🌷 अध्याय २० – आह्निककथनं 🌷

 


सूत उवाच :-

नारायणमुखाच्छ्रुत्वा प्राक्तनं दृढधन्वनः, नातितृप्तमना विप्रा नारदः पृष्टवान्मुनिम्‌ ॥ १ ॥

नारद उवाच :-

किमुवाच महाराजो बाल्मीकिं मुनिसत्तमम्‌, तन्मे वद विनीताय तपोधन सुविस्तरम्‌॥ २ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

श्रृणु नारद वक्ष्येऽहं यदुक्तं दृढधन्वना, अनुनीय महाप्राज्ञं बाल्मीकिं मुनिसत्तमम्‌ ॥ ३ ॥

दृढधन्वोवाच :-

पुरुषोत्तममासोऽयं कथं कार्यो मुमुक्षुभिः, कीदृशी कस्य पूजा च किं दानं को विधिर्मुने ॥ ४ ॥

एतत्सर्वं समाचक्ष्व सर्वलोकहिताय मे, सर्वलोकहितार्थाय चरन्ति हि भवादृशाः ॥ ५ ॥

असौ मासः स्वयं साक्षाद्भगवान्‌ पुरुषोत्तमः, तस्मिन्कृते महत्पुण्यं त्वन्मुखात्संश्रुतं मया ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सूतजी बोले – हे विप्रो! नारायण के मुख से राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का वृत्तान्त श्रवणकर अत्यन्त तृप्ति न होने के कारण नारद मुनि ने श्रीनारायण से पूछा ॥ १ ॥

नारद जी बोले – हे तपोधन! महाराज दृढ़धन्वा ने मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि जी से क्या कहा? सो विस्तार सहित विनीत मुझको कहिये ॥ २ ॥

नारायण बोले – हे नारद! सुनिये। राजा दृढ़धन्वा ने महाप्राज्ञ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर, जो कुछ कहा सो मैं कहूँगा ॥ ३ ॥

दृढ़धन्वा बोला – मोक्ष की इच्छा करने वाले लोगों से पुरुषोत्तम मास का सेवन किस प्रकार किया जाय? क्या दान दिया जाय? और इसकी विधि क्या है? ॥ ४ ॥

यह सब संपूर्ण लोक के कल्याण के लिये मुझसे कहिये, क्योंकि आपके समान महात्मा संसार के हित के लिये ही पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं ॥ ५ ॥

यह पुरुषोत्तम मास स्वयं साक्षात्‌ पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से महान्‌ पुण्य होता है, यह बात मैंने आपके मुख से भलीभाँति सुनी है ॥ ६ ॥

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पूर्वजन्मन्यहं भूत्वा सुदेवो ब्राह्मणोत्तमः, विधिना कृतवान्मासं दृष्ट्वा पुत्रं मृतोत्थितम्‌ ॥ ७ ॥

अजानतोऽपि मे ब्रह्मन्पुत्रशोकादचेतसः, निराहारस्य सततं गतश्च पुरुषोत्तमः ॥ ८ ॥

तस्याप्येतत्फलं जातं शुकदेवो मृतोत्थितः, अनुभूतमिमं मासं संसेवे हरिणोदितः ॥ ९ ॥

इह जन्मनि तत्सर्वं विस्मृतं मे तपोधन, एतत्पूजाविधानं मे वद विस्तरतः पुनः ॥ १० ॥

बाल्मीकिरुवाच :-

ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय परब्रह्म विचिन्तवेत्‌, ततो व्रजेन्नैर्ऋताशां बृहत्सोदकभाजनः ॥ ११ ॥

ग्रामाद्‌दूरतरं गच्छेत्पुरुषोत्तमसेवकः, दिवासन्ध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्रं उदङ्‌मुखः ॥ १२ ॥

अन्तर्धाय तृणैर्भूमि शिरः प्रावृत्य वाससा, वक्त्रं नियम्य यत्नेथन नो ष्ठीवेन्नोच्छ्‌वसेदपि ॥ १३ ॥

कुर्यान्मूत्रपुरीषं च रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः, गृहीतशिश्न श्चोत्थाय गृहीतशुचिमृत्तिकः ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

मैंने पूर्वजन्म में सुदेव नामक ब्राह्मणश्रेष्ठ होकर विधि से पुरुषोत्तम मास का सेवन किया, जिसके प्रताप से मेरा मृत पुत्र उठ खड़ा हो गया ॥ ७ ॥

हे ब्रह्मन्‌! पुत्रशोक के कारण निरन्तर निराहारी मेरा यह पुरुषोत्तम मास बिना जाने ही बीत गया ॥ ८ ॥

अज्ञान से भये पुरुषोत्तम मास का ऐसा फल हुआ कि मृत्यु को प्राप्त भी शुकदेव उठ खड़ा हो गया, बाद हरि भगवान्‌ के कहने पर इस अनुभूत पुरुषोत्तम मास का सेवन किया ॥ ९ ॥

हे तपोधन! मुझे इस जन्म में वह सब विस्मृत हो गया है, इसलिये इस पुरुषोत्तम मास का पूजन विधान विस्तार पूर्वक मुझसे फिर कहिये ॥ १० ॥

बाल्मीकि जी बोले – ब्राह्म मुहूर्त में उठकर परब्रह्म का चिन्तन करे उसके बाद बड़े पात्र में जल लेकर नैर्ऋत्य दिशा में जाय ॥ ११ ॥

पुरुषोत्तम मास को सेवन करने वाला शौच के लिये ग्राम से बहुत दूर जाय, दिन में तथा सन्ध्या में कान पर जनेऊ को रख कर और उत्तरमुख होकर ॥ १२ ॥

पृथिवी को तृण से आच्छादित कर वस्त्र से शिर बाँध कर और मुख को बन्द कर अर्थात्‌ मौन होकर रहे, न थूके और न श्वाँस ले ॥ १३ ॥

इस तरह मल-मूत्र का त्याग करे और यदि रात्रि हो तो दक्षिण मुख होकर मल-मूत्र का त्याग करे और मूत्रेन्द्रिय को पकड़ कