श्रीनारायण उवाच :-
ततस्तुष्टाव तं देवं श्रीकृष्णं भक्तवत्सलम्, बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा सुदेवो गद्गदाक्षरम् ॥ १ ॥
नमस्ते देव देवेश त्रैलोक्याभयद प्रभो, सर्वेश्वंर नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः ॥ २ ॥
पाहि मां परमेशान शरणागतवत्सल, जगद्वन्द्य नमस्तेऽस्तु प्रसन्नभयभञ्जन ॥ ३ ॥
जयस्वरूपं जयदं जयेशं जयकारणम्, विश्वाधारं विश्वसंस्थं विश्वकारणकारणम् ॥ ४ ॥
विश्वैूकरक्षकं दिव्यं विश्वध्नं विश्वपञ्जरम्, फलबीजं फलाधारं फलमूलं फलप्रदम् ॥ ५ ॥
तेजःस्वरूपं तेजोदं सर्वतेजस्विनां वरम्, कृष्णं विष्णुं वासुदेवं वन्देऽहं दीनवत्सलम् ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – बाद सुदेव शर्म्मा ब्राह्मण हाथ जोड़कर गद्गद स्वर से भक्तवत्सल श्रीकृष्णदेव की स्तुति करता हुआ ॥ १ ॥
हे देव! हे देवेश! हे त्रैलोक्य को अभय देनेवाले! हे प्रभो! आपको नमस्कार है, हे सर्वेश्वर! आपको नमस्कार है, मैं आपकी शरण आया हूँ ॥ २ ॥
हे परमेशान! हे शरणागतवत्सल! मेरी रक्षा करो, हे जगत् के समस्त प्राणियों से नमस्कार किये जाने वाले! हे शरण में आये हुए लोगों के भय का नाश करने वाले! आपको नमस्कार है ॥ ३ ॥
आप जय के स्वरूप हो, जय के देने वाले हो, जय के मालिक हो, जय के कारण हो, विश्वद के आधार हो, विश्वण के एक रक्षक हो, दिव्य हो, विश्वो के स्थान हो, फलों के बीज हो, फलों के आधार हो, विश्व में स्थित हो, विश्वर के कारण के कारण हो फलों के मूल हो, फलों के देनेवाले ही ॥ ४-५ ॥
तेजःस्वरूप हो, तेज के दाता हो, सब तेजस्वियों में श्रेष्ठ हो, कृष्ण (हृदयान्धकार के नाशक) हो, विष्णु (व्यापक) हो, वासुदेव (देवताओं के वासस्थान अथवा वसुदेव के पुत्र) हो, दीनवत्सल हो ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥
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न त्वां ब्रह्मादयो देवाः स्तोतुं शक्ता जगत्प्रभो, कथं मन्दो मनुष्योऽहमल्पबुद्धिर्जनार्दन ॥ ७ ॥
अतिदुःखतरं दीनं त्वद्भक्तं मामुपेक्षसे, तत्कथं लोकबन्धुत्वं प्रभो लोके वृथा गतम् ॥ ८ ॥
बाल्मीकिरुवाच :-
इत्यभिष्टू्य भूमानं द्विजस्तस्थौ हरेः पुरः, तदाकर्ण्य हरिर्वाक्यमुवाच जलदस्वनः ॥ ९ ॥
श्रीहरिरुवाच :-
सम्यक् सम्पादितं वत्स यत्त्वया चरितं तपः, किमिच्छसि महाप्राज्ञ तपोधन वदस्व मे ॥ १० ॥
तत्तेऽहं वितरिष्यामि सन्तुष्टस्तपसा तव, एतादृशं महत्कर्म न केनापि कृतं पुरा ॥ ११ ॥
सुदेव उवाच :-
यदि प्रीतोऽसि हे नाथ दीनबन्धो दयानिधे, तत्पुत्रं देहि मे विष्णो पुराणपुरुषोत्तम ॥ १२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे जगत्प्रभो! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मादि देवता भी समर्थ नहीं हैं, हे जनार्दन! मैं तो अल्पबुद्धि वाला, मन्द मनुष्य हूँ किस तरह स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ ॥ ७ ॥
