श्रीनारायण उवाच :-
श्रृणु नारद वक्ष्ये्ऽहं यदुक्तं दृढधन्वने, वाल्मीकिना महाप्राज्ञ चरितं परमाद्भुतम् ॥ १ ॥
वाल्मीकिरुवाच :-
दृढधन्वन् महाराज श्रृणुष्वु वचनं मम, सुपर्णः केशवादेशादिदमाह द्विजेश्वरम् ॥ २ ॥
गरुड उवाच :-
सप्त जन्म्सु ते पुत्रसुखं नास्तीति यद्वचः, हरिणोक्तं द्विजश्रेष्ठ तत्तयैव तवाधुना ॥ ३ ॥
तथापि स्वामिनाऽऽज्ञप्तः कृपया दद्मि ते सुतम्, मदंशसम्भवः पुत्रो भविता ते तपोधन ॥ ४ ॥
येन त्व्माशिषः सत्या लप्य् ते गौतमीयुतः, परं तज्जनितं दुःख युवयोर्भविता ध्रुवम् ॥ ५ ॥
धन्यो्ऽसि द्विजशार्दूल यत्ते जाता हरौ मतिः, सकामाऽप्यरथ निष्का मा हरिभक्तिर्हरेः प्रिया ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – हे महाप्राज्ञ! हे नारद! बाल्मीकि ऋषि ने जो परम अद्भुत चरित्र दृढ़धन्वा राजा से कहा उस चरित्र को मैं कहता हूँ तुम सुनो ॥ १ ॥
बाल्मीकि ऋषि बोले – हे दृढ़धन्वन! हे महाराज! हमारे वचन को सुनिये, गरुड़ जी ने केशव भगवान् की आज्ञा से इस प्रकार ब्राह्मणश्रेष्ठ से कहा ॥ २ ॥
गरुड़जी बोले – हे द्विजश्रेष्ठ! तुमको सात जन्म तक पुत्र का सुख नहीं है यह जो वचन हरि भगवान् ने कहा सो इस समय तुमको वैसा ही है ॥ ३ ॥
फिर भी कृपा से स्वा्मी की आज्ञा पाकर मैं तुमको पुत्र दूँगा, हे तपोधन! हमारे अंश से तुमको पुत्र होगा ॥ ४ ॥
जिस पुत्र से गौतमी के साथ तुम मनोरथ को प्राप्त करोगे; किन्तुप उस पुत्र से होनेवाला दुःख तुम दोनों को अवश्य होगा ॥ ५ ॥
हे द्विजशार्दूल! तुम धन्य हो जो तुम्हा्री बुद्धि हरि भगवान् में हुई, हरिभक्ति सकाम हो अथवा निष्कातम हो, हरि भगवान् को दोनों ही प्रिय हैं ॥ ६ ॥
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जलबुद्बुदवत् पुंसां शरीरं क्षणभङ्गुरम्, तदासाद्य हरेः पादं धन्येश्चिन्तहयते हृदि ॥ ७ ॥
हरेरन्यो् न संसारात्तारयेद्बहुदुस्तणरात्, हरेरेव कृपालेशान्मपया दत्तः सुतस्तहव ॥ ८ ॥
मनसि श्रीहरिं धृत्वा विचरस्वं यथासुखम्, उदासीनतया स्थित्वाा भुङ्क्ष्वी संसारजं सुखम् ॥ ९ ॥
वाल्मी्किरुवाच :-
दम्पवत्योः पश्यतोः सद्यो दत्वावरमनुत्तमम्, खगद्वारा हरिः शीघ्रं ययौ निजनिकेतनम् ॥ १० ॥
सुदेवोऽपि सपत्निको वरं लब्वावा व मनोगतम्, आसाद्य स्वगृहं भेजे गार्हस्य् ससुखमुत्तमम् ॥ ११ ॥
कियत्कापलक्रमेणास्याव दोहदः समपद्यत, दशमे मासि सम्प्राप्ते पूर्णो गर्भो बभूव ह ॥ १२ ॥
प्रसूतिकाले सम्प्राप्तेस साऽसूत सुतमुत्तमम्, सुदेवस्त्वात्मजे जाते जाताह्लादो बभूव ह ॥ १३ ॥
आहूय जातकं कर्म चकार द्विजसत्तमान्, बृहद्दानं ददौ तेभ्यः सुस्नातो द्विजसत्तमः ॥ १४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
मनुष्यों का शरीर जल के बुदबुद के समान क्षण में नाश होनेवाला है उस शरीर को प्राप्त कर जो हृदय में हरि के चरणों का चिन्तकन करता है वह धन्या है ॥ ७ ॥
इस अत्य्न्तक दुस्त र संसार से तारनेवाले हरि भगवान् के अलावा दूसरा और कोई नहीं है, यह हरि भगवान् की ही कृपा से मैंने तुमको पुत्र दिया ॥ ८ ॥
मन में श्रीहरि को धारणकर सुखपूर्वक विचारों और उदासीन भाव से संसार के सुखों को भोगो ॥ ९ ॥
