🌷 अध्याय २९ – अह्निककथनं 🌷

 


पुण्यशीलसुशीलावूचतुः :-

विभो प्रयाहि गोलोकं कथमत्र विलम्बसे, पुरुषोत्तमसान्निध्यं त्वया लब्धं विशेषतः ॥ १ ॥

कदर्य उवाच :-

बहूनि मम कर्माणि सन्ति भोग्यान्यनेकशः, केन मे निष्कृतिर्जाता यतो गोलोकमाप्नुयाम्‌ ॥ २ ॥

यावन्त्या वर्षधाराश्च तृणानि भूरजःकणाः, यावन्त्यस्तारकां व्योम्नि तावत्पापानि सन्ति में ॥ ३ ॥

कथमेतन्मया प्राप्तं वपुर्दिव्यं मनोहरम्‌, एतत्कारणमत्युग्रं मह्यं ब्रूत हरेः प्रियौ ॥ ४ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इति वाचमुपाकर्ण्य हरेर्दूतावथोचतुः, हरिदूतावूचतुः, अहो देव कथं नैव विज्ञातं साधनं महत्‌ ॥ ५ ॥

प्रभो न जायते कस्मान्मासः सर्वोत्तमोत्तमः, विष्णुप्रियो महापुण्यो नाम्ना वै पुरुषोत्तमः ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

पुण्यशील-सुशील बोले – हे विभो! गोलोक को चलो, यहाँ देरी क्यों करते हो? तुमको पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सामीप्य मिला है ॥ १ ॥

कदर्य बोला – मेरे बहुत कर्म अनेक प्रकार से भोगने योग्य हैं, परन्तु हमारा उद्धार कैसे हुआ जिससे गोलोक को प्राप्त हुआ? ॥ २ ॥

जितनी वर्षा की धारायें हैं, जितने तृण हैं, पृथिवी पर धूलि के कण हैं, आकाश में जितनी तारायें हैं उतने मेरे पाप हैं ॥ ३ ॥

मैंने यह सुन्दर तथा मनोहर शरीर कैसे प्राप्त किया? हे हरि भगवान्‌ के प्रिय! इसका अति उग्र कारण मुझसे कहिये ॥ ४ ॥

श्रीनारायण बोले – कदर्य के इस प्रकार वाणी को श्रवणकर हरि के दूतों ने कहा, हरिदूत बोले – अहो! आश्चर्य है। हे देव! आपने इस पद की प्राप्ति का कारण महान्‌ साधन कैसे नहीं जाना ॥ ५ ॥

हे प्रभो! सबमें उत्तमोत्तम, विष्णु का प्रिय, महान्‌ पुण्यफल को देनेवाला, पुरुषोत्तममास नाम से प्रसिद्ध मास को क्यों नहीं जाना? ॥ ६ ॥

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तस्मिंस्त्वया तपश्चीर्णमशक्यं यत्सुरैरपि, अविज्ञातं महाराज कपिदेहेन कानने ॥ ७ ॥

मुखरोगादनाहारव्रतं जातमजानतः, त्वया च कपिचाञ्चल्यात्‌ फलान्युत्कृत्य वृन्ततः ॥ ८ ॥

क्षिप्तानि पृथिवीपीठे तृप्तास्तैरितरे जनाः, पानीयमपि नो पीतमन्तर्दुःखेन भूरिशः ॥ ९ ॥

सञ्जातं ते तपस्तीव्रमज्ञानात्‌ पुरुषोत्तमे, परोपकारः सञ्जातःफलपातेन तेऽनघ ॥ १० ॥

शीतवातातपा रौद्राः सोढा विचरता वने, महातीर्थे वरे रम्ये पञ्चाहं प्लवनं कृतम्‌ ॥ ११ ॥

तस्मात्ते स्नानजं पुण्यं मासे श्रीपुरुषोत्तमे, एवं रुग्णस्य ते जातमज्ञानात्तप उत्तमम्‌ ॥ १२ ॥

तदेतत्सफलं जातमनुभूतं त्वयाऽधुना, व्याजतोऽपि कृतेनैव सफलं स्याद्यथा तव ॥ १३ ॥

किं पुनः श्रद्धयैतस्मिन्‌ मासे श्रीपुरुषोत्तमे, विधिना कुर्वतः कर्म ज्ञात्वा माहात्म्यमुत्तमम्‌ ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उस पुरुषोत्तम मास में देवताओं से भी न होनेवाला तप तुमने किया हे महाराज! वन में वानर शरीर से अज्ञान में वह तप भया ॥ ७ ॥

मुखरोग के कारण अज्ञान से अनाहार व्रत भया और तुमने बन्दरपने की चंचलतावश वृक्ष से फलों को तोड़कर ॥ ८ ॥

पृथिवी पर फेंका उन फलों से दूसरे मनुष्य तृप्त हुए अन्तःकरण में विशेष दुःख होने से पानी भी नहीं पान किया ॥ ९ ॥

