श्रीनारायण उवाच :-
अथ चिन्तातुरस्यास्य गृहं वाल्मीकिराययौ, यो रामचरितं दिव्यं चकार परमाद्भुतम् ॥ १ ॥
दूरादालोक्य भूपालः समुत्थाय ससम्भ्रमम्, अनीनमत्तच्चरणौ दण्डवद्भक्तिसंयुतः ॥ २ ॥
सम्पूज्य स्थापयामास तमृषिं परमासने, पादावङ्कगतौ कृत्वा कराभ्यां समलालयत् ॥ ३ ॥
पादावनेजनीरापः शिरसा धारयन्मुदा, उवाच स्निग्धया वाचा स्मरन् कीरवचो नृपः ॥ ४ ॥
दृढधन्वोवाच :-
भगवन् कृतकृत्योऽहं भाग्यवानस्मि साम्प्रतम्, अद्य मे सफलं जन्म ह्यद्यार्थोऽधिगतः प्रभो ॥ ५ ॥
श्रुतं मे सफलं जातं यद्भवानक्षिगोचरः, किं वर्ण्यं मे महद्भाग्यं जगत्पावनपावन ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायणजी बोले – इसके बाद चिन्ता से आतुर राजा दृढ़धन्वा के घर वाल्मीकि मुनि आये जिन्होंने परम अद्भुत तथा सुन्दर रामचन्द्रजी का चरित्र वर्णन किया है ॥ १ ॥
राजा दृढ़धन्वा ने दूर से ही वाल्मीकि मुनि को आते हुए देखकर घबड़ाहट के साथ जल्दी से उठकर भक्तियुक्त हो उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया ॥ २ ॥
भलीभाँति पूजा कर उत्तम आसन पर ऋषि को बैठाकर उनके चरणों को गोद में लेकर दोनों हाथों से धोया ॥ ३ ॥
और उस चरणोदक को बड़े हर्ष के साथ शिर से धारण कर शुक पक्षी की बात स्मरण करता हुआ राजा दृढ़धन्वा ने मधुर वचन से यों कहा ॥ ४ ॥
दृढ़धन्वा बोला – हे भगवन्! इस समय मैं कृतकृत्य हूँ, भाग्यवान हूँ, मेरा जन्म सफल हुआ, हे प्रभो! आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥
आज आप के प्रत्यक्ष दर्शन से शास्त्रादिकों के यथार्थ अर्थ का ज्ञान सफल हुआ, हे जगत् के पावन करने वालों के पावन करने वाले! आज मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूँ? ॥ ६ ॥
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श्रीनारायण उवाच :-
इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं विरराम स भूपतिः, वाल्मीकिरपि तं दृष्ट्वा राजानं विनयान्वितम् ॥ ७ ॥
उवाच परमप्रीतो हर्षयन् जनतां मुनिः, बाल्मीकिरुवाच साधु साधु नृपश्रेष्ठ त्वय्येतदुपपद्यते ॥ ८ ॥
चिन्तातुरः कथं राजन् वद सर्वं मनोगतम् , किञ्चिद्वक्तुं स्पृहा तेऽस्ति तद्वदस्व महामते ॥ ९ ॥
दृढधन्वोवाच :-
भवदीयपदाम्भोजकृपया मे सुखं सदा, परन्त्वेको महान् विद्वन् सन्देहो हृदये मम ॥ १० ॥
तमपाकुरु शल्यं त्वं वन्यकीरमुखोद्गतम्, कदाचिन्मृगयाकामो गतोऽहं गहने वने ॥ ११ ॥
भ्रमन्नपश्यं कासारं तत्र पीतं जलं मया, श्रमापनोदनाकाङ्क्षी महान्यग्रोधमाश्रितः ॥ १२ ॥
स्निग्धच्छायं सुनिबिडं मनोनयननन्दनम्, तत्रापश्यं स्थितं कीरं मनोमोदविधायकम् ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – इस तरह बाल्मीकि मुनि को कहकर वह राजा मौन हो गये, बाद बाल्मीकि मुनि उस राजा को विनययुक्त देखकर ॥ ७ ॥
बड़े प्रसन्न हुए और जनता को आनंदित करते हुए बोले, बाल्मीकि मुनि बोले – हे नृपश्रेष्ठ! ठीक है, ठीक है, तुम में उक्त प्रकार की सब बातों का होना सम्भव है ॥ ८ ॥
हे राजन्! तुम चिंता से आतुर क्यों हो? सो सब मन की बात कहो, ऐसा मालूम पड़ता है, कि तुम्हारी कुछ कहने की इच्छा है, इसलिये हे महामते! उसे कहो ॥ ९ ॥
