नारद उवाच :-
ततः किमभवत्तस्य प्रबुद्धस्य महीपतेः, तन्मे वद कृपासिन्धो श्रृण्वतां पापनाशनम् ॥ १ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
स्वकीयचरित्रं श्रुत्वा प्राक्तनं चकिताननम्, राजानं पुनरेवाह बाल्मीकिः श्रवणोत्सुकम् ॥ २ ॥
बाल्मीकिरुवाच :-
इति ताः शीतला वाचः समाकर्ण्य प्रियामुखात्, सुदेवो धैर्यमालम्ब्य हरौ चित्तमधारयत् ॥ ३ ॥
निःश्वस्य दीनवदनो यद्भाव्यं तद्भविष्यति, इति निश्चित्य मनमा पुष्पाद्यर्थं वनं ययौ ॥ ४ ॥
एवं कृतवतस्तस्य कियान् कालो गतः क्रमात्, समित्कुशफलाद्यर्थं कदाचित् काननं ययौ ॥ ५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
नारदजी बोले – हे कृपा के सिन्धु! उसके बाद जागृत अवस्था को प्राप्त उस राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ? सो मुझसे कहिये जिसके सुनने से पापों का नाश कहा गया है ॥ १ ॥
नारायणजी बोले – अपने पूर्व जन्म के चरित्र को सुनने से आश्चर्ययुक्त तथा और सुनने की इच्छा रखनेवाले राजा दृढ़धन्वा से बाल्मीकि ऋषि फिर बोले ॥ २ ॥
बाल्मीकि मुनि बोले – इस तरह स्त्री के मुख से शीतल वाणी को सुनकर सुदेव शर्म्मा धैर्य धारण कर हरि भगवान् में चित्त को लगाता हुआ ॥ ३ ॥
दीर्घ श्वाास लेकर दीनमुख सुदेव शर्म्मा, जो होनेवाला है वह होगा यह मन में निश्च य कर पुष्प समिधा आदि के लिये वन को गया ॥ ४ ॥
इस प्रकार करते उस सुदेवशर्म्मा का कितना ही समय बीत गया, बाद किसी दिन समिधा, कुश, फल, पुष्प आदि के लेने के लिये वन को गया ॥ ५ ॥
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सुदेवो मनसा ध्यायन् हरेः पादसरोरुहम्, तस्मिन्नेकव दिने गच्छद्वापीं सूनुः सुहृद्वृतः ॥ ६ ॥
प्रविश्य वापीं चिक्रीडे वयस्यैः सह वारिणि, जलयन्त्रैः क्षिपन् वारि बालकेषु स्मयन्मुहुः ॥ ७ ॥
जले क्रीडां मुहुः कुर्वन् ग्रीष्मे मोदमुपाययौ, एवं सर्वेषु बालेषु क्रीडत्सु प्रेमनिर्भरम् ॥ ८ ॥
अगाधसलिले तिष्ठन् बालकैरुपमर्दितः, स पलायनमन्विच्छन् सुहृद्वर्गभयात् द्रुतम् ॥ ९ ॥
विधिना नोदितस्तत्र नियम्य श्वालसमात्मनः, ममज्जगाधतोयेऽसौ वञ्चयन्नात्मनः सखीन् ॥ १० ॥
तत्रापि व्याकुलीभूय ततो निर्गन्तुमुन्मनाः, सहसा मृतिमापन्नः कुमारोऽगाधवारिणि ॥ ११ ॥
जलादनिर्गतं वीक्ष्य सर्वे चकितमानसाः, समानवयसः सर्वे हाहा कृत्वा प्रधाविताः ॥ १२ ॥
गौतम्यै कथयामासुर्बृहच्छोकपरायणाः, वज्रपातसमां वाचं बालानामनतिप्रियाम् ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
वहाँ जाकर सुदेवशर्म्मा मन से हरि भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करने लगा, उसी दिन उसका लड़का शुकदेव अपने मित्रों के साथ बावली को गया ॥ ६ ॥
बावली में प्रवेश कर समवयस्क मित्रों के साथ जलयन्त्रों से जल फेंकता हुआ और बार-बार हँसता हुआ खेलने लगा ॥ ७ ॥