इस तरह श्रीपुरुषोत्तम मास में अज्ञानवश तुम से तीव्र तप हो गया हे अनघ! फलों के फेंकने से परोपकार भी हो गया ॥ १० ॥

वन में घूमते-घूमते शीत, वायु, घाम को सहन किया और श्रेष्ठ तीर्थ में सुन्दर महातीर्थ में पाँच दिन गोता लगाया ॥ ११ ॥

जिससे श्रीपुरुषोत्तम मास में तुमको स्नान का पुण्य प्राप्त हो गया इस प्रकार तुम्हारे रोगी के अज्ञान से उत्तम तप हो गया ॥ १२ ॥

सो यह सब सफल भया और तुमने इस समय अनुभव किया जब बिना समझे पुरुषोत्तम मास के सेवन हो जाने से तुमको यह फल मिला ॥ १३ ॥

तो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास के उत्तम माहात्म्य को जानकर श्रद्धा से विधिपूर्वक कर्म करे तो उसका क्या कहना है ॥ १४ ॥

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यस्त्वया साधितः स्वार्थस्तादृक्कर्तुं च कः क्षमः, यस्मिन्नेकोपवासेन मुच्यते पापराशिभिः ॥ १५ ॥

नैतत्तुल्यं भवेत्किञ्चित्पुरुषोत्तमप्रीतिदम्‌, ते धन्याः कृतकृत्यास्ते तद्‌व्रतं ये प्रकुर्वते ॥ १६ ॥

दुर्लभं मानुषं जन्म भूखण्डे भारताजिरे, तादृशं जनुरासाद्य सेवन्ते पुरुषोत्तमम्‌ ॥ १७ ॥

ते सदा सुभगाः पुण्यास्तेषां च सफलो भवः, येषां सर्वोत्तमो मासः स्‍नानदानजपैर्गतः ॥ १८ ॥

दानानि पितृकार्याणि तपांसि विविधानि च, तानि कोटिगुणान्येव सम्प्राप्ते  पुरुषोत्तमे ॥ १९ ॥

धिक्‌ तं च नास्तिकं पापं शठं धर्मध्वजं खलम्‌, पुरुषोत्तममासाद्य स्नानदानविवजितः ॥ २० ॥

श्रीनारायण उवाच :-

पुण्यशीलसुशीलाभ्यामदृष्टं वर्णितं निजम्‌, तच्छ्रुत्वा चकितो हृष्टः पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २१ ॥

तीर्थदेवान्‌ नमस्कृत्य कालञ्जयरगिरिं ततः, ननाम काननाधीशान्‌ सर्वगुल्मलतातरून्‌ ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

तुमने अपना जो अर्थ साधन किया वैसा करने को कौन समर्थ है? पुरुषोत्तम भगवान्‌ को और कोई वस्तु प्रीति को देनेवाली नहीं है ॥ १५ ॥

इस भरतखण्ड में अति दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सेवा करते हैं, जिस पुरुषोत्तम मास में एक भी उपवास के करने से मनुष्य पापपुञ्ज  से छूट जाता है वहाँ तुमने महीनों उपवास किया इस उग्र तपस्या का फल कहाँ जायगा? ॥ १६ ॥

इस मास के समान वे प्राणी धन्य और कृतकृत्य हैं ॥ १७ ॥

वे सदा भाग्यवान्‌ पुण्यकर्म के करनेवाले पवित्र हैं और उनका जन्म सफल है जिनका सबमें उत्तम पुरुषोत्तम मास स्नान, दान, जप से व्यतीत हुआ है ॥ १८ ॥

श्रीपुरुषोत्तम मास में दान, पितृकार्य, अनेक प्रकार के तप ये सब अन्य मास की अपेक्षा कोटि गुण अधिक फल देने वाले हैं ॥ १९ ॥

जो पुरुषोत्तम मास के आने पर स्नान-दान से रहित रहता है उस नास्तिक, पापी, शठ, धर्मध्वज, खल को धिक्कार है ॥ २० ॥

श्रीनारायण बोले – पुण्यशील और सुशील से वर्णित अपने अदृष्ट को सुनकर, चकित होता हुआ कदर्य प्रसन्न हो रिमांचित हो गया ॥ २१ ॥

तीर्थ के देवताओं को नमस्कार कर बाद कालञ्जआर पर्वत को नमस्कार किया और वन के देवताओं को तथा गुल्म, लता वृक्ष को नमस्कार किया ॥ २२ ॥

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ततः प्रदक्षिणीकृत्य विमानं विनयान्वितः, आरुरोह घनश्यामो लसत्पीताम्बरावृतः ॥ २३ ॥

पश्यत्सु सर्व देवेषु गन्धर्वाद्यैरभिष्टु तः, वाद्ययानेषुं वाद्येषु किन्नराद्यैर्मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥

पुष्पवृष्टिमुचो देवा मन्दं मन्दं मुदान्विताः, सादरं पूजयाञ्चक्रुः पुरन्दरपुरःसराः ॥ २५ ॥

ततो जगाम गोलोकं सानन्दं योगिदुर्लभम्‌, गोपगोपीगवां सेव्यं रासमण्डलमण्डितम्‌ ॥ २६ ॥

यत्र गत्वा न शोचन्ति जरामृत्युविवर्जिते, तत्रासौ चित्रशर्मा च पुरुषोत्तमसेवनात्‌ ॥ २७ ॥

व्याजेनापि भुमोदोच्चैजर्विहाय वानरं वपुः, द्विभुजं मुरलीहस्तं दृष्ट्वा श्रीपुरुषोत्तमम्‌ ॥ २८ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इदमाश्चर्यमालोक्य देवाः सर्वे सुविस्मिताः, स्वं स्वं स्थानं ययुः सर्वे शंसन्तः पुरुषोत्तमम्‌ ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

बाद विनय से युक्त हो विमान की प्रदक्षिणा कर मेघ के समान श्यामर्ण, सुन्दर पीताम्बर को धारण कर वह कदर्य विमान पर सवार हो गया ॥ २३ ॥

सम्पूर्ण देवताओं के देखते हुए गन्धर्व आदि से स्तुत और किन्नर आदिकों से बार-बार बाजा बजाये जाने पर ॥ २४ ॥

इन्द्रादि देवताओं ने प्रसन्न होकर मन्द पुष्पवृष्टि को करते हुए उसका आदरपूर्वक पूजन किया ॥ २५ ॥

फिर आनन्द से युक्त, योगियों को दुर्लभ, गोप-गोपी-गौओं से सेवित, रासमण्डल से शोभित गोलोक को गया ॥ २६ ॥

जरामृत्यु रहित जिस गोलोक में जाकर प्राणी शोक का भागी नहीं होता है, उस गोलोक में यह चित्रशर्म्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से गया ॥ २७ ॥

व्याज से पुरुषोत्तम मास के सेवन से वानर शरीर छोड़कर दो भुजाधारी मुरली हाथ में लिये पुरुषोत्तम भगवान्‌‍ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २८ ॥

श्रीनारायण बोले – इस आश्चर्य को देखकर समस्त देवता चकित हो गये और श्रीपुरुषोत्तम की प्रशंसा करते अपने-अपने स्थान को गये ॥ २९ ॥

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नारद उवाच :-

दिवसस्यादिमे भागे त्वयाऽह्निकमुदीरितम्‌, तद्दिवापरभागीयं कथं कार्यं तपोधन ॥ ३० ॥

गृहस्थस्योपकाराय वद मे वदतां वर, सदा सर्वोपकाराय चरन्ति हि भवादृशाः ॥ ३१ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

प्रातःकालोदितं कर्म समाप्य विधिवत्ततः, कृत्वा माध्याह्निकीं सन्ध्यां तिलतर्पणमाचरेत्‌ ॥ ३२ ॥

देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाश्च यक्षोरगदैत्यसंघाः, प्रेताः पिशाचा उरगाः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मयाऽत्र दत्तम्‌ ॥ ३३ ॥

ततः पञ्चमहायज्ञान्‌ कुर्याद्भूतबलिं ततः, काकस्य च शुनश्चैव बलिं दत्त्वैवमुच्चरन्‌ ॥ ३४ ॥

इत्युक्त्वा सर्वभूतेभ्यो बलिं दद्यात्‌ पुनः पृथक्‌, तत आचम्य विधिवच्छ्रद्धया प्रीतमानसः ॥ ३५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नारद मुनि बोले – हे तपोधन! आपने दिन के प्रथम भाग का कृत्य कहा, पुरुषोत्तम मास के दिन के पिछले भाग में होने वाले कृत्य को कैसे करना चाहिये ॥ ३० ॥

हे बोलनेवालों में श्रेष्ठ! गृहस्थ के उपकार के लिये मुझसे कहिये, क्योंकि आपके समान महात्मा सदा सबके उपकार के लिये विचरण करते रहते हैं ॥ ३१ ॥

श्रीनारायण बोले – प्रातःकाल के कृत्य को विधिपूर्वक समाप्त कर, बाद मध्याह्न में होनेवाली सन्ध्या को करके, तर्पण को करे ॥ ३२ ॥

देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्ष, दैत्य, प्रेत, पिशाच, नाग ये सब जो अन्न की इच्छा करते हैं वे सब मेरे से दिये गये अन्न को ग्रहण करें ॥ ३३ ॥

फिर पंचमहायज्ञ को करे, उसके बाद भूतबलि को करे और काक, कुत्ता को श्लोक पढ़ता हुआ बलि देवे ॥ ३४ ॥

