🌷 अध्याय १२ – पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो 🌷

 

नारद उवाच :-

शितिकण्ठेश गते नाथ बाला किमकरोच्छुचा, शुश्रूषवे विनिताय वद तद्धर्मसिद्धये ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

एवमेव पुरा पृष्ठ: श्रीकृष्ण: पाण्डुसूनुना, यदुवाच वचो राज्ञे तन्मे निगदतः श्रृणु ॥ २ ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

एवं गते शिवे राजन्‌ सा बालाविगतप्रभा, निःश्वासपरमा भीता साश्रु नेत्रा कृशोदरी ॥ ३ ॥

हृदयाग्युण उ त्थितज्ज्वा लाज्वलिताङ्गी कुमारिका, दावाग्निदग्धभपत्रा सा लतेवासीत्तपस्विनी ॥ ४ ॥

दुःखमीर्ष्यामाप्तवत्यामेवं कालो महान्‌ गतः, असौ तामवचस्कन्द ताद्दशीं तापसीं प्रभुः ॥ ५ ॥

सहसा तां समापन्नां फणीवाखुनिवेशनम्‌ ॥ इति कालेन बलिना वशं नीता तपस्विनी ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नारदजी बोले – जब भगवान् शंकर चले गये तब हे प्रभो! उस बाला ने शोककर क्या किया! सो मुझ विनीत को धर्मसिद्धि के लिए कहिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले – इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से पूछा था सो भगवान् ने राजा के प्रति जो कहा सो हम तुमसे कहते हैं सुनो ॥ २ ॥

श्रीकृष्ण बोले – हे राजन! इस प्रकार जब शिवजी चले गये तब वह बाला प्रभावित हो गयी और लम्बे श्वास लेती हुई, बड़ी डरी और वह कृशोदरी अश्रुपातपूर्वक रोने लगी ॥ ३ ॥

हृदयाग्नि से उठी हुई ज्वाला से जलते हुए अंगवाली वह तपस्विनी कन्या वनाग्नि से जले हुए पत्ते वाली लता की तरह हो गयी ॥ ४ ॥

दुःख और ईर्ष्या को प्राप्त उस कन्या का बहुत समय व्यतीत हो गया, जिस प्रकार चूहे के बिल में घुसकर आक्रमण करके सर्प उसे वश में कर लेता है उसी प्रकार उपर्युक्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त उस तपस्विनी बाला पर उस प्रभु काल ने आक्रमण कर उसे वश में कर लिया ॥ ५-६ ॥

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प्रावृण्मेघावृते व्योम्नि विद्युत्सौदामिनी यथा, तथाऽऽश्रमे स्वके नष्टा तपसा दग्धकल्मषा ॥ ७ ॥

तदानीमेव धर्मिष्ठो यज्ञसेनो नराधिपः, बृहत्सम्भारसम्पन्नमकरोद्यज्ञमुत्तमम्‌ ॥ ८ ॥

तद्यज्ञकुण्डादुद्‌भूता कुमारी कनकप्रभा, सेयं द्रुपदशार्दूलतनया प्रथिता भुवि ॥ ९ ॥

द्रौपदी सर्वलोकेषु ह्यार्षेयी या पुराऽभवत्, सेयं स्वयंवरे राजन् मत्स्यवेधे कृते सति ॥ १० ॥

लब्धार्जुनेन पाञ्चाली क्षुभिते राजमण्डे, तृणीकृत्य नृपान् सर्वान् भीष्मकर्णादिकान्‌ बहून् ॥ ११ ॥

सेयं कचग्रहं प्राप्ता दुष्टदुःशासनान्मुने, वचांसि कर्णशूलानि श्राविता वरवणिंनी ॥ १२ ॥

मया चोपेक्षिता राजन् पुरुषोत्तमहेलनात्, यदा मयि कृतस्नेहा मन्नामान्यवदन्मुहुः ॥ १३ ॥

दामोदर दयासिन्धो कृष्ण-कृष्ण जगत्पते, हे नाथ हे रमानाथ केशव क्लेशनाशन ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

