🌷 अध्याय १८ – दृढधन्वोपाख्याने सुदेवपुत्रजीवनं 🌷

 

नारद उवाच :-

दृढधन्वा महीपालं किमुवाच ततः परम्‌, बाल्मीकिर्भगवान्साक्षात्तद्वदस्व तपोनिधे ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

दृढधन्वा स राजर्षिः श्रुत्वा प्राक्तनमात्मनः, सविस्मयं समापृच्छद्वाल्मीकिं मुनिसत्तमम्‌ ॥ २ ॥

दृढधन्वोवाच :-

ब्रह्मंस्तव वचो रम्यं सुधाकल्पं नवं नवम्‌, पीत्वा पीत्वा न तृप्तोऽस्मि भूयो वद ततः परम्‌ ॥ ३ ॥

बाल्मीकिरुवाच :-

एवं विलपतस्तस्य विप्रस्य जगतीपते, अकालजलदोऽभ्यागाद्‌ गर्जयंश्च दिशो दश ॥ ४ ॥

ववौ वायुः खरस्पर्शः कम्पयन्निव पर्वतान्‌, बृहल्लभसन्महाविद्युत्स्वनेनापूरयन्‌ दिशः ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नारद जी बोले – हे तपोनिधे! उसके बाद साक्षात्‌ भगवान्‌ बाल्मीकि मुनि ने राजा दृढ़धन्वा को क्या कहा सो आप कहिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले – वह राजर्षि दृढ़धन्वा अपने पूर्व-जन्म का वृ्त्तान्त सुनकर आश्चर्य करता हुआ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि से पूछता है ॥ २ ॥

दृढ़धन्वा बोला – हे ब्रह्मन्‌! आपके नवीन-नवीन सुन्दर अमृत के समान वचनों को बारम्बार पान कर भी मैं तृप्त नहीं हुआ, इसलिए पुनः उसके बाद का वृतान्त कहिये ॥ ३ ॥

बाल्मीकि मुनि बोले – हे जगतीपते! इस प्रकार उस ब्राह्मण के विलाप करते समय गर्जना से दशो दिशाओं को गिञ्जित करता हुआ असमय में होने वाला मेघ आया ॥ ४ ॥

पर्वतों को कँपाने के समान तीक्ष्ण स्पर्शों वाला वायु बहने लगा और बिजली अत्यन्य चमकती हुई अपनी आवाज से दश दिशाओं को पूर्ण करती हुई ॥ ५ ॥

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यावन्मासं ववर्षैवं मही पूर्णजलाऽभवत्‌, नासौ विज्ञातवान्‌ किञ्चित्पुत्रशोकाग्नितापितः ॥ ६ ॥

न पपौ बुभुजे नैव पुत्र पुत्र इति ब्रुवन्‌, एवं विलपतस्तस्य मासो यो विगतस्तदा ॥ ७ ॥

श्रीकृष्णवल्लनभो मासः सोऽभवत्पुरुषोत्तमः, अजानतोऽपि तस्यासीत्पुरुषोत्तमसेवनम्‌ ॥ ८ ॥

तेनात्यन्तप्रसन्नः सन्‌ प्रादुरासीद्धरिः स्वयम्‌, नवीनजलदश्यामो वनमालाविभूषितः ॥ ९ ॥

प्रादुर्भूते जगन्नाथे विलीना घनराजयः, ततो ददर्श विप्रौऽसौ श्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम्‌ ॥ १० ॥

सहसाङ्कगतं पुत्रदेहं भुवि निधाय च, सपत्नीको नमश्चके दण्डवच्छ्रीहरिं मुदा ॥ ११ ॥

बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा संस्थितः श्रीहरेः पुरः, श्रीकृष्ण एव शरणं ममास्त्विति विचिन्तयन्‌ ॥ १२ ॥

भगवानपि तुष्टः सन्‌ पुरुषोत्तमसेवनात्‌, अवोचन्मधुरां वाणीं बृहत्पीयूषवर्षिणीम्‌ ॥ १३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस तरह एक मास तक वृष्टि हुई जिस जल से पृथ्वी भर गई परन्तु पुत्र-शोक रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त वह ब्राह्मण कुछ भी नहीं जान सका ॥ ६ ॥

न तो जलपान किया और न भोजन ही किया, केवल हे पुत्र! हे पुत्र! इस प्रकार कहकर विलाप करते हुए ब्राह्मण का उस समय जो मास व्यतीत हुआ ॥ ७ ॥

वह श्रीकृष्णचन्द्र का प्रिय पुरुषोत्तम मास था! सो न जानते हुए उस ब्राह्मण को पुरुषोत्तम मास का सेवन हो गया ॥ ८ ॥

उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से अत्यन्त प्रसन्न नूतन मेघ के समान श्यामवर्ण, वनमाला से भूषित हरि भगवान्‌ स्वयं प्रगट हुए ॥ ९ ॥

जगत्‌ के नाथ हरि भगवान्‌ के प्रगट होने पर मेघसमूह गायब हो गया, बाद उस ब्राह्मण ने पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र को देखा ॥ १० ॥

दर्शन होने के साथ ही गोद में लिए हुए पुत्र के शरीर को जमीन पर रख कर स्त्री सहित ब्राह्मण श्रीकृष्ण भगवान्‌ को दण्डवत्‌ नमस्कार करता हुआ ॥ ११ ॥

हाथ जोड़ कर श्रीकृष्ण भगवान्‌ के सामने खड़ा होकर श्रीकृष्ण भगवान्‌ ही हमारे रक्षक हों ऐसा विचार करता हुआ ॥ १२ ॥

भगवान्‌ भी पुरुषोत्तम की सेवा से प्रसन्न हो अमृत की वृष्टि करनेवाली अत्यन्त मधुर वाणी से बोले ॥ १३ ॥

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श्रीहरिरुवाच :-

भो भो सुदेव धन्योऽसि भाग्यवान्‌ सम्प्रतं भवान्‌, त्वद्भाग्यं वर्णितुं को वा समर्थो भुवनत्रये ॥ १४ ॥

श्रृणु वत्स प्रवक्ष्येऽहं यत्ते भावि तपोधन, द्वादशाब्दसहस्रायुः पुत्रस्ते भविता द्विज ॥ १५ ॥

अतः परं न सन्देहस्तव पुत्रोद्भवे सुखम्‌, मयाऽयं ते सुतो दत्तः प्रसन्नेन द्विजोत्तम ॥ १६ ॥

तव पुत्रसुखं दृष्ट्वा देवगन्धर्वमानवाः, सस्पृहास्ते भविष्यन्ति प्रसादान्मे द्विजोत्तम ॥ १७ ॥

अत्र ते कथयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्‌, मार्कण्डेयेन मुनिना पुरा प्रोक्तं रघुं नृपम्‌ ॥ १८ ॥

पुरा मुनीश्वरः कश्चिद्धनुर्नामा महामनाः, पश्यन्‌ पुत्रादिनिर्दग्धान्‌ लोकान्‌ दीनमना अभूत्‌ ॥ १९ ॥

अमरं पुत्रमन्विच्छंस्तपस्तेपे सुदारुणम्‌, सहस्राब्दे गते काले देवास्तमब्रुवन्मुनिम्‌ ॥ २० ॥

वरं वरय भद्रं ते यस्ते मनसि वाञ्छितः, प्रसन्नाः स्मो वयं सर्वे तीव्रेण तपसा तव ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीहरि भगवान्‌ बोले – भो भो सुदेव! तुम धन्य हो, इस समय आप भाग्यवान्‌ हो, तुम्हारे भाग्य के वर्णन करने में त्रलोक्य में कौन समर्थ है? ॥ १४ ॥

हे वत्स! हे तपोधन! जो तुम्हारा होने वाला है उसको हम कहेंगे, तुम सुनो, हे ब्राह्मण! बारह हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र तुमको होगा ॥ १५ ॥

