नारद उवाच :-
स्तुता पतिव्रता नारी त्वया पूर्वं तपोनिधे, तल्लक्षणानि सर्वाणि समासेन वदस्व मे ॥ १ ॥
सूत उवाच :-
नोदितो नारदेनेत्थं पुरातनमुनिः स्वयम्, पतिव्रतायाः सर्वाणि लक्षणान्याह भूसुराः ॥ २ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
श्रृणु नारद वक्ष्यामि सतीनां व्रतमुत्तमम्, कुरूपो वा कुवृत्तो वा सुखभावोऽथ वा पतिः ॥ ३ ॥
रोगान्वितः पिशाचो वा क्रोधनो वाऽथ मद्यपः, वृद्धो वाऽप्यविदग्धो वा मूकोऽन्धो बधिरोऽपि वा ॥ ४ ॥
रौद्रो वाऽथ दरिद्रो वा कदर्यः कुत्सितोऽपि वा, कातरः कितवो वाऽपि ललनालम्पटोऽपि वा ॥ ५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
नारदजी बोले – हे तपोनिधे! तुमने पहले पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा की है अब आप उनके सब लक्षणों को मुझसे कहिये ॥ १ ॥
सूतजी बोले – हे पृथिवी के देवता ब्राह्मणो! इस प्रकार नारद मुनि के पूछने पर स्वयं प्राचीन मुनि नारायण ने पतिव्रता स्त्री के लक्षणों को कहा ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले – हे नारद! सुनो मैं पतिव्रताओं के उत्तम व्रत को कहता हूँ। पति कुरूप हो, कुत्सित व्यवहारवाला हो, अथवा सुरूपवान् हो ॥ ३ ॥
रोगी हो, पिशाच हो, क्रोधी हो, मद्यपान करनेवाला हो, मूर्ख हो, मूक हो, अन्धा हो अथवा बधिर हो ॥ ४ ॥
भयंकर हो, दरिद्र हो, कुपण हो, निन्दित हो, दीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो ॥ ५ ॥
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सततं देववत् पूज्यः साध्व्या वाक्कायकर्मभिः, न जातु विषमं भर्तुः स्त्रिया कार्यं कथञ्चन ॥ ६ ॥
बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता, न स्वातन्त्र्येण कर्त्तव्यं किञ्चित् कार्यं गृहेष्वपि ॥ ७ ॥
अहङ्कारं विहायाथ कामक्रोधौ च सर्वदा, मनसो रञ्जनं पत्युः कार्यं नान्यस्य कुत्रचित् ॥ ८ ॥
सकामं वीक्षिताऽप्यन्यैः प्रियवाक्यैः प्रलोभिता, स्पृष्टा वा जनसम्मर्दे न विकारमुपैति या ॥ ९ ॥
यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः, तावद्वर्षसहस्राणि नाकं ताः पर्युपासते ॥ १० ॥
पुरुषं सेवते नान्यं मनोवाक्कायकर्मभिः, लोभिताऽपि परेणार्थैः सा सती लोकभूषणा ॥ ११ ॥
दौत्येन प्राथिता वाऽपि बलेन विघृताऽपि वा, वस्त्राद्यैर्वासिता वापि नैवान्यं भजते सती ॥ १२ ॥
वीक्षिता वीक्षते नान्यैर्हासिता न हसत्यपि, भाषिता भाषते नैव सा साध्वी साधुलक्षणा ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
परन्तु सती स्त्री सदा वाणी, शरीर, कर्म से पति का देवता के समान पूजन करे, कभी भी स्त्री पति के साथ कठोर व्यवहार नहीं करे ॥ ६ ॥
बाला हो, युवती हो अथवा वृद्धा हो परन्तु स्त्री स्वतन्त्रतापूर्वक अपने गृह में भी कुछ कार्य को नहीं करे ॥ ७ ॥
अहंकार और काम-क्रोध का सर्वदा त्याग कर पति के मन को सदा प्रसन्न करती रहे और दूसरे के मन को कभी भी प्रसन्न नहीं करे ॥ ८ ॥
जो स्त्री दूसरे पुरुष से कामना सहित देखी जाने पर, प्रिय वचनों से प्रलोभन देने पर अथवा जनसमुदाय में स्पर्श होने पर विकार को नहीं प्राप्त होती है ॥ ९ ॥
तो स्त्रियों के शरीर में जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष तक यह स्त्री स्वर्ग में वास करती है ॥ १० ॥
दूसरे पुरुष के धन के लोभ देने पर जो स्त्री पर-पुरुष का मन, वचन, कर्म से सेवन नहीं करती है तो वह स्त्री लोक में भूषण और सती कही गई है ॥ ११ ॥
दूती के प्रार्थना करने पर भी, बलपूर्वक पकड़ी जाने पर भी, वस्त्र-आभूषण आदि से आच्छादित होने पर भी, जो स्त्री अन्य पुरुष की सेवा नहीं करती है तो वह सती कही जाती है ॥ १२ ॥
जो दूसरे से देखी जाने पर नहीं देखती है और हँसाई जानेपर भी हँसती नहीं है, बात करने पर बोलती नहीं है वह उत्तम लक्षण वाली प्रतिव्रता स्त्री है ॥ १३ ॥
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रूपयौवनसम्पन्ना गीते नृत्येऽतिकोविदा, स्वानुरूपं नरं दृष्ट्वा न याति विकृतिं सती ॥ १४ ॥
सुरूपं तरुणं रम्यं कामिनीनां च वल्लतभम्, या नेच्छति परं कान्तं विज्ञेया सा महासती ॥ १५ ॥
देवो मनुष्यो गन्धर्वः सतीनां नापरः प्रियः, अप्रियं नैव कर्त्तव्यं पत्युः पत्न्या कदाचन ॥ १६ ॥
भुङ्क्तेष भुक्तेन यथा पत्यौ दुःखिते दुःखिता च या, मुदिते मुदिताऽत्यर्थं प्रोषिते मलिनाम्बर ॥ १७ ॥
सुप्तेत पत्यौ च या शेते पूर्वमेव प्रबुध्यति, प्रविशेच्चैाव या वह्नौ याते भर्त्तरि पञ्चताम् ॥ १८ ॥
नान्यं कामयते चित्ते सा विज्ञेया पतिव्रता, भक्तिं श्वशुरयोः कुर्यात् पत्युश्चापि विशेषतः ॥ १९ ॥
धर्मकार्येऽनुकूलत्वमर्थकार्येऽपि सञ्चये, गृहोपस्करसंस्कारे सक्ता या प्रतिवासरम् ॥ २० ॥
क्षेत्राद्वनाद्वा ग्रामाद्वा भर्त्तारं गृहमागतम्, प्रत्युत्थायाभिनन्देत आसनेनोदकेन च ॥ २१ ॥
प्रसन्नवदना नित्यं काले भोजनदायिनी, भुक्तवन्तं तु भर्त्तारं न वदेदप्रियं क्कचित् ॥ २२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
रूप यौवन से युक्त और गाने-नाचने में होशियार होने पर भी अपने अनुरूप पुरुष को देखकर विकार को नहीं प्राप्त होती है वह स्त्री सती है ॥ १४ ॥
सुरूपवान्, जवान, मनोहर कामिनियों का प्रिय ऐसे पर-पुरुष के मिलने पर भी जो स्त्री इच्छा नहीं करती है तो वह महासती कही गयी है ॥ १५ ॥
पतिव्रताओं को पति के सिवाय दूसरा देवता, मनुष्य, गन्धर्व भी प्रिय नहीं होता, इसलिए स्त्री अपने पति का अप्रिय कभी नहीं करे ॥ १६ ॥
जो पति के भोजन करने पर भोजन करती है, दुःखित होने पर दुःखित होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, परदेश जाने पर मैला वस्त्र को पहनती है ॥ १७ ॥
जो पति के सो जाने पर सोती है और पहले जागती है, पति के मरने पर अग्नि में प्रवेश करती है ॥ १८ ॥
जो दूसरे को चित्त से नहीं चाहती है वह पतिव्रता स्त्री है, सास, श्वरसुर में भक्ति करती है और विशेष करके पति में भक्ति करती है ॥ १९ ॥
धर्म कार्य में अनुकूल रहती है, धन-संचय में अनुकूल, गृह के कार्य में प्रतिदिन तत्पर रहने वाली है ॥ २० ॥
खेत से, वन से, ग्राम से पति के आने पर स्त्री उठकर आसन और जल देकर प्रसन्न करे ॥ २१ ॥
नित्य प्रसन्नमुख रहे, समय पर भोजन देवे, भोजन करते समय कभी भी खराब वाणी नहीं कहे ॥ २२ ॥
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आसने भोजने दाने सम्माने प्रियभाषणे, दक्षया सर्वदा भाव्यं भार्यया गृहमुख्यया ॥ २३ ॥
गृहव्ययनिमित्तं च यद्द्रव्यं प्रभुणाऽपितम्, निर्वृत्य गृहकार्यं सा किञ्चिद् बुद्धयाऽवशेषयेत् ॥ २४ ॥
त्यागार्थमपिते द्रव्ये लोभात् किञ्चिन्न धारयेत्, भर्त्तुराज्ञां विना नैव स्वबन्धुभ्यो दिशेद्धनम् ॥ २५ ॥
अन्यालापमसन्तोषं परव्यापारसंकथाः, अतिहासातिरोषं च क्रोधं च परिवर्जयेत् ॥ २६ ॥
यच्च भर्त्ता न पिबति यच्च भर्त्ता न खादति, यच्च भर्त्ता न चाश्ना॥ति सर्वं तद्वर्जयेत् सती ॥ २७ ॥
तैलाभ्यङ्गं तथा स्नानं शरीरोद्वर्तनक्रियाम्, मार्जनं चैव दन्तानां कुर्यात् पतिमुदे सती ॥ २८ ॥
त्रेताप्रभृति नारीणां मासिमास्यार्त्तवं मुने, तदा दिनत्रयं त्यक्त्वा शुद्धा स्याद्गृहकर्मणि ॥ २९ ॥
प्रथमेऽहनि चाण्डाली द्वितीये ब्रह्मघातिनी, तृतीये रजकी प्रोक्ता चतुर्थेऽहनि शुद्ध्यति ॥ ३० ॥
स्नानं शौचं तथा गानं रोदनं हसनं तथा, यानमभ्यञ्जनं नारी द्यूतं चैवानुलेपनम् ॥ ३१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
गृह में प्रधान स्त्री सदा आसन, भोजन, दान, सम्मान, प्रिय भाषण में तत्पर रहे ॥ २३ ॥
गृह के खर्च के लिये स्वामी ने जो धन दिया है उससे घर के कार्य को करके बुद्धिपूर्वक कुछ बचा लेवे ॥ २४ ॥
दान के लिये दिये हुए धन में से लोभ करके, कुछ कोरकसर नहीं करे और बिना पति की आज्ञा के अपने बन्धुओं को धन नहीं देवे ॥ २५ ॥
दूसरे के साथ बातचीत, असन्तोष, दूसरे पुरुष के व्यापार की बातचीत, अत्यन्त हँसना, अत्यन्त रोष और क्रोध को पतिव्रता स्त्री छोड़ देवे ॥ २६ ॥
पति जिस वस्तु का पान नहीं करता है, जिस वस्तु को खाता नहीं है, जिस वस्तु का भोजन नहीं करता है उन सब वस्तुओं का पतिव्रता स्त्री त्याग करे ॥ २७ ॥
तैल लगाना, स्नान, शरीर में उबटन लगाना, दाँतों की शुद्धि, पतिव्रता स्त्री पति की प्रसन्नता के लिये करे ॥ २८ ॥
हे मुने! त्रेतायुग से स्त्रियों को प्रतिमास रजोदर्शन होता है उस दिन से तीन दिन त्याग कर गृहकार्य के लिये शुद्ध होती है ॥ २९ ॥
प्रथम दिन चाण्डाली है, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी है, तीसरे दिन रजकी है, चतुर्थ दिन शुद्ध होती है ॥ ३० ॥
स्नान, शौच, गाना, रोदन, हँसना, सवारी पर चढ़ना, मालिश, स्त्रियों के साथ जूआ खेलना, चंदनादि लगाना ॥ ३१ ॥
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दिवास्वापं विशेषेण तथा वै दन्तधावनम्, मैथुनं मानसं वापि वाचिकं देवतार्चनम् ॥ ३२ ॥
वर्जयेच्च नमस्कारं देवतानां रजस्वला, रजस्वलायाः संस्पर्शं सम्भाषां च तथा सह ॥ ३३ ॥
त्रिरात्रं स्वमुखं नैव दर्शयेच्च रजस्वला, स्ववाक्यं श्रावयेन्नैव यावत्स्नाता न शुद्धितः ॥ ३४ ॥
स्नात्वाऽन्यं पुरुषं नारी न पश्ये च्च रजस्वला, ईक्षेत भास्करं देवं ब्रह्मकूर्चं ततः पिबेत् ॥ ३५ ॥
केवलं पञ्चगव्यं च क्षीरं वाऽत्मविशुद्धये, यथोपदेशं नियता वर्तयेद्धि वराङ्गना ॥ ३६ ॥
गर्भिणी चेद्भवेन्नारी तदा नियमतत्परा, अलंकृता सुप्रयता भर्त्तुः प्रियहिते रता ॥ ३७ ॥
तिष्ठेत् प्रसन्नवदना स्वधर्मनिरता शुचिः, कृतरक्षा सुभूषा च वास्तुपूजनतत्परा ॥ ३८ ॥
कुस्त्रीभिर्नाभिभाषेत शूर्पवातं च वर्जयेत्, मृतवत्सादिसंसर्गं परपाकं च सुन्दरी ॥ ३९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
विशेष करके दिन में शयन, दतुअन करना, मानसिक अथवा वाचिक मैथुन करना, देवता का पूजन करना ॥ ३२ ॥
देवताओं को नमस्कार रजस्वला स्त्री नहीं करे, रजस्वला का स्पर्श और उसके साथ बातचीत नहीं करे ॥ ३३ ॥
रजस्वला तीन रात तक अपने मुख को नहीं दिखाये, जब तक शुद्धिस्नान नहीं करे तब तक अपने वचनों को नहीं सुनावे ॥ ३४ ॥