बाल्मीकि ऋषि बोले – गौतमी और सुदेव दोनों स्त्री पुरुष के देखते-देखते उत्तम वर को देकर उसी समय गरुड़ पर सवार होकर भगवान् हरि शीघ्र ही वैकुण्ठो को चले गये ॥ १० ॥
सुदेवशर्म्मा भी स्त्री के साथ अपने मन के अनुसार पुत्ररूप वर को पाकर अपने घर को आया और उत्तम गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने लगा ॥ ११ ॥
कुछ समय बीतने के बाद गौतमी को गर्भ रहा और दशम महीना प्राप्त होने पर गर्भ पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥
प्रसूतिकाल आने पर गौतमी ने उत्तम पुत्र पैदा किया और पुत्र के होने पर सुदेवशर्म्मा बहुत प्रसन्न हुआ ॥ १३ ॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म संस्कार किया और अच्छी तरह स्नान कर ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदेवशर्म्मा ने उन ब्राह्मणों को बहुत दान दिया ॥ १४ ॥
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नाम चास्याऽकरोद्धीमान् ब्राह्मणैः स्वजनैर्वृतः, अयं सुतः सुपर्णेन दत्तः प्रेम्णा कृपालुना ॥ १५ ॥
शारदेन्दुरिव प्रोद्यत्तेजस्वी शुकसन्निभः, शुकदेवेति नामायं पुत्रोऽस्तु मम वल्लभः ॥ १६ ॥
अवर्धत सुतः शीघ्रं शुक्लपक्ष इवोडुपः, पितुर्मनोरथैः साकं मातृमानसनन्दनः ॥ १७ ॥
उपनोय सुतं तातः सावित्रीं दत्तवान् मुदा, संस्कारं वैदिकं प्राप्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः ॥ १८ ॥
तत्तेजसाऽन्वितो रेजे साक्षात्सूर्य इवापरः, वेदाध्ययनमारेभे कुमारो बुद्धिसागरः ॥ १९ ॥
सद्बुद्धयाऽऽनन्दयामास स्वगुरुं गुरुवत्सलः, सकृन्निगदमात्रेण बिद्यां सर्वामुपेयिवान् ॥ २० ॥
हिंदी अनुवाद :-
ब्राह्मण और स्वजनों के साथ बुद्धिमान् सुदेवशर्म्मा ने नामकरण संस्कार किया, कृपालु गरुड़जी ने प्रेम से यह पुत्र दिया ॥ १५ ॥
शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उदय को प्राप्त, तेजस्वी, यह शुक के सदृश है इसलिए मेरा यह प्रिय पुत्र शुकदेव नामवाला हो ॥ १६ ॥
माता के मन को आनन्द देनेवाला वह पुत्र पिता के मनोरथों के साथ-साथ शुक्लपक्ष के चन्द्रसमा के समान बढ़ने लगा ॥ १७ ॥
पिता ने हर्ष के साथ उपनयन संस्कार कर गायत्री मन्त्र का उपदेश किया, बाद वह बालक वेदारम्भ संस्कार को प्राप्त कर ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हुआ ॥ १८ ॥
उस ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त बालक साक्षाद् दूसरे सूर्य के समान शोभित हुआ, बुद्धिसागर उस बालक ने वेद का अध्ययन प्रारम्भ किया ॥ १९ ॥
उस गुरुवत्सल बालक ने सद्बुद्धि से अपने गुरु को प्रसन्न किया और गुरु के एक बार कहने मात्र से समस्त विद्या को प्राप्त किया ॥ २० ॥
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बाल्मीकिरुवाच :-
एकदा देवलोऽम्यागात् कोटिसूर्यसमप्रभः, तमालोक्य सुदेवोऽसौ ननाम दण्डवन्मुदा ॥ २१ ॥
पूजयामास विधिवदर्ध्यपाद्यादिभिर्मुनिम्, आसनं कल्पयामास देवलाय महात्मने ॥ २२ ॥
तत्रोपविष्टो भगवान् देवलो देवदर्शनः, चरणे पतितं दृष्ट्वा कुमारं देवलोऽब्रवीत् ॥ २३ ॥
देवल उवाच :-
भो भो सेदेव धन्योऽसि तुष्टस्ते भगवान् हरिः, यतस्त्वं प्राप्तवान् पुत्रं दुर्लभं सुन्दरं वरम् ॥ २४ ॥