इस प्रकार कहकर समस्त भूतों को पृथक्‌-पृथक्‌ बलि देवे, फिर विधिपूर्वक आचमन कर प्रसन्न होकर श्रद्धा से ॥ ३५ ॥

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द्वारावलोकनं कुर्यादतिथिग्रहणाय च, गोदोहकालं भाग्यात्तु प्राप्तश्चे दतिथिर्यदि ॥ ३६ ॥

आदौ सत्कृत्य वचसा देववत्‌ पूजयेत्‌ सुधीः, तोषयेत्‌ परया भक्त्या यथाशक्त्यन्न-पानतः ॥ ३७ ॥

भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद्‌ब्रह्मचारिणे, आकल्पितान्नादुद्‌घृत्य सर्वव्यञ्जनसंयुतात्‌ ॥ ३८ ॥

यतिश्च ब्रह्मचारी च पक्कान्नस्वामिनावुभौ, तयोरन्नमदत्वैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्‌ ॥ ३९ ॥

यतिहस्ते जलं दद्याद्भैक्षं दद्यात्‌ पुनर्जलम्‌, तद्भैक्षं मेरुणा तुल्यं तज्जलं सागरोपमम्‌ ॥ ४० ॥

सत्कृत्य भिक्षवे भिक्षां यः प्रयच्छति मानवः, गोप्रदानसमं पुण्यमित्याह भगवान्‌ यमः ॥ ४१ ॥

ततश्च भोजनं कुर्यात्‌ प्राङ्मुखो मौनमास्थितः, प्रशस्ते शुद्धपात्रे च भुञ्जीतान्नमकुत्सयन्‌ ॥ ४२ ॥

नैकवासाः सनश्नी यात्‌ स्वासने निजभाजने, स्वयमासनमारुह्य स्वस्थचित्तः प्रसन्नधीः ॥ ४३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

अतिथि प्राप्ति के लिये गो दुहने के समय तक द्वार का अबलोकन करे, यदि भाग्य से अतिथि मिल जाय तो ॥ ३६ ॥

बुद्धिमान्‌ प्रथम वाणी से सत्कार करके उस अतिथि का देवता के समान पूजन करे और यथाशक्ति अन्न-जल से सन्तुष्ट करे ॥ ३७ ॥

फिर विधिपूर्वक सब व्यञ्जपन से युक्त सिद्ध अन्न से निकाल कर भिक्षु और ब्रह्मचारी को भिक्षा देवे ॥ ३८ ॥

संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों सिद्ध अन्न के मालिक हैं, इनको अन्न न देकर भोजन करनेवाला चन्द्रायण व्रत करे ॥ ३९ ॥

प्रथम संन्यासी के हाथ पर जल देकर भिक्षान्न देवे तो वह भिक्षान्न मेरु पर्वत के समान और जल समुद्र के समान कहा गया है ॥ ४० ॥

संन्यासी को जो मनुष्य सत्कार करके भिक्षा देता है उसको गोदान के समान पुण्य होता है इस बात को यमराज भगवान्‌ ने कहा है ॥ ४१ ॥

फिर मौन होकर पूर्वमुख बैठकर शुद्ध और बड़े पात्र में अन्न को रखकर प्रशंसा करता हुआ भोजन करे ॥ ४२ ॥

अपने आसन पर अपने बर्तन में एक वस्त्र से भोजन नहीं करे, स्वयम्‌ आसन पर बैठ कर स्वस्थचित्त, प्रसन्न मन होकर ॥ ४३ ॥

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एक एव तु यो भुङ्क्तेत स्वकीये कांस्यभाजने, चत्वारि तस्य वर्धन्त आयुः प्रज्ञा यशो बलम्‌ ॥ ४४ ॥

सत्यं त्वर्तेति मन्त्रेण जलमादाय पाणिना, परिषिच्य च भोक्तव्यं सघृतं व्यञ्जनान्वितम्‌ ॥ ४५ ॥

भोजनात्‌ किञ्चिदन्नायग्रयमादायैवं समुच्चरेत्‌, नमो भूपतये पूर्वं भुवनपतये नमः ॥ ४६ ॥

भूतानां पतये पश्चा्द्धर्माय च ततो बलिम्‌, दत्त्वा च चित्रगुप्ताय भूतेभ्य इदमुच्चरेत्‌ ॥ ४७ ॥

यत्र क्कचन संस्थानां क्षुत्तृषोपहतात्मनाम्‌, भूतानां तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु यथासुखम्‌ ॥ ४८ ॥

प्राणायाऽपानसंज्ञाय व्यानाय च ततः परम्‌, उदानाय ततो ब्रूयात्‌ समानाय ततः परम्‌ ॥ ४९ ॥