रजस्वला स्त्री स्नान कर दूसरे पुरुष को नहीं देखे, सूर्यनारायण को देखे, बाद पंचगव्य का पान करे ॥ ३५ ॥
अपनी शुद्धि के लिये केवल पंचगव्य अथवा दूध का पान करे, श्रेष्ठ स्त्री कहे हुए नियम में स्थित रहे ॥ ३६ ॥
यदि स्त्री गर्भवती हो जाय तो नियम में तत्पर रहे, वस्त्र-आभूषण अलंकार आदि से अलंकृत रहे और पति के प्रिय करने में यत्न्पूर्वक तत्पर रहे ॥ ३७ ॥
प्रसन्नमुख रहे, अपने धर्म में तत्पर रहे और शुद्ध रहे, अपनी रक्षा कर विभूषित रहे और वास्तुपूजन में तत्पर रहे ॥ ३८ ॥
खराब स्त्रियों के साथ बातचीत न करे, सूप की हवा शरीर में नहीं लगे, मृतवत्सा आदि का संसर्ग, दूसरे के यहाँ भोजन गर्भवती स्त्री नहीं करे ॥ ३९ ॥
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न बीभत्सं किञ्चिदीक्षेन्न रौद्रां श्रृणुयात् कथाम्, गुरुं वात्युष्णमाहारमजीर्णं न समाचरेत् ॥ ४० ॥
अनेन विधिना साध्वी शोभनं षुत्रमाप्नुयात्, अन्यथा गर्भपतनं स्तम्भनं वा प्रपद्यते ॥ ४१ ॥
हीनां निजगुणैरन्यां सपत्नीं नैव गर्हयेत्, ईर्ष्यारागसमुद्भूते विद्यमानेऽपि मत्सरे ॥ ४२ ॥
अप्रियं नैव कर्तव्यं सपत्नीभिः परस्परम्, न गायेदन्यनामानि न कुर्यादन्यवर्णनम् ॥ ४३ ॥
न वसेद्दूरतः पत्युः स्थेयं वल्लूभसन्निधौ, निदिष्टे च महीभागे वल्लकभाभिमुखा वसेत् ॥ ४४ ॥
नावलोक्या दिशःस्वैरं नावलोक्यः परोजनः, विलासैरवलोक्यंस्यात् पत्युराननपङ्कजम् ॥ ४५ ॥
कथ्यमाना कथा भर्त्रा श्रोतव्या सादरं स्त्रिया, पत्युः सम्भाषणस्याग्रे नान्यत् सम्भाषयेतस्वयम् ॥ ४६ ॥
आहूता सत्वरं गच्छेद्रतिस्थानं रतोत्सुका, पत्यौ गायति सोत्साहं श्रोतव्यं हृष्टचेतसा ॥ ४७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
भद्दी चीज को नहीं देखे, भयंकर कथा को नहीं सुने, गरिष्ठ और अत्यन्त उष्ण भोजन नहीं करे और अजीर्ण न हो ऐसा भोजन करे ॥ ४० ॥
इस विधि से रहने पर पतिव्रता स्त्री श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त करती है, अन्यथा गर्भ गिर जाय, अथवा स्तम्भन हो जाय ॥ ४१ ॥
अपने गुणों से हीन दूसरी सौत की निन्दा नहीं करे, ईर्ष्या, राग से होनेवाले मत्सरता आदि के होने पर भी ॥ ४२ ॥
सौत स्त्री परस्पर में अप्रिय वचन नहीं कहे, दूसरे के नाम का गान न करे और दूसरे की प्रशंसा नहीं करे ॥ ४३ ॥
पति से दूर वास नहीं करे, किन्तु पति के समीप में वास करे और पति के कहे हुए स्थान में, पृथिवी पर पति के सामने मुख करके वास करे ॥ ४४ ॥
स्वतन्त्रता पूर्वक दिशाओं को न देखे और दूसरे पुरुष को नहीं देखे, विलास पूर्वक पति के मुखकमल को देखे ॥ ४५ ॥
पति से कही जाने वाली कथा को आदर पूर्वक स्त्री श्रवण करे, पति के भाषण के समय स्वयं स्त्री बातचीत नहीं करे ॥ ४६ ॥
रति में उत्कण्ठा वाली स्त्री पति के बुलाने पर, शीघ्र रतिस्थान को जाय, पति के उत्साह पूर्वक गाने के समय स्त्री प्रसन्नचित्त से श्रवण करे ॥ ४७ ॥
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गायन्तं च पतिं दृष्ट्वा भवेदानन्दनिर्वृता, भर्तुः समीपे न स्थेयं सोद्वेगं व्यग्रचित्तया ॥ ४८ ॥
कलहो न विधातव्यः कलियोग्ये प्रिये स्त्रिया, भर्त्सिता निन्दिताऽत्यर्थं ताडिताऽपि पतिव्रता ॥ ४९ ॥
व्यथिताऽपि भयं त्यक्त्वा कण्ठे गृह्णीत वल्लभम्, उच्चैर्न रोदनं कुर्यान्नैवाक्रोशेच्च तं प्रति ॥ ५० ॥
पलायनं न कर्त्तव्यं निजगेहाद्बहिः स्त्रिया, उत्सवादिषु बन्धूनां सदनं यदि गच्छति ॥ ५१ ॥
