किं विचार्य बृहद्धामा परमः कोपो मुनि, अब्रवीऋषिकन्या ता तन्मे व्रूहि तपोनिधे ॥ १ ॥
सूत उवाच :-
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रोवाच बदरीपतिः दुर्वासों वचनं गुह्यं सर्वेषां हितकृदिद्वजाः ॥ २ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
श्रृणु नारद वक्ष्येऽहं यदुक्तं मुनिना तदा, मेधावितनयादुःखमपनेतुं कृपालुना ॥ ३ ॥
भृणु सुन्दरी वक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं महत्, आख्यरेयं नैंव कस्यापि त्वदर्थं तु विचारितम् ॥ ४ ॥
न विस्तरं करिष्यामि समासेन ब्रवीमि ते, इतस्तृतीय: सुभगे मासस्तु पुरुषोत्तमः ॥ ५ ॥
तस्मिन्स्नातो नरस्तीर्थं मुच्यते भ्रूणहत्ययो, एतत्तुल्यो न को ऽ प्यन्यः कार्तिकादिषु सुन्दरि ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
नारदजी बोले-हे तपोनिधे! परम क्रोधी दुर्वासा मुनि ने विचार करके उस कुन्या को क्या उपदेश दिया सो आप मुझसे कहिये॥१॥
सुतजी बोले-हे द्विजो! नारद का वचन सुन समस्त प्राणियों का हितकर दुर्वासा का गुह्य वचन बदरीनारायण बोले॥२॥
श्रीनारायण बोले-है नारद! मेधावी ऋषि की कन्या के दुःख को दूर करनेके लिये कृपालु दुर्वासा जी ने कहा वह हम तुमसे कहते हैं, सुनो॥३॥
दुर्वासा बाले-हे सुन्दरि गुप्त से भी गुप्त उपाय मै तुझ से कहता हूँ, यह विषय किसी से भी कहने योग्य नहीं है तथापि तेर लिये तो मैने विचार ही लिया है॥४॥
मैं विस्तार पूर्वक न कहकर तुझसे संक्षेप से कहता हूँ, हे सुभगे! इस मास से तिसरा मास जो आवेगा वह पुरुषोत्तम मास है॥५॥
उस मास में तीर्थ में स्नान कर मनुष्य भ्रुणहत्या से छुट जाता है, हे सुन्दरि! कार्तिक आदि बारहीं मासों में इस पुरुषोत्तम मास के बराबर और कोई मास नही है॥६॥
सर्वे मासास्तथा पक्षा: पर्वाण्यन्यानि यानि च, पुरुषोत्तममासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥७॥
साधनानि समस्तानि निगमोत्तानि यानि च, मासस्यैतस्य नार्हन्ति कलामपि च षोडशीम् ॥८॥
द्वादशाद्वसहस्त्राणि गङ्गस्नानेन यत्फलम्, गोदावरी सकृत्स्नानाद्यत्फलं सिंहगै गुरौ एक॥९॥
तदेव फलमाप्नोति मासे वै पुरुषोत्तमे, सुकृत् सुस्नानमात्रेण यत्र कुत्रापि सुन्दरि ॥१०॥
श्रीकृष्णवल्लभो मासो नाम्ना च पुरुषोत्तमः, तस्मिन् संसेविते बाले सर्व भवति वाञ्छितम् ॥११॥
तस्मान्निषेवयाशु त्वं मासं तं पुरुषोत्तमम्, मयापि सेव्यते सोऽयं पुरुषोत्तमवन्मुदा ॥१२॥
एकदा भस्मसात्कर्तुम्बरीरषं क्रुधा मया, मुक्ता कृत्या तदा बाले सुनाभं हरिणा ज्वलत् ॥१३॥
मामेव भस्मसात्कतुं तदानीं प्रेरितं मयि, पुरुषोत्तमव्रतादेव तच्चकं संन्यवर्तत ॥१४॥
हिंदी अनुवाद :-
जितने मास तथा पक्ष और पर्व हैं, वे सब पुरुषोत्तम मास की सौलहवी कला के बराबर भी नहीं है॥७॥
वेदोक्त साधन और जो परमपद प्राप्ति के साधन है, वे भी इस मास की सोलहवीं कला के बराबर नहीं॥८॥