इसके बाद तुमको पुत्र से होने वाले सुख में सन्देह नहीं है, हे द्विजात्तम! प्रसन्न मन से मैंने यह पुत्र तुमको दिया है ॥ १६ ॥

हमारे प्रसाद से होने वाले तुम्हारे पुत्र-सुख को देखकर हे द्विजोत्तम! देवता, गन्धर्व और मनुष्य लोग पुत्र-सुख की इच्छा करने वाले होंगे ॥ १७ ॥

इस विषय में तुमसे प्राचीन इतिहास मैं कहूँगा, जिस इतिहास को पहले मार्कण्डेय मुनि ने राजा रघु से कहा था ॥ १८ ॥

प्रथम कोई श्रेष्ठ मनवाले धनुर्नामक मुनीश्वर लोकों को पुत्र रूप मानसिक चिन्ता से जले हुए देखकर दुःखित हुए ॥ १९ ॥

और अमर पुत्र की इच्छा करके दारुण तप करने लगे, हजार वर्ष बीत जाने पर धनुर्मुनि से देवता लोग बोले ॥ २० ॥

हे मुनीश्व्र! तुम्हारे कठिन तप से हम सब प्रसन्न हैं इसलिए अपने मन के अनुसार श्रेष्ठ वर को माँगो ॥ २१ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

इति देववचः श्रुत्वा सुतृप्तोऽमृतसन्निभम्‌, वब्रे तपोधनः पुत्रममरं बुद्धिशालिनम्‌ ॥ २२ ॥

तमूचुर्निर्जराः सर्वे नैवं भूतोऽस्ति भूतले, पुनराह मुनिर्देवान्निमित्तायुर्भवत्विति ॥ २३ ॥

सुराः प्रोचुर्निमित्तं किं वद सोऽप्यवदन्मुनिः, असौ महान्‌ गिरिर्यावत्तावदायुर्विधीयताम्‌ ॥ २४ ॥

एवमस्त्विति सम्पाद्य सेन्द्रा देवा दिवं ययुः, धनुः शर्मा सुतं लेभे कालेनाल्पेन तादृशम्‌ ॥ २५ ॥

स पुत्रो ववृधे तस्य तारापतिरिवाम्बरे, प्राप्तेध तु षोडशे वर्षे पुत्रं प्राह मुनीश्वरः ॥ २६ ॥

हे वत्स मुनयः सर्वे नावज्ञेयाः कदाचन, शिक्षितोऽपि तथा पुत्रः सोद्वेगानकरोन्मुनीन्‌ ॥ २७ ॥

निमित्तायुर्बलोन्मत्तो ब्राह्मणानवमन्यते, कदाचिन्महिषो नाम मुनिः परमकोपनः ॥ २८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – देवताओं के अमृत तुल्य इस वचन को सुनकर उन तपोधन धनुर्नामक मुनि ने बुद्धिमान्‌ और अमर पुत्र को माँगा ॥ २२ ॥

बाद उस ब्राह्मण से देवताओं ने कहा कि पृथिवी में ऐसा पुत्र नहीं है, तब धनुर्मुनि ने देवताओं से कहा कि अच्छा ऐसा पुत्र दो जिसके आयु की मर्यादा बँधी हो ॥ २३ ॥

देवताओं ने कहा कि कैसी मर्यादा चाहिये? कहो, इस पर उस मुनि ने भी कहा कि यह महान्‌ पर्वत जब तक रहे तब तक उसकी आयु होवे ॥ २४ ॥

‘ऐसा ही हो’, इस प्रकार कह कर इन्द्रादि देवता स्वर्ग को चले गये, धनुशर्मा ने थोड़े समय में वैसा ही पुत्र को प्राप्त किया ॥ २५ ॥

उस मुनि का पुत्र आकाश में चन्द्र के समान बढ़ने लगा, सोलहवें वर्ष के होने पर मुनीश्व र ने पुत्र से कहा ॥ २६ ॥

हे वत्स! ये मुनि लोग कभी भी अपमान करने योग्य नहीं हैं, इस तरह शिक्षा देने पर भी उस पुत्र ने मुनियों का अनादर किया ॥ २७ ॥

आयु की मर्यादा के बल से उन्मत्त उसने ब्राह्मणों का अपमान किया, किसी समय परम क्रोधी महिष नामक मुनि ने ॥ २८ ॥

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पूजयामास विधिना शालग्रामशिलां शुभाम्‌, तदानीं स समागत्य तामादाय त्वरान्वितः ॥ २९ ॥

चिक्षेप निजचाञ्चल्यात्‌ कूपे पूर्णजले हसन्‌, ततः क्रोधसमाविष्टः कालरुद्र इवापरः ॥ ३० ॥

शशाप धनुषः पुत्रमद्यैव म्रियतामयम्‌, न मृतं पुत्रमालक्ष्य दध्यौ मनसि कारणम्‌ ॥ ३१ ॥

निमित्तायुरय देवैः कृतोऽयं धनुषः सुतः, इति चिन्तापरेणाशु निश्वासः प्रकटीकृतः ॥ ३२ ॥

महिषाः कोटिशो जातास्तैर्गिरिः शकलीकृतः, तदानीं मृतिमापन्नो मुनिपुत्रोऽतिदुर्मदः ॥ ३३ ॥

धनुःशर्माऽतिदुःखेन विललाप मुहुर्मुहुः, विलप्य बहुधा विप्रो गृह्य पुत्रकलेवरम्‌ ॥ ३४ ॥

प्रविवेश चितावह्नौ पुत्रदुःखातिपीडितः, एवं हठाप्तपुत्रा ये न सुखं यान्ति कुत्रचित्‌ ॥ ३५ ॥

वैनतेयेन यो दत्तस्तनयोऽयं तपोधन, तेन त्वं पुत्रवान्‌ लोके स्पृहणीयो भविष्यसि ॥ ३६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

विधि से शुभ फल देने वाले शालग्राम शिला का पूजन किया, उसी समय उस बालक ने वहाँ आकर शालग्राम की शिला को जल्दी से लेकर ॥ २९ ॥

अपनी चंचलता के कारण हँसता हुआ पूर्ण जल वाले कूप में छोड़ दिया, बाद क्रोध से युक्त दूसरे कालरुद्र के समान महिष मुनि ने ॥ ३० ॥

उस धनुर्मुनि के पुत्र को शाप दिया कि यह अभी मर जाय, परन्तु उसे मृत हुये न देखकर मन में मृत्यु के कारण का ध्यान किया ॥ ३१ ॥

देवताओं ने इस धनुष के पुत्र को निमित्तायु वाला बनाया है, इस तरह चिन्ता करते हुए महिष मुनि ने लम्बी साँस ली ॥ ३२ ॥

जिससे कई कोटि महिष पैदा हो गये और उन महिषों ने पर्वत को टुकड़ा-टुकड़ा कर दिया, उसी समय मुनि का अत्यन्त दुर्मद लड़का मर गया ॥ ३३ ॥

धनुःशर्मा ने अत्यन्त दुःख से बार-बार विलाप किया, बाद अनेक प्रकार विलाप कर पुत्र के शरीर को लेकर॥ ३४ ॥

पुत्र के दुःख से अत्यन्त पीड़ित हो चिता की अग्नि में प्रवेश किया, इस प्रकार हठ से पुत्र प्राप्त करने वाले कहीं भी सुख को नहीं पाते हैं ॥ ३५ ॥

हे तपोधन! गरुड़जी ने यह जो पुत्र दिया है इससे संसार में तुम प्रशंसनीय पुत्रवान्‌ होगे ॥ ३६ ॥

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पुरुषोत्तममाहात्म्यात्‌ प्रसन्नेन मयाऽनघ, सुचिरं स्थापितोऽयं हि तनयः सुखदोऽस्तु ते ॥ ३७ ॥