राजा दृढ़धन्वा बोला – आपके चरणकमल की कृपा से हमेशा सुख है, परन्तु हे विद्वन्! हमारे हृदय में एक बड़ा सन्देह है ॥ १० ॥
वन में होने वाले शुक पक्षी के मुख से निकले हुए बाण के समान उस वचन को दूर करें, किसी समय मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में निकल गया ॥ ११ ॥
वहाँ भ्रमण करता हुआ एक तालाब देखा, उसका जल पीया, बाद में थकावट दूर करने के लिये एक बड़े वटवृक्ष के नीचे बैठ गया ॥ १२ ॥
अत्यन्त घनी तथा सुन्दर छायावाले और मन एवं नेत्र को आनन्द देनेवाले उस वृक्ष पर बैठे हुए सुन्दर शुक पक्षी को देखा ॥ १३ ॥
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दत्तदृष्टिरहं यावज्जातस्तस्मिन् पतत्रिणि, तावन्मां सम्मुखीभूय श्लोधकमेकं पपाठ ह ॥ १४ ॥
विद्यमानातुलसुखमालोक्यातीव भूतले, न चिन्तयसि तत्त्वं त्वं तत्कथं पारमेष्यति ॥ १५ ॥
इति वाचः शुकेनोक्तां आकर्ण्याहं सुविस्मितः, न तज्जानाम्यहं ब्रह्मन् किमुवाच हरिच्छदः ॥ १६ ॥
इमं मे हार्दसंदेहं भवानुच्छेत्तुमर्हति, मम राज्यसुखं पुत्राश्चत्वारश्चा्रुदर्शनाः ॥ १७ ॥
पत्नी पतिव्रता रम्या गजाश्वतरथपत्तयः, समृद्धिरतुला ब्रह्मन् केन पुण्येन मेऽधुना ॥ १८ ॥
एतत्सर्वं समासेन विचार्य वक्तुजमर्हसि, श्रुत्वा वाक्यानि भूपस्य बाल्मीकिर्मुनिसत्तमः ॥ १९ ॥
प्राणायामपरो भूत्वा मुहूर्तं ध्यानमास्थितः, करामलकवद्विश्वंत भूतं भव्यं भवच्च यत् ॥ २० ॥
विलोक्य हृदि निश्चि त्य राजानं प्रत्युवाच सः, बाल्मीकिरुवाच श्रृणु भूपतिशार्दूल प्राग्जन्मचरितं तव ॥ २१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जब उस शुक पक्षी पर हमारी दृष्टि गई तब उसने हमारे सम्मुख होकर एक श्लोक पढ़ा ॥ १४ ॥
कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तूँ तत्त्व (आत्मा) का चिंतन नहीं करता है, तो इस संसार के पार कैसे जायेगा? ॥ १५ ॥
मैं इस प्रकार शुक पक्षी के वचन को सुनकर विस्मित हो गया, हे ब्रह्मन्! मैं नहीं जानता कि उस शुक पक्षी ने क्या कहा? ॥ १६ ॥
इस हमारे हृदय के सन्देह को आप दूर करने के योग्य हैं, हमारा राज्य-सुख तथा सुन्दर चार पुत्र ॥ १७ ॥
सुन्दर पतिव्रता स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथ सेना, हे ब्रह्मन्! ये सब अतुल समृद्धि इस समय हमें किस पुण्य से प्राप्त है? ॥ १८ ॥
यह सब विचार कर संक्षेप में कहने के आप योग्य हैं, राजा दृढ़धन्वा के वचन को बाल्मीकि मुनि सुनकर ॥ १९ ॥
प्राणायाम कर, एक मुहूर्त तक ध्यान मैं मग्न हो, हाथ में रखे हुये आँवला के फल के समान विश्वा संसार के भूत, भविष्यत् और जो वर्तमान विषयं हैं ॥ २० ॥
उनको हृदय में समाधि के बल से जानकर और निश्चिय कर राजा से बोले, बाल्मीकि मुनि बोले – हे राजाओं में श्रेष्ठ! अपने पूर्वजन्म का चरित्र तुम सुनो ॥ २१ ॥
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पुरा जन्मनि राजेन्द्र भवान् द्रविडदेशजः, द्विजः कश्चित् सुदेवाख्यस्ताम्रपर्णी तटै वसन् ॥ २२ ॥
धार्मिकः सत्यवादी च यथालाभेन तोषवान्, वेदाध्ययनसम्पन्नो विष्णुभक्तिपरायणः ॥ २३ ॥
अग्निहोत्रादियागैश्च तोषयामास तं हरिम्, सदैवं वर्तमानस्य भार्याऽऽसीद्वरवर्णिनी ॥ २४ ॥
गौतमीति सुविख्याता गौतमस्यसुताशुभा, पतिं पर्यचरत् प्रेम्णा भवानीव भव प्रभुम् ॥ २५ ॥