बारह हजार वर्ष गंगा स्नान करने जो फल मिलता है और सिंहस्थगुरु में गोदावरी पर एक बार स्तान करने से जो फल मिलता है॥९॥
हे सुन्दरि ! वहीं फल पुरुषोत्तम मास में किसी भी तिर्थ में एक बार करने मात्र से मिलता है॥१०॥
हें बाले! यह मास श्रीकृणा का अत्यन्त प्रिय है और नाम से ही वे भगवान् का स्मारक है इस मास में पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा, पूजा करने से समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं॥११॥
अत: इस पुरुषोत्तम मास का तू शीघ्र व्रत कर, पुरुषोत्तम भगवान् की तरह प्रसन्नता पूर्वक मैंने भी इस मास की सेवा की है॥१२॥
एक समय क्रोध से मैने अम्बरीष राजा को भस्म करने के अर्थ कृत्या भेजी थी, सो है बाले! तब हरि ने जलता हुआ सुदर्शन चक्र॥१३॥
मुझको ही भस्म करने के लिये उसी समय मेरे पास भेजा, तब पुरुषोत्तम मास के व्रत के प्रभाव से ही वह चक्र हट गया॥१४॥
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त्रलोक्यं भस्मसात्कर्तु समर्थ तच्च सुन्दरि, मर्य्यकश्वत्करं जातं तदा में विस्मयोऽभवत् ॥१५॥
तस्माद्भजस्व सुभगे श्रीमन्तं पुरुषोत्तम्, इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलो विरराम मुने: सुताम् ॥१६॥
श्रीकृष्ण उवाच :-
दुर्वांसो वचनं श्रुत्वा बाला मूढधियाऽवदत्, भाविना प्रेरिता राजन्नसूयारिता सतो ॥१७॥
दुर्वाससं मुनि श्रेष्ठं मनसि क्रोधसंयुता, बालोवाच, न महां रोचते ब्रह्मन् यदुक्तं भवता मुने॥१८॥
कथं माघादयो मासा अकिञ्चित्करतां गताः, कथं कार्तिकमासं त्वमूनं वदसि तद्वद ॥१९॥
वैशाखः सेवितः किं वा नदास्यति सुकामितम्, सदाशिवादयो देवाः फलदा किं न सेविता:॥२०॥
अथवा भुवि मार्तण्डो देवः प्रत्यक्षदर्शन, स किं न दाता कामानां देवा च जगदम्बिका ॥२१॥
गणेशः सेवित: किंबा नसंबच्छति कामितम्, व्यतीपातादिकान्योगान्देवान्शर्वादिकानपि ॥२२॥
हिंदी अनुवाद :-
हे सुन्दरी! वह चक्र त्रैलोक्य को भस्म करने का सामर्थ्य रखने वाला जब मेरे पास आकार खाली चला गया तब मुझे बड़ा विस्मय हुआ ॥१५॥
इसलिये हैं सुभगे! तू श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत कर, इस प्रकार मुनि की कन्या को कहकर दुर्वासा ऋषि ने विराम लिया ॥१६॥
श्रीकृष्णजी बोले-हे राजन्! दुर्वासा का वचन सुन भावो की प्रबलता के कारण असूया से प्रेरित वह कन्या मूर्खतावश दुर्वासा से बोली, बाला बोली-हे ब्रह्मन्! है मुने! आपने जो कहा वह मुझे रुचता नहीं है ॥१७-१८॥
माघादि मास कैसे कुछ भी फल देने वालें नहीं है? कार्तिक मास कम है?' ऐसा आप कैसे कहते हैं? सो काहिये ॥१९॥
वैशाख मास सेवित हुआ क्या इच्छित कामों को नहीं देता है? सदाशिव आदि से लेकर सब देवता सेवा करने पर क्या फल नहीं देते हैं? ॥२०॥