गार्हस्थ्यमतुलं भुक्त्वा  सह पुत्रेण सर्वदा, ततस्त्वं ब्रह्मणो लोकं गत्वा तत्र महत्सुखम्‌ ॥ ३८ ॥

दिव्याब्दवर्षसाहस्रं भुक्त्वा  गन्तासि भूतले, ततो राजा चक्रवर्ती भविष्यसि द्विजोत्तम ॥ ३९ ॥

दृढधन्वेति विख्यातः समृद्धबलवाहनः, संवत्सराणामयुतं राज्यं भोक्ष्यसि पार्थिवम्‌ ॥ ४० ॥

अव्याहतबलैश्वर्यमाखण्डलपदाधिकम्‌, गौतमीयं तवाङ्गार्धहारिणी महिषी तदा ॥ ४१ ॥

पतिसेवारता नित्यं नाम्ना च गुणसुन्दरी, चत्वारस्ते सुता भाव्या राजनीतिविशारदाः ॥ ४२ ॥

कन्यैका च महाभागा सुशीला सुवरानना, भुक्त्वा  भोंगान्‌ महाभाग सुरासुरसुदुर्लभान्‌ ॥ ४३ ॥

कृतार्थोऽहं धरापीठे इत्यज्ञानविमोहितः, अतिदुस्तरसंसारविषयाकृष्टमानसः ॥ ४४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे अनघ! मैंने प्रसन्न होकर पुरुषोत्तम के माहात्म्य से इस पुत्र को चिरस्थायी किया है, यह तुमको सुख देने वाला हो ॥ ३७ ॥

पुत्र के साथ सर्वदा गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने के बाद तुम ब्रह्मलोक को जाओगे, वहाँ उत्तम सुख ॥ ३८ ॥

देवताओं के वर्ष से हजार वर्ष पर्यन्त भोग कर पृथ्वी पर आओगे हे द्विजोत्तम! यहाँ तुम चक्रवर्ती राजा होगे ॥ ३९ ॥

दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध तथा सेना, सवारी से युक्त हो दश हजार वर्ष पर्यन्त पृथिवी के राजा का सुख भोगोगे ॥ ४० ॥

इन्द्र के पद से अधिक अखण्ड बल और ऐश्व्र्य होवेगा, उस समय यह गौतमी स्त्री पटरानी होवेगी ॥ ४१ ॥

नित्य पतिसेवा में तत्पर और गुणसुन्दरी नाम वाली होगी, राजनीति विशारद तुमको चार पुत्र होंगे ॥ ४२ ॥

और सुन्दर मुखवाली महाभागा सुशीला नाम की कन्या होगी, हे महाभाग! सुरों और असुरों को दुर्लभ संसार के सुखों को भोगकर ॥ ४३ ॥

“इस पृथिवी में हमने सब कुछ किया अब कुछ कर्तव्य नहीं है” इस तरह अज्ञान से मोहित होकर अत्यन्त दुस्तर संसार के विषयों से खिंचे हुए मन वाले ॥ ४४ ॥

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यदा विस्मरसे विष्णु संसारार्णवतारकम्‌, अयं ते तनयो विप्र शुको भूत्वा तदा वने ॥ ४५ ॥

वटवृक्षं समाश्रित्य त्वामेवं बोधयिष्यति, वैराग्योत्पादकं पद्यं पठन्नेरव मुहुर्मुहुः ॥ ४६ ॥

श्रुत्वा वाक्यं शुकप्रोक्तं दुर्मना गृहमेष्यसि, अथ चिन्तार्णवे मग्नं त्यक्त्वाु विषयजं सुखम्‌ ॥ ४७ ॥

बाल्मीकिस्त्वां समागत्य बोधयिष्यति भूसुर, तद्वाक्यैश्छिन्नसन्देहस्त्यक्त्वा  लिङ्गं हरेः पदम्‌ ॥ ४८ ॥