गर्मी के ऋतु में बार-बार जल में खेलता हुआ हर्ष को प्राप्त हुआ। इस तरह प्रेम में मग्न सब बालकों से खेल करते हुए ॥ ८ ॥
अथाह जल में खड़ा हुआ वह शुकदेव बालक मित्र बालकों से पीड़ित होकर मित्र-वर्ग के भय से भागने की इच्छा करता हुआ ॥ ९ ॥
और भाग्य से प्रेरित हो अपने श्वाँस को रोक कर अपने मित्रों को छलने की इच्छा से वहाँ अथाह जल में गोता लगाया ॥ १० ॥
किन्तु उस जल में व्याकुल होकर उससे बाहर निकलने की इच्छा करता सहसा उस अथाह जल में वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥ ११ ॥
जल से निकलते हुए बालक को न देखकर, वे सब समवयस्क मित्र बालक चकित होकर हाहाकार करते हुए बहुत जोर से दौड़े ॥ १२ ॥
और अत्यन्त शोक से ग्रस्त वे बालक उसकी माता गौतमी से जाकर बोले, उन बालकों के अत्यन्त अप्रिय वज्रपात के समान वचन को ॥ १३ ॥
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श्रुत्वा भूमौ पपाताशु गौतमी पुत्रवत्सला, एतस्मिन्नेिब समये वनाद्विप्रः समाययौ ॥ १४ ॥
निशम्य पुत्रमरणं त्वष्टेवावापतद्भुवि, तत उत्थाय तौ विप्रदम्पती वापिकां गतौ ॥ १५ ॥
मृतं पुत्रं समालिङ्गय स्वाङ्क कृत्वा कलेवरम्, सुदेवः पुत्रवदनं चुचुम्ब च मुहुर्मुहुः ॥ १६ ॥
ततः स्वाङ्के स्थितं पुत्रं मृतं वीक्षन् मुहुर्मुहुः, स रुदन्विलपन्नेेव गद्गदाक्षरमूचिवान् ॥ १७ ॥
सुदेव उवाच :-
वद पुत्र शुभां वाणीं मम शोकविनाशिनीम्, शीतलां ललितां वत्स मनसो मोदमावह ॥ १८ ॥
विहाय पितरौ वृद्धौ न त्वं गन्तुमिहार्हसि, वत्साह्वति ते मित्रं वेदाध्ययनहेतवे ॥ १९ ॥
मुदाऽऽह्वयत्युपाध्यायस्त्वामध्यापनहेतवे, तूर्णमुत्तिष्ठ हे पुत्रं कथं सुप्तोऽसि साम्प्रतम् ॥ २० ॥
त्वां विहाय न गच्छामि गृहे किं मे प्रयोजनम्, शून्यारण्यमिवाद्यैव त्वदृते सदनं मम ॥ २१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
सुनकर पुत्र में प्रेम करने वाली वह गौतमी तुरन्त पृथिवी पर गिर गई, उसी समय वन से सुदेवशर्म्मा आया ॥ १४ ॥
पुत्र का मरण सुनकर कटे वृक्ष के समान पृथिवी पर गिर गया, बाद दोनों ब्राह्मण स्त्री-पुरुष उठकर बावली को गये ॥ १५ ॥
जाकर मृत पुत्र का आलिंगन कर उसके शरीर को गोद में लेकर सुदेवशर्म्मा बारम्बार पुत्र का मुख चूमने लगा ॥ १६ ॥
बाद अपने गोद में स्थित मृत पुत्र को बार-बार देखता हुआ, रोता-विलाप करता, गद्गद अक्षर से बोला ॥ १७ ॥
सुदेवशर्म्मा बोला – हे पुत्र! मेरे शोक को नाश करने वाले, शीतल, सुन्दर और शुभ वचन को बोलो, हे वत्स! मेरे मन को प्रसन्न करो ॥ १८ ॥
वृद्ध माता-पिता को छोड़कर तुम जाने के योग्य नहीं हो, हे वत्स! वेदाध्ययन के लिये तुम्हारा श्रेष्ठ मित्र बुला रहा है ॥ १९ ॥
और बड़े हर्ष से पढ़ाने के लिये उपाध्याय तुमको बुला रहे हैं, हे पुत्र! शीघ्र उठो, इस समय क्यों सो रहे हो? ॥ २० ॥