वर्षा ऋतु में मेघ से घिरे हुए आकाश में बिजली चमक कर जैसे नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार तपस्या से जले हुए पापवाली वह कन्या अपने आश्रम में मर गयी ॥ ७ ॥

उसी समय धर्मिष्ठ यज्ञसेन नामक राजा ने बड़ी सामग्रियों से युक्त उत्तम यज्ञ किया ॥ ८ ॥

उस यज्ञकुण्ड से सुवर्ण के समान कान्ति वाली एक लड़की उत्पन्न हुई, वही कुमारी द्रुपदराज की कन्या के नाम से संसार में विख्यात हुई ॥ ९ ॥

पहिले जो मेधावी ऋषि की कन्या थी, वही सब लोकों में द्रौपदी नाम से प्रसिद्ध हुई, उसी को स्वयंवर में मछली को वेधकर ॥ १० ॥

भीष्म कर्ण आदि बहुत से राजाओं को तृण के समान कर क्षुभित रजमण्डदल में अर्जुन ने पांचाली को पाया ॥ ११ ॥

हे मुने! वही द्रौपदी दुष्ट दुःशासन द्वारा बाल पकड़ कर खींची गयी और उसे हृदय  विदीर्ण करने वाले वचन सुनाये गये ॥ १२ ॥

पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण मैंने भी उसकी उपेक्षा की, जब वह मेरे में स्नेह करके मेरा नाम बराबर लेने लगी ॥ १३ ॥

हे दामोदर! हे दयासिन्धो! हे कृष्ण! हे जगत्पते! हे नाथ रमानाथ! हे केशव! हे क्लेशनाशन! ॥ १४ ॥

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न माता न तातो न च भ्रातृवर्गो न सख्यो न जातिर्न वै भागिनेयः, न बन्धुर्न चेष्टो न वै प्राणनाथो हृषीकेश सर्वं भवानेव मेऽस्ति ॥ १५ ॥

गोविन्द गोपिकानाथ दीनबन्धो दयानिधे, दुःशासनपराभूतां किं न जानासि मां प्रभो ॥ १६ ॥

दुःशासनपराभूता तदा द्रुपदनन्दिनी, मदीयं स्मरणं प्राप्ता विस्मृताऽपि मया पुरा ॥ १७ ॥

शीघ्रं गरुडमारुह्य तत्राऽऽगत्य स्थितेन वै, पूरितानि मया राजन्नस्यै वासांस्यनेकशः ॥ १८ ॥

सदा मयिकृतस्नेहा मत्प्राणा मत्परायणा, ममातिवल्लभा साध्वी सखी मे प्राणसन्निभा ॥ १९ ॥

तथाप्युपेक्षितेयं सा पुरुषोत्तमहेलनात्‌, हरिवल्लभमासस्यावमन्तुः पातनं मया ॥ २० ॥

निश्चितं मुनिदेवानां सेव्योऽयं पुरुषोत्तमः, किं पुनर्मानुषाणां तु सर्वार्थफलदायकः ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

मेरे माता, पिता, भ्रातृवर्ग, सहेलियें, बहिन, भाञ्जे, बन्धु, इष्ट, पति आदि कोई भी नहीं है, हे हृषीकेश! मेरे तो आप ही सब कुछ हैं ॥ १५ ॥

हे गोविन्द! हे गोपिकानाथ! दीनबन्धो! दयानिधे! दुःशासन से आक्रमण की गई मुझे क्या आप नहीं जानते ॥ १६ ॥

यद्यपि पहली पुकार में मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था, पर जब दुःशासन से पराभूत होकर उसने मेरा पुनः स्मरण किया ॥ १७ ॥

तब गरुड़ पर चढ़ शीघ्र वहाँ पहुँच कर मैंने हे राजन्‌! उसे बहुत से वस्त्रों से परिपूर्ण कर दिया ॥ १८ ॥

सदा मेरे में स्नेह करने वाली, मैं ही हूँ प्राण जिसके ऐसी, सदा मेरे भजन में परायण, मेरी अत्यन्त प्रिया, सती, सखी, मुझको प्राणों के समान होने पर भी पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण उसकी उपेक्षा करनी पड़ी, पुरुषोत्तम का तिरस्कार करने वाले का मैं पतन कर देता हूँ ॥ १९-२० ॥

