🌷 अध्याय ११ - शिववाक्यं 🌷



 नारद उवाच :-

अचीकरत्‌ कुमारीयं महत्कर्म सुदुष्करम्‌, मुनीनामपि सर्वेषां तन्मे वद महामुने ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

अथारभत कल्याणी तपः परमदारुणम्‌, चिन्तयन्ती शिवं शान्तं पञ्चवक्त्रंन सनातनम्‌ ॥ २ ॥

भुजङ्गभूषणं देवं नन्दिभृङ्गिनिषेवितम्‌, चतुर्विंशतितत्त्वैश्र गुणैस्त्रिभिरभिष्टुतम्‌ ॥ ३ ॥

महासिद्धिभिरष्टाभिः प्रकृत्या पुरुषेण च, चन्द्रखण्डलसद्भालं जटाजूटविराजितम्‌ ॥ ४ ॥

चचार दुश्चरं बाला तमुद्दिश्य परं तपः, पञ्चाग्नीनां च मध्ये सा स्थायिनी ग्रीष्मगै रवौ ॥ ५ ॥

हेमन्ते शिशिरे चैव शीतवार्यन्तरस्थिता, व्यक्तवक्त्रा  तथा रेजे जलस्थं कमलं यथा ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नारदजी बोले – सब मुनियों को भी जो दुष्कर कर्म है ऐसा बड़ा भारी तप जो इस कुमारी ने किया वह, हे महामुने! हमसे सुनाइये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले – अनन्तर ऋषि-कन्या ने भगवान्‌ शिव, शान्त, पंचमुख, सनातन महादेव को चिन्तन करके परम दारुण तप आरम्भ किया ॥ २ ॥

सर्पों का आभूषण पहिने, देव, नन्दी-भृंगी आदि गणों से सेबित, चौबीस तत्त्वों और तीनों गुणों से युक्त ॥ ३ ॥

अष्ट महासिद्धियों तथा प्रकृति और पुरुष से युक्त, अर्धचन्द्र से सुशोभित मस्तकवाले, जटा-जूट से विराजित ॥ ४ ॥

भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ उस बाला ने परम तप आरम्भ किया, ग्रीष्म ऋतु के सूर्य होने पर पंचाग्नि के बीच में बैठकर ॥ ५ ॥

हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में ठण्डे जल में बैठकर, खुले हुए मुखवाली जल में खिले हुए कमल की तरह शोभित होने लगी ॥ ६ ॥

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शिरोऽधःप्रसृतश्यामनीलालकविलुण्ठिता, जम्बालवल्लरीपुञ्जैर्वेष्टितेवबभौ जले ॥ ७ ॥

ब्रह्मरन्ध्रोद्गत श्रीमद्‌धूमराजिर्व्यदृश्यत, नलिनं सेव्ययानेव मिलिन्दादि प्रसर्पिणी ॥ ८ ॥

वर्षास्वनावृता शेते स्थण्डिले वृसिकान्विते, सन्ध्योरुभयोस्तन्वी धूम्रपानमचीकरत्‌ ॥ ९ ॥

पुरन्दरः परां चिन्तामवापाश्रुत्य तत्तपः, दुर्धर्षा दिविजैः सर्वैः स्पृहणीया महर्षिभिः ॥ १० ॥

एवं तपसि वृत्तायामार्षेय्यां नृपनन्दन, गतान्यब्दसहस्राणि नव राजन्यभूषण ॥ ११ ॥

सन्तष्टस्तपसा तस्या भगवान्‌ पार्वतीपतिः, दर्शयामास बालायै निजं रूपमगोचरम्‌ ॥ १२ ॥

तद्‌दृष्ट्वा सहसोत्तस्थौ देहः प्राणमिवागतम्‌, तपःकृशापि सा बाला हृष्टपुष्टा तदाऽभवत्‌ ॥ १३ ॥

भूरिवातपसंक्लिष्टा देवमीढा गरीयसी, सा बालाऽवनता भूत्वा ववन्दे गिरिजापतिम्‌ ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सिर के नीचे फैली हुई काली और नीली अलकों से ढँकी हुई वह जल में ऐसी मालूम होने लगी जैसे कीचड़ की लता सेवारों के समूह से घिरी हुई हो ॥ ७ ॥

