ऋषय ऊचुः :-
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर, दृढधन्वा कथं प्राप पुरुषोत्तमसेवनात् ॥ १ ॥
सौराज्यं पुत्रपौत्रादीन् ललनां च पतिव्रताम्, कथं च भगवल्लोकमवाप योगिदुर्लभम् ॥ २ ॥
श्रृण्वतां ते मुखाम्भोजात् कथासारं मुहुर्मुहुः, अलं बुद्धिर्न नस्तात यथा पीयूषपानतः ॥ ३ ॥
अतो विस्तरतो ब्रूहि इतिहासं पुरातनम्, अस्मद्भग्यबलेनौव धात्रा संदर्शितो भवान् ॥ ४ ॥
सूत उवाच :-
सनातनमुनिर्विप्रा नारदाय पुरातनम्, इतिहासमुवाचेमं स एव प्रोच्यतेऽधुना ॥ ५ ॥
श्रृण्वन्तु मुनयः सर्वे चरित्रं पापनाशनम्, यथाधीतं गुरुमुखाद्राज्ञो वै दृढधन्वनः ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
ऋषि लोग बोले – हे सूत! हे महाभाग! हे सूत! हे बोलने वालों में श्रेष्ठ! पुरुषोत्तम के सेवन से राजा दृढ़धन्वा शोभन राज्य, पुत्र आदि तथा पतिव्रता स्त्री को किस तरह प्राप्त किया और योगियों को भी दुर्लभ भगवान् के लोक को किस तरह प्राप्त हुआ? ॥ १-२ ॥
हे तात! आपके मुखकमल से बार-बार कथासार सुनने वाले हम लोगों को अमृत-पान करने वालों के समान कथामृत-पान से तृप्ति नहीं होती है ॥ ३ ॥
इस कारण से इस पुरातन इतिहास को विस्तार पूर्वक कहिये, हमारे भाग्य के बल से ही ब्रह्मा ने आपको दिखलाया है ॥ ४ ॥
सूतजी बोले – हे विप्र लोग! सनातन मुनि नारायण ने इस पुरातन इतिहास को नारद जी के प्रति कहा है, वही इतिहास इस समय मैं आप लोगों से कहता हूँ ॥ ५ ॥
मैंने जैसा गुरु के मुख से राजा दृढ़धन्वा का पापनाशक चरित्र पढ़ा है उसको सब मुनि श्रवण करें ॥ ६ ॥
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श्रीनारायण उवाच :-
श्रृणु राजन् प्रवक्ष्येऽहं भूपस्य दृढधन्वनः, कथां पुरातनीं रम्यां स्वर्धुनीमिव पावनीम् ॥ ७ ॥
आसीद्धैहयदेशस्य गोप्ता श्रीमान् महीपतिः, चित्रधर्मेति विख्यातो धीमान् सत्यपराक्रमः ॥ ८ ॥
तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी दृढधन्वेति विश्रुतः, स सर्वगुणसम्पन्नः सत्यवाग्धार्मिकः शुचिः ॥ ९ ॥
आकर्णान्तविशालाक्षः पृथुवक्षा महाभुजः, अवर्धत महातेजाः सार्धं गुणगणैरसौ ॥ १० ॥
अधीत्य साङ्गान्निगमांश्चतुरश्चतुरो मुदा, सकृन्निगदमात्रेण प्रागधीतानिव स्फुटम् ॥ ११ ॥
दक्षिणां गुरवे दत्त्वा सम्पूज्य विधिवच्च तम्, गुरोरनुज्ञया धीमान् पितुः पुरमजीगमत् ॥ १२ ॥
जनयन्नयनानन्दं निजपत्तनवासिनाम्, चित्रधर्माऽपि तं पुत्रं दृष्ट्वा लेभे परां मुदम् ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – हे ब्रह्मन्! नारद! सुनिये, मैं पवित्र करने वाली गंगा के समान राजा दृढ़धन्वा की सुन्दर तथा प्राचीन कथा कहूँगा ॥ ७ ॥
हैहय देश का रक्षक, श्रीमान् बुद्धिमान् तथा सत्यपराक्रमी चित्रधर्मा नाम का राजा भया ॥ ८ ॥
उसको दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध अति तेजस्वी, सब गुणों से युक्त, सत्य बोलने वाला, धर्मात्मा और पवित्र आचरण वाला पुत्र हुआ ॥ ९ ॥
कान तक लंबे नेत्र वाला, चौड़ी छाती वाला, बड़ी भुजा वाला, महातेजस्वी वह राजा दृढ़धन्वा प्रशस्त गुण समूहों के साथ-साथ बढ़ता भया ॥ १० ॥