यह पुरुषोत्तम मुनियों और देवताओं से भी सेव्य है, फिर समस्त कामनाओं को देने वाला यह पुरुषोत्तम मनुष्यों द्वारा तो सेवनीय है ही ॥ २१ ॥

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तस्मादाराधयस्वैनमागामि पुरुषोत्तमम्‌, वर्षे चतुर्दशे पूर्णे सर्वं ते भविता शुभम्‌ ॥ २२ ॥

व्यलोकि यैर्द्रौपद्याः केशाकृष्टि पाण्डुनन्दन, तन्नारीणामहं राजन्निर्वपिष्येऽलकान्‌ रुषा ॥ २३ ॥

सुयोधनादिभूपालान्‌ सर्वान्नेष्ये यमालयम्‌, सर्वशत्रुक्षयंकृत्वा त्वं च राजा भविष्यसि ॥ २४ ॥

न मे क्षीरोदतनया प्रिया नापि हलायुधः, न तथा देवकी देवी न प्रद्युम्नो न सात्यकिः ॥ २५ ॥

यादृशा मे प्रिया भक्ताास्तादृशो नास्ति कश्चन, येन मे पीडिता भक्ताास्तेनाहं पीडितः सदा ॥ २६ ॥

द्वेष्यो मे नास्ति तत्तुल्यो यमस्तस्य फलप्रदः, नाऽवलोक्यो मया दुष्टो दण्डार्थमपि पाण्डव ॥ २७ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

श्रीकृष्णस्तान्‌ समाश्वोस्य पाण्डवान्‌ द्रौपदीं तथा, कुशस्थलीं जिगमिषुरुवाच मधुसूदनः ॥ २८ ॥

राजन्नद्य गमिष्यामि द्वारकां विरहाकुलाम्‌, वसुदेवो महाभागो बलदेवो ममाग्रजः ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

अतः आगामी पुरुषोत्तम की आराधना करो, चौदह वर्ष के सम्पूर्ण होने पर तुम्हारा कल्याण होगा ॥ २२ ॥

हे पाण्डुनन्दन! जिन पुरुषों ने द्रौपदी के बालों को खींचते हुए देखा है, हे महाराज! उनकी स्त्रियों की अलकों को मैं क्रोध से काटूँगा ॥ २३ ॥

दुर्योधन आदि राजाओं को यमराज के भवन को पहुँचाऊँगा, बाद तुम समस्त शत्रुओं का नाश कर राजा होंगे ॥ २४ ॥

न मेरे को लक्ष्मी प्रिय, न मेरे को बलभद्र जी प्रिय और न वैसे मेरे को देवी देवकी, न प्रद्युम्न, न सात्यकि प्रिय हैं ॥ २५ ॥

जैसे मेरे को भक्त प्रिय हैं, वैसा कोई प्रिय नहीं है, जिसने मेरे भक्तों को पीड़ित किया उससे मैं सदा पीड़ित रहता हूँ ॥ २६ ॥

हे पाण्डव! उसके समान मेरा अन्य कोई शत्रु नहीं है, उसके अपराध का फल देने वाला यमराज है क्योंकि वह दुष्ट दण्ड देने के लिए भी मेरे से देखने के योग्य नहीं है ॥ २७ ॥

श्रीनारायण बोले – श्रीकृष्ण ने उन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादिकों को और द्रौपदी को समझा कर द्वारका जाने की इच्छा से कहा ॥ २८ ॥

हे राजन्‌! वियोग से व्याकुल द्वारका पुरी को आज जाऊँगा जहाँ पर महाभाग वसुदेव जी, हमारे बड़े भाई बलदेवजी ॥ २९ ॥

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मन्माता देवकी देवी गदसाम्बादयोऽपरे, आहुकाद्याश्च यादवो रुक्मिण्याद्याश्च याः स्त्रियः ॥ ३० ॥