अत्यन्त दुःखी, दीन, अपने भक्त की आप कैसे उपेक्षा (त्याग) करते हो, हे प्रभो! क्या आज संसार में वह आपकी लोकबन्धुता नष्ट हो गई? ॥ ८ ॥
बाल्मीकि ऋषि बोले – सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण इस प्रकार विष्णु भगवान् की स्तुति कर हरि के सामने खड़ा हो गया, हरि भगवान् उसके वचन सुनकर मेघ के समान गम्भीर वचन से बोले ॥ ९ ॥
श्री हरि बोले – हे वत्स! तुमने जो तप किया वह बहुत अच्छी तरह से किया, हे महाप्राज्ञ! हे तपोधन! क्या चाहते हो? सो मुझसे कहो ॥ १० ॥
तुम्हारे तप से प्रसन्न मैं उस वर को तुम्हारे लिये दूँगा क्योंकि आज के पहले ऐसा बड़ा भारी कर्म किसी ने भी नहीं किया है ॥ ११ ॥
सुदेवशर्म्मा बोले – हे नाथ! हे दीनबन्धो! हे दयानिधे! यदि आप प्रसन्न हैं तो हे विष्णो! हे पुराण-पुरुषोत्तम! कृपा कर आप मेरे लिये सत्पुत्र दीजिये ॥ १२ ॥
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हरे पुत्रं विना शून्यं गार्हस्थ्यं मे न रोचते, इति विप्रवचः श्रुत्वा जगाद हरिरीश्वरः ॥ १३ ॥
श्रीहरिरुवाच :-
अदेयमपि ते सर्वं दास्ये पुत्रं विना द्विज, तव पुत्रसुखं वत्स विधात्रा नैव निमितम् ॥ १४ ॥
त्वदीयभालफलके वर्णाः सर्वे मयेक्षिताः, तत्र नैवास्ति ते पुत्रसुखं सप्तसु जन्मसु ॥ १५ ॥
इत्याकर्ण्य हरेर्वाक्यं वज्रनिर्धातनिष्ठुतरम्, स पपात महीपृष्ठे छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ १६ ॥
पतिं पतितमालोक्य प्रमदाऽत्यन्तदुःखिता, पश्यन्ती स्वामिनं पुत्रस्पृहाशून्यमरूरुदत् ॥ १७ ॥
पश्चाद्धैर्यं समालम्ब्य साऽवोचत् पतितं पतिम्, गौतम्युवाच उत्तिष्ठोत्तिष्ठ हे नाथ किं न स्मरसि मे वचः ॥ १८ ॥
विधात्रा लिखितं भाले तल्लभेत सुखासुखम्, किं करोति रमानाथः स्वकृतं भुञ्जते नरः ॥ १९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे हरे! पुत्र के बिना सूना यह गृहस्थाश्रम-धर्म मुझको प्रिय नहीं लगता, इस प्रकार हरि भगवान् सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण के वचन को सुनकर बोले ॥ १३ ॥
श्रीहरि भगवान् बोले – हे द्विज! पुत्र को छोड़ कर बाकी जो न देने के योग्य है उनको भी तुम्हारे लिये दूँगा, क्योंकि ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये पुत्र का सुख नहीं लिखा है ॥ १४ ॥
मैंने तुम्हारे भालदेश में होने वाले समस्त अक्षरों को देखा उसमें सात जन्म तक तुमको पुत्र का सुख नहीं है ॥ १५ ॥
इस प्रकार वज्रप्रहार के समान निष्ठु्र हरि भगवान् के वचन को सुनकर जड़ के कट जाने से वृक्ष के समान वह सुदेवशर्म्मा ब्राह्मण पृथिवी तल पर गिर गया ॥ १६ ॥
पति को गिरे हुए देखकर गौतमी स्त्री अत्यन्त दुःखित हुई और पुत्र की अभिलाषा से वंचित अपने स्वामी को देखती हुई रुदन करने लगी ॥ १७ ॥
