🌷 अध्याय ९ - दुर्वाससस्तपोवनगमनं 🌷

 

सूत उवाच :-

ततस्तं विस्मयाविष्टः पप्रच्छ नारदो मुनिः, मेधाविद्विजवर्यस्य सुतावृत्तान्तमद्‌भुतम्‌ ॥ १ ॥

नारद उवाच :-

मुने मुनिसुता तत्र किं चकार तपोवने, को वा मुनिवरस्तस्याः पाणिग्रहमचीकरत्‌ ॥ २ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

निवसन्‍त्यास्ततस्तस्याः कियान्‌ कालो विनिर्गतः, स्मारं स्मारं स्वपितरं शोचन्‍त्याश्च मुहुर्मुहुः ॥ ३ ॥

शून्यसद्मनि संविष्टां यूथभ्रष्टां मृगीमिव, गलद्वाष्पौघनयनां ज्वलद्‌धृदयपङ्कजाम्‌ ॥ ४ ॥

विनिःश्वासपरां दीनां संरुद्धामुरगीमिव, चिन्‍‍तयन्‍तीमपश्यन्‍तीं दुःखपारं कृशोदरीम्‌ ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सूतजी बोले – तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्‌भुत वृत्तान्त पूछा ॥ १ ॥

नारदजी बोले – हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया? ॥ २ ॥

श्रीनारायण बोले – अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ ॥ ३ ॥

यूथ से भ्रष्ट हुई हरिणी की तरह घबड़ाई, शून्य घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाफ द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत्‍कमल वाली ॥ ४ ॥

दुःख से प्रतिक्षण गरम श्‍वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई उस कृशोदरी को ॥ ५ ॥

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तामाससाद भगवान्‌ भविष्यद्‌बलनोदितः, यदृच्छया वने तस्मिन्‌ परमः कोपनो मुनिः ॥ ६ ॥

यद्विलोकनमात्रेण त्रस्येदपि शतक्रतुः, जटाकलापसञ्छन्नः साक्षादिव सदाशिवः ॥ ७ ॥

यस्त्वज्जनन्या राजेन्द्र शैशवेऽतिप्रसादितः, त्रिदशाऽऽकर्षिणीं विद्यां ददावस्यै सुपूजितः ॥ ८ ॥

येनाहमपि भूपाल सर्वदेवनमस्कृतः, रथे संयोजितः साक्षाद्रुक्मिण्या सह नारद ॥ ९ ॥

उभाभ्यां चालिते मार्गे रथे दुर्वाससान्विते, अत्युग्रया तृषा शुष्यत्ताल्वोष्ठपुटयाऽनया ॥ १० ॥

सूचितोऽहं जलार्थिन्या स्कन्धस्थयुगया पुरा, गच्छन्नेव पदाग्रेण सम्पीङ्य वसुधातलम्‌ ॥ ११ ॥

आनीतवान्‌ भोगवतीं प्रियाप्रेमपरिप्लुतः, सैवोर्ध्वगामिनी भूत्वा तावन्मात्रेण वारिणा ॥ १२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्‍त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी – जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं – ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात्‌ शंकर के समान भगवान्‌ दुर्वासा ऋषि आये ॥ ६-७ ॥

हे नारद! भगवान्‌ कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा आये जिसको कि आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था, तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या उन्हें दी और हे भूपाल! जिन्होंने सब देवताओं से नमस्कार किए जाने वाले मुझको भी रुक्मिणी के साथ रथ में बैलों की जगह जोता ॥ ८-९ ॥

दुर्वासा को बैठाकर रथ खींचते हुए जब हम दोनों मार्ग चलने लगे तब चलते-चलते मार्ग में अति तीव्र प्यास से सूख गये थे तालु और ओष्ठ जिस रुक्मिणी के ऐसी जल चाहने वाली रुक्मिणी ने जब मुझे सूचित किया तब कन्धे पर रथ की जोत को रखे हुए चलते-चलते ही पाँव के अग्रभाग से पृथ्वी को दबा कर ॥ १०-११ ॥

रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया, तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी, अनन्तर उसी के जल से ॥ १२ ॥

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न्यवारयन्महाराज रुक्मिणीतृषमुल्बणम्‌, तद्‌दृष्ट्वा तत्क्षणोत्पन्नक्रोधेन प्रज्वलन्निव ॥ १३ ॥

प्रलयाग्निरिवोत्तिष्ठन्‌ शशाप कोपनो मुनिः, अहो श्रीकृष्ण तेऽत्यन्तं वल्लभा रुक्मिणी सदा ॥ १४ ॥

यद्भवान्‌ मामवज्ञाय प्रियाप्रेमपरिप्लुतः, पाययामास पानीयं माहात्म्यं दर्शयन्‌ स्वकम्‌ ॥ १५ ॥

दम्पत्योरुभयोरेव वियोगोऽस्तु युधिष्ठिर, इति यो दत्तवान्‌ शापं स एव मुनिसत्तमः ॥ १६ ॥

साक्षाद्रुद्रांशसम्भूतः कालरुद्र इवापरः, अत्रेरुग्रतपः कल्पवृक्षदिव्यफलं महत्‌ ॥ १७ ॥

पतिव्रताशिरोरत्नाऽनुसूयागर्भसम्भवः, दुर्वासा नाम मेधावी यथा वै मूर्तिमत्तपः ॥ १८ ॥

नैकतीर्थजलक्लिन्न जटाभूषितसच्छिराः, तमालोक्य समायान्तं कुमारी शोकसागरात्‌ ॥ १९ ॥

उन्मज्ज्योत्थाय धैर्येण ववन्दे चरणौ मुनेः, नत्वा स्वाश्रममानीय बाल्मीकिं जानकी यथा ॥ २० ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे महाराज! रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया, इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह दुर्वासा क्रोध से जलने लगे ॥ १३ ॥

और प्रलय की अग्नि के समान उठकर दुर्वासा ने शाप दिया, बोले बड़ा आश्‍चर्य है, हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है ॥ १४ ॥

अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए इस प्रकार से उसे पानी पिलाया ॥ १५ ॥

अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था, हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं ॥ १६ ॥

साक्षात्‌ रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल ॥ १७ ॥

पतिव्रताओं के सिर के रत्‍न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि ॥ १८ ॥

अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात्‌ तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर कन्या ने शोकसागर से ॥ १९ ॥

निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की, प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही यह भी दुर्वासा को अपने घर में लाकर ॥ २० ॥

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अर्ध्यपाद्यैर्वन्यफलैः पुष्पैश्च विविधैर्मुनिम्‌, स्वागतं पृच्छय सा बाला पूजयामास सादरम्‌, ततः सविनया राजन्नुवाच मुनिकन्यका ॥ २१ ॥

बालोवाच :-

नमस्तेऽस्तु महाभाग अत्रिगोत्रदिवाकर, कुतोऽधिगमनं साधो दुर्दैवाया ममाश्रमे, मम भाग्योदयो जातस्तवागमनतो मुने ॥ २२ ॥

अथवा मत्पितुः पुण्यप्रवाहप्रेरितो भवान्‌, सम्भावयितुं मामेव ह्यागतो मुनिसत्तमः ॥ २३ ॥

भवादृशां पादरजस्तीर्थरूपं महात्मनाम्‌, स्पृशन्‍त्याः सफलं जन्म सफलं चाद्य मे व्रतम्‌ ॥ २४ ॥

अद्य मे सफलं पुण्यमद्य मे सफलो भवः, भवादृशा महापुण्या यन्मे दृष्टिपथं गताः ॥ २५ ॥

एवमुक्‍त्वा च सा बाला तस्थौ तूष्णीं तदग्रतः, सस्मितं मुनिराहेदं दुर्वासाः शङ्करांशजः ॥ २६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से स्वागत के लिए आज्ञा लेकर आदरपूर्वक पूजन कर तदनन्तर हे राजन्‌! यह बाला बोली ॥ २१ ॥

कन्या बोली – हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है, हे साधो! मेरी अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है ॥ २२ ॥

अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित मुझे सान्त्वना देने के लिये ही आप मुनिसत्तम आये हैं ॥ २३ ॥

आप ऐसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है, वह तीर्थरूप है, उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरा व्रत भी सफल है ॥ २४ ॥

आप ऐसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए, अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरा पुण्य सफल है ॥ २५ ॥

ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी, तब भगवान्‌ शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द हास्य युक्त बोले ॥ २६ ॥

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दुर्वासा उवाच :-

साधु साधु द्विजसुते कुलमभ्युद्‌धृतं पितुः, मेधाऋषेः सुतपसः फलमेतादृशी सुता ॥ २७ ॥

कैलासादहमागच्छं ज्ञात्वा ते धर्मशीलताम्‌, त्वदाश्रममनुप्राप्तस्त्वया सम्पूजितोऽस्म्यहम्‌‌ ॥ २८ ॥

गमिष्यामि वरारोहे शीघ्रं बदरिकाश्रमम्‌, द्रष्दुं नारायणं देवं सनातनमुनीश्वरम्‌ ॥ २९ ॥

तपश्‍चरन्तमेकाग्रमत्युग्रं लोकहेतवे, 

बालोवाच :-

ऋषे त्वद्दर्शनादेव शुष्को मे शोकसागरः ॥ ३० ॥

अतः परं शुभं भावि यस्मात्‌ सम्भाविता त्वया, समुद्भूतबृहज्ज्वाल दुःखहव्यभुजं मुने ॥ ३१ ॥

कि न वेत्सि दयासिन्धो तन्निर्वापय शङ्कर, हर्ष हेतुर्न मे कश्चिद्‌ दृश्यते सुविचारतः ॥ ३२ ॥

न माता न पिता भ्राता यो मे धैर्यं प्रयच्छति, कथङ्कारमहं जीवे दुःखसागरपीडिता ॥ ३३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

दुर्वासा बोले – हे द्विजसुते! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया, यह मेधावी ऋषि के तप का फल है, जो उन्हें तेरी ऐसी कन्या उत्पन्न हुई ॥ २७ ॥

तेरी धर्म में तत्परता जान कैलास से मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ ॥ २८ ॥

हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्‍वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं, कन्या बोली – हे ऋषे! आपके दर्शन से ही मेरा शोकसमुद्र सूख गया ॥ २९-३० ॥

अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्‍त्वना दी, हे मुने! मेरी उस प्रादुर्भूत बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये, मेरे विचार से हर्ष का कारण मुझे कुछ भी दिखलाई नहीं देता ॥ ३१-३२ ॥

न मुझे माता है, न पिता, न तो भाई है, जो धैर्य प्रदान करता, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ? ॥ ३३ ॥

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यां यां दिशं प्रपश्यामि सा सा शून्या विभाति मे , मम दुःखप्रतीकारं कुरु शीघ्रं तपोनिधे ॥ ३४ ॥

न मां कामयते कश्चित्‌ पाणिग्रहणहेतवे, अतः परं भविष्यामि वृषलीति महद्भयम्‌ ॥ ३५ ॥

तस्मान्न जायते निद्रा न रुचिर्भोजने मम, ब्रह्मन्‌ मुमूर्षुरस्म्येव इति मे निश्चयोऽधुना ॥ ३६ ॥

इत्युक्‍त्वाश्रुमुखी बाला विरराम तदग्रतः, दुर्वासास्तदुपायाथ विचारमकरोत्तदा ॥ ३७ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इति मुनितनयावचो निशम्य बहुतलमा मुनिराड्‌ विचार्य छन्दः, अतिशयकृपया विलोक्य बालां किमपि हितं निजगाद सारभूतम्‌ ॥ ३८ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये दुर्वाससस्तपोवनगमनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःखका निस्तार आप शीघ्र करें ॥ ३४ ॥

मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी नहीं तैयार होता है, इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं फिर वृषली शूद्रा हो जाऊँगी यह मुझे बड़ा भय है ॥ ३५ ॥

इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है, हे ब्रह्मन्‌! अब मैं शीघ्र ही मरने वाली हूँ, यह मेरा इस समय निश्चय है ॥ ३६ ॥

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई कन्या दुर्वासा के सामने चुप हो गयी तब दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सिचने लगे ॥ ३७ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया ॥ ३८ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ९ ॥

अध्याय १० - कुमारीशिवाराधनोद्यौगो

मुख्य सुचि

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