प्रणवं पूर्वमुच्चायर्य स्वाहान्ते च घृतप्लुतम्‌, पञ्चकृत्वो ग्रसेदन्नंम जिह्वया न तु दंशयेत्‌ ॥ ५० ॥

ततश्च तन्मना भूत्वा भुञ्जीत मधुरं पुरः, लवणाम्लौ तथा मध्ये कटुतिक्तौ ततः परम्‌ ॥ ५१ ॥

प्राग्द्रवं पुरुषोऽश्नीायान्मध्ये तु कठिनाशनम्‌, अन्ते पुनर्द्रवाशी तु बलरोग्ये न मुञ्चति ॥ ५२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जो मनुष्य अकेला ही अपने काँसे के पात्र में भोजन करता है तो उसके आयु, प्रज्ञा, यश और बल ये चार बढ़ते हैं ॥ ४४ ॥

दिन में – ‘सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामि’ रात्रि में – ‘ऋतं वा सत्येन परिपिञ्चामि’ इस मन्त्र से हाथ में जल लेकर निश्चय कर, घृत व्यञ्जैन युक्त अन्न का भोजन करे ॥ ४५ ॥

भोजन में से कुछ अन्न लेकर इस प्रकार कहे – भूपतये नमः, प्रथम कहकर भुवनपतये नमः, कहे ॥ ४६ ॥

भूतानां पतये नमः, कह कर धर्मराज की बलि देवे फिर चित्रगुप्त को देकर भूतों को देने के लिये यह कहे ॥ ४७ ॥

जिस किसी जगह स्थित, भूख-प्यास से व्याकुल भूतों की तृप्ति के लिये यथासुख यह अक्षय्य अन्न हावे ॥ ४८ ॥

प्राणाय, अपानाय, व्यानाय, उदानाय बाद समानाय कहे ॥ ४९ ॥

प्रणव प्रथम उच्चातरण कर, अन्त में स्वाहा पद जोड़ कर घृत के साथ पाँच ग्रास जिह्वा से प्रथम निगल जाय, दाँतों से न दबावे ॥ ५० ॥

फिर तन्मय होकर प्रथम मधुर भोजन करे, नमक के पदार्थ और खट्टा पदार्थ मध्य में, कडुआ तीखा भोजन के अन्त में खाय ॥ ५१ ॥

पुरुष प्रथम द्रव पदार्थ भोजन करे, मध्य में कठिन पदार्थ भोजन करे, अन्त में पुनः पतला पदार्थ भोजन करे तो बल और आरोग्य से रहित नहीं होता ॥ ५२ ॥

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अष्टौ ग्रासा मुनेर्भक्ष्याः षोडशारण्यवासिनः, द्वात्रिंशच्च गृहस्थस्य त्वमितं ब्रह्मचारिणः ॥ ५३ ॥

नाद्याच्छास्त्रविरुद्धं तु भक्ष्यभोज्यादिकं द्विजः, अभोज्यं प्राहुराहारं शुष्कं पर्युषितं तथा ॥ ५४ ॥

सर्वं सशेषमश्नी यात्‌ घृतपायसवर्जितम्‌, अग्राङ्गुलिषु तच्छेषं निधाय भोजनोत्तरम्‌ ॥ ५५ ॥

जलपूर्णाञ्जलिं कृत्वा पीत्वा चैव तदर्धकम्‌, अग्राङ्गुलिस्थितं शेषं भूमौ दत्त्वाऽञ्जजलेर्जलम्‌ ॥ ५६ ॥

शेषं निषिञ्चे्त्तत्रैव पठन्‌ मन्त्रमिमं बुधः, अन्यथा पापभाग्विप्रः प्रायश्चित्तेन शुद्धयति ॥ ५७ ॥

रौरवे पूयनिलये पद्मार्बुदनिवासिनाम्‌, आर्थिनामुदकं दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठतु ॥ ५८ ॥

निषिच्यानेन मन्त्रेण कुर्याद्दन्तविशोधनम्‌, आचम्य पात्रमुत्सार्य किञ्चिदार्द्रेण पाणिना ॥ ५९ ॥

ततः परं समुत्थाय बहिः स्थित्वा समाहितः, शोधयेन्मुखहस्तौ च मृदा शुद्धजलेन च ॥ ६० ॥

हिंदी अनुवाद :-

मुनि को आठ ग्रास भोजन के लिए कहा है, वानप्रस्थाश्रमी को सोलह ग्रास भोजन के लिये कहा है, गृहस्थाश्रमी को ३२ ग्रास भोजन कहा है और ब्रह्मचारी को अपरिमित ग्रास भोजन के लिये कहा है ॥ ५३ ॥

द्विज को शास्त्र के विरुद्ध भक्ष्य भोज्य आदि पदार्थों को नहीं खाना चाहिये, शुष्क और बासी पदार्थ को विद्वानों ने खाने के अयोग्य बतलाया है ॥ ५४ ॥