वह चतुर राजा दृढ़धन्वा प्रसन्नता के साथ गुरु के मुख से एक बार कहने मात्र से पूर्व में पढ़े हुये के समान व्याकरण आदि छः अंगों के साथ चार वेदों का अध्ययन कर ॥ ११ ॥
गुरु को दक्षिणा देकर और विधि पूर्वक उनकी पूजा कर बुद्धिमान् राजा गुरु की आज्ञा से पिता चित्रधर्मा के पुर को गया ॥ १२ ॥
अपने नगर में वास करने वाले प्रजावर्ग के नेत्रों को आनन्दित करता हुआ, जिस पुत्र को देख कर राजा चित्रधर्मा भी अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुआ ॥ १३ ॥
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युवानं सर्वधर्मज्ञं प्रजानां पालने क्षमम्, अतः परं किमत्रास्ति संसारे सारवर्जिते ॥ १४ ॥
आराधयामि श्रीकृष्णं द्विभुजं मुरलीधरम्, प्रसन्नवदनं शान्तं भक्तानामभयप्रदम् ॥ १५ ॥
ध्रुवाम्बरीषशर्यातिययातिप्रमुखा नृपाः, शिविश्च रन्तिदेवश्च शशबिन्दुर्भगीरथः ॥ १६ ॥
भीष्मश्च विदुरश्चैव दुष्यन्तो भरतोऽपि वा, पृथुरुत्तानपादश्च प्रह्लादोऽथ विभीषणः ॥ १७ ॥
एते चान्ये च राजानस्त्यक्त्वा भोगाननेकशः, अध्रुवेण ध्रुवं प्राप्ता आराध्य पुरुषोत्तमम् ॥ १८ ॥
अतो मयापि कर्तव्यमरण्ये हरिसेवनम्, छित्त्वा स्नेहमयं पाशं दारागारसुतादिषु ॥ १९ ॥
इति निश्चित्य मनसा समर्थे दृढधन्वनि, धुरं न्यस्य जगामाशु विरक्तः पुलहाश्रमम् ॥ २० ॥
तत्र गत्वा तपस्तेपे श्रीकृष्णं मनसा स्मरन्, निस्पृहः सर्वकामेभ्यो निराहारो निरन्तरम् ॥ २१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
पुत्र जवान हो, सम्पूर्ण धर्म को जानने वाला हो और प्रजापालन में समर्थ हो, इससे बढ़ कर सारशून्य इस संसार में और क्या है? अर्थात् कुछ नहीं है ॥ १४ ॥
अब मैं दो भुजावाले, मुरली (वंशी) को धारण करने वाले, प्रसन्न मुख वाले, शान्त तथा भक्तों को अभय देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करता हूँ ॥ १५ ॥
जिस तरह ध्रुव, अम्बरीष, शर्धाति, ययाति प्रमुख राजा और शिवि, रन्तिदेव, शशबिन्दु, भगीरथ ॥ १६ ॥
भीष्म, विदुर, दुष्यन्त और भरत, पृथु, उत्तानपाद, प्रह्लाद, विभीषण ॥ १७ ॥
ये सब राजा तथा और अन्य राजा लोग भी अनेकों लोगों को त्याग कर, इस अनित्य शरीर से पुरुषोत्तम भगवान् का आराधन कर, नित्य (सदा रहनेवाले) विष्णुपद को चले गये ॥ १८ ॥
उसी तरह स्त्री, मकान पुत्र आदि में स्नेहमय बन्धन को तोड़कर वन में जाकर हरि का सेवन करना हमारा भी कर्तव्य है ॥ १९ ॥
ऐसा मन में निश्चय कर, समर्थ राजा दृढ़धन्वा को राज्य का भार देकर स्वयं विरक्त हो, शीघ्र पुलह ऋषि के आश्रम को चला गया ॥ २० ॥
वहाँ जाकर सम्पूर्ण कामनाओं से निस्पृह हो और भोजन त्याग कर हर समय मन से श्रीकृष्णचन्द्र का स्मरण करता हुआ तप करने लगा ॥ २१ ॥
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कियत्कालं तपस्तप्त्वा हरेर्धाम जगाम सः, दृढधन्वापि शुश्राव स्वपितुर्वैष्णवीं गतिम् ॥ २२ ॥
हर्षशोकसमाविष्टो ह्यकरोदौर्ध्वदेहिकम्, पितृभक्त्या महीपालो विद्वज्जनवचः स्थितः ॥ २३ ॥
पुष्करावर्तके पुण्ये नगरेऽत्यन्तशोभिते, राज्यं चकार भूपालो नीतिशास्त्रविशारदः ॥ २४ ॥
तस्य शीलवती भार्या नाम्ना या गुणसुन्दरी, विदर्भराजतनया रूपेणाप्रतिमा भुवि ॥ २५ ॥
पुत्रान् सा सुषुवे दिव्यांश्चतुरश्चतुराञ्छुभान्, पुत्रीं चारुमतीं नाम सर्वलक्षणसंयुताम् ॥ २६ ॥
