🌷 अध्याय २८ - कपिजन्मनि विमानागमनं 🌷

 


श्रीनारायण उवाच :-

तन्निशम्य भटानाह चित्रगुप्तश्चिरं भृशम्‌, पूर्वं लोभाभिभूतोऽयं पश्चाचौर्यमचीकरत्‌ ॥ १ ॥

अतः प्रेतत्वमासाद्य पश्चाद्भवतु वानरः, ततश्चातहं प्रदास्यामि बह्वीं नरकयातनाम्‌ ॥ २ ॥

अयमेव क्रमः श्रेयान्‌ धर्मराजगृहे भटाः, इत्येवं चित्रगुप्तेन समादिष्टा विभीषणाः ॥ ३ ॥

तथा चक्रुर्भटाः शीघ्रं ताडयन्तश्चर तं द्विजम्‌, प्रेतत्वं प्रापितः पूर्वं कानने विफले द्विजः ॥ ४ ॥

निर्जले बहुकालं च प्रेतयोनिमवाप्य सः, क्षुत्तृड्‌भ्यां व्याकुलोऽत्यन्तं बभ्राम गहने वने ॥ ५ ॥

प्रेतयोनिगतं दुःखमनुभूय ततः परम्‌, फलचौर्यसमुद्‌भूतां कपियोनिमजीगमत्‌ ॥ ६ ॥

दिव्ये कालञ्ज रे शैले जम्बुखण्डमनोहरे, सुशीतलजलच्छाये फलपुष्पसमन्विते ॥ ७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – चित्रगुप्त धर्मराज के वचन को सुनकर अपने योद्धाओं से बोले – यह कदर्य प्रथम बहुत समय तक अत्यन्त लोभ से ग्रस्त हुआ, बाद चोरी करना शुरू किया ॥ १ ॥

इसलिये यह प्रथम प्रेतशरीर को प्राप्त कर बाद वानर शरीर में जाय, तब हम इसको बहुत-सी नरकयातना देंगे ॥ २ ॥

हे भट लोग! धर्मराज के गृह में यही क्रम श्रेष्ठ है, इस प्रकार चित्रगुप्त से आज्ञा प्राप्त होने पर भयंकर ॥ ३ ॥

भट लोगों ने चित्रगुप्त की आज्ञानुसार शीघ्र वैसा ही किया और उस ब्राह्मण को पीटते हुए प्रथम प्रेतशरीर में करके फलरहित वन में रक्खा ॥ ४ ॥

वह ब्राह्मण प्रेत योनि को प्राप्त कर उस निर्जन गहन वन में क्षुधा-तृषा से अत्यन्त व्याकुल होकर भ्रमण करने लगा ॥ ५ ॥

प्रेतयोनि में होनेवाले दुःख को भोग कर बाद फलों के चोरी करने से होने वाली वानर योनि को गया ॥ ६ ॥

सुन्दर शीतल जल और छाया तथा फल-पुष्प से युक्त जम्बू खण्ड के मनोहर सुन्दर कालञ्जोर पर्वत पर ॥ ७ ॥

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तत्रासीद्देवराजेन निर्मितं कुण्डमुत्तमम्‌, सरोवरसमं पुण्यं सत्सेव्यं पापनाशनम्‌ ॥ ८ ॥

मृगतीर्थमिति ख्यातं सुराणामपि दुर्लभम्‌, यस्मिन्‌ कृतेन श्राद्धेन पितरो यान्ति सद्गतिम्‌ ॥ ९ ॥

तत्र दैत्यभयाद्देवा मृगा भूत्वा निरन्तरम्‌, अभिसस्नुर्निरातङ्का मृगतीर्थमतो विदुः ॥ १० ॥

तत्रायं प्रथमं जन्म कापेयं लब्धवान्‌ द्विजः, फलचौर्यकृतात्‌ पापादासाद्य मानुषीं तनुम्‌‌ ॥ ११ ॥

