमरोंके अमृतकी खान होनेसे वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है । उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जलसे परिपूर्ण तथा अद्भुत है ॥८॥

घोरं जलचरायवरौद्रं भैरवनिःस्खनम् ।

गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ९॥

वह घोर समुद्र जल-जन्तुओंके शब्दोंसे और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियों के लिये भय-सा उत्पन्न करता था ॥ ९॥

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ।

वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ॥ १०॥

तटपर तीनवेगसे बहनेवाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागरको चञ्चल किये देती थी। वह क्षोम और उद्वेगसे बहुत ऊँचेतक लहरें उठाता था और सब ओर चञ्चल तरङ्गरूपी हाथोंको हिला-हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था ॥१०॥

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्वत्तोमिसमाकुलम् ।

पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ॥ ११ ॥

चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठती और उतरती थीं ( उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल तरङ्गोंसे व्याप्त जान पड़ता था। उसीने पाञ्जजन्य शङ्खको जन्म दिया था । वह रत्नोंका आकर और परम उत्तम था ॥ ११ ॥

गां विन्दता भगवता गोविन्दनामितौजसा ।

वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ॥ १२॥

अमिततेजस्वी भगवान् गोविन्दने वाराहरूपसे पृथ्वीको उपलब्ध करते समय उस समुद्रको भीतरसे मथ डाला था और उस मथित जलसे वह समस्त महासागर मलिन-सा जान पड़ता था ॥ १२ ॥ ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा ।

अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ॥१३॥

व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रिने समुद्रके भीतरी तलका अन्वेषण करते हुए सौ वर्षांतक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया । वह पातालके नीचेतक व्याप्त है और पातालके नष्ट होनेपर भी बना रहता है। इसलिये अविनाशी है ॥१३॥

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः।

युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः॥१४॥

आध्यात्मिक योगनिद्राका सेवन करनेवाले अमिततेजस्वी कमलनाम भगवान् विष्णुके लिये वह युगान्तकालसे लेकर युगादिकालतक शयनागार बना रहता है ॥ १४ ॥ वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ।

डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ॥ १५॥

उसीने वज्रपातसे डरे हुए मैनाक पर्वतको अभयदान दिया है तथा जहाँ भयके मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्धसे पीड़ित हुए असुरोंका वह सबसे बड़ा आश्रय है ॥१५॥ वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोवहव्यप्रदं शिवम् ।

अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥ १६॥

बड़वानलके प्रज्वलित मुखमें वह सदा अपने जलरूपी हविष्यकी आहुति देतारहता है और जगत् के लिये कल्याणकारी है । इस प्रकार वह सरिताओंका स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है ॥ १६ ॥

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः।

अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ।

आपूर्यमाणमत्यर्थे नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥ १७ ॥

सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपसमें होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागर में निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जलसे उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरोंकी भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है।

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः।

विस्तीर्ण ददृशतुरम्बरप्रकाशं तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ॥१८॥

इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जलजन्तुओंसे व्याप्त, जलचर जीवोंके शब्दरूप भयंकर नादसे निरन्तर गर्जना करनेवाले, अत्यन्त विस्तृत आकाशके समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्रको कद्रू और विनताने देखा ॥ १८ ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपणे एकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥

 इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुडचरितके प्रसङ्गमें इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

No comments:

Post a Comment

Followers