सूत उवाच :-
इति ब्रुवाणं प्राचीनं मुनिमाह तपस्विनः, प्रीणयन्निव सद्वाचा नारदो मुनिसत्तमः ॥ १ ॥
किमुवाचोत्तरं ब्रह्मन् सुदेवं तपसां निधिम्, प्रसन्नो भगवान् विष्णुस्तन्मे ब्रूहि तपोनिधे ॥ २ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
इत्यमावेदितो विष्णुः सुदेवेन महात्मना, प्रत्याह प्रीणयन् वाचा भगवान् भक्तवत्सलः ॥ ३ ॥
हरिरुवाच :-
द्विजराज कृतं यत्ते नैतदन्यः करिष्यति, न तद्वेत्ति भवान्नूीनं येनाहं तुष्टिमाप्तावान् ॥ ४ ॥
अयं मम प्रियो मासः प्रयातः पुरुषोत्तमः, तत्सेवा ते समजनि शोकमग्नस्य सस्त्रियः ॥ ५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीसूत जी बोले – हे तपस्वियो! इस प्रकार कहते हुए प्राचीन मुनि नारायण को मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने मधुर वचनों से प्रसन्न करके कहा ॥ १ ॥
हे ब्रह्मन्!तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न विष्णु भगवान् ने क्या उत्तर दिया सो हे तपोनिधे! मेरे को कहिये ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले – इस प्रकार महात्मा सुदेव ब्राह्मण ने विष्णु भगवान् से कहा, बाद भक्तवत्सल विष्णु भगवान् ने वचनों द्वारा सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न करके कहा ॥ ३ ॥
हरि भगवान् बोले – हे द्विजराज! जो तुमने किया है उसको दूसरा नहीं करेगा, जिसके करने से हम प्रसन्न हुए उसको आप नहीं जानते हैं ॥ ४ ॥
यह हमारा प्रिय पुरुषोत्तम मास गया है, स्त्री के सहित शोक में मग्न तुमसे उस पुरुषोत्तम मास की सेवा हुई ॥ ५ ॥
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एकमप्युपवासं यः करोत्यस्मिस्तपोनिधे, असावनन्तपापानि भस्मीकृत्य द्विजोत्तम, सुरयानं समारुह्य बैकुण्ठं याति मानवः ॥ ६ ॥
मासमात्रं निराहारो ह्यकालजलदागमात्, त्रिषु कालेषु ते स्नानं सञ्जातं प्रतिवासरम् ॥ ७ ॥
अभ्रस्नानं त्वया लब्धं मासमात्रं तपोधन, उपवासाश्च ते जातास्तावन्मात्रमखण्डिताः ॥ ८ ॥
शोक्रसागरमग्नस्य पुरुषोत्तमसेवनम्, अजानतोऽपिसञ्जा्तं चेतनारहितस्य ते ॥ ९ ॥
त्वदीयसाधनस्यास्य प्रमाणं कः करिष्यति, एकतः साधनान्येव वेदोक्तानि च यानि वै ॥ १० ॥
तानि सर्वाणि संगृह्य ह्येकतः पुरुषोत्तमम्, तोलयामास देवानां सन्निधौ चतुराननः ॥ ११ ॥
लघून्यन्यानि जातानि गुरुश्च पुरुषोत्तमः, तस्माद्भूमिस्थितैर्लोकैः पूज्यते पुरुषोत्तमः ॥ १२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे तपोनिधे! इस पुरुषोत्तम मास में जो एक भी उपवास करता है, हे द्विजोत्तम! वह मनुष्य अनन्त पापों को भस्म कर विमान से बैकुन्ठ लोक को जाता है ॥ ६ ॥
सो तुमको एक महीना बिना भोजन किये बीत गया और असमय में मेघ के आने से प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न सायं तीनों काल में स्नान भी अनायास ही हो गया ॥ ७ ॥
हे तपोधन! तुमको एक महीना तक मेघ के जल से स्नान मिला और उतने ही अखण्डित उपवास भी हो गये ॥ ८ ॥
शोकरूपी समुद्र में मग्न होने के कारण ज्ञान से शक्ति से हीन तुमको अज्ञान से पुरुषोत्तम का सेवन हुआ ॥ ९॥
तुम्हारे इस साधन का तौल कौन कर सकता है ? तराजू के एक तरफ पलड़े में वेद में कहे हुए जितने साधन हैं ॥ १० ॥
उन सबको रख कर और दूसरी तरफ पुरुषोत्तम को रख कर देवताओं के सामने ब्रह्मा ने तोलन किया ॥ ११ ॥
और सब हलके हो गये, पुरुषोत्तम भारी हो गया, इसलिये भूमि के रहने वाले लोगों से पुरुषोत्तम का पूजन किया जाता है ॥ १२ ॥
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पुरुषोत्तममासस्तु सर्वत्रास्ति तपोधन, तथापि पृथिवीलोके पूजितः सफलो भवेत् ॥ १३ ॥