चित्रवाक् चित्रवाहश्च मणिमांश्चित्रकुण्डलः, सर्वे ते मानिनः शूरा विख्याता नामभिः पृथक् ॥ २७ ॥
दृढधन्वा गु्णैः ख्यातः शान्तो दान्तो दृढव्रतः, रूपवान् गुणवाञ्छूरः श्रीमान् प्रकृतिसुन्दरः ॥ २८ ॥
वेदवेदाङ्गविद्वाग्मी धनुर्विद्याविशारदः, सुनिर्जितारिषड्वर्गः शत्रुसङ्घविदारणः ॥ २९ ॥
क्षमया पृथिवीतुल्यो गाम्भीर्ये सागरोपमः, पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ॥ ३० ॥
एकपत्नींव्रतधरो रघुनाथ इवापरः, अत्युग्रवीर्यः सद्धर्मी कार्तवीर्य इवापरः ॥ ३१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
कुछ समय तक तप करके वह राजा चित्रवर्मा हरि भगवान् के परम धाम को चला गया, राजा दृढ़धन्वा ने भी अपने पिता की वैष्णवी गति को सुना ॥ २२ ॥
उस समय पिता के परमधाम गमन से हर्ष और वियोग होने से शोक-युक्त राजा दृढ़धन्वा पितृ-भक्ति से विद्वानों के वचन में स्थित होकर, पारलौकिक क्रिया को करता भया ॥ २३ ॥
नीतिशास्त्र में विशारद (चतुर) राजा दृढ़धन्वा अत्यन्त शोभित पवित्र पुष्करावर्तक नगर में राज्य करने लगा ॥ २४ ॥
अच्छे स्वभाववाली विदर्भराज की कन्या उसकी स्त्री गुणसुन्दरी नाम की थी, पृथ्वी पर रूप में उसके समान दूसरी स्त्री नहीं थी ॥ २५ ॥
उस गुणसुन्दरी ने सुन्दर, चतुर, शुभ आचरण वाले चार पुत्रों को उत्पन्न किया और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त चारुमती नामक कन्या को उत्पन्न किया ॥ २६ ॥
चित्रवाक्, चित्रवाह, मणिमान् और चित्रकुण्डल नाम वाले वे सब बड़े मानी, शूर अपने-अपने नाम से पृथक् विख्यात होते भये ॥ २७ ॥
राजा दृढ़धन्वा गुणों करके प्रसिद्ध, शान्त, दान्त, दृढ़प्रतिज्ञ, रूपवान्, गुणवान्, वीर, श्रीमान्, स्वभाव से सुन्दर ॥ २८ ॥
चार वेद और व्याकरण आदि ६ अंगों को जानने वाला, वाग्मी (वाक्चतुर), धनुर्विद्या में निपुण, अरिषड्वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीतने वाला, और शत्रु-समुदाय का नाश करने वाला ॥ २९ ॥
क्षमा में पृथिवी के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान, समता (सम व्यवहार) में पितामह (ब्रह्मा) के समान, प्रसन्नता में शंकर के समान ॥ ३० ॥
एकपत्नी व्रत (एक ही स्त्री से विवाह करने का व्रत) को करने वाले दूसरे रामचन्द्र के समान, अत्यन्त उग्र पराक्रमशाली दूसरे कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) के समान था ॥ ३१ ॥
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श्रीनारायण उवाच :-
एकदा निशि सुप्तस्य चिन्ताऽऽसीत्तस्य भूपतेः, अहोऽयं वैभवः केन पुण्येन महताऽभवत् ॥ ३२ ॥
न मया च तपस्तप्तं न दत्तं न हुतं क्कचित्, कमिदं परिपृच्छामि मम भाग्यस्य कारणम् ॥ ३३ ॥
एवं चिन्तयतस्तस्य रजनी विरतिं गता, ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय स्नानं कृत्वा यथाविधि ॥ ३४ ॥
उपस्थायार्कमुद्यन्तं सन्तर्प्य भगवत्कलाः, दत्त्वा दानानि विप्रेभ्यो नमस्कृत्वाऽश्वमारुहत् ॥ ३५ ॥
ततोऽरण्यं जगामाशु मृगयासक्तमानसः, मृगान् वराहान् शार्दूलाञ्जघान गवयान्बहून् ॥ ३६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