तुमको छोड़कर घर नहीं जाऊँगा, घर में मेरा क्या काम है? तुम्हारे बिना इस समय मेरा घर शून्य जंगल के समान हो गया है ॥ २१ ॥
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वनेऽपि नैव गच्छामि गमने किं प्रयोजनम्, फलमूलप्रियं त्वं चेन्नोतिष्ठसि ममाग्रतः ॥ २२ ॥
न मया चरितं गर्ह्यं ब्रह्महत्याऽपि नो कृता, केन कर्मविपाकेन पुत्रो मे निधनं गतः ॥ २३ ॥
अहो धातः किमेतावत्फलं लब्धं त्वया महत्, लोचनं मम दीनस्य वृद्धस्याकृष्य निर्दय ॥ २४ ॥
निर्धनस्य धनं बालं दम्पत्योरवलम्बनम्, हरतस्ते कथं लज्जाप जायते नहि कुत्रचित् ॥ २५ ॥
सर्वत्र सदयस्त्वं वै मयि निर्दयतां गतः, कथमित्यन्यथाभावो मम भाग्यवशादहो ॥ २६ ॥
कुत्राहं शोधयाम्यद्य पुत्रं प्रकृतिसुन्दरम्, द्रक्ष्ये तवाननं कुत्र पुत्र चारु सुलोचनम् ॥ २७ ॥
पर्यन्यः स्रवते वारि सूते धान्यं वसुन्धरा, गिरयो रत्नाजातानि मुक्तासारं पयोनिधिः ॥ २८ ॥
न तं देशं प्रपश्यामि यत्र पुत्रं भृतं लभेत्, यद्गात्रं तु समालिङ्ग्य हृद्गतं तापमुत्सृजेत् ॥ २९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
तुमको फल मूल प्रिय हो तो मेरे सामने से उठो, यदि नहीं उठोगे तो वन को भी नहीं जाऊँगा, वन में क्या काम है? ॥ २२ ॥
मैंने कोई निन्दित काम नहीं किया और ब्रह्महत्या भी नहीं की फिर किस कर्म के फल से मेरा पुत्र मर गया ॥ २३ ॥
अहो! ब्रह्मा! तुमने ऐसा करके कौन-सा बड़ा फल प्राप्त किया? हे निर्दय! वृद्ध, दीन मेरे नेत्र को लेकर ॥ २४ ॥
निर्धन का धन और दोनों स्त्री-पुरुषों का सहारा इस पुत्र को हरण करते तुमको लज्जा? क्यों नहीं होती? ॥ २५ ॥
सर्वत्र तुम दयालु हो परन्तु मेरे विषय में निर्दय हो गये, सो क्यों? अहो! आश्चर्य है, मेरे भाग्य से यह उलटा कैसे हुआ है ॥ २६ ॥
स्वभाव से सुन्दर पुत्र की खोज इस समय मैं कहाँ करूँ? हे पुत्र! तुम्हारे मुख और सुन्दर नेत्र को कहाँ देखूँगा ॥ २७ ॥
मेघ जल को वर्षाता है, पृथिवी धान्य को पैदा करती है, पर्वत रत्नों को और समुद्र मुक्तासार मणि को देते हैं ॥ २८ ॥
परन्तु उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ मरा हुआ पुत्र मिलता हो, जिसके शरीर का आलिंगन कर हृदय के ताप को छोड़ता ॥ २९ ॥
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हे वत्स त्वं सकृद्वाचं श्रावयाशु दयां कुरु, विलपत्यति ते माता कुररीव गतत्रपा ॥ ३० ॥
तां दृष्ट्वा तु कथं पुत्र दया नोत्पद्यते तव, अननुज्ञाप्य पितरौ न कदापि भवान् गतः ॥ ३१ ॥
आवामपृष्ट्वा किं दीर्घमार्गं त्वं गतवानसि, वेदाध्ययनसद्वाणीं कस्य श्रोष्यामि साम्प्रतम् ॥ ३२ ॥
त्वामनुस्मरतो वत्स कलवाक्यं मनोहरम्, शतधा दीर्यते नोऽद्य ह्यायसं हृदयं मम ॥ ३३ ॥
मन्ये सुधन्यं किल कौशलेन्द्रम्यः काननं दाशरथौ प्रयाते, दधार नोऽसून्सुततापदग्धो धिङ्मां सुतस्य प्रलयेऽप्यनष्टम् ॥ ३४ ॥