घृत दूध को छोड़कर अन्य वस्तु सशेष भोजन करे, भोजन के बाद उस शेष को अंगुलियों के अग्र भाग में रख कर ॥ ५५ ॥

अञ्जरलि जल से पूर्ण करे, उसका आधा जल पी जाय और अंगुलियों के अग्र भाग में स्थित शेष को पृथिवी में देकर ऊपर से अञ्जूलि का शेष आधा जल ॥ ५६ ॥

विद्वान्‌ उसी जगह इस मन्त्र को पढ़ता हुआ सिंचन करे, ऐसा न करने से ब्राह्मण पाप का भागी होता है, फिर प्रायश्चि त्त करने से शुद्ध होता है ॥ ५७ ॥

मन्त्रार्थ – रौरव नरक में, पीप के गढ़े में पद्म अर्बुद वर्ष तक वास करने वाले तथा इच्छा करने वाले के लिये मेरा दिया हुआ यह जल अक्षय्य होता हुआ प्राप्त हो ॥ ५८ ॥

मन्त्र पढ़ के जल से सिंचन कर दाँतों को शुद्ध करे, आचमन कर गीले हाथ से पात्र को कुछ हटा कर ॥ ५९ ॥

उस भोजन स्थान से उठकर, बाहर बैठकर, स्वस्थ होकर, मिट्टी और जल से मुख-हाथ को शुद्ध कर ॥ ६० ॥

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कृत्वा षोडशगण्डूषान्‌ शुद्धो भूत्वा सुखासनः, इमौ मन्त्रौ पठन्नेशव पाणिनोदरमालभेत्‌ ॥ ६१ ॥

अगस्त्यं कुम्भकर्णं च शनिं च वडवानलम्‌, आहारपरिपाकार्थं स्मरेद्भीमं च पञ्चमम्‌ ॥ ६२ ॥

आतापी मारितो येन वातापो च निपातितः, समुद्रः शोषितो येन स मेऽगस्त्यः प्रसीदतु ॥ ६३ ॥

ततः श्रीकृष्णदेवस्य कुर्वीत स्मरणं मुदा, भूयोऽप्याचम्य कर्तव्यं ततस्ताम्बूलभक्षणम्‌ ॥ ६४ ॥

भुक्त्वोपविष्टः श्रीकृष्णं परं ब्रह्म विचारयेत्‌, सच्छास्त्रादिविनोदेन सन्मार्गाद्यविरोधिना ॥ ६५ ॥

ततश्चाध्यात्मविद्यायाः कुर्वीत श्रवणं सुधीः, सर्वथा वृत्तिहीनोऽपि मुहूर्त स्वस्थमानसः ॥ ६६ ॥

श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा पापं परित्यजेत्‌, श्रुत्वा निवर्तते मोहः श्रुत्वा ज्ञानामृतं लभेत्‌ ॥ ६७ ॥

नीचोऽपि श्रवणेनाशु श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते, श्रेष्ठोऽपि नीचतां याति रहितः श्रवणेन च ॥ ६८ ॥

व्यवहारं ततः कुर्याद्‌बहिर्गत्वा यथासुखम्‌, श्रीकृष्णं मनसा ध्यायेत्‌ सर्वसिद्धिप्रदायकम्‌ ॥ ६९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सोलह कुल्लाा कर, शुद्ध हो सुख से बैठकर इन दो मन्त्रों को पढ़ता हुआ हाथ से उदर को स्पर्श करे ॥ ६१ ॥

अगस्त्य, कुम्भकर्ण, शनि, बड़वानल और पंचम भीम को आहार के परिपाक के लिये स्मरण करे ॥ ६२ ॥

जिसने आतापी को मारा और वातापी को भी मार डाला, समुद्र का शोषण किया वह अगस्त्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों ॥ ६३ ॥

बाद प्रसन्न मन से श्रीकृष्ण देव का स्मरण करे,  फिर आचमन कर ताम्बूल भक्षण करे ॥ ६४ ॥

भोजन करके बैठ कर परब्रह्म श्रीकृष्ण का उत्तम मार्ग के अविरोधी उत्तम शास्त्रों के विनोद से विचार करे ॥ ६५ ॥

बाद बुद्धिमान्‌ अध्यात्मविद्या का श्रवण करे, सर्वथा आजीविका से हीन मनुष्य भी एक मुहूर्त स्वस्थ मन होकर श्रवण करे ॥ ६६ ॥

श्रवण कर धर्म को जानता है, श्रवण कर पाप का त्याग करता है, श्रवण के बाद मोह की निवृत्ति होती है, श्रवण कर ज्ञानरूपी अमृत को प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥

नीच भी श्रवण करने से श्रेष्ठ हो जाता है और श्रेष्ठ भी श्रवण से रहित होने से नीच हो जाता है ॥ ६८ ॥