अथवा पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव सुर्य और जगत् की माता देवी क्या सर्व कामनाओं को देने वाली नहीं है? ॥२१॥
श्रीगणेश सेवा पाकर क्या इच्छित वर नहीं देते हैं? व्यतीपात आदि योगों को और शव आदि देवताओं को भी ॥२२॥
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सर्वानुल्लङ्घ्य वदतस्त्रपा किं ते न जायते, अबं तु मलिनो मासः सर्वकर्मविगर्हितः॥२३॥
असूर्यसङ्क्रमः श्रेष्ठः क्रियते च कथं मुने, वेदाहं सर्वदुःखानां पारदं श्रीहरि परम् ॥२४॥
नान्यं पश्यामि भूदेव चिन्तयन्तो दिवानिशम्, रामाद्वा जानकीजानेः शङ्करात् पार्वतीपते॥२५॥
नान्य:कोऽपि महान् देवो ये मे दुःखं व्यापोहति, एतान् विहाय विपेन्द्र कथं स्तौषि मलं मुने॥२६॥
एवमुक्तस्या विप्र-पुत्र्या स क्रोधनो मुनि, जाज्वल्यमानो वपुषा क्रोधसंरक्तलोचन: ॥२७॥
तथापि न शशापैनां मित्रजां कृपयान्वितः, मूढेयं नैव जानाति हिताहितमपूर्णधीः ॥२८॥
पुरुषोत्तममाहात्म्यं दुर्जय विदुषामपि, किमुताल्यपघियां पुंसां कुमारीणां विशेषतः ॥२९॥
पितृहीना कुमारीयं बाला दुःखाग्निभर्जिता, अतीबोग्रतरं शापं मदीयं सहते कथम् ॥३०॥
हिंदी अनुवाद :-
सबको उल्लंघन करके पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा करते क्या आपको लज्जा नहीं आता है? यह मास तो बड़ा मलिन और सब काम में निन्दित है ॥२३॥
हे मुने! इस रवि की संक्रान्ति से रहित मास को आप श्रेष्ट कह रहे हैं? सब दुः खों से छुड़ाने वाले परम श्रीहरि को में जानती हूं ॥२४॥
हे देव! दिन-रात श्रीहरि की चिंतन करती मै जानकीपति राम और पार्वतीपति शङ्कर के सिवाय और किसी को नहीं देखती हूँ ॥२५॥
हे विप्रेन्द्र! अन्य कोई भी देवता ऐसा नहीं है, जो मेरे दुःख को दूर करें, अत: हे मुने! इन सब फलदाताओं को छोड़कर कैसे इस मलमास की स्तुति आप कर रहे हैं? ॥२६॥
इस प्रकार ब्राह्मणकन्या का कहा हुआ सुनकर दुर्वासा मुनि, शरीर से एकदम जाज्वल्यमान हो गये और नेत्र क्रोध से लाल हो गए ॥२७॥
इस प्रकार क्रोध आने पर भी कृपा करके मित्र की कन्या को शाप नहीं दिया और सोचने लगे कि यह मूर्ख है, हित-अनहित की नहीं जानती है, अभी बुद्धि इसकी पूर्ण नहीं है ॥२८॥
पुरुषोत्तम के माहात्म्य का विद्वानों को भी पता नहीं है, तो थोड़ी बुद्धिवाले पुरुष एवं विशेष करके कुमारियों को तो हो ही कहाँ से सकता है? ॥२९॥
यह कुमारी कन्या माता-पिता से रहित. दुःखाग्नि से जली हुई है, अत: आति उग्र मेरे शाप को कैसे सह सकती है? ॥३०॥
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इत्येवं कृपया क्रोधं सञ्जहार मनः स्थितम्, स्वस्थो भूत्वा मुनि: प्राह तां बालामतिविह्वलाम् ॥३१॥
दुर्वासा उवाच :-
अहो बाले न मे कोपो मित्रजे त्वयि कश्चन्, यत्ते मनसि निर्भाग्ये यथारुचि तथा कुरु ॥३२॥
अपरं श्रुयतां बाले भविष्यं किञ्चिदुच्यते, पुरुषोत्तममासस्य यत्त्वयाऽनादरः कृतः ॥३३॥