बाद धौर्य का आश्रय लेकर गौतमी स्त्री गिरे हुए पति से बोली, गौतमी बोली – हे नाथ! उठिये, उठिये, क्या मेरे वचन का स्मरण नहीं करते हैं? ॥ १८ ॥
ब्रह्मा ने भालदेश में जो सुख-दुःख लिखा है वह मिलता है, रमानाथ क्या करेंगे? मनुष्य तो अपने किये कर्म का फल भोगता है ॥ १९ ॥
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अभाग्यस्य कृतोद्योगो मुभूर्षोरिव भेषजम्, तस्य सर्वं भवेद्व्यर्थं यस्य दैवमदक्षिणम् ॥ २० ॥
क्रतुदानतपः सत्यव्रतेभ्यो हरिसेवनम्, श्रेष्ठं सर्वेषु वेदेषु ततो दैवबलं वरम् ॥ २१ ॥
तस्मात् सर्वत्र विश्वासं विहायोत्तिष्ठ भूसुर, दैवमेवावलम्यादेषशु हरिणा किं प्रयोजनम् ॥ २२ ॥
इत्यातकर्ण्य वचस्तरस्यावस्ती व्रशोकसमन्वितम्, वैनतेयोऽवदद्विष्णुंं क्षोभसञ्जातवेपथुः ॥ २३ ॥
गरुड उवाच :-
शोकसागरसंमग्नां ब्राह्मणीं वीक्ष्यु हे हरे, तथैव ब्राह्मणं नेत्रगलद्वाष्पषकुलाकुलमु ॥ २४ ॥
दीनबन्धोदयासिन्धोप भक्तानामभयङ्कर, भक्तदुःखासहिष्णोकस्तेन दयाऽद्य क्क गता प्रभो ॥ २५ ॥
अहो ब्रह्मण्यददेवस्वंमान त्विद्धर्मः क्क गतोऽधुना, त्वद्भक्तस्य चतुर्धाऽपि मुक्तिः करतले स्थिता ॥ २६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
अभागे पुरुष का उद्योग, मरणासन्न पुरुष को औषध देने के समान निष्फल हो जाता है, जिसका भाग्य प्रतिकूल (उल्टा) है उसका किया हुआ सब उद्योग व्यर्थ होता है ॥ २० ॥
समस्त वेदों में यज्ञ, दान, तप, सत्य, व्रत, आदि की अपेक्षा हरि भगवान् का सेवन श्रेष्ठ कहा है परन्तु उससे भी भाग्य बल श्रेष्ठ है ॥ २१ ॥
इसलिये हे भूसुर! सर्वत्र से विश्वास को हटा कर उठिये और शीघ्र दैव का ही आश्रय लीजिये, इसमें हरि का क्या काम है? ॥ २२ ॥
इस प्रकार उस गौतमी के अत्यन्त शोक से युक्त वचन को सुनकर दुःख से काँपते हुए गरुड़जी विष्णुआ भगवान् से बोले ॥ २३ ॥
गरुड़जी बोले – हे हरे! शोकरूपी समुद्र में डूबी हुई ब्राह्मणी को उसी तरह नेत्र से गिरते हुए अश्रुधारा से व्या कुल ब्राह्मण को देखकर ॥ २४ ॥
हे दीनबन्धो ! हे दयासिन्धोश! हे भक्तों के लिये अभय को देनेवाले! हे प्रभो! भक्तों के दुःख को नहीं सहने वाले! आपकी आज वह दया कहाँ चली गई? ॥ २५ ॥
अहो! आप वेद और ब्राह्मण की रक्षा करने वाले साक्षात् विष्णु हो, इस समय आपका धर्म कहाँ गया? अपने भक्त को देने के लिये चार प्रकार की मुक्ति आपके हाथ में ही स्थित कही है ॥ २६ ॥
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अहो तथापि नेच्छन्ति विहाय भक्तिमुत्तमाम्, तदग्रे सिद्धयश्चाष्टौ किङ्करीभूय संस्थिताः ॥ २७ ॥
त्वदाराधनमाहात्म्मेवं सर्वत्र विश्रुतम्, तहि विप्रस्य पुत्रेच्छापूरणे कः परिश्रमः ॥ २८ ॥
गजमर्पयतः पुंसो ह्यङ्कुशे कः परिश्रमः, अतः परं न केनापि सेव्यते ते पदाम्बुजम् ॥ २९ ॥