गमिष्यसि सपत्नीाकः पुनरावृत्तिवर्जितम्‌, वदत्येवं महाविष्णौ समुत्तस्थौ द्विजात्मजः ॥ ४९ ॥

दम्पती तौ सुतं दृष्ट्वा महानन्दौ बभूवतुः, सुराः सर्वेऽपि सन्तुष्टा ववृषुः कुसुमाकरान्‌ ॥ ५० ॥

ननाम शुकदेवोऽपि श्रीहरिं पितरौ च तौ, गरुडोऽप्यतिसंहृष्टस्तं दृष्ट्वा ससुतं द्विजम्‌ ॥ ५१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

तुम संसार रूपी समुद्र के पार करने वाले विष्णु भगवान्‌ को जब भूल जाओगे तब हे विप्र! उस समय वन में यह तुम्हारा पुत्र शुक पक्षी होकर ॥ ४५ ॥

वट वृक्ष के ऊपर बैठ कर, वैराग्य पैदा करने वाले श्लोक को बार-बार पढ़ता हुआ तुमको इस प्रकार बोध करायेगा ॥ ४६ ॥

शुक पक्षी के वचन को सुनकर दुःखित मन होकर घर आओगे, बाद संसार के विषय सुखों को छोड़कर चिन्तारूपी समुद्र में मग्न ॥ ४७ ॥

हे भूसुर! तुमको बाल्मीकि मुनि आकर ज्ञान करायेंगे, उनके वचन से निःसन्देह हो शरीर को छोड़कर हरि भगवान्‌ के पद को ॥ ४८ ॥

दोनों स्त्री-पुरुष तुम जाओगे – जो कि पद आवागमन से रहित कहा गया है, इस प्रकार महाविष्णु के कहने पर वह ब्राह्मण-बालक उठ खड़ा हुआ ॥ ४९ ॥

वे दोनों स्त्री-पुरुष ब्राह्मण पुत्र को उठा हुआ देख कर अत्यन्त आनन्दित हो गये, सब देवता लोग भी सन्तुष्ट होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ ५० ॥

शुकदेव ने भी श्रीहरि को और माता-पिता को प्रणाम किया, उस ब्राह्मण को पुत्र के साथ देख कर गरुड़जी भी अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ५१ ॥

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ब्राह्मणश्चकितो भूत्वा ननाम श्रीहरिं तदा, बद्धाञ्जलिपुटो विप्रः प्रोवाच जगदीश्वरम्‌ ॥ ५२ ॥

हृदिस्थं संशयं छेत्तुं हर्षगद्गदया गिरा ॥ ५३ ॥

चत्वार्यब्दसहस्रमेवमनिशं तप्तंग तपो दुष्करं तत्रागत्य वचस्त्वया निगदितं यन्मां हरे कर्कशम्‌, हे  वत्साद्य विलोकितं तव सुतो नैवास्ति नैवास्ति हि तद्वाक्यं व्यतिलङ्घय मे मृतसुतोत्थाने च हेतुं वद ॥ ५४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे सुदेवपुत्रजीवनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उस समय चकित होकर ब्राह्मण ने श्रीहरि भगवान्‌ को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर जगदीश्वीर से बोला ॥ ५२ ॥

हृदय में होने वाले सन्देह को दूर करने ले लिए हर्ष के कारण गद्‌गद वचन से बोला – ॥ ५३ ॥

हे हरे! मैंने चार हजार वर्ष पर्यन्त लगातार अत्यन्त दुष्कर तप किया उस समय मेरे को आपने वहाँ आकर जो कठोर वचन कहा कि हे वत्स! हमने अच्छी तरह देखा है। इस समय तुमको निश्चय पुत्र नहीं है। हे हरे! उस वचन का उल्लंघन कर मेरे मृत पुत्र को जीवित करने का कारण क्या है? सो आप कहिये ॥ ५४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे सुदेवपुत्रजीवनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

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