शीत के कारण नासिका से निकलती हुई शोभित धूम्‌राशि इस तरह दिखाई देने लगी जैसे कमल से मकरन्द पार करके भ्रमरपंक्ति जा रही हो ॥ ८ ॥

वर्षाकाल में आसन से युक्त चौतरे पर बिना छाया के सोती थी और वह सुन्दर अंगवाली प्रातः-सायं धूमपान करके रहती थी ॥ ९ ॥

उस कन्या के इस प्रकार के कठिन तप को सुन कर इन्द्र बड़ी चिन्ता को प्राप्त भए। सब देवताओं से दुष्प्रधर्षा और ऋषियों से स्पृहणीया ॥ १० ॥

उस ऋषि-कन्या के तप में लगे रहने पर हे नृपनन्दन! हे क्षत्रिय भूषण! नौ हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥ ११ ॥

उस बाला के तप से भगवान्‌ शंकर ने प्रसन्न होकर उसे अपना इन्द्रियातीत निज स्वरूप दिखलाया ॥ १२ ॥

भगवान्‌ शंकर को देखकर देह में जैसे प्राण आ जाय वैसे सहसा खड़ी हो गई और तप से दुर्बल होने पर भी वह बाला उस समय हृष्टपुष्ट हो गयी ॥ १३ ॥

बहुत वायु और घाम से क्लेश पाई हुई वह शंकर को बहुत अच्छी लगी और उस कन्या ने झुककर पार्वतीपति शंकरजी को प्रणाम किया ॥ १४ ॥

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मानसैरुपचारैस्तं सम्पूज्य विश्ववन्दितम्‌, तुष्टाव जगतां नाथं भक्तियुक्ते न चेतसा ॥ १५ ॥

बालोवाच :-

अये शैलजावल्लभ प्राणनाथ प्रभो भर्ग भूतेश गौरीश शम्भो, तमःसोमसूर्याग्निदिव्यत्रिनेत्र मदाधार मुण्डास्थिमालिन्नमस्ते ॥ १६ ॥

नरोऽनेकतापाभिभूताङ्गपीडः परे घोरसंसारवार्धो निमग्नः, स्वलव्यालकालोग्रदंद्राभिदष्टो विमुच्येद्भवन्तं शरण्यं प्रपन्नः ॥ १७ ॥

विभो येन बाणः स्वकीयीकृतश्च मृता जीवितालर्कभूपालपत्नी, दयानाथ भूतेश चण्डीाश भव्य भवत्राण मृत्युञ्जय प्राणनाथ ॥ १८ ॥

मखध्वंसकर्तः समस्तारिहर्तः सदा सेवकानां भवध्वंसकर्तः, नमो जन्महर्तः पुरा सृष्टिकर्तस्त्वदीयानव प्राणनाथाघहर्तः ॥ १९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उन विश्वोवन्दित भगवान्‌ का मानसिक उपचारों से पूजन करके और भक्तियुक्त चित्त से जगत्‌ के नाथ की स्तुति करने लगी ॥ १५ ॥

कन्या बोली – हे पार्वतीप्रिय! हे प्राणनाथ! हे प्रभो! हे भर्ग! हे भूतेश! हे गौरीश! हे शम्भो! हे सोमसूर्याग्निनेत्र! हे तमः! हे मेरे आधार! मुण्डास्थिमालिन्‌! आपको प्रणाम है ॥ १६ ॥

अनेक तापों से व्याप्त है अंगों में पीड़ा जिसके ऐसा, तथा परम घोर संसाररूपी समुद्र में डूबा हुआ, दुष्ट सर्पों तथा काल के तीक्ष्ण दांतों से डँसा हुआ मनुष्य भी यदि आपकी शरण में आ जाए तो मुक्त हो जाता है ॥ १७ ॥

हे विभो! जिन आपने बाणासुर को अपनाया और मरी हुई अलर्क राजा की पत्नी को जिलाया ऐसे आप हे दयानाथ! भूतेश! चण्डीश! भव्य! भवत्राण! मृत्युञ्जय! प्राणनाथ! ॥ १८ ॥