एतादृशः सुतः क्कापि न कस्याप्यवलोकितः, विनीतो बुद्धिमान् वाग्मी वेदाध्ययनशीलवान् ॥ २५ ॥
एहि पुत्र किमेतत्ते करे पश्यामि कौतुकम्, सच्छत्रं चामरयुगं कमलं यवसंयुतम् ॥ २६ ॥
आजानुलम्बिनौ हस्तौ हस्तिहस्तसमौ तव, आकर्णान्तविशाले च चक्षुषी मधुपिञ्जरे ॥ २७ ॥
वपुर्वर्तुलकं मध्यं वलित्रय विभूषितम्, एवमुक्त्वा सुतं दृष्ट्वा पुनराहोत्सुकं द्विजम् ॥ २८ ॥
अहो सुदेव तनयस्तवायं गुणसागरः, गूढजत्रुः कम्बुकण्ठः स्निग्धरकुञ्चितमूर्धजः ॥ २९ ॥
तुङ्गगवक्षाः पृथुग्रीवः समकर्णो वृषांसकः, सर्वलक्षणसम्पूर्णः पुत्रो भाग्यनिधिर्महान् ॥ ३० ॥
हिंदी अनुवाद :-
बाल्मीकि ऋषि बोले – एक समय कोटि सूर्य के समान प्रभाव वाले देवल ऋषि आये, उनको देखकर हर्ष से सुदेव शर्म्मा ने दण्डवत् प्रणाम किया ॥ २१ ॥
अर्ध्य, पाद्य आदि से विधिपूर्वक उन देवल मुनि की पूजा की और महात्मा देवल के लिए आसन दिया ॥ २२ ॥
अति तेजस्वी देवदर्शन देवल ऋषि उस आसन पर बैठ गये, बाद अपने चरणों पर बालक को गिरे हुए देखकर देवल ऋषि बोले ॥ २३ ॥
देवल मुनि बोले – भो भो सेदेव! तुम धन्य हो, तुम्हारे ऊपर भगवान् प्रसन्न हुए, क्योंकि तुमने दुर्लभ, सुन्दर, श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त किया ॥ २४ ॥
ऐसा विनीत, बुद्धिमान्, बोलने में चतुर वेदपाठी और शीलवान् पुत्र कहीं भी किसी के यहाँ नहीं देखा ॥ २५ ॥
हे पुत्र! यहाँ आओ, तुम्हारे हाथ में यह कौतुक क्या देखता हूँ? सुन्दर छत्र, दो चामर, यवरेखा के साथ कमल ॥ २६ ॥
जानु तक लटकने वाले हाथी के सूँड़ के समान ये तुम्हारे हाथ, कान तक फैले हुए विशाल लाल नेत्र, ॥ २७ ॥
शरीर गोल आकार का, त्रिवली से युक्त पेट है, इस प्रकार उस बालक के विषय में कहकर उस ब्राह्मन को उत्कण्ठित देख कर देवल ऋषि फिर बोले ॥ २८ ॥
अहो! हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का गुणों का समुद्र है, कंधा और कोख का सन्धि स्थान गूढ़ है, शंख के समान उतार-चढ़ाव युक्त गला वाला, चिक्कण टेढ़े शिर के बाल वाला ॥ २९ ॥
ऊँची छाती, लम्बी गर्दन, बराबर कान, बैल के समान कन्धा, इस तरह समस्त लक्षणों से युक्त यह पुत्र श्रेष्ठ भाग्य का निधि है ॥ ३० ॥
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एक एव महान् दोषो येन सर्वं वृथा कृतम्, इत्युक्त्वा मौलिमाधुन्वन् विनिःश्वस्याब्रवीन्मुनिः ॥ ३१ ॥
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत्, निरायुषः कुमारस्य लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ ३२ ॥
सुदेवं तनयोऽयं ते द्वादशे हायेन जले, मृत्युमेष्यति तस्मात्त्वं शोकं मा कुरु मानसे ॥ ३३ ॥
अवश्यम्भाविनो भावा भवन्त्येाव न संशयः, तत्र प्रतिविधिर्नास्ति मुमूर्षुरिव भेषजम् ॥ ३४ ॥
बाल्मीकिरुवाच :-
इत्युदीर्य गतो ब्रह्मलोकं देवलको मुनिः, सुदेवः सह गौतम्या पपात धरणीतले ॥ ३५ ॥
विललाप चिरं भूमौ देवलोक्तं वचः स्मरन्, अथ सा गौतमी पुत्रं स्वाङ्कमारोप्य धैर्यतः ॥ ३६ ॥
चुचुम्ब वदनं प्रेम्णा पश्चात् पतिमुवाच सा, गौतम्युवाच ॥ द्विजराज न कर्तव्या भीतिर्भाव्येषु वस्तुषु ॥ ३७ ॥
नाभाव्यं भविता कुत्र भाव्यमेव भवष्यति, किं नु नो दुःखमापन्ना नलरामयुधिष्ठिराः ॥ ३८ ॥
हिंदी अनुवाद :-