तस्मात् सर्वात्मना वत्स भवान् धन्योऽस्ति साम्प्रतम्, यदस्मिंस्तप्तवानुग्रं तपः परमदारुणम् ॥ १४ ॥
मानुषं जन्म सम्प्राप्य मासे श्रीपुरुषोत्तमे, स्नानदानादिरहिता दरिद्रा जन्मजन्मनि ॥ १५ ॥
तस्मात् सर्वात्मना यो वै सेवते पुरुषोत्तमम्, स मे वल्लभतां याति धन्यो भाग्ययुतो नरः ॥ १६ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
एवमुक्त्वा हरिः शीघ्रं जगाम जगदीश्वरः, वैनतेयं समारुह्य बैकुण्ठममलं मुने ॥ १७ ॥
सपत्नीरकः सुदेवस्तु मुमुदेऽहनिशं भृशम्, मृतोत्थितं शुकं दृष्ट्वा पुरुषोत्तमसेवनात् ॥ १८ ॥
अजानतो ममैवासीत्पुरुषोत्तमसेवनम्, तदेव सफलं जातं येन पुत्रो मृतोत्थितः ॥ १९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे तपोधन! यद्यपि पुरुषोत्तम मास सर्वत्र है, फिर भी इस पृथिवी लोक में पूजन करने से फल देने वाला कहा है ॥ १३ ॥
इससे हे वत्स! इस समय आप सब तरह से धन्य हैं, क्योंकि आपने इस पुरुषोत्तम मास में उग्र तथा परम दारुण तप को किया ॥ १४ ॥
मनुष्य शरीर को प्राप्त कर जो लोग श्रीपुरुषोत्तम मास में स्नान दान आदि से रहित रहते हैं वे लोग जन्म-जन्मान्तर में दरिद्र होते हैं ॥ १५ ॥
इसलिये जो सब तरह से हमारे प्रिय पुरुषोत्तम मास का सेवन करता है वह मनुष्य हमारा प्रिय, धन्य और भाग्यवान् होता है ॥ १६ ॥
श्रीनारायण बोले – हे मुने! जगदीश्व र हरि भगवान् इस प्रकार कह कर गरुड़जी पर सवार होकर शुद्ध बैकुण्ठ भवन को शीघ्र चले गये ॥ १७ ॥
सपत्नी्क सुदेवशर्म्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से मृत्यु से उठे हुए शुकदेव पुत्र को देखकर अत्यन्त दिन-रात प्रसन्न होता भया ॥ १८ ॥
मुझसे अज्ञानवश पुरुषोत्तम मास का सेवन हुआ और वह पुरुषोत्तम मास का सेवन फलीभूत हुआ, जिसके सेवन से मृत पुत्र उठ खड़ा हुआ ॥ १९ ॥
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अहो एतादृशो मासो नैव दृष्टः कदाचन, इत्येवं विस्मयाविष्टस्तं मासं समपूजयत् ॥ २० ॥
तेन पुत्रेण मुमुदे सपत्नीटको द्विजोत्तमः, पितरं नन्दयामास शुकदेवोऽपि सत्कृतैः ॥ २१ ॥
स्तुवन् मासं च विष्णुं च पूजयामास सादरम्, कर्ममार्गस्पृहां त्यक्त्वा भक्तिमार्गैकसस्पृहः ॥ २२ ॥
सर्वेदुःखापहं मासं वरिष्ठं पुरुषोत्तमम्, जपहोमादिभिस्तस्मिन्नभजच्छ्रीहरिं स्त्रिया ॥ २३ ॥
भुक्त्वा ऽथ विषयान् सर्वान् सहस्राब्दमहर्निशम्, जगाम परमं लोकं सपत्नी्को द्विजोत्तमः ॥ २४ ॥
योगिनामपि दुष्प्रापं याजकानां तु तत्कुतः, यत्र गत्वा न शोचन्ति वसन्तो हरिसन्निधौ ॥ २५ ॥
तत्रत्यं सुखमासाद्य सपत्नीनको भवं गतः, स एव दृढधन्वा स्वं प्रथितः पृथिवीपतिः ॥ २६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
आश्चर्य है कि ऐसा मास कहीं नहीं देखा! इस तरह आश्चर्य करता हुआ उस पुरुषोत्तम मास का अच्छी तरह पूजन करने लगा ॥ २० ॥
वह सपत्नीक ब्राह्मणश्रेष्ठ इस पुत्र से प्रसन्न हुआ और शुकदेव पुत्र ने भी अपने उत्तम कार्यों से सुदेवशर्म्मा पिता को प्रसन्न किया ॥ २१ ॥
सुदेवशर्म्मा ने पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की तथा आदर के साथ श्रीविष्णु भगवान् की पूजा की और कर्ममार्ग से होने वाले फलों में इच्छा का त्याग कर एक भक्तिमार्ग में ही प्रेम रक्खा ॥ २२ ॥
श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास को समस्त दुःखों का नाश करने वाला जान कर, उस मास के आने पर स्त्री के साथ जप-हवन आदि से श्रीहरि भगवान् का सेवन करने लगा ॥ २३ ॥
वह सपत्नीरक श्रेष्ठ ब्राह्मण निरन्तर एक हजार वर्ष संसार के समस्त विषयों का उपयोग कर विष्णु भगवान् के उत्तम लोक को प्राप्त हुआ ॥ २४ ॥
जो योगियों को भी दुष्प्राप्य है, फिर यज्ञ करने वालों को कहाँ से प्राप्त हो सकता है? जहाँ जाकर विष्णु भगवान् के सन्निकट वास करते हुए शोक के भागी नहीं होते हैं ॥ २५ ॥