नारद उवाच :-

त्रैलोक्यपावने रम्ये मृगतीर्थे कथं कपिः, आवासमकरोद्‌दुष्टः पापकोटिसमन्वितः ॥ १२ ॥

छिन्धि मे संशयं नाथ तपोधन मनोगतम्‌, भवादृशां न गोप्यं हि स्वशिष्येषु कदाचन ॥ १३ ॥

सूत उवाच :-

एवं सन्नोदितां विप्रा नारदेन तपोनिधिः, उवाच परमप्रीतः सत्कुर्वन्नारदं मुनिम्‌ ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

वहाँ इन्द्र से बनाया हुआ उत्तम कुण्ड है, मानसरोवर के समान पवित्र, सत्पुरुषों से सेवित, पापों का नाश करने वाला ॥ ८ ॥

देवताओं को भी दुर्लभ ‘मृगतीर्थ’ नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें श्राद्ध करने से पितर लोग सद्‌गति को चले जाते हैं ॥ ९ ॥

वहाँ पर देवता लोग दैत्यों के भय से मृग होकर निरन्तर, निर्भय स्नान करने लगे, इसलिये विद्वान्‌ लोग उस कुण्ड को मृगतीर्थ कहते हैं ॥ १० ॥

मनुष्य शरीर को प्राप्त कर यह ब्राह्मण वहाँ पर फलों के चोरी करने के पाप से प्रथम वानर शरीर को प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥

नारद  मुनि बोले – त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले रमणीय मृगतीर्थ में पापकोटि से युक्त वह दुष्ट वानर कैसे वास करता हुआ? ॥ १२ ॥

हे नाथ! हे तपोधन! मेरे मन के सन्देह को काटो। क्योंकि आपके समान गुरुजनों का अपने शिष्यों के विषय में कभी भी गोप्य  नहीं होता है ॥ १३ ॥

सूतजी बोले – हे विप्रलोग! इस प्रकार नारद मुनि से प्रेरित होने पर अत्यन्त प्रसन्न तपोनिधि नारायण भगवान्‌ नारद मुनि का सत्कार करते हुए बोले ॥ १४ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

कश्चिवैश्यो महानासीन्नाम्ना वै चित्रकुण्डलः, तत्पत्नीत तारका नाम्नी पातिव्रत्यपरायणा ॥ १५ ॥

तावुभौ चक्रतुर्भक्त्या पुण्यं श्रीपुरुषोत्तमम्‌, तयोः कृतवतोर्मासो गतः श्रीपुरुषोत्तमः ॥ १६ ॥

चरमेऽहनि सम्प्राप्तेप उद्यापनमथाकरोत्‌, सपत्नीको मुदा युक्तः श्रद्धया चित्रकुण्डलः ॥ १७ ॥

द्विजानाकारयामास वेदवेदाङ्गपारगान्‌, उद्यापनविधिं कर्तुं सपत्नीकान्‌ गुणान्वितान्‌ ॥ १८ ॥

कदर्योऽप्यगमत्तत्र धनलोभेन नारद, उद्यापनविधौ पूर्णे सञ्जा ते चित्रकुण्डलः ॥ १९ ॥

अत्युग्रदानैस्तान्‌ विप्रान्‌ सपत्नीकानतोषयत्‌, तुष्टेषु तेषु सर्वेषु भूयसीं दक्षिणामदात्‌ ॥ २० ॥

तद्दत्तभूयसी तुष्टा अन्ये विप्रा गृहान्‌ ययुः, अतिलुब्धः कदर्यस्तु रुदंस्तस्थौ तदग्रतः ॥ २१ ॥

विनयावनतो भूत्वा सगद्गदमुवाच ह, चित्रकुण्डल वैश्येश भगवद्भक्तिभासुर ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – कोई चित्रकुण्डल नाम का महान्‌ वैश्य था, पतिव्रत धर्म में परायणा तारका नाम की उस वैश्य की स्त्री थी ॥ १५ ॥

उन दोनों ने भक्ति से पवित्र श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत किया, जब श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत करते उन दोनों का श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया ॥ १६ ॥