गृहमेधविधौ तस्य वर्त्तमानस्य धर्मतः, व्यतीतः सुमहान् कालः प्रापासौ सन्ततिं न हि ॥ २६ ॥
एकदाऽऽसनसंविष्टः सेव्यमानः स्वकान्तया, उवाच वचनं विप्रो विषण्णो गद्गदाक्षरम् ॥ २७ ॥
अयि सुन्दरि संसारे सुखं नास्ति सुतात्परम्, लोकान्तर सुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् ॥ २८ ॥
सन्ततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे, तमप्राप्य वरं पुत्रं जीवितं मम निष्फलम् ॥ २९ ॥
न लालितो मया पुत्रो वेदार्थो न प्रबोधितः, नोद्वाहश्चर कृतस्तस्य वृथा जन्म गतं मम ॥ ३० ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे राजेन्द्र! पूर्वजन्म में आप द्रविड़ देश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे वास करने वाले सुदेव नामक ब्राह्मण थे ॥ २२ ॥
धार्मिक, सत्यवादी, जो मिल जाय, उतने ही में सन्तोष करने वाले, वेधाध्ययन में सम्पन्न, विष्णु भक्ति में परायण रहा करते थे ॥ २३ ॥
आपने अग्निहोत्र आदि यज्ञों के द्वारा भगवान् हरि को प्रसन्न किया, इस प्रकार रहते हुये तुम्हारी गुणवती स्त्री थी ॥ २४ ॥
वह गौतम ऋषि की सुन्दर कन्या गौतमी नाम से प्रसिद्ध शंकर की सेवा में तत्पपर पार्वती के समान तुम्हारी प्रेम से सेवा करती थी ॥ २५ ॥
गृहस्थाश्रम धर्म में धर्मपूर्वक वास करते बहुत समय बीत गया! परन्तु तुमको सन्तति नहीं हुई ॥ २६ ॥
एक दिन अपने स्त्री से सेवित आसन पर बैठा हुआ दुःखित ब्राह्मण गद्गद स्वर से बोला ॥ २७ ॥
अयि सुन्दरि! संसार में पुत्र से बढ़ कर दूसरा सुख नहीं है और तप दान से उत्पन्न पुण्य दूसरे लोक में सुख देने वाला होता है ॥ २८ ॥
शुद्ध वंश में होने वाली सन्तति इस लोक में तथा परलोक में कल्याण करने वाली होती है, उस श्रेष्ठ पुत्र के न मिलने से मेरा जीवन निष्फल है ॥ २९ ॥
न तो मैंने पुत्र का प्यार किया और न वेद पढ़ने के लिए सोने से जगाया, न तो उसका विवाह किया, इसलिए मेरा जन्म व्यर्थ में चला गया ॥ ३० ॥
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सद्यो मे मृतिरेवास्तु न ह्यायुश्च प्रियं मम, इत्थं प्रियवचः श्रुत्वा सुन्दरी खिन्नमानसा ॥ ३१ ॥
समाश्वासयितुं धीरा प्रियवाक्यविशारदा, अवीवदद्वचः सौम्यं प्रियप्रेमपरिप्लुता ॥ ३२ ॥
गौतम्युवाच :-
मा मा प्राणेश्वयर ब्रूहि तुच्छवाक्यानि साम्प्रतम्, भवद्विधा भागवता नैवं मुह्यन्ति सूरयः ॥ ३३ ॥
सत्यधर्मपरोऽसि त्वं जितः स्वर्गस्त्वया विभो, कथं पुत्रैः सुखावाप्तिर्ज्ञानिनस्तव सुव्रत ॥ ३४ ॥
चित्रकेतुः पुरा ब्रह्मन् पुत्रशोकेन तापितः, स नारदेनाङ्गिरसाऽभ्येत्य सन्तारितोऽभवत् ॥ ३५ ॥
तथाङ्गराजा दुष्पुत्राद्वेनाद्वनमगान्निशि, तथा ते सन्ततिः स्वामिन् दुःखदा च भविष्यति ॥ ३६ ॥
तथापि तव सत्पुत्रलालसा चेत्तपोधन, आराधय जगन्नाथं हरिं सर्वार्थदं मुदा ॥ ३७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
अभी मेरी मृत्यु हो, मेरे को आयुष्य प्रिय नहीं है, इस प्रकार अपने प्रिय पति का वचन सुनकर स्त्री गौतमी खिन्न मन हुई ॥ ३१ ॥
बाद धैर्य धारण करती हुई, प्रिय वचन बोलने में चतुर, प्रिय पति के प्रेम में मग्न वह स्त्री अपने पति को समझाने के लिये सुन्दर वचन बोली ॥ ३२ ॥