वहाँ पर होने वाले सुखों को भोग कर गौतमी तथा सुदेवशर्म्मा दोनों स्त्री-पुरुष इस पृथ्वी में आये, वही तुम सुदेवशर्म्मा इस समय दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध पृथिवी के राजा हुये ॥ २६ ॥
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पुरुषोत्तममासस्य सेवनात् सकलर्द्धिभाक्, महिषीयं पुरा राजन् गौतमी पतिदेवता ॥ २७ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं पृष्टवानसि यन्मम, शुकस्तु तव भूपाल पूर्वजन्मनि यः सुतः ॥ २८ ॥
शुकदेव इति ख्यातो हरिणा योऽनुजीवितः, द्वादशाब्दसहस्रायुर्भुक्त्वािवैकुण्ठमीयिवान् ॥ २९ ॥
स एवारण्यसरसि वटवृक्षं समाश्रितः, त्वामेवागतमालोक्य पितरं पूर्वजन्मनः ॥ ३० ॥
हितानामुपदेष्टारं प्रत्यक्षं दैवतं मम, संसारसागरे मग्नं विषयव्यालदूषिते ॥ ३१ ॥
अत्यन्तकृपयाऽविष्टश्चिन्तयामास कीरजः, न बोधयामि चेद्भूपं ममापि बन्धनं भवेत् ॥ ३२ ॥
पुन्नामनरकाद्यस्तु त्रायते पितरं सुतः, इतिश्रुत्यर्थबोधोऽपि स्यादेवाद्यान्यथा मम ॥ ३३ ॥
तस्मादुपकरिष्यामि पितरं पूर्वजन्मनः, अवधार्य वचश्चेत्थं कीरजोऽजीगदन्नृ्प ॥ ३४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
पुरुषोत्तम नाम के सेवन से समस्त ऋद्धियों के भोक्ता हुये, हे राजन्! यह आपकी पूर्व जन्म की पतिदेवता गौतमी ही पटरानी है ॥ २७ ॥
हे भूपाल! जो आपने मुझसे पूछा था सो सब मैंने कहा और शुक पक्षी तो पूर्वजन्म में जो पुत्र ॥ २८ ॥
शुकदेव नाम से प्रसिद्ध थे और हरि भगवान् ने जिसको जिलाया था वह बारह हजार वर्ष तक आयु भोग कर बैकुण्ठ को गया ॥ २९ ॥
वहाँ वन के तालाब के समीप वट वृक्ष पर बैठकर पूर्वजन्म के पिता तुमको आये हुए देखकर ॥ ३० ॥
मेरे हितों के उपदेश करनेवाले, प्रत्यक्ष मेरे दैवत, विषयरूपी सर्प से दूषित संसार सागर में मग्न ॥ ३१ ॥
इस प्रकार पिता को देख कर और अत्यन्त कृपा से युक्त वह शुक पक्षी विचार करने लगा कि यदि मैं इस राजा को ज्ञान का उपदेश नहीं करता हूँ तो मेरा बन्धन होता है ॥ ३२ ॥
जो पुत्र अपने पिता को पुन्ना म नरक से रक्षा करता है वही पुत्र है, आज मेरा यह श्रुति के अर्थ का ज्ञान भी वृथा हो जायगा ॥ ३३ ॥
इसलिये अपने पूर्वजन्म के पिता का उपकार करूँगा, हे राजन् दृढ़धन्वा! इस तरह निश्चय करके वह शुक पक्षी वचन बोला ॥ ३४ ॥
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इत्येतत्कथितं सर्वं यद्यत्पृष्टं त्वयाऽनघ, अतः परं गमिष्यामि सरयूं पापनाशिनीम् ॥ ३५ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
इत्येवं प्रथमजनुश्चरित्रमुक्त्वा भूपस्य प्रति यशस्विनश्चिराय, गच्छन्तं मुनिमनुनीय राजराजः प्रावोचत्किमपि नमन्नगण्यपुण्यः ॥ ३६ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे बाल्मीकिनोक्तदृढधन्वोपाख्याने पुरुषोत्तममासमाहात्म्यकथनं नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे पाप रहित! राजन्! जो आपने पूछा सो यह सब मैंने कहा, अब इसके बाद पापनाशिनी सरयू नदी को जाऊँगा ॥ ३५ ॥
श्रीनारायण बोले – इस प्रकार बहुत समय तक उस प्रसिद्ध यशस्वी राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का चरित्र कहकर जाते हुए बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर असंख्य पुण्यवान्, राजाओं का राजा बाल्मीकि मुनि को नमस्कार करता हुआ कुछ बोला ॥ ३६ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे बाल्मीकिनोक्तदृढ़धन्वोपाख्याने पुरुषोत्तममासमाहात्म्यकथनं नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ ॥
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