लब्ध्वाऽनुज्ञां तदा पत्युर्गच्छेदध्यक्षरक्षिता, न वसेत् सुचिरं तत्र प्रत्यागच्छेद्गृहं सती ॥ ५२ ॥
प्रस्थानाभिमुखे पत्यौ नासन्मङ्गल भाषिणी, न वार्योऽसौ निषेधोक्त्या न कार्यं रोदनं तदा ॥ ५३ ॥
अकृत्वोद्वर्त्तनं नित्यं पत्यौ देशान्तरे गते, वधूर्जीवनरक्षार्थं कर्म कुर्यादनिन्दितम् ॥ ५४ ॥
श्वश्रूश्वशुरयोः पार्श्बे निद्रा कार्या न चान्यतः, प्रत्यहं पतिवार्ता च तयाऽन्वेष्या प्रयत्न तः ॥ ५५ ॥
दूताः प्रस्थापनीयाश्च पत्युः क्षेमोपलब्धये, देवतानां प्रसिद्धानां कर्त्तव्यमुपयाचनम् ॥ ५६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
गाते हुये पति को देख कर स्त्री आनन्द में मग्न हो जावे, पति के समीप व्यग्र (चंचल) चित्त से व्याकुल हो नहीं बैठे ॥ ४८ ॥
कलह के योग्य होने पर भी पति के साथ स्त्री कलह न करे, पति से भर्त्सित होने पर, निन्दा की जाने पर, ताड़ित होने पर भी पतिव्रता स्त्री ॥ ४९ ॥
व्यथित (दुःखित) होने पर भी भय छोड़ कर पति को कण्ठ से लगावे, ऊँचे स्वर से रोदन न करे और पति को कोसे नहीं ॥ ५० ॥
स्त्री अपने गृह से बाहर भाग कर न जाय, यदि बन्धुओं के यहाँ उत्सव आदि में जाय तो ॥ ५१ ॥
पति की आज्ञा को लेकर और अध्यक्ष (रक्षक) से रक्षित होकर जाय और वहाँ अधिक समय तक वास न करे, पतिव्रता स्त्री अपने घर को लौट आवे ॥ ५२ ॥
पति के विदेशयात्रा के समय अमंगल वचन को न बोले, निषेध वचन से मना न करे और उस समय रोदन न करे ॥ ५३ ॥
पति के देशान्तर जाने पर नित्य उबटन न लगावे और जीवन रक्षा के लिये स्त्री निन्दित कर्म को न करे ॥ ५४ ॥
श्वसुर-सास के पास शयन करे, अन्यत्र शयन न करे और प्रतिदिन प्रयत्नोपूर्वक पति के समाचार की खोज लेती रहे ॥ ५५ ॥
पति के कल्याण समाचार मिलने के लिये दूत को भेजे और प्रसिद्ध देवताओं के समीप मांगलिक याचना करे ॥ ५६ ॥
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एवमादि विधातव्यं सत्या प्रोषितकान्तया, अप्रक्षालनमङ्गानां मलिनाम्बरधारणम् ॥ ५७ ॥
तिलकाञ्जनहीनत्वं गन्धमाल्यविवर्जनम्, नखरोम्णामसंस्कारो दशनानाममार्जनम् ॥ ५८ ॥
उच्चैञर्हासः परैर्नर्म परचेष्टाविचिन्तनम्, स्वेच्छापर्यटनं चैव परपुंसाङ्गमर्दनम् ॥ ५९ ॥
अटनं चैकवस्त्रेण निर्लज्ज्त्वं यथा गतिः, इत्यादिदोषाः कथिता योषितां नित्यदुःखदा ॥ ६० ॥
निर्वृत्य गृहकार्याणि हरिद्रालेपनस्तनुम्, प्रक्षाल्य शुचितोयेन कुर्यान्मण्डनमुज्व्और लम् ॥ ६१ ॥
समीपं प्रेयसो गच्छेद्विकसन्मुखपङ्कजा, अनेन नारीवृत्तेन मनोवाग्देहसंयुता ॥ ६२ ॥
आहूता गृहकार्याणि त्यक्त्वा गच्छेच्चङ सत्वरम्, किमर्थंव्याहृता स्वामिन् सम्प्रसादो विधीयताम् ॥ ६३ ॥
मा चिरं तिष्ठतां द्वारि न द्वारमुपसेवयेत्, स्वामिप्रत्यर्पितं किञ्चित्कस्मैचिन्न ददात्यपि ॥ ६४ ॥
सेवयेद्भर्तुरुच्छिष्टमिष्ठमन्नफलादिकम्, महाप्रसाद इत्युक्त्वा मोदमाना निरन्तरम् ॥ ६५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
पति के परदेश जाने पर पतिव्रता इस प्रकार के कार्यों को करे, अंगों को न धोना, मलिन वस्त्र को धारण करना ॥ ५७ ॥
तिलक न लगाना, आँजन न लगाना, सुगन्धित पदार्थ माला आदि का त्याग, नख, बाल का संस्कार न करना, दाँतों में मिस्सौ आदि नहीं लगाना ॥ ५८ ॥