फिर बाहर जाकर यथासुख व्यवहार आदि करे और सर्वथा सिद्धि को देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान्‌ का मन से ध्यान करे ॥ ६९ ॥

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सूर्येऽस्तशिखरं प्राप्ते‌ तीर्थं गत्वाऽथवा गृहम्‌, सायंसन्ध्यामुपासीत धौताङ्घ्रिः सपवित्रकः ॥ ७० ॥

यः प्रमादान्नर कुर्वीत सायं सन्ध्यां द्विजाधमः, स गोवधमवाप्नोति मृते रौरवमाप्नुयात ॥ ७१ ॥

कदाचित्‌ काललोपेऽपि सङ्कटे वा पथि स्थितः, आनिशीथात्‌ प्रकुर्वीत सायंसन्ध्यां द्विजोत्तमः ॥ ७२ ॥

यस्त्रिसन्ध्यमुपासीत ब्राह्मणः श्रद्धयाऽन्वितः, तत्तेजो वर्धतेऽत्यन्तं घृतेनेव हुताशनः ॥ ७३ ॥

सादित्यां पश्चिमां सन्ध्यामर्धास्तमितभास्कराम्‌, प्राणानायम्य सम्प्रोक्ष्य मन्त्रेणाब्‌दैवतेन तु ॥ ७४ ॥

सायमग्निश्चश मेत्युक्त्वा प्रातः सूर्येत्यपः पिवेत्‌, प्रत्यङ्मुखोssपविष्टस्तु वाग्यतः सुसमाहितः ॥ ७५ ॥

प्रणवव्याहृतियुतां गायत्रीं तु जपेत्ततः, अक्षसूत्रं समादाय सम्यगातारकोदयात्‌ ॥ ७६ ॥

वारुणीभिस्तदादित्यमुपस्थाय प्रदक्षिणम्‌, कुर्वन्‌ दिशो नमस्कुर्याद्दिगीशांश्चग पृथक्‌-पथक्‌ ॥ ७७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सूर्यनारायण के अस्ताचल जाने के समय तीर्थ में जाकर अथवा गृह में ही पैर धोकर, पवित्र वस्त्र धारण कर, सायंसन्ध्या की उपासना करे ॥ ७० ॥

जो द्विजों में अधम, प्रमाद से सायंसन्ध्या नहीं करता है वह गोवध पाप का भागी होता है और मरने पर रौरव नरक को जाता है ॥ ७१ ॥

कभी समय से न करने पर, संकट में, मार्ग में हो तो द्विजश्रेष्ठ आधी रात के पहले सायंसंध्या को करे ॥ ७२ ॥

जो ब्राह्मण श्रद्धा के साथ प्रातः, मध्याह्न और सायंसन्ध्या की उपासना करता है उसका तेज घृत छोड़ने से अग्नि के समान अत्यन्त बढ़ता है ॥ ७३ ॥

सायंकाल में सूर्यनारायण के आधा अस्त होने पर प्राणायाम कर ‘आपो हिष्ठा’ – इस मंत्र से मार्जन करे ॥ ७४ ॥

और सायंकाल ‘अग्निश्च मा॰ -‘ इस मन्त्र से आचमन करे और प्रातःकाल ‘सूर्यश्च मा॰ -‘ इस मन्त्र से आचमन करे, पश्चिम मुख बैठ कर मौन तथा समाहित मन होकर ॥ ७५ ॥

प्रणय और व्याहृति सहित गायत्री मन्त्र का रुद्राक्ष की माला लेकर तारा के उदय होने तक जप करे ॥ ७६ ॥

वरुण सम्बन्धी ऋचाओं से सूर्यनारायण का उपस्थान कर, प्रदक्षिणा करता हुआ दिशाओं को तथा पृथक्‌-पृथक्‌ दिशाओं के स्वामी को नमस्कार करे ॥ ७७ ॥

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उपास्य पश्चिामां सन्ध्यां हुत्वाऽग्निमश्नींयात्ततः, भृत्यैः परिवृतो भूत्वा नातितृप्तोऽथ संविशेत्‌ ॥ ७८ ॥

सायं प्रातर्वैश्वकदेवः कर्तव्यो बलिकर्म च, अनश्नओतापि सततमन्यथा किल्बिषी भवेत्‌ ॥ ७९ ॥

कृतपादादिशौचस्तु भुक्त्वा सायं ततो गृही, गच्छेच्छय्यां ततो मृद्वीमुपधानसमन्विताम्‌ ॥ ८० ॥

स्वगृहे प्राक्‌छिराः शेते श्वासुरे दक्षिणाशिराः, प्रवासे पश्चिसमशिरा न कदाचिदुदक्‌छिरः ॥ ८१ ॥

रात्रिसूक्तं जपेत्‌ स्मृत्वा देवांश्च सुखशायिनः, नमस्कृत्याव्ययं विष्णुं समाधिस्थः स्वपेन्निशि ॥ ८२ ॥