हे दक्षप्रजापति के मख को ध्वंस करने वाले! हे समस्त शत्रुओं के नाशक! हे सदा भक्तों को संसार से छुड़ाने वाले! हे जन्म के हर्ता, हे प्रथम सृष्टि के कर्ता! हे प्राणनाथ! हे पाप के नाश करने वाले! आप को नमस्कार है। अपने सेवकों की रक्षा कीजिये ॥ १९ ॥

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इत्येवं मनसा वाचा शिवं स्तुत्वा तपस्विनी, विरराम महाभागा मेधावितनया नृप ॥ २० ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

तत्कृतं स्तोत्रमाकर्ण्य तपसोग्रतरेण च, प्रसन्नवदनाम्भोजस्तामुवाच सदाशिवः ॥ २१ ॥

शिव उवाच :-

वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वाञ्छितः, प्रसन्नोऽस्मि महाभागे मा मा खिद तपस्विनि ॥ २२ ॥

तदाकर्ण्य कुमारीयं महानन्दपरिप्लुता, उवाच वचनं राजन्‌ सुप्रसन्नं सदाशिवम्‌ ॥ २३ ॥

बालोवाच :-

दीनानाथदयासिन्धो प्रसन्नश्चेन्ममोपरि ॥ तदा मत्कामितं देहि मा विलम्बं कुरु प्रभो ॥ २४ ॥

पतिं देहि पतिं मह्मं पतिं पतिमहं वृणे, पतिं देहि महादेव नान्यन्मे चिन्तितं हृदि ॥ २५ ॥

एवमुक्त्वाप तदाऽऽर्षेयी विरराम कपर्दिनम्‌, तदाऽऽकर्ण्य महादेवो जगाद मुनिकन्यकाम्‌ ॥ २६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे नृप! बड़ी भाग्यवती मेधावी की तपस्विनी कन्या इस प्रकार मन से और वाणी से शंकर की स्तुति करके चुप हो गयी ॥ २० ॥

श्रीकृष्ण बोले – कन्या द्वारा की हुई स्तुति सुनकर और उसके किये हुए उग्रतप से प्रसन्न मुखकमल सदाशिव कन्या से बोले ॥ २१ ॥

हे तपस्विनि! तेरा कल्याण हो, तेरे मन में जो अभीष्ट हो वह वर तू माँग, हे महाभागे! मैं प्रसन्न हूँ, तू खेद मत कर ॥ २२ ॥

ऐसा भगवान्‌ शंकर का वचन सुन वह कुमारी अत्यन्त आनन्द को  प्राप्त हुई और हे राजन्‌! प्रसन्न हुए सदाशिव से बोली ॥ २३ ॥

कन्या बोली – हे दीनानाथ! हे दयासिन्धो! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो हे प्रभो! मेरी कामना पूर्ण करने में देर न करें ॥ २४ ॥

हे महादेव! मुझको पति दीजिये, पति दीजिये, पति दीजिये, मैं पति चाहती हूँ, पति दीजिये, मैंने हृदय में और कुछ नहीं सोचा है ॥ २५ ॥

वह ऋषिकन्या इस प्रकार महादेव से कह कर चुप हो गयी तब यह सुन कर महादेव जी उससे बोले ॥ २६ ॥

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शिव उवाच :-

त्वया यत्स्वमुखेनोक्तं तदस्तु मुनिकन्यके, पञ्चकृत्वस्त्वया यस्मात्‌ पतिः सम्प्रर्थितोऽधुना ॥ २७ ॥

तस्मात्‌ पञ्च भविष्यन्ति पतयस्तव सुन्दरि, शूराः सकलधर्मज्ञाः साधवः सत्यविक्रमाः ॥ २८ ॥

यज्वानः स्वगुणख्याताः सत्यसन्धा जितेन्द्रियाः, त्वन्मुखप्रेक्षकाः सर्वे राजन्या गुणशालिनः॥ २९ ॥

श्रीकृष्ण उवाच “-

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य धूर्जटैरनतिप्रियम्‌, उवाचावनता भूत्वा बाला वाक्यविशारदा ॥ ३० ॥

बालोवाच :-

एवं मे गिरिजाकान्त मास्तु लोकेऽतिकैतुकम्‌, एकस्या एक एवास्ति भर्ता नार्याः सदाशिव ॥ ३१ ॥

न दृष्टा॥ न श्रुता क्वोपि नार्येका पञ्चभर्तृका, एकस्य पञ्च पत्य्रदास्तु पुरुषस्य भवन्ति हि ॥ ३२ ॥