सर्वे तेऽनिमिषैर्नेत्रैर्मदागमनकाङ्‌क्षिणः, मामेव चिन्तयन्त्येवं मद्दर्शनसमुत्सुकाः ॥ ३१ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इत्युक्तवन्तं देवेशं कथञ्चिपाण्डुनन्दनाः, हरिप्रयाणमालक्ष्य तमूचुर्गद्गदाक्षरम्‌ ॥ ३२ ॥

जीवनं नो भवानेव यथा वारि जलौकसाम्‌, पुनर्दर्शनमल्पेन कालेनाऽस्तु जनार्दन ॥ ३३ ॥

पाण्डवानां हरिर्नाथो नान्यः कश्चिज्जगत्त्रये, इत्थं सर्वे वदन्त्यद्धा तस्मान्नः पाहि सर्वदा ॥ ३४ ॥

न विस्मार्या वयं सर्वे त्वदीया जगदीश्वर, अस्मच्चेतो मिलिन्दानां जीवनं त्वत्पदाम्बुजम्‌ ॥ ३५ ॥

मुहुर्मुहुः प्रार्थयामो भवानेवावलम्बनम्‌, असकृत्पाण्डुपुत्रेषु गृणत्स्वेवं यदूद्वहः ॥ ३६ ॥

मन्दं मन्दं समारुह्य रथं प्रेमपरिप्लुतः, ययौ द्वारवतीमेतान्‌ परावृत्यानुगच्छतः ॥ ३७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हमारी माता देवी देवकी तथा गद, साम्ब आदि और आहुक आदि यादव, रुक्मिणी आदि जो स्त्रियाँ हैं ॥ ३० ॥

दर्शन की उत्कण्ठा वाले वे सब हमारे आगमन की कामना से टकटकी लगाकर हमारा ही चिन्तन करते होंगे ॥ ३१ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार कहते हुए देवेश श्रीकृष्ण के गमन को जानकर पाण्डु-पुत्र किस प्रकार गद्‌गद कण्ठ से बोले ॥ ३२ ॥

जिस प्रकार जल में रहने वालों का जीवन जल है उसी तरह हम लोगों के जीवन तो आप ही हैं, हे जनार्दन! थोड़े ही दिनों के बाद फिर दर्शन हों ॥ ३३ ॥

पाण्डवों के नाथ हरि हैं और तीनों लोको में दूसरा कोई नहीं है, इस प्रकार सामने ही सब लोग कहते हैं अतः हम लोगों की हमेशा रक्षा करें ॥ ३४ ॥

हे जगदीश्वमर! हम लोग आप के हैं, भूलियेगा नहीं, हम लोगों के चित्तरूपी भ्रमरों का जीवन आपका चरण कमल ही है ॥ ३५ ॥

आप ही हमारे आधार हैं, इसलिए बारम्बार हम सब प्रार्थना करते हैं, इन पाण्डुपुत्रों के निरन्तर इस तरह कहते रहने पर श्रीकृष्णचन्द्र ॥ ३६ ॥

प्रेमानन्द में मग्न होकर धीरे-धीरे रथ पर सवार होकर पीछे चलने वाले पाण्डुपुत्रों को लौटाकर द्वारका पुरी को गये ॥ ३७ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

अथ श्रीद्वारकानाथे गते द्वारवतीं तदा, राजापि सानुजस्तप्यंस्तीर्थानि विचचार ह ॥ ३८ ॥

पुरुषोत्तमे मनः कृत्वा ब्रह्मन्‌ श्रीभगवत्प्रिये, अनुजानीहि कृष्णां च विष्वक्‌सेनवचः स्मरन्‌ ॥ ३९ ॥

अहो श्रुतमतीवोग्रं माहात्म्यं पौरुषोत्तमम्‌, कथं सुखानि लभ्यन्ते नाभ्यर्च्य पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ४० ॥

स धन्यो भारते वर्षे स पूज्यः श्रेष्ठ एव सः, विविधैर्नियमैर्यस्तु पूजयेत्पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ४१ ॥

एवं सर्वेषु तीर्थेषु भ्रमन्तः पाण्डुनन्दनाः, पुरुषोत्तममासाद्य व्रतं चेरुर्विधानतः ॥ ४२ ॥