अन्तिम वाले दिन के आने पर स्त्री के साथ हर्ष से युक्त श्रद्धापूर्वक चित्रकुण्डल ने उद्यापन किया ॥ १७ ॥

पुरुषोत्तममास के उद्यापन विधि करने के लिये वेद और वेदांग को जानने वाले गुणी स्त्री सहित ब्राह्मणों को बुलाया ॥ १८ ॥

हे नारद! वहाँ पर धन के लोभ से कदर्य भी आया, उद्यापन विधि के पूर्ण होने पर चित्रकुण्डल ने ॥ १९ ॥

बहुत बड़े दानों से उन सपत्नी क ब्राह्मणों को प्रसन्न किया, उन समस्त ब्राह्मणों के प्रसन्न होने पर भूयसी दक्षिणा को दिया ॥ २० ॥

उस दी हुई भूयसी दक्षिणा से प्रसन्न अन्य सब ब्राह्मण गृह को गये परन्तु अत्यन्त लोभी कदर्य उस वैश्य चित्रकुण्डल के सामने रोता हुआ खड़ा हो गया ॥ २१ ॥

और विनय से नम्र होकर गद्‌गद वाणी से बोला – हे चित्रकुण्डल! हे वैश्येश! हे भगवद्भक्ति के सूर्य! ॥ २२ ॥

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पुरुषोत्तमव्रतं सम्यक्‌ भवता विधिना कृतम्‌, न तथा च कृतं केन कुत्रापि पृथिवीतले ॥ २३ ॥

भवानद्य कृतार्थोऽसि भाग्यवानसि सर्वथा, तत्त्वया परया भक्त्या सेवितः पुरुषोत्तमः ॥ २४ ॥

धन्यस्तव पिता धन्या माता च पतिदेवता, याभ्यामुत्पादितः पुत्रस्त्वादृशो हरिवल्लोभः ॥ २५ ॥

धन्याद्धन्यतरश्चायं मासः श्रीपुरुषोत्तमः, यत्सेवनादवाप्नोति ह्यैहिकामुष्मिकं फलम्‌ ॥ २६ ॥

दृष्ट्वा हि तावकीं पूजां चकितोऽहं विशांपते, अहो त्वया महत्कर्म कृतमेतन्न संशयः ॥ २७ ॥

अन्येभ्यो ब्राह्यणेभ्यश्च धनं दत्तं बृहन्मुदा, न ददासि कथं मह्यं भाग्यहीनाय भूरिद ॥ २८ ॥

इति विज्ञापितस्तेन तस्मै धनमदादसौ, तद्‌गृहीत्काऽकरोद्विप्रो धनं भूमिगतं मुदा ॥ २९ ॥

तत्रानेन महापूजा दृष्ट्वा श्रीपौरुषोत्तमी, पुरुषोत्तममासश्च धनलोभेन संस्तुतः ॥ ३० ॥

पूजादर्शनमाहात्म्यात्‌ पुरुषोत्तमसंस्तवात्‌, धनलोभकृताद्वापि मृगतीर्थमुपागतः ॥ ३१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

आपने पुरुषोत्तम मास का व्रत विधि से अच्छी तरह किया, इस तरह पृथिवी तल में कहीं पर किसी ने नहीं किया ॥ २३ ॥

आप कृतार्थ हो, सर्वथा भाग्यवान्‌ हो जो तुमने परम भक्ति से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सेवन किया ॥ २४ ॥

तुम्हारे पिता धन्य हैं और तुम्हारी पतिव्रता माता धन्य हैं, जिन दोनों ने तुम्हारे समान हरिवल्ल भ पुत्र को पैदा किया ॥ २५ ॥

यह पुरुषोत्तम मास धन्य से भी धन्य है, जिसके सेवन से मनुष्य इस लोक के और परलोक के फल को प्राप्त करता है ॥ २६ ॥

हे विशांपते! तुम्हारी इस पूजा को देखकर मैं चकित हो गया, अहो! तुमने बहुत बड़ा काम किया इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥

हर्ष से दूसरे ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया, हे भूरिद! भाग्यहीन मेरे लिए क्यों नहीं देते हो? ॥ २८ ॥

इस प्रकार कदर्य के कहने पर चित्रकुण्डल वैश्य ने कदर्य को धन दिया, कदर्य ने धन को लेकर प्रसन्नता से उसको जमीन में गाड़ दिया ॥ २९ ॥

वहाँ पर कदर्य ने श्रीपुरुषोत्तम की बड़ी पूजा देखी और धन के लोभ से पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की ॥ ३० ॥

पूजा के दर्शन माहात्म्य से और पुरुषोत्तम भगवान्‌ की स्तुति से तथा धन का लोभ होने पर भी मृगतीर्थ को आया ॥ ३१ ॥

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सूत उवाच :-

दर्शनात्‌ स्तवनाद्वापि धनलोभकृतादपि, दुष्टशाखामृगस्यापि जातं सत्तीर्थसेवनम्‌ ॥ ३२ ॥

कि पुनः श्रद्धया कर्तुर्दर्शनस्तवने द्विजाः, पुरुषोत्तमदेवस्य सपत्नीकस्य सादरम्‌ ॥ ३३ ॥

नारद उवाच :-

सुशीतलजले ब्रह्मन्‌ स्निग्धच्छाये मनोहरे, सद्‌वृक्षमण्ढितेऽरण्ये तत्स्थितेः कारणं वद ॥ ३४ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

श्रृणु नारद वक्ष्यामि तुभ्यं शुश्रुषवेऽनघ, अत्रास्ति कारणं किञ्चिच्छ्रवणात्पापनाशनम्‌ ॥ ३५ ॥

यदा दाशरथी रामः सर्वार्थफलदायकः, हतवान्‌ रावणं दुष्टं बद्‌ध्वा सेतुं महौदधौ ॥ ३६ ॥

विभीषणादृते तेन राक्षसा नावशेषिताः, ततो वह्निविशुद्धा सा जानकी स्वीकृताऽधुना ॥ ३७ ॥

चतुर्मुखमहेशानपुरन्दरपुरःसरैः, दशवक्त्रवधप्रीतैर्हे राम त्वं वरं वृणु ॥ ३८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सूतजी बोले – दर्शन से, स्तुति से, धन के लोभ करने से भी दुष्ट वानर को उत्तम तीर्थ का सेवन हुआ ॥ ३२ ॥

हे द्विजलोग! श्रद्धा से आदरपूर्वक पुरुषोत्तम देव के दर्शन और स्तुति में तत्पर सपत्नीक के पुण्य का क्या कहना है? ॥ ३३ ॥

नारद मुनि बोले – हे ब्रह्मन्‌! सुन्दर वृक्षों से शोभित, सुन्दर शीतल जल वाले, मनोहर घनी छायावाले वन में उसके रहने का कारण क्या है? सो आप कहिये ॥ ३४ ॥

श्रीनारायण बोले – हे नारद! हे अनघ! तुम सुनो, सुनने की इच्छा करनेवाले तुमको मैं कहूँगा, इसमें कुछ कारण है जिसके श्रवण से पापों का नाश हो जाता है ॥ ३५ ॥

जब समस्त अर्थ और फलों के दाता दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधकर दुष्ट रावण का नाश किया ॥ ३६ ॥

उन रामचन्द्रजी ने विभीषण को छोड़कर बाकी समस्त राक्षसों का वध किया किसी को नहीं छोड़ा, बाद अग्नि में परीक्षा कर सीता को ग्रहण किया ॥ ३७ ॥

ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवता रावण के वध से प्रसन्न होकर बोले कि हे राम! तुम वर को माँगो ॥ ३८ ॥

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इत्युक्तेऽवीवदद्रामो भक्तानामभयङ्करः, सुराः श्रृणुत मद्वाक्यं यदि देयो वरोऽधुना ॥ ३९ ॥