त्वदीयाहं कथं शम्भो भवेयं पञ्चभर्तृका, नैवार्हसि वचस्त्वेवं मयि वक्तुं  कृपानिधे ॥ ३३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

शिव बोले – हे मुनिकन्यके! तूने जैसा अपने मुख से कहा है, वैसा ही होगा क्योंकि तूने पाँच बार पति माँगा है ॥ २७ ॥

अतः हे सुन्दरी! तेरे पाँच पति होंगे और वे पाँचों वीर, सर्वधर्मवेत्ता, सज्जन, सत्यपराक्रमी ॥ २८ ॥

यज्ञ करनेवाले, अपने गुणों से प्रसिद्ध, सत्य प्रसिद्ध जितेन्द्रिय, तेरा मुख देखने वाले,सभी क्षत्रीय और गुणवान्‌ होंगे ॥ २९ ॥

श्रीकृष्ण बोले – न तो अधिक प्रिय, न तो अधिक अप्रिय ऐसे महादेव के बचन को सुनकर, बोलने में चतुरा कन्या झुककर बोली ॥ ३० ॥

बाला बोली – हे गिरिजाकान्त! सदाशिव! संसार में एक स्त्री का एक ही पति होता है, अतः पाँच पति का वर देकर, लोक में मेरी हँसी न कराइये ॥ ३१ ॥

एक स्त्री पाँच पतिवाली न देखी गयी है और न सुनी गयी है, हाँ, एक पुरुष की पाँच स्त्रियाँ तो हो सकती हैं ॥ ३२ ॥

हे शम्भो हे कृपानिधे! आपकी सेविका मैं पाँच पतियों वाली कैसे हो सकती हूँ आपको मेरे लिये ऐसा कहना उचित नहीं है ॥ ३३ ॥

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तवैव जायते लज्जा त्वदीयाहं यतः प्रभो, इत्याकर्ण्य वचस्तस्याः शंङ्करः प्राह तां पुनः ॥ ३४ ॥

शिव उवाच :-

मास्तु तेऽस्मिन्‌ भवे भीरु भव्यं तत्परजन्मनि, अयोनिसम्भवा तत्र भविष्यसि तपोबलात्‌ ॥ ३५ ॥

भर्तृजं सुखमासाद्य ततो गर्न्त्री परं पदम्‌, दुर्वासा मे प्रियो मूर्तिः स त्वयाऽवमतः पुरा ॥ ३६ ॥

स चेत्‌ कोपावृतः सुभ्रु निर्दहेद्‌भुवनत्रयम्‌, त्वया गर्वातिरेकेण ब्रह्मतेजःप्रमर्दितम्‌ ॥ ३७ ॥

पुरुषोत्तमस्त्वया मासो न कृतो भगवत्प्रियः, यस्मिन्नर्पितमैश्वयर्यं श्रीकृष्णेनात्मनः स्वकम्‌ ॥ ३८ ॥

अहं ब्रह्मादयो देवा नारदाद्यास्तपस्विनः, यदादेशकरा बाले तदाज्ञां को विलङ्घयेत्‌ ॥ ३९ ॥

स मासो न त्वया मूढे पूजितो लोकपूजितः, अतस्ते पञ्च भर्तारो भविष्यन्ति द्विजात्मजे ॥ ४० ॥

नान्यथा भावि तद्‌बाले पुरुषोत्तमखण्डनात्‌, यो वै निन्दति तं मासं स याति घोररौरवम्‌ ॥ ४१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

आपकी सेविका होने के कारण जो लज्जा मुझे हो रही है, वह आप अपने को ही समझिये, कन्या का यह वचन सुनकर शंकरजी पुनः उससे बोले ॥ ३४ ॥

शंकरजी बोले – हे भीरु! इस जन्म में तुझे पति सुख नहीं मिलेगा, दूसरे जन्म में जब तू तपोबल से बिना योनि के उत्पन्न होगी ॥ ३५ ॥

तब पति सुख को भोग कर अनन्तर परमपद्‌ को प्राप्त होगी क्योंकि मेरी प्रिय मूर्ति दुर्वासा का तूने पहिले अपमान किया है ॥ ३६ ॥