अगस्त्यो माधवश्चै्व मुचुकुन्दो महाबलः, कपिलो मुनिरास्तीकः पञ्चैतते सुखशायिनः ॥ ८३ ॥

माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं च शिरःस्थाने निधाय च, वैदिकैर्गारुडैर्मन्त्रै रक्षां कृत्वा स्वपेत्ततः ॥ ८४ ॥

ऋतुकालाभिगामी स्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा, पर्ववर्जं व्रजेदेनां तद्‌व्रती रतिकाम्यया ॥ ८५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सायं सन्ध्या की उपासना कर अग्नि में आहुति देकर भृत्यवर्गों के साथ अल्प भोजन करे, बाद कुछ समय तक बैठ जाय ॥ ७८ ॥

सायंकाल और प्रातःकाल भोजन की इच्छा नहीं होने पर भी वैश्वदेव और बलि कर्म सदा करना चाहिये, यदि नहीं करता है तो पातकी होता है ॥ ७९ ॥

शाम को भोजन कर बैठने के बाद गृहस्थाश्रमी हाथ-पैर धोकर तकिया सहित कोमल शय्या पर जाय ॥ ८० ॥

अपने गृह में पूर्व की ओर शिर करके शयन करे, श्वरसुर के गृह में दक्षिण की ओर शिर करके शयन करे, परदेश में पश्चिम की ओर शिर करके शयन करे, परन्तु उत्तर की ओर शिर करके कभी शयन नहीं करे ॥ ८१ ॥

रात्रिसूक्त का जप करे और सुखशायी देवताओं का स्मरण कर अविनाशी विष्णु भगवान्‌ को नमस्कार कर, स्वस्थचित्त हो, रात्रि में शयन करे ॥ ८२ ॥

अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल, आस्तीक मुनि ये पाँच सुखशायी कहे गये हैं ॥ ८३ ॥

मांगलिक जल से पूर्ण घट को शिर के पास रखकर वैदिक और गारुड़ मन्त्रों से रक्षा करके शयन करे ॥ ८४ ॥

ऋतुकाल में स्त्री के पास जाय और सदा अपनी स्त्री से प्रेम करे, ब्रती रति की कामना से पर्व को छोड़ कर अपनी स्त्री के पास जाय ॥ ८५ ॥

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प्रदोषपश्चिमौ यामौ वेदाभ्यासेन यौ नयेत्‌, यामद्वयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ८६ ॥

एतत्सर्वमशेषेण कृत्यजातं दिने दिने, कर्तव्यं गृहिभिः सम्यग्गृहस्थाश्रमलक्षणम्‌ ॥ ८७ ॥

अहिसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌, शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते ॥ ८८ ॥

परदारेष्वसंसर्गो धर्मस्त्रीपरिरक्षणम्‌, अदत्तादानविरमो मधुमांसविवर्जनम्‌ ॥ ८९ ॥

एष पञ्चविधो धर्मो बहुशाखः सुखोदयः, देहिभिर्देहपरमैः कर्तव्यो देहसम्भवः ॥ ९० ॥

श्रीनारायण उवाच :-

अशेषवेदोदितसच्चरित्र मेतद्‌‌गृहस्थाश्रमलक्षणं हि, उक्तं समासेन च लक्षणेन तुभ्यं मुने लोकहिताय सम्यक्‌ ॥ ९१ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे अह्निककथनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

प्रदोष और प्रदोष के पिछले प्रहर में वेदाभ्यास करके समय व्यतीत करे, फिर दो पहर शयन करनेवाला ब्रह्मतुल्य होने के योग्य होता है ॥ ८६ ॥

यह सब प्रतिदिन के समस्त कृत्यसमुदाय को कहा, गृहस्थाश्रमी भलीभाँति इसको करे और यही गृहस्थाश्रम का लक्षण है ॥ ८७ ॥

अहिंसा, सत्य वचन, समस्त प्राणी पर दया, शान्ति यथाशक्ति दान करना, गृहस्थाश्रम का धर्म कहा है ॥ ८८ ॥

पर स्त्री से भोग नहीं करना, अपनी धर्मपत्नीर की रक्षा करना, बिना दी हुई वस्तु को नहीं लेना, शहद, मांस को नहीं खाना ॥ ८९ ॥

यह पाँच प्रकार का धर्म बहुत शाखा वाला, सुख देनेवाला है, शरीर से होने वाले धर्म को उत्तम प्राणियों को करना चाहिये ॥ ९० ॥

श्रीनारायण बोले – सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ यह उत्तम चरित्र गृहस्थाश्रम का लक्षण है, हे मुने! इसको लोक के हित के लिये संक्षेप में लक्षण के साथ आपसे मैंने अच्छी तरह कहा ॥ ९१ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे आह्निक कथनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

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