अत्र ये वानराः शूरा रक्षोभिर्निहताश्च ते, सञ्जीवयत तानाशु सुधावृष्टयाममाऽज्ञया ॥ ४० ॥

तथेत्युक्त्वा सुधावृष्टया वानरान्‌ समजीवयत्‌, चतुर्मुखमहेशानपुरन्दरपुरःसराः ॥ ४१ ॥

ततः सञ्जीतविताः सर्वे वानरा जयशालिनः, अडुढौकन्‌ रामभद्रे चिरं सुप्तोत्थिता इव ॥ ४२ ॥

अथ पुष्पकमारुह्य वानरान्‌ सर्वतः स्थितान्‌, अजीगदत्‌ सपत्नीकः प्रसन्नमुखपङ्कजः ॥ ४३ ॥

श्रीराम उवाच :-

हे सुग्रीवहनूमन्तौ हे तारात्मज जाम्बवन्‌, मित्रकार्यं कृतं सर्वं भवद्भिः सह वानरैः ॥ ४४ ॥

आज्ञापयन्तु तान्‌ सर्वान्‌ भवन्तो वानरानितः, भवदाज्ञापिताः सर्वे यथेष्टं यान्तु ते यतः ॥ ४५ ॥

यत्र यत्र वने एते मामका दीर्घजीविनः, वसन्ति वानरास्तत्र वृक्षाः पुष्पफलान्विताः ॥ ४६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

ऐसा कहने पर भक्तों को अभय करने वाले रामचन्द्र बोले – हे देवता लोग! यदि इस समय वरदान देना है तो सुनो ॥ ३९ ॥

यहाँ पर राक्षसों से शूर वानर मारे गये हैं उनको हमारी आज्ञा से अमृत वृष्टि कर शीघ्र जिला दो ॥ ४० ॥

‘तथास्तु’ यह कह कर ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवताओं ने अमृत की वृष्टि करके वानरों को जिला दिया ॥ ४१ ॥

तदनन्तर वे जयशाली समस्त वानर जीवित हो गये और चिर-काल तक शयन कर उठे हुए के समान देखने में आये, बाद रामचन्द्र ॥ ४२ ॥

चारों तरफ बैठे हुए समस्त वानरों के साथ पुष्पक विमान पर सवार होकर प्रसन्न मुखकमल वाले सपत्नीक रामचन्द्र बोले ॥ ४३ ॥

श्रीरामचन्द्रजी बोले – हे सुग्रीव! हे हनुमन्‌! हे तारात्मज! हे जाम्बवान्‌! वानरों के साथ आप लोगों ने मित्र का समस्त कार्य किया ॥ ४४ ॥

आप लोग उन वानरों को आज्ञा दो, जिसमें यहाँ से आप लोगों की आज्ञा पाकर वानर अपनी-अपनी इच्छानुसार जंगलों में जायँ ॥ ४५ ॥

हमारे ये दीर्घजीवी वानर जहाँ-जहाँ वास करें वहाँ के वृक्ष पुष्प फलों से युक्त हो जायँ ॥ ४६ ॥

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नद्यो मृष्टलता वाथ शीतलं सुभगं सरः, न केऽपि धर्षयिष्यन्ति सर्वे यान्तु ममाऽज्ञया ॥ ४७ ॥

अतो रामप्रभावेण यतो वानरजातयः, तत्रनद्यो मृष्टजलाःसरश्च सुभगं वने ॥ ४८ ॥

लसत्फला महावृक्षाः पुष्पपल्लवसंयुताः, परन्तु सुखदुःखानि प्राक्तनादृष्टजानि च ॥ ४९ ॥

यत्र यत्र वसेज्जन्तुस्तत्र तत्रोपयान्ति हि, नाभुक्तं क्षीयते कर्म इति वेदानुशासनम्‌ ॥ ५० ॥

श्रीनारायण उवाच :-

अथासौ वानरस्तत्र ववृघे पर्वतोपमः, बृहत्‌क्षुत्तृट्‌समायुक्तो लोलुपो व्यचरद्वने ॥ ५१ ॥