गौतमी बोली – हे प्राणेश्वर! अब इस तरह तुच्छ वचनों को न कहिये, आपके समान भगवद्भक्त विद्वान् लोग मोह को प्राप्त नहीं होते हैं ॥ ३३ ॥
हे विभो! आप सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाले हो, आपने स्वर्ग को जीत लिया है, हे सुव्रत! अर्थात् हे सुन्दर व्रत करने वाले! आप जैसे ज्ञानी को पुत्रों से सुख की प्राप्ति कैसी? अर्थात् ज्ञानी पुरुष पुत्रों से होने वाले सुख की इच्छा नहीं करते हैं ॥ ३४ ॥
हे ब्रह्मन्! पहले चित्रकेतु नामक राजा पुत्र-शोक से सन्तप्त हुआ तब नारद और अंगिरा ऋषि के आने पर पुत्र-शोक से मुक्त हो संसार से उद्धार को प्राप्त हुआ ॥ ३५ ॥
इसी प्रकार राजा अंग वेन नामक दुष्ट पुत्र के कारण रात्रि के समय वन को चला गया, इसी तरह हे स्वामिन्! आपको भी सन्तति दुःख देनेवाली होगी ॥ ३६ ॥
फिर भी हे तपोधन! यदि आपको सत्-पुत्र की लालसा है तो प्रसन्नता से जगत् के नाथ, समस्त अर्थों के दाता, हरि भगवान् की आराधना करें ॥ ३७ ॥
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यमाराध्य पुरा ब्रह्मन् कर्दमः पुत्रमाप्तवान्, सांख्याचार्यस्तु तं देवं कपिलं योगिनां वरम् ॥ ३८ ॥
धर्मपत्न्यार वचश्चेत्थं श्रुत्वा विप्रशिरोमणिः, निश्चित्यैवं तया सार्धं ताम्रपर्णीतटं गतः ॥ ३९ ॥
स्नात्वाऽथ विरजे पुण्ये चचार परमं तपः, शुष्कपर्णजलाहारः पञ्चमे दिने ॥ ४० ॥
चत्वार्यब्दसहस्राणि गतान्येवं तपोनिधेः, तस्यैतत्तपसा ब्रह्मंस्त्रयो लोकाश्चकम्पिरे ॥ ४१ ॥
अत्युग्रं तत्तपो दृष्ट्वा भगवान् भक्तवत्सलः, प्रादुर्बभूव तरसा गरुडोपरि संस्थितः ॥ ४२ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
तं दृष्ट्वा नवजलदोपमं मुरारिं दोर्दण्डैर्जगदवनक्षमैश्चतुर्भिः, संलक्ष्य मुदितमुखं सुदेवशर्मा साष्टाङ्गं नतिमकरोन्मुदा मुकुन्दम् ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणंनारदसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे ब्रह्मन्! पहले सांख्याचार्य कर्दम ऋषि ने जिनकी आराधना कर पुत्र को प्राप्त किया जो कि पुत्र योगियों में श्रेष्ठ कपिल देव नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ३८ ॥
ब्राह्मण श्रेष्ठ इस प्रकार अपनी धर्मपत्नीत के वचन सुनकर तथा निश्चलय कर उस अपनी गौतमी स्त्री के साथ ताम्रपर्णी नदी के तट पर गया ॥ ३९ ॥
बाद वहाँ जाकर उस पवित्र तीर्थ में स्नान कर अत्यन्त श्रेष्ठ तप करता भया, पाँच-पाँच दिन के बाद सूखे पत्ते तथा जल का आहार करता था ॥ ४० ॥
इस प्रकार तप करते उस तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को चार हजार वर्ष व्यतीत हो गये, हे ब्रह्मन्! उसके इस तपस्या से तीनों लोक काँप उठे ॥ ४१ ॥
भक्तवत्सल भगवान् उस सुदेव ब्राह्मण के अत्यन्त उग्र तपस्या को देखकर जल्दी से गरुड़ पर सवार होकर प्रगट भये ॥ ४२ ॥
श्रीनारायण बोले – नवीन मेघ के समान, जगत् की रक्षा करने में समर्थ चार भुजा वाले, प्रसन्नमु्ख मुरारि को देखकर सुदेव शर्मा ब्राह्मण हर्ष के साथ मुकुन्द भगवान् को साष्टांग प्रणाम करता हुआ ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे चतुर्दशोऽध्याय ॥ १४ ॥
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