ऊँचे स्वर से हँसना, दूसरे से हँसी, दूसरे की चाल व्यवहार का विशेष रूप से चिन्तन करना, स्वच्छन्द भ्रमण करना, दूसरे पुरुष के अंगों का मर्दन करना ॥ ५९ ॥
एक वस्त्र से घूमना, लज्जा रहित (उतान) होकर चलना, इत्यादि दोष स्त्रियों को अत्यन्त दुःख देने वाले कहे गये हैं ॥ ६० ॥
गृह में कार्यों को करके हरदी लेपन से और शुद्ध जल से शरीर को शुद्ध कर स्वच्छ श्रृंगार को करे ॥ ६१ ॥
खिले हुए कमल के समान प्रसन्न मुख होकर पति के समीप जाय, स्त्री के इस व्यवहार से युक्त और मन, वचन, शरीर से युक्त स्त्री ॥ ६२ ॥
पति से बुलाई जाने पर गृह के कार्यों को छोड़कर शीघ्र पति के पास जाय और कहे कि हे स्वामिन्! किस लिये बुलाया है कृपा पूर्वक कहें ॥ ६३ ॥
द्वार पर अधिक समय तक खड़ी न होवे, द्वार का सेवन न करे, स्वामी से मिली हुई चीज दूसरे को कभी न देवे ॥ ६४ ॥
पति के उच्छिष्ट मीठा, अन्न, फल आदि को यह महाप्रसाद है यह कहकर निरन्तर प्रसन्न रहे ॥ ६५ ॥
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सुखसुप्तं सुखासीनं रममाणं यदृच्छया, आतुरेष्वपि कार्येषु पतिं नोत्थापयेत् क्कचित् ॥ ६६ ॥
नैकाकिनी क्कचिद्गच्छेन्न नग्ना स्नानमाचरेत्, भर्तृविद्वेषिणीं नारीं साध्वीं नो भावयेत्क्क चित् ॥ ६७ ॥
नोलूखले न मुसले न वधिन्यां दृषद्यपि, न यन्त्रकेऽपि देहल्यां सती चिपविशेत्क्कदचित् ॥ ६८ ॥
तीर्थस्नानार्थिनी नारी पतिपादोदकं पिबेत्, शङ्करादपि विष्णोर्वा पतिरेवाधिकः स्त्रियाः ॥ ६९ ॥
व्रतोपवासनियमं पतिमुल्लिङ्घय याऽऽचरेत्, आयुष्यं हरते भर्तुर्मृता नरकमिच्छति ॥ ७० ॥
उक्ता प्रत्युत्तरं दद्याद्या नारी क्रोधतत्परा, नूनं सा जायते ग्रामे श्रृगाली निर्जने बने ॥ ७१ ॥
स्त्रीणां हि परमश्चैदका नियमः समुदाहृतः, अभ्यर्च्य भर्त्तुरश्चरणौ भोक्तव्यं च सदा स्त्रिया ॥ ७२ ॥
या भर्तारं परित्यज्य मिष्टमश्नागति केवलम्, उलूकी जायते क्रूरा वृक्षकोटरशायिनी ॥ ७३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
सुख से सोये, सुख से बैठे, स्वेच्छा से रमण करते हुए और आतुर कार्यों में पति को नहीं उठावे ॥ ६६ ॥
अकेली कहीं न जाय, नग्न होकर स्नान न करे, पति से द्वेष करने वाली स्त्री को पतिव्रता न समझे ॥ ६७ ॥
उलूखल, मूसल झाड़ू, पत्थर, यन्त्र, देहली पर पतिव्रता कभी भी न बैठे ॥ ६८ ॥
तीर्थ में स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री पति के चरणजल को पीवे, स्त्री के लिये शंकर से भी अथवा विष्णु भगवान् से भी अधिक पति ही कहा गया है ॥ ६९ ॥
जो स्त्री पति का वचन न मानकर व्रत उपवास नियमों को करती है वह पति के आयुष्य का हरण करती है और मरने के बाद नरक को जाती है ॥ ७० ॥
किसी कार्य के लिये कहीं जाने पर, जो स्त्री क्रोध कर पति के प्रति जवाब देती है वह ग्राम में कुतिया होती है और निर्जन वन में सियारिन होती है ॥ ७१ ॥
स्त्रियों के लिये एक ही उत्तम नियम कहा गया है, कि स्त्री सदा पति के चरणों का पूजन करके भोजन करे ॥ ७२ ॥
जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली मिठाई खाती है, वह वृक्ष के खोंड़रे में सोने वाली क्रूर उलूकी होती है ॥ ७३ ॥
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या भर्तारं समुत्सृज्य रहश्चरति केवलम्, ग्रामे वा सूकरी भूयाद्वल्गुली वा श्वविड्भुजा ॥ ७४ ॥
या हुंकृत्याप्रियं ब्रूते सा भूका जायते खलु, या सतत्नीं सदेर्ष्येत दुर्भगा साऽन्यजन्मनि ॥ ७५ ॥