जन्मतस्तस्य वक्त्रेऽभूत्‌ पीडा पित्तसमुद्भवा, ययाऽसृक्‌ च्यवते वक्त्रव्रणतश्चो दिवानिशम्‌ ॥ ५२ ॥

अत्यन्तवेदनाविष्टो नात्तुं शक्तस्तु किञ्चन, स च नानरचापल्याद्‌ द्रुमेभ्यः सत्फलानि च ॥ ५३ ॥

लुनीय वदनाभ्याशे नीत्वा तत्याज भूरिशः, नैकत्र पीडया स्थातुं शक्तोऽसौ वानरः क्कचित्‌ ॥ ५४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नदी मीठे जलवाली हो, शीतल जल वाले सुन्दर तालाब हों, इनको कोई भी मना नहीं करे, हमारी आशा से समस्त वानर जायँ ॥ ४७ ॥

इसीलिए रामचन्द्र के प्रभाव से जहाँ वानर जाति के लोग वास करते हैं वहाँ वन में मीठे जलवाली नदी और सुंदर तालाब होते हैं ॥ ४८ ॥

पुष्प पत्र से युक्त, सुन्दर फलवाले बहुत से वृक्ष हैं परन्तु अदृष्ट से होनेवाले पूर्वजन्म के सुखदुःख ॥ ४९ ॥

जहाँ-जहाँ प्राणी निवास करता है वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं क्योंकि बिना भोगे कर्म का नाश नहीं है, ऐसी वेद की आज्ञा है ॥ ५० ॥

श्रीनारायण बोले – फिर वहाँ पर यह लालची वानर पर्वत के समान बढ़ता हुआ भूख-प्यास से युक्त पीड़ित वन में विचरण लरने लगा ॥ ५१ ॥

उसके मुख में पित्त के प्रकोप से पीड़ा उत्पन्न हुई जो उसका जन्म का रोग था, जिस पीड़ा से मुख के घावों से दिन-रात रुघिर बहा करता है ॥ ५२ ॥

अत्यन्त पीड़ा के कारण कुछ भी भोजन नहीं कर सकता था और वह वानर चंचलतावश वृक्षों में से उत्तम फलों को तोड़ कर ॥ ५३ ॥

मुख के पास ले जाकर बहुत से फलों को जमीन में गिरा दिया करता था, वहाँ वानर पीड़ा के कारण कहीं भी एक स्थान पर बैठने में असमर्थ था ॥ ५४ ॥

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वृक्षाद्‌वृक्षान्तरं गच्छन्‌ मेने मृत्युं सुखावहम्‌, कदाचिदपतद्भूमौ विललापातिदुःखितः ॥ ५५ ॥

अरूरुदद्भग्नगात्रो नीरभ्रष्टो यथा झषः, असौ क्षुत्तृट्‌समाविष्टः श्ल थदेहो गलन्मुखः ॥ ५६ ॥

पेतुर्दन्तास्तथा सर्वे व्रणरोगेण पीडिताः, पूर्वजन्मकृतात्‌ पापादेवं दुःखमजीगमत्‌ ॥ ५७ ॥

एवं प्रवर्त्तमानस्य निराहारस्य नित्यशः, दैवयोगात्‌ समागच्छन्मासः श्रीपुरुषोत्तमः ॥ ५८ ॥

तस्मिन्नपि तथैवास्ते शीतवातादिपीडितः, कदाचिद्‌ बहुले पक्षे विचरन्‌ गहने वने ॥ ५९ ॥

तृषितःकुण्डनिकटैनाशक्नोत्‌ पातुममृतम्‌, क्षुधाविष्टोऽपिचापल्यात्तत्रोच्चैेर्वृक्षमारुहत्‌ ॥ ६० ॥

वृक्षाद्‌वृक्षान्तरं गच्छन्मध्ये कुण्डमपीपतत्‌, स चिराय निराहारः शिथिलेन्द्रियजर्जरः ॥ ६१ ॥