नारायण बोले – एक समय रात्रि में शयन किये हुए उस राजा दृढ़धन्वा को चिन्ता हुई कि अहो! यह वैभव (सम्पत्ति) किस महान् पुण्य के कारण हमें प्राप्त हुआ है ॥ ३२ ॥
न तो मैंने तप किया, न तो दान दिया, न तो कहीं पर कुछ हवन ही किया। मैं इस भाग्योदय का कारण किससे पूछूँ ॥ ३३ ॥
इस प्रकार चिन्ता करते ही राजा दृढ़धन्वा की रात्रि बीत गई, प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर विधिपूर्वक स्नान कर ॥ ३४ ॥
उदय को प्राप्त सूर्यनारायण का उपस्थान कर, भगवान् की कला की पूजा कर अर्थात् देवमन्दिरों में जाकर देवता का पूजन कर, ब्राह्मणों को दान देकर तथा नमस्कार करके घोड़े पर सवार हो गया ॥ ३५ ॥
उसके बाद शिकार खेलने की इच्छा से शीघ्र वन को गया वहाँ पर बहुत से मृग, वराह (सूअर), सिंह और गवयों (चँवरी गाय) का शिकार किया ॥ ३६ ॥
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कश्चिन्मृगो हतोऽरण्ये बाणेन दृढधन्वना, वनाद्वनान्तरं यातो बाणमादय सत्वरम् ॥ ३७ ॥
शोणितस्रुतिमार्गेण राजाऽप्यनुययौ मृगम्, मृगः कुत्रापि संलीनो राजा बभ्राम तद्वनम् ॥ ३८ ॥
तृषाक्रान्तः स कासारं ददर्श सागरोपमम्, तत्र गत्वाशु पीत्वाऽसौ पानीयं तीरमागतः ॥ ३९ ॥
ततो ददर्श न्यग्रोधं घनच्छायं महातरुम्, तज्जटायां निबद्धयाश्वं निषसाद महीपतिः ॥ ४० ॥
तत्रागमत् खगः कश्चित् कीरः परमशोभनः, मानुषीमीरयन् वाणीमतुलां नृपमोहिनीम् ॥ ४१ ॥
शुकः पपाठ सुश्लो कमेकमेव पुनः पुनः, सम्बोध्य दृढधन्वानमेकाकिनमुपस्थितम् ॥ ४२ ॥
विद्यमानातुलसुखमालोक्यातीव भूतले, न चिन्तयसि तत्त्वं त्वं तत्कथं पारमेष्यसि ॥ ४३ ॥
वारं वारमिदं पद्यं पपाठ नृपतेः पुरः, श्रुत्वा तस्य वचो राजा मुमुहे मुमुदेऽपि च ॥ ४४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
उसी समय राजा दृढ़धन्वा के बाण से घायल होकर कोई मृग बाण सहित शीघ्र एक वन से दूसरे वन को चला गया ॥ ३७ ॥
रुधिर गिरे हुए मार्ग से राजा भी मृग के पीछे गया, परन्तु मृग कहीं झाड़ी में छिप गया और राजा उस वन में उसे खोजता ही रह गया ॥ ३८ ॥
पिपासा से व्याकुल उस राजा ने समुद्र के समान एक तालाब को देखा वहाँ जल्दी से जाकर और पानी पीकर तीर पर चला आया ॥ ३९ ॥
वहाँ घनी छाया वाले एक विशाल वट वृक्ष को देखा, उस वृक्ष की जटा में घोड़े को बाँधकर राजा वहीं बैठ गया ॥ ४० ॥
उसी समय वहाँ पर कोई एक परम सुन्दर सुग्गा राजा को मोहित करने वाली तुलना रहित मनुष्य वाणी को बोलता हुआ आया ॥ ४१ ॥
केवल राजा को बैठे देख उसको सम्बोधित करता हुआ एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा ॥ ४२ ॥
कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तू तत्त्व (आत्मा) का चिन्तन नहीं करता है तो इस संसार के पार को कैसे जायगा? ॥ ४३ ॥
बार-बार इस श्लोनक को राजा दृढ़धन्वा के सामने पढ़ने लगा, राजा उसके वचन को सुनकर प्रसन्न हुआ और उसपर मोहित हो गया ॥ ४४ ॥
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किमेतदुक्तवान् कीर एकं पद्यं पुनः पुनः, नारिकेलमिवागम्यं दुर्बोधं सारसम्भृतम् ॥ ४५ ॥
किं वा नायं भवेत् कृष्णद्वैपायनसुतः परः, श्रीकृष्णसेवकं मूढं मग्नं संसारसागरे ॥ ४६ ॥
विष्णुरातमिवोद्धर्तुं कृपया मां समागतः, इति चिन्तयतस्तस्य तत्सेना समुपागता ॥ ४७ ॥