तदन्ते राज्यमतुलमवापुर्गतकण्टकम्‌, पूर्णे चतुर्दशे वर्षे श्रीकृष्णकृपया मुने ॥ ४३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – इसके बाद श्रीद्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारका पुरी जाने पर, राजा युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों के साथ तप करते हुए तीर्थों मे भ्रमण करते भये ॥ ३८ ॥

हे ब्रह्मन्‌! नारद! भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तम मास में मन लगाकर और श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का स्मरण करते हुए, अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से राजा युधिष्ठिर बोले – ॥ ३९ ॥

अहो! पुरुषोत्तम मास में होने वाले अत्यन्त उग्र पुरुषोत्तम का माहात्म्य सुना है, पुरुषोत्तम भगवान्‌ के पूजन किये बिना सुख किस तरह मिलेगा? ॥ ४० ॥

इस भारतवर्ष में वह धन्य है, वह पूज्य है, वही श्रेष्ठ है, जो अनेक प्रकार के नियमों से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजनार्चन किया करता है ॥ ४१ ॥

इस तरह समस्त तीर्थों में भ्रमण करते हुए पाण्डुपुत्र पुरुषोत्तम मास के आने पर विधिपूर्वक व्रत करते भये ॥ ४२ ॥

हे मुने! नारद! व्रत के अन्त में चौदह वर्ष के पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण भगवान्‌ की कृपा से अतुल निष्कण्टक राज्य को प्राप्त किये ॥ ४३ ॥

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दृढधन्वा नृपः पूर्वं सूर्यवंशसमुद्भवः, पुरुषोत्तममासस्य सेवनान्महतों श्रियम्‌ ॥ ४४ ॥

पुत्रपौत्रसुखं चैव भुक्त्वां भोगाननेकशः, जगाम भगवल्लोकमगम्यं योगिनामपि ॥ ४५ ॥

एतन्मासस्य माहात्म्यमतुलं मुनिसत्तम, नाहं वक्तुंः समर्थोऽस्मि कल्पकोटिशतैरपि ॥ ४६ ॥

सूत उवाच :-

पुरुषोत्तममासस्य कृष्णद्वैपायनादहम्‌, माहात्म्यं श्रुतवान्‌ विप्रा वक्तुंक तदपि न प्रभुः ॥ ४७ ॥

अस्य माहात्म्यमखिलं वेत्ति नारायणः स्वयम्‌, अथवा भगवान्‌ साक्षाद्वैकुण्ठनिलया हरिः ॥ ४८ ॥

ब्रह्मादिदेवानतपादपीठगोलोकनाथेन स्वकीकृतस्य, माहात्म्यमेतत्पुरुषोत्तमस्य देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ॥ ४९ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तमासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

पूर्वकाल में सूर्यवंश में होने वाला दृढ़धन्वा नाम का राजा पुरुषोत्तम मास के सेवन से बड़ी लक्ष्मी ॥ ४४ ॥

पुत्र पौत्र का सुख और अनेक प्रकार के भोगों को भोगकर, योगियों को भी दुर्लभ जो भगवान्‌ का वैकुण्ठ लोक है वहाँ गया ॥ ४५ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! नारद! इस पुरुषोत्तम मास के अतुल माहात्य को करोड़ों कल्प समय मिलने पर भी मैं कहने को समर्थ नहीं हूँ ॥ ४६ ॥

सूतजी बोले – हे विप्र लोग! पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य कृष्णद्वैपायन (व्यास जी) से मैंने सुना है तथापि कहने को मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ४७ ॥

इस पुरुषोत्तम मास के अखिल माहात्म्य को स्वयं नारायण जानते हैं या साक्षात्‌ वैकुण्ठवासी हरि भगवान्‌ जानते हैं ॥ ४८ ॥

परन्तु ब्रह्मादि देवताओं से नमस्कार किये जाने वाले हैं चरणपीठ जिनके, ऐसे गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र भी अपनाये हुए पुरुषोत्तम मास का सम्पूर्ण माहात्म्य नहीं जानते हैं तो मनुष्य कहाँ से जान सकता है? ॥ ४९ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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