दृष्टिं विलुप्य भर्तुर्या कञ्चिदन्यं समीक्षते, काणा वा विमुखी चापि कुरूपा चैव जायते ॥ ७६ ॥
बाह्यादागतमालोक्य त्वरिता च जलासनैः, ताम्बूलैर्व्यजनैश्चैव पादसंवाहनादिभिः ॥ ७७ ॥
अतिप्रियतरैर्वाक्यैर्भर्त्तारं या सुसेवते, पतिव्रताशिरोरत्नंै सा नारी कथिता बुधैः ॥ ७८ ॥
भर्त्ता देवो गुरुर्भर्त्ता धर्मतीर्थव्रतानि च, तस्मात्सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत् ॥ ७९ ॥
जीवहीनो यथा देहः क्षणादशुचितां व्रजेत्, भर्तुहीना तथा योषित् सुस्नाताऽप्यशुचिः सदा ॥ ८० ॥
अमङ्गलेभ्यः सर्वेभ्यो विधवा ह्यत्यमङ्गला, विधवादर्शनात्सिद्धिजार्तु क्कापि न जायते ॥ ८१ ॥
विहाय मातरं चैकामाशीर्वादप्रदायिनीम्, अन्याशिषमपि प्राज्ञात्यजेदाशीविषोपमाम् ॥ ८२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली एकान्त में फिरती है वह ग्राम में सूकरी होती है अथवा अपनी विष्ठा को खाने वाली गोह होती है ॥ ७४ ॥
जो स्त्री पति को हुँकार कह कर अप्रिय वचन बोलती है वह मूक अवश्य होती है, जो अपनी सौत के साथ सदा ईर्ष्या करती है वह दूसरे जन्म में दुर्भगा होती है ॥ ७५ ॥
जो स्त्री पति की दृष्टि बचा कर किसी दूसरे पुरुष को देखती है वह कानी होती है अथवा विमुखी और कुरूपा होती है ॥ ७६ ॥
जो स्त्री पति को बाहर से आया हुआ देखकर जल्दी से जल, आसन, ताम्बूल, व्यंजन, पैर को दबाना आदि ॥ ७७ ॥
अत्यन्त प्रिय वचनों से पति की सेवा करती है वह स्त्री पतिव्रताओं में शिरोरत्नअ के समान पण्डितों से कही गई है ॥ ७८ ॥
पति देवता हैं, पति गुरु हैं, पति धर्म तीर्थ व्रत है, इसलिये सबका त्याग कर एक पति का ही पूजन करे ॥ ७९ ॥
जिस तरह जीव से हीन देह क्षण भर में अशुचि हो जाता है उसी प्रकार पति से हीन स्त्री अच्छी तरह स्नान करने पर भी सदा अपवित्र है ॥ ८० ॥
सब अमंगल वस्तुओं की अपेक्षा विधवा स्त्री अत्यन्त अमंगल है, विधवा स्त्री के दर्शन से कभी भी कार्य-सिद्धि नहीं होती है ॥ ८१ ॥
आशीर्वाद को देने वाली एक माता को छोड़ कर दूसरी स्त्री के आशीर्वाद को भी सर्प के समान त्याग देवे ॥ ८२ ॥
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कन्यां विवाहसमये वाचयेयुरिति द्विजाः, भर्तुः सहचरी भूयाञ्जीवतोऽजीवतोऽपि वा ॥ ८३ ॥
तस्माद्भर्ताऽनुयातव्यो देहवच्छायया स्वया, एवंसत्यासदा स्थेयं भक्त्या पत्यनुकूलया ॥ ८४ ॥
व्यालग्राही यथा व्यालं बिलादुद्धरते बलात्, एवमुत्क्रम्य दूतेभ्यः पतिं स्वर्गं नयेत्सती ॥ ८५ ॥
यमदूताः पलायन्ते सतीमालोक्य दूरतः, अपि दुष्कृतकर्माणुमुत्सृज्य पतितं पतिम् ॥ ८६ ॥
यावत्स्वलोमसंख्यास्ति तावत्कोटययुतानि च, भर्त्रास्वर्गसुखं भुङ्क्ते रममाणा पतिव्रता ॥ ८७ ॥
शीलभङ्गेनदुर्वृत्ताः पातयन्ति कुलद्वयम्, पितुः कुलं तथा पत्युरिहामुत्र च दुःखिताः ॥ ८८ ॥
अनुयाति न भर्तारं यदि दैवात्कथञ्चन, तत्रापि शीलं संरक्ष्यं शीलभङ्गात्पतत्यधः ॥ ८९ ॥
तद्वैगुण्यात्पितास्वर्गात्पतिः पतति नान्यथा, विधवाकबरीबन्धो भर्तुर्बन्धाय जायते ॥ ९० ॥
शिरसो वपनं कार्यं तस्माद्विधवया सदा, एकाहारः सदा कार्यो न द्वितीयः कदाचन ॥ ९१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
ब्राह्मण लोग विवाह के समय कन्या से इस प्रकार कहलाते हैं, कि पति के जीवित तथा मृत दशा में सहचारिणी हो ॥ ८३ ॥