निर्बलःशिथिलप्राणःकुण्डप्रान्तमुपाश्रितः, एवं दिनानि चत्वारि दशमीदिनतः कपेः ॥ ६२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाता हुआ मृत्यु को सुख देनेवाला मानने लगा, किसी समय पृथिवी पर गिर पड़ा और अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगा ॥ ५५ ॥

शरीर के टूट जाने से जलहीन मछली के समान तड़फड़ाता हुआ रोदन करने लगा, शिथिल शरीर वाला, गलित मुखवाला वह वानर भूख-प्यास से पीड़ित हो गया ॥ ५६ ॥

उसके समस्त दांत मुखरोग से पीड़ित होकर गिर गये, पूर्व जन्म के कृत पाप से इस तरह दुःख को प्राप्त हुआ ॥ ५७ ॥

इस प्रकार नित्यप्रति निराहार रहते हुए वानर को देवयोग से श्रीपुरुषोत्तम मास आया ॥ ५८ ॥

उस पुरुषोत्तम मास में भी उसी प्रकार शीतवात आदि से पीड़ित रहा, किसी समय बहुल पक्ष में गहन वन में विचरण करता हुआ ॥ ५९ ॥

प्यासा वानर कुण्ड के पास पहुँचने पर भी जलपान करने को समर्थ नहीं हुआ, भूख से युक्त भी चपलता से वहाँ ऊँचे वृक्ष के ऊपर चढ़ गया ॥ ६० ॥

एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाते हुए उसके बीच में एक कुण्ड आ पड़ा, बहुत दिनों से निराहार शिथिल इन्द्रिय और जर्जर शरीर वाला ॥ ६१ ॥

निर्बल, शिथिल प्राणवाला कुण्ड के तटभाग में आया, इस प्रकार दशमी तिथि से चार दिन तक वानर को ॥ ६२ ॥

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गतानि लुण्ठतः कुण्डे मासे श्रीपुरुषोत्तमे, पञ्चमे दिवसे प्राप्ते मध्यंदिनगते रवौ ॥ ६३ ॥

व्यसुः पपात तत्तीथें तोयक्लिन्नवपुः कपिः, स तं देहं समुत्सृज्य विनिर्धूतमलाशयः ॥ ६४ ॥

सद्यो दिव्यवपुः प्रापः दिव्याभरणभूषितम्‌, इन्दीवरदलश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्‌ ॥ ६५ ॥

स्फुरद्रत्नवकिरीटं च सुचारुझषकुण्डलम्‌, लसत्पीतपटं पुण्यं सद्रत्नमकटिमेखलम्‌ ॥ ६६ ॥

लसत्केयूरवलयं मुद्रिकाहारशोभितम्‌, नीलकुञ्चितसुस्निग्धचिकुरावृतसन्मुखम्‌ ॥ ६७ ॥

तदानीमागमच्छीघ्रं विमानं वैष्णवाश्रितम्‌, भेरीमृदङ्गपटहवेणुवीणाबृहत्स्वनम्‌ ॥ ६८ ॥

नृत्यद्‌देवाङ्गनं दिव्यं गायद्‌गन्धर्वकिन्नरम्‌, तन्निरीक्ष्य महाभागो दिव्यदेहधरः कपिः ॥ ६९ ॥

विस्मयं परमं यातो महापापस्य मे कुतः, एतत्पुण्यतमस्यैव योग्यं वैमानिकं सुखम्‌ ॥ ७० ॥

अथ काचित्तदुपरि दधारच्छत्रमिन्दुभम्‌, चक्रतुश्चाममरे तस्य काश्चि द्‌प्सरसरसो मुदा ॥ ७१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीपुरुषोत्तम मास में उस कुण्ड में लोट-पोट करते बीत गये, पाँचवे दिन के आनेपर मध्याह्न काल में ॥ ६३ ॥

उस तीर्थ में जल से भींगा शरीरवाला वानर प्राण से रहित होकर गिर गया और वह उस देह को त्याग कर पापों से रहित होकर ॥ ६४ ॥