गोविन्द विष्णो यदुनाथ नाथ श्रीरुक्मिणीप्राणपते मुरारे, दीनानुकम्पिन् भगवन्दयालो मां पाहि पुत्रानलतापतप्तम् ॥ ३५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे वत्स! तुम एक बार शीघ्र वचन सुनाओ और दया करो, तुम्हारी माता लज्जाा छोड़कर चील्ह के समान अत्यन्त विलाप करती है ॥ ३० ॥
हे पुत्र! उसको देख कर तुमको दया क्यों नहीं पैदा होती है? माता-पिता की आज्ञा बिना तुम कभी भी नहीं गये ॥ ३१ ॥
हे पुत्र! हम दोनों से बिना पूछे ही दूर के मार्ग को गये हो क्या? इस समय किसके वेदाध्ययन की उत्तम वाणी को सुनूँगा ॥ ३२ ॥
हे वत्स! आज तुम्हारे और तुम्हारे मनोहर मधुर वचन के स्मरण से मेरा हृदय सौ-सौ टुकड़ा नहीं हो रहा है। क्योंकि मेरा हृदय लोहे के समान है ॥ ३३ ॥
हे कोशलेन्द्र! राजा दशरथ! तुमको हम धन्य मानते हैं क्योंकि रामचन्द्र के वन जाने पर पुत्र के ताप से दग्ध वे प्राणों को नहीं रख सके, परन्तु पुत्र के मर जाने पर भी जीवित रहनेवाले मुझको धिक्काकर है ॥ ३४ ॥
हे गोविन्द! हे विष्णो! हे यदुनाथ! हे नाथ! हे श्रीरुक्मिणी के प्राणपति! हे मुरारे! हे दीन पर दया करनेवाले! हे दयालो! पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो ॥ ३५ ॥
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देवाधिदेवाखिललोकनाथ गोपाल गोपीश रथाङ्गपाणे, कलिन्दकन्याविषदोषहारिन् मां पाहि पुत्रानलतापतप्तम् ॥ ३६ ॥
वैकुण्ठ विष्णो नरकासुरारे चराचराधार भवाब्धिपोत, ब्रह्मादिदेवानतपादपीठ मां पाहि पुत्रानलतापतप्तम् ॥ ३७ ॥
शठो मदन्यो भविता न कोऽपि यो देवकीसूनुवचो विलङ्ध्य, पुत्रे दुराशां कृतवानभाग्यो लभेत को दृष्टविनष्टवस्तु ॥ ३८ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने सुदेवविलापो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे देवादिदेव! हे समस्त लोक के नाथ! हे गोपाल! हे गोपीश! हे चक्र को हाथ में धारण करने वाले! हे यमुना के विष-दोष को हरनेवाले! पुत्र रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो ॥ ३६ ॥
हे बैकुण्ठ के वासी विष्णो! हे नरकासुर के नाशक! हे चराचर के आधार! हे संसार रूप समुद्र से पार करने के लिए जहाज रूप! अर्थात् संसार समुद्र से पार उतारने वाले! हे ब्राह्मादि देवताओं से नमस्कृत चरणपीठ वाले! पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो ॥ ३७ ॥
हमारे समान शठ दूसरा कोई नहीं है जो मैंने देवकीपुत्र श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का उल्लंघन कर पुत्र में दुराशा की, कौन अभागा पुरुष भाग्य में न रहने वाली वस्तु को प्राप्त कर सकता है ॥ ३८ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढ़धन्वोपाख्याने सुदेवविलापो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
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