इसलिये अपनी छाया के समान पति का अनुगमन करना चाहिये। इस प्रकार पतिव्रता स्त्री को भक्ति से सदा पति के अनुकूल होकर रहना चाहिये ॥ ८४ ॥
जिस प्रकार सर्प को पकड़ने वाला बलपूर्वक बिल से सर्प को निकाल लेता है उसी प्रकार सती स्त्री यमदूतों से छुड़ा कर पति को स्वर्ग ले जाती है ॥ ८५ ॥
यमराज के दूत दूर से ही पतिव्रता स्त्री को देखकर पापकर्म करने वाले भी उसके पतित पति को छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ८६ ॥
जितनी अपने शरीर में रोम की संख्या है उतने दश कोटि वर्ष पर्यन्त पतिव्रता स्त्री पति से साथ रमण करती हुई स्वर्ग सुख को भोगती है ॥ ८७ ॥
दुष्ट व्यवहार वाली स्त्रियाँ शील का नाश कर दोनों कुलों को डुबा देती हैं और इस लोक में तथा परलोक में दुःखित रहती हैं ॥ ८८ ॥
यदि दैववश पति के पीछे पति का अनुगमन नहीं करती हैं तो उस दशा में भी शील की रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि शील को तोड़ने से नरकगामिनी होती है ॥ ८९ ॥
स्त्री-दोष से पिता और पति स्वर्ग से गिर जाते हैं, विधवा स्त्री का कबरीबन्धन पति के बन्धन के लिये होता है ॥ ९० ॥
विधवा स्त्री सर्वदा शिर के बालों को मुड़ा देवे, एक बार भोजन करे, कभी भी दूसरी बार भोजन नहीं करे ॥ ९१ ॥
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पर्यङ्कशायिनी नारी विधवा पातयेत् पतिम्, तस्माद्भूशयनं कार्यं पतिसौख्यसमीहया ॥ ९२ ॥
नैवाङ्गोद्वर्तनं कार्यं न ताम्बूलस्य भक्षणम्, गन्धद्रव्यस्य सम्भोगो नैव कार्यस्तया क्कचित् ॥ ९३ ॥
तर्पणं प्रत्यहं कार्यं भर्तुः कुशतिलोदकैः, तत्पितुस्तत्पितुश्चापि नामगोत्रादिपूर्वकम् ॥ ९४ ॥
श्वेणतवस्त्रं सदा धार्यमन्यथा रौरं व्रजेत्, इत्येवं नियमैर्युक्ता विधवाऽपि पतिव्रता ॥ ९५ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
नैतादृशं दैवतमस्ति किञ्चित्सर्वेषु लोकेषु सदैवतेषु, यदा पतिस्तुष्यति सर्वकामाँल्लहभ्यात्प्रकामं कुपितश्च हन्यात् ॥ ९६ ॥
तस्मादपत्यं विविधाश्च भोगाः शय्यासनान्यद्भुतभोजनानि, वस्त्राणि माल्यानि तथैव गन्धाः स्वर्गे च लोके विविधा च कोर्तिः ॥ ९७ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पतिव्रताधर्मनिरूपणंनामत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
हिंदी अनुवाद :-
अंगों में उबटन नहीं लगावे और ताम्बूल को न खाय, सुगन्ध का सेवन विधवा न करे ॥ ९३ ॥
प्रतिदिन कुश तिल जल से पति का तर्पण करे और पति के पिता का तथा उनके पिता का नाम गोत्र कहकर तर्पण करे ॥ ९४ ॥
सदा श्वेत वस्त्र धारण करे ऐसा न करने से रौरव नरक को जाती है, इस प्रकार नियमों से युक्त विधवा स्त्री पतिव्रता है ॥ ९५ ॥
श्रीनारायण बोले – लोकों में तथा देवताओं में पति के समान कोई देवता नहीं है, जब पति प्रसन्न होते हैं तो समस्त मनोरथों को प्राप्त करती है, यदि पति कुपित होते हैं तो समस्त कामनायें नष्ट हो जाती हैं ॥ ९६ ॥
उस पति से सन्तान, विविध प्रकार के भोग, शय्या, आसन, अद्भुत प्रकार के भोजन, वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ और इस लोक तथा स्वर्ग लोक में विविध प्रकार के यश मिलते हैं ॥ ९७ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पतिव्रतधर्मनिरूपणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
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