तत्काल दिव्य आभूषणों से भूषित दिव्य देह को प्राप्त किया जो कि नीलकमल के दल के समान श्यामवर्ण, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर ॥ ६५ ॥

चमकते हुए रत्नों  से जटित किरीटधारी, सुन्दर शोभमान मत्स्यकुण्डल वाला, शोभमान पवित्र पीतवस्त्रधारी, कमर में रत्नोंर से जटित मेखला वाला ॥ ६६ ॥

शोभमान बाजूबन्द, कंकण, अँगूठी, हार से शोभित, नीलवर्ण के टेढ़े चिकने बालों से आवृत सुन्दर मुख था ॥ ६७ ॥

उसी समय शीघ्र वहाँ वैष्णवों से युक्त विमान आया जिसमें भेरी, मृदंग, पटह, वेणु, वीणा का महान्‌ शब्द हो रहा है ॥ ६८ ॥

और देवांगनाओं का नाच हो रहा है, गन्धर्व किन्नर के सुन्दर गान हो रहे हैं ऐसे उस विमान को महाभाग दिव्यदेहधारी वानर देखकर ॥ ६९ ॥

अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हो कहने लगा कि पातकी मेरे को यह सुख कैसे हुआ? यह विमान-सुख बड़े पुण्यात्मा को ही होना उचित है ॥ ७० ॥

इसके बाद कोई देवांगना उसके ऊपर चन्द्रमा के समान श्वेकत छत्र को धारण करती हुई, कोई दो अप्सरायें हर्ष से उसको दोनों तरफ चामर को डुला रही हैं ॥ ७१ ॥

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काश्चित्ताम्बूलहस्ताश्च काश्चित्‌ ननृतुश्चाप्सराः, काचिद्‌भृङ्गारकं हैमं स्वर्धुनीवारिसम्भृतम्‌ ॥ ७२ ॥

हस्ते कृत्वा पुरस्तस्थौ गीतावाद्यादितत्पराः, एवं वैभवमालोक्य चित्रन्यस्त इवाभवत्‌ ॥ ७३ ॥

किमेतत्‌ केन पुण्येन ममापुण्यस्य दुर्मतेः, नास्ति मे सुकृतं किञ्चिद्येन यामि हरेः पदम्‌ ॥ ७४ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इत्थं तर्कयतो बृहत्सुखनिधिं दिव्यं विमानं पुरो दृष्ट्वा विस्मितचेतसो हरिभटौ ज्ञात्वास्य हार्दं परम्‌, बद्‌ध्वाग्रे करसम्पुटं सविनयं नत्वा तदीयं पदं वाक्यं सुन्दरम्‌चतुः कपिजनुस्त्यक्त्वा पुरः संस्थितम्‌ ॥ ७५ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने कपिजन्मनि विमानागमनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

कोई पान हाथ में लिये खड़ी है और उसके सामने अप्सरायें नाच कर रही हैं, कोई गंगाजल से भरी हुई झारी को लिये खड़ी है ॥ ७२ ॥

कोई उसके सामने खड़ी गाने बजाने में तत्पर हैं, इस प्रकार उस वैभव को देखकर चित्र में बने हुए मे समान निश्च ल हो गया ॥ ७३ ॥

यह क्या है? मुझ दुष्ट पातकी को किस पुण्य से यह सब प्राप्त हुआ, मेरा कुछ भी पुण्य नहीं है जिसमें मैं हरि भगवान्‌ के परम पद को जाऊँ ॥ ७४ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार तर्क करते हुए कदर्य ने सुख का बहुत बड़ा खजाना दिव्य विमान को सामने देखकर आश्चनर्य किया, बाद हरिभटों ने उस कदर्य का हार्दिक अभिप्राय जानकर उसके सामने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसके चरणों में नमस्कार कर वानरशरीर को त्यागे हुए उस कदर्य को सुन्दर वचन कहा ॥ ७५ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे श्रीपुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने कपिजन्मनि विमानगमनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

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