१.२५ - आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः

आदिपर्व - अनुक्रमणिका 


(सूर्यके तापसे मूर्च्छित हुए सर्पोंकी रक्षाके लिये कद्रूद्वारा इन्द्रदेवकी स्तुति)

सौतिरुवाच 🗣️

ततः कामगमः पक्षी महावीर्यो महाबलः।

मातुरन्तिकमागच्छत् परं पारं महोदधेः ॥ १॥

उग्रश्रवाजी कहते हैं -  🗣️

शौनकादि महर्षियो ! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करनेवाले महान् पराक्रमी तथा महाबली गरुड़ समुद्र के दूसरे पार अपनी माताके समीप आये ॥ १ ॥

यत्र सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।

अतीव दुःखसंतप्ता दासीभावमुपागता ॥२॥

जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जानेसे दासीभावको प्राप्त हो अत्यन्त दुःखसे संतप्त रहती थीं ॥ २ ॥

ततः कदाचित् विनतां प्रणतां पुत्रसंनिधौ।

काले चाहूय वचनं कद्रूरिदमभाषत ॥ ३॥

एक दिन अपने पुत्रके समीप बैठी हुई विनयशील 'विनताको किसी समय बुलाकर कद्रूने यह बात कही-॥ ३॥

नागानामालयं भद्रे सुरम्यं चारुदर्शनम् ।

समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते नय ॥४॥

कल्याणी विनते ! समुद्रके भीतर निर्जन प्रदेशमें एक बहुत रमणीय तथा देखनेमें अत्यन्त मनोहर नार्गोका निवासस्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल' ॥ ४ ॥

ततः सुपर्णमाता तामवहत् सर्पमातरम् ।

पन्नगान् गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदितः ॥५॥

तब गरुडकी माता विनता सर्पोंकी माता कद्रूको अपनी पीठपर ढोने लगी। इधर माताकी आज्ञासे गरुड भी सर्पोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर ले चले ॥५॥

स सूर्यमभितो याति वैनतेयो विहंगमः।

सूर्यरश्मिप्रतप्ताश्च मूर्छिता पन्नगाभवन् ॥ ६॥

पक्षिराज गरुड आकाशमें सूर्य के निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्य की किरणोंसे संतप्त हो मूर्छित हो गये ॥६॥

तदवस्थान सुतान् दृष्ट्वा कद्रूः शक्रमथास्तुवत् ।

नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते बलसूदन ॥ ७॥

अपने पुत्रोंको इस दशामें देखकर कद्रू इन्द्रकी स्तुति करने लगी-सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर ! तुम्हें नमस्कार है । बलसूदन ! तुम्हें नमस्कार है ॥ ७ ॥

नमुचिघ्न नमस्तेऽस्तु सहस्राक्ष शचीपते ।

सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लयो भव ॥ ८॥

सहस्र नेत्रोंवाले ननुचिनाशन ! शचीपते ! तुम्हें नमस्कार है । तुम सूर्यके तापसे संतप्त हुए सर्पोंको जलसे नहलाकर नौकाकी भाँति उनके रक्षक हो जाओ ॥ ८॥

त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोत्तम ।

ईशो ह्यसि पयः स्रष्टुं त्वमनल्पं पुरन्दर ॥९॥

अमरोत्तम ! तुम्ही हमारे सबसे बड़े रक्षक हो । पुरन्दर! तुम अधिक से अधिक जल बरसाने की शक्ति रखते हो ॥ ९॥

त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमग्निविधुतोऽम्बरे ।

त्वमभ्रगणविक्षेप्ता त्वामेवाहुर्महाघनम् ॥१०॥

तुम्हीं मेघ हो, तुम्ही वायु हो और तुम्ही आकाशमें बिजली बनकर प्रकाशित होते हो। तुम्हीं बादलॊको छिन्न-भिन्न करनेवाले हो और विद्वान् पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहते हैं ॥१०॥

त्वं वज्रमतुलं घोरं घोपवांस्त्वं बलाहकः ।

प्रया त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजितः ॥१२॥

संसारमें जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्ही हो । तुम्ही भयंकर गर्जना करनेवाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ ) हो । तुम्ही सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि और संहार करनेवाले हो । तुम कभी परास्त नहीं होते ॥ ११ ॥

त्वं ज्योतिः सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसुः ।

त्वं महद्भुतमाश्चय त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः ॥१२॥

तुम्हीं समस्त प्राणियों की ज्योति हो । सूर्य और अग्नि भी तुम्ही हो । तुम आश्चर्यमय महान् भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ हो॥ १२॥

त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम् ।

त्वं सर्वममृतं देव त्वं सामः परमार्चितः ॥१३॥

'तुम्ही सर्वव्यापी विष्णु, सहस्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान् देवता और सबके परम आश्रय हो । देव ! तुम्हीं सब कुछ हो । तुम्हीं अमृत हो और तुम्ही परमपूजित सोम हो ॥१३॥

त्वं मुहूर्तस्तिथिस्त्वं च त्वं लयस्त्वं पुनः क्षणः ।

शुक्तस्त्वं बहुलस्त्वं च कला काष्ठा प्रटिस्तथा ।

संवत्सरर्तयो मासा रजन्यश्च दिनानि च ॥१४॥

तुम मुहूर्त हो, तुम्ही तिथि हो, तुम्ही लय तथा तुम्ही क्षण हो । शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष भी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। संवत्सर, ऋतु, मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्ही हो ॥ १४ ॥

त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुन्धरा सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा ।

महोदधिः सतिमितिमिगिलस्तथा महोर्मिमान् बहुमकरो झषाकुलः ॥१५॥

तुम्ही पर्वत और वनोसहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्ही अन्धकाररहित एवं सूर्यसहित आकाश हो । तिमि

और तिमिङ्गिलोंसे भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्योसे व्याप्त तथा उत्ताल तरङ्गोंसे सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो ॥१५॥

महायशास्त्वमिति सदाभिपूज्यसे मनीषिभिर्मुदितमना महर्षिभिः ।

अभिष्टुतः पिबसि च सोममध्वरे वषटकृतान्यपि च हवींषि भूतये ॥१६॥

तुम महान् यशस्वी हो । ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं । तुम यजमानकी अभीष्टसिद्धि करनेके लिये यज्ञमें मुदित मनसे सोमरस पीते हो और वषटकारपूर्वक समर्पित किए हुए हविष्य भी ग्रहण करते हो ॥ १६ ॥

त्वं विप्रैः सततमिहेज्यसे फलार्थ वेदाङ्गेवतुलवलौघ गीयसे च ।

त्वद्धतोर्यजनपरायणा द्विजेन्द्रा वेदाङ्गान्यभिगमयन्ति सर्वयत्नैः ॥१७॥

इस जगत में अभीष्ट फलकी प्राप्ति के लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं । अतुलित बलके भण्डार इन्द्र ! वेदाङ्गोंमें भी तुम्हारी ही महिमाका गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ द्विज तुम्हारी प्राप्तिके लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदाङ्गोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं (यहाँ कद्रुके द्वारा ईश्वररूपसे इन्द्रकी स्तुति की गयी है) ॥ १७ ॥ 

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ 

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥

आदिपर्व - अनुक्रमणिका

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