हे सुभ्रु! वह दुर्वासा यदि क्रोध करें तो तीनों भुवनों को जला सकते हैं सो तूने अभिमान वश ब्रह्मतेज का मर्दन किया है ॥ ३७ ॥

जिस अधिमास को भगवान्‌ कृष्ण ने अपना ऐश्व र्य दे दिया उस भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तममास का व्रत तूने नहीं किया ॥ ३८ ॥

मैं ब्रह्मा आदि से लेकर सब देवता, नारद आदि से लेकर सब तपस्वी, जिसकी आज्ञा सदा मानते चले आये हैं, हे बाले! उसकी आज्ञा का कौन उलंघन करता है? ॥ ३९ ॥

लोकपूजित पुरुषोत्तम मास की दुर्वासा की आज्ञा से तूने पूजा नहीं की हे मूढ़े! द्विजात्मजे! इसी लिये तेरे पाँच पति होंगे ॥ ४० ॥

हे बाले! पुरुषोत्तम के अनादर करने से अब अन्यथा नहीं हो सकता है, जो उस पुरुषोत्तम की निन्दा करता है वह रौरव नरक का भागी होता है ॥ ४१ ॥

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विपरीतं भवेत्तस्य न कदाप्यन्यथा भवेत्‌, पुरुषोत्तमस्य ये भक्ताः पुत्रपौत्रधनान्विताः ॥ ४२ ॥

परत्रेहभवां सिद्धि याता यास्यन्ति यान्ति च, वयं सर्वेऽपि गीर्वाणाः पुरुषोत्तमसेविनः ॥ ४३ ॥

यस्मिन्‌ संसेविते शीघ्रं मीयते पुरुषोत्तमः, सेवनीयं कथं मासं न भजामः सुमध्यमे ॥ ४४ ॥

अत्युत्कहटानां महतां वचो मिथ्या कथं वद, अनुनेया हि मुनयः सदसद्वादवादिनः ॥ ४५ ॥

वदन्नेवं नीलकण्ठः क्षिप्रमन्तर्दधे हरिः, चकिता साऽभवद्‌ बाला यूथभ्रष्टा मृगी यथा ॥ ४६ ॥

सूत उवाच :-

शशाङ्कंलेखाङ्कितभालदेशे सदाशिवे शैवदिशं प्रयाते, चिन्ता बबाधे मुनिराजकन्यां हत्वा यथा वृत्रहणं मुनीशाः ॥ ४७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये शिववाक्यं नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हिंदी अनुवाद :-

पुरुषोत्तम का अपमान करने वाले को विपरीत ही फल होता है, यह बात कभी अन्यथा नहीं हो सकती है, पुरुषोत्तम के जो भक्त हैं वे पुत्र, पौत्र और धनवाले होते हैं ॥ ४२ ॥

और वे इस लोक को तथा परलोक की सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, प्राप्त होंगे और प्राप्त हो रहे हैं और हम सब देवता लोग भी पुरुषोत्तम की सेवा करने वाले हैं ॥ ४३ ॥

जिस पुरुषोत्तम मास में व्रतादिक से पुरुषोत्तम शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं उस सेवा करने योग्य मास को हे सुमध्यमे! हम लोग कैसे न भजें? ॥ ४४ ॥

उचित और अनुचित विचार की चर्चा करने वाले अतएव अनुकरणीय जो मुनि हैं उन अति उत्कट श्रेष्ठ तपस्वी पुरुषों का वचन कैसे मिथ्या हो सकता है? कहो ॥ ४५ ॥

इस प्रकार कथन करते हुए भगवान्‌ नीलकण्ठ शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये और वह बाला यूथ से भ्रष्ट मृगी की तरह चकित सी हो गयी ॥ ४६ ॥

सूतजी बोले – हे मुनीश! रेखासदृश चन्द्रमा से युक्त मस्तकवाले सदाशिव जब उत्तर दिशा के प्रति चले गये तब वृत्रासुर को मारकर जैसे इन्द्र को चिन्ता हुई थी उसी प्रकार मुनिराज की कन्या को चिन्ता बाधा करने लगी ॥ ४७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये एकादशोऽध्यायः समाप्तः ॥ ११ ॥

अध्याय १२ – पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो

मुख्य सुचि

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