यददृष्टगतं पुंसस्तदेव भविता ध्रुवम्, इति लोके प्रथा जाता त्वद्भक्तिर्विलयं गता ॥ ३० ॥
कर्तुं न कर्तुं सामर्थ्यं तव सर्वत्र विश्रुतम्, तदेवाद्य गतं नाथ न चेदस्मै सुतप्रदः ॥ ३१ ॥
अतस्त्वं सर्वथा देहि पुत्रमेकं द्विजन्मने, सुदामा त्वां समाराध्य लेभे वैभवमुत्तमम् ॥ ३२ ॥
सान्दीपिनिर्मृतं पुत्रमवाप कृपया तव, इति ते शरणं प्राप्तौ दम्पती पुत्रलालसौ ॥ ३३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
अहो! फिर भी वे आपके भक्त उत्तम भक्ति को छोड़कर चतुर्विध मुक्ति की इच्छा नहीं करते हैं और उनके सामने आठ सिद्धियाँ दासी के समान स्थित रहती हैं ॥ २७ ॥
आपके आराधन का माहात्म्य सब जगह सुना है, तब इस ब्राह्मण के पुत्र की वाञ्छाज पूर्ण करने में आपको क्या परिश्रम है? ॥ २८ ॥
हाथी दान करने वाले पुरुष को अंकुश दान करने में क्या परिश्रम है? अब आज से कोई भी आपके चरण-कमल की सेवा नहीं करेगा ॥ २९ ॥
जो पुरुष के भाग्य में होता है वही निश्चय रूप से प्राप्त होता है, इस बात की प्रथा आज से संसार में चल पड़ी और आपकी भक्ति रसातल को चली गई अर्थात् लुप्त हो गई ॥ ३० ॥
हे नाथ! आप करने तथा न करने में स्वतंत्र हैं यह आपका सामर्थ्य सर्वत्र विख्यात है आज वह सामर्थ्य इस ब्राह्मण को पुत्र प्रदान न करने से नष्ट होता है ॥ ३१ ॥
इसलिये आप इस ब्राह्मण के लिये अवश्य एक पुत्र प्रदान कीजिये, सुदामा ब्राह्मण ने आपकी आराधना कर उत्तम वैभव को प्राप्त किया ॥ ३२ ॥
आपकी कृपा से सान्दीपिनि गुरु ने मृत पुत्र को प्राप्त किया, इन कारणों से पुत्र की लालसा करनेवाले ये दोनों स्त्री-पुरुष आपकी शरण में आये हैं ॥ ३३ ॥
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श्रीनारायण उवाच :-
इति गरुडवचो निशम्य॥ विष्णुरर्वचनमुवाच खगं सुधोपमानम्, अयि खगवर पुत्रमेकमस्मै वितर मनोगतमाशु वैनतेय ॥ ३४ ॥
इति हरिवचनं निजानुकूलं झटिति निशम्यण खगोऽतिहृष्टचेताः, अदददतिविषण्णेमानसाय सुतमनुरूपमिलासुराय रम्यहम् ॥ ३५ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्येग दृढधन्वो्पाख्यासने श्रीनारायणनारदसंवादे सुदेववरप्रदानं नाम पञ्चदशोऽध्या्यः ॥ १५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – इस प्रकार विष्णु भगवान् अमृत के समान गरुड़ के वचन को सुनकर गरुड़जी से बोले – अयि! पक्षिवर! हे वैनतेय! इस ब्राह्मण को अभिलषित एक पुत्र शीघ्र दीजिये ॥ ३४ ॥
इस प्रकार अपने अनुकूल हरि भगवान् के वचन को सुनकर गरुड़जी ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उस पृथिवी के देवता दुःखित ब्राह्मण के लिये अनुरूप सुन्दर पुत्र को जल्दी से दे दिया ॥ ३५ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्ये दृढ़धन्वो पाख्याने श्रीनारायणनारदसंवादे सुदेववरप्रदानं नाम पञ्चदशोऽध्यारयः ॥ १५ ॥
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