एक ही बहुत बड़ा दोष है जिससे सब व्यर्थ हो गया, इस प्रकार कह कर शिर काँपते हुए दीर्घ श्वा स लेकर देवल मुनि बोले – ॥ ३१ ॥
प्रथम आयु की परीक्षा करना, बाद लक्षणों को कहना चाहिये, आयु से हीन बालक के लक्षणों से क्या प्रयोजन है? ॥ ३२ ॥
हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का बारहवें वर्ष में डूब कर मर जायगा, इससे तुम मन में शोक नहीं करना ॥ ३३ ॥
अवश्य होने वाला निःसन्देह होकर ही रहता है, मरणासन्न को औषध देने के समान उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है ॥ ३४ ॥
बाल्मीकि मुनि बोले – देवल मुनि इस प्रकार कहकर ब्रह्मलोक को चले गये और गौतमी के साथ सुदेव ब्राह्मण पृथिवी पर गिर गया ॥ ३५ ॥
पृथिवी पर पड़ा हुआ देवल ऋषि के कहे हुए वचनों को स्मरण कर चिरकाल तक विलाप करने लगा, बाद उसकी स्त्री गौतमी धैर्य्य धारण करती हुई पुत्रका अपनी गोद में लेकर ॥ ३६ ॥
प्रथम प्रेम से पुत्र का मुख चुम्बन कर बाद पति से बोली, गौतमी बोली – हे द्विजराज! होने वाली वस्तु में भय नहीं करना चाहिये ॥ ३७ ॥
जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा और जो होने वाला है वह होकर रहेगा, क्या राजा नल, रामचन्द्र और युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं हुये? ॥ ३८ ॥
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बन्धनं बलिराजाऽपि प्राप्तवान् यादवः क्षयम्, हिरण्याक्षो वधं घोरं वृत्रोऽपि निधनं गतः ॥ ३९ ॥
कार्त्तवीर्यः शिरश्छेदं रावणोऽपि तथाप्तवान्, विरहं रघुनाथोऽपि जानक्याः प्राप्तवान् मुने ॥ ४० ॥
परीक्षिदपि राजर्षिर्ब्राह्मणान्मृत्युमाप्तवान्, एवं ये भाविनो भावा भवन्त्येव मुनीश्वर ॥ ४१ ॥
अतः उत्तिष्ठ हे नाथ हरिं भज सनातनम्, शरण्यं सर्वजीवानां निर्वाणपददायकम् ॥ ४२ ॥
बाल्मीकिरुवाच :-
इति निजवनितावचो निशम्य प्रकृतिमुपागतवान् सुदेवशर्मा, हृदि हरिचणाम्बुजं निधायं झटिति जहौ शुचमात्मजाद्भवित्रीम् ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने सुदेवप्रतिबोधो नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
राजा बलि भी बन्धन को प्राप्त हुआ, यादव नाश को प्राप्त हुए, हिरण्याक्ष कठिन वध को प्राप्त हुआ, वृत्रासुर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ ॥ ३९ ॥
सहस्रार्जुन का शिर काटा गया, रावण के भी उसी तरह शिर काटे गये, हे मुने! भगवान् रामचन्द्र भी वन में जानकी के विरह को प्राप्त हुए ॥ ४० ॥
राजर्षि परीक्षित भी ब्राह्मण से मृत्यु को प्राप्त हुये, हे मुनीश्वेर! इस प्रकार जो होने वाला है वह अवश्य होता है ॥ ४१ ॥
इसलिये हे नाथ! उठिये और सनातन हरि भगवान् का भजन करिये जो समस्त जीवों के रक्षक हैं और मोक्ष पद को देने वाले हैं ॥ ४२ ॥
बाल्मीकि ऋषि बोले – इस प्रकार सुदेव शर्म्मा ने अपनी स्त्री गौतमी के वचन को सुन कर स्वस्थ हो हृदय में हरि भगवान् के चरणों का ध्यान कर पुत्र से होने वाले शोक को जल्दी से त्याग दिया ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढ़धन्वोपाख्याने सुदेवप्रतिबोधो नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
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