कीरस्त्वदर्शनं प्राप्तो बोधयित्वा नराधिपम्, राजा स्वपुरमागत्य कीरवाक्यमनुस्मरन् ॥ ४८ ॥
वाच्यमानोऽपि नावोचद्विनिद्रस्त्यक्तभोजनः, राज्ञी रहः समागत्य राजानं पर्यपृच्छत ॥ ४९ ॥
गुणसुन्दर्युवाच भो भो पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं कुतः, उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भूपाल भुङ्क्ष्व भोगान् वचो वद ॥ ५० ॥
एवं स्त्रियाऽनुनीतोऽपि न किञ्चिदवदन्नृपः, स्मरन् शुकवचस्तथ्यं दुर्ज्ञेयममरैरपि ॥ ५१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
कि इस शुक पक्षी ने दुःख से जानने योग्य, सार भरे हुए नारिकेल फल के समान अगम्य एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ते हुए क्या कहा? ॥ ४५ ॥
क्या यह कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) के श्रेष्ठ पुत्र शुकदेवजी तो नहीं हैं? जो कि श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक मुझको मूढ़ और संसार सागर में डूबा हुआ देखकर ॥ ४६ ॥
राजा परीक्षित के समान कृपा कर उद्धार करने की इच्छा से मेरे पास आये हैं? इस तरह चिन्ता करते हुए राजा दृढ़धन्वा की सेना समीप आ गई ॥ ४७ ॥
शुक पक्षी राजा को उपदेश देकर स्वयं अन्तर्धान (अलक्षित) हो गया। उस शुकपक्षी के वचन को स्मरण करता हुआ राजा अपने पुर में आकर ॥ ४८ ॥
बुलाने पर भी नहीं बोलता है और निद्रा रहित हो उसने भोजन को भी त्याग दिया था, तब एकान्त में उसकी रानी ने आकर राजा से पूछा ॥ ४९ ॥
गुणसुन्दरी बोली – हे पुरुषों में श्रेष्ठ! यह मन में मलिनता क्यों हुई? हे भूपाल! पृथिवी के रक्षक! उठिये उठिये। भोगों को भोगिये और वचन बोलिए ॥ ५० ॥
देवताओं से भी दुःख से जानने योग्य उस शुक पक्षी के सत्य वचन का स्मरण करता हुआ रानी गुणसुन्दरी के प्रार्थना करने पर भी राजा दृढ़धन्वा कुछ नहीं बोला ॥ ५१ ॥
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साऽपि बाला विनिःश्वस्य भर्तृदुःखातिपीडिता ॥ न बुबोध निजस्वामिचिन्ताकारणमुत्कटम् ॥ ५२ ॥
एवं चिन्तानिमग्नस्य राज्ञः कालः कियान् गतः ॥ सन्देहसागरोत्तारे हेतुं नैवावलोकयत् ॥ ५३ ॥
नारद उवाच ॥ इति चिन्तयतो धरापतेर्वद जातं दृढधन्वनस्य किम् ॥ विमलं चरितं हि वैष्णवं कलुषं हन्ति मनाक्छ्रुतं मुने ॥ ५४ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने दृढधन्वनो मनःखेदो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
पति के दुःख से अत्यन्त पीड़ित वह रानी भी दीर्घ स्वाँस लेकर अपने स्वामी की चिन्ता के उत्कट कारण को नहीं जान सकी ॥ ५२ ॥
इस प्रकार चिन्ता में मग्न राजा का कितना ही समय बीत गया, परन्तु सन्देह-सागर से पार करने वाला कोई भी कारण वह देख न सकी ॥ ५३ ॥
नारदजी बोले – हे मुने! इस तरह चिन्ता को करते हुए पृथिवीपति राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ सो आप कहें। क्योंकि हे मुने! निर्मल वैष्णव चरित्र थोड़ा भी यदि सुना जाय तो पापों का नाश हो जाता है ॥ ५४ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने दृढधन्वनोमनःखेदो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
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