सर्वथा तत्फलं भावि इह वा परजन्मनि, अत: परं गमिष्यामि नरनारायणालयम् ॥३४॥
न च शप्ता मया भीरु मन्मित्रं ते पिता यतः, हिताहितं न जानासि बालभावाच्छुाशुभम् ॥३५॥
स्वस्ति तेऽस्तुगमिष्यामि मास्तु कालात्ययो मम, अशुभं वाशुभं भाविशक्यते लंधितुंकथम् ॥३६॥
श्रीकूष्ण उवाच :-
इत्युदीर्य जगामाशु तामसस्तापसो मुनिः, तत्क्षणं निष्प्रभा साऽभूत् पुरुषोत्तमहेलया ॥३७॥
हिंदी अनुवाद :-
इस प्रकार सोच कर कृपा से मन से उठे हुए क्रोध को शान्त किया और स्वस्थ होकर दुर्वांसा मुनि, इस अति विह्वल कन्या से बोले ॥३१॥
दुर्वसा बोले-हे मित्र पुत्रि! तेरे ऊपर मेरा कुछ भी क्रोध नहीं है, हे निर्भाग्ये! जो तेरे मन में आये वैसा ही कर ॥३२॥
हे बाले! और तेरा कुछ भविष्य कहता हूँ सुन! पुरुषोत्तम मास का जो तूने अनादर किया है ॥३३॥
उसका फल तुझे अवश्य मिलेगा, इस जन्म में मिले अथवा दूसरे अन्म में मिले, अब मै नर-नारायण के आश्रम में जाऊंगा ॥३४॥
तेरा पिता मेरा मित्र था, इसलिये मैने शाप नहीं दिया है, तू बालभाव के कारण अपने शुभाशुभ तथा हिताहित को नहीं जानती है ॥३५॥
शुभाशुभ भविष्य को कोई भी टाल नहीं सकता है, अच्छा हमारा बहुत समय व्यतीत हो गया, अब हम जाते हैं, तेरा कल्याण हो ॥३६॥
श्रीकृष्ण बोले-ऐसा कहकर महाक्रोधी दुर्वासा मुनि शीघ्र चले गये, दुर्वासा ऋषि के जाते ही पुरुषोतम की उपेक्षा करने के कारण कन्या निष्प्रभा हो गयी ॥३७॥
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विमृश्य सुचिरं कालं तत्कालफलदं शिवम्,आराधयामि देवेशं तपसा पार्वती पतिम् ॥३८॥
इति निश्चित्य मनसा मेधावितनया नृप, दुष्करं तत्तपः कर्तुमियेष स्वाश्रम स्थिता ॥३९॥
सूत उवाच-
आर्षयी प्रबलमुनेर्वचो विनिन्द्य प्रोद्युक्ता्धकरिपुसेवने वने स्वे, लक्ष्मीशं बहुलफलप्रदं विहाय सावित्रीपतिमपि तादृशं निरस्य ॥४०॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कुमारीशिवाराधनोद्योगो नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥
हिंदी अनुवाद :-
तदनंतर बहुत देरतक कन्या ने सोच-विचार कर यह निश्चय किया कि देवताओं के भी देवता, तत्काल फल को देने वाले, पार्वतिपति शिव की तप द्वारा आराधना करूगी ॥३८॥
हे नृप! मेधावी ऋषि की कन्या ने मन से इस प्रकार निश्चय करके अपने आश्रम में ही रह कर भगवान शंकर के कठिन तप करने को तत्पर हो गयी ॥३९॥
सूतजी बोले-किं बहुत फलों के दाता लक्ष्मीपति की और वैसे ही सावित्रीपति ब्रम्ह को छोड़कर एवं दुर्वासा के प्रबल वचन की निन्दा कर वह ऋषि कन्या अपने आश्रम में ही अन्धक को मारने वाले शंकर की सेवा के लिये तत्पर हो गयी ॥४०॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कुमारीशिवाराधनोद्योगो नाम दशमोऽध्याय: ॥१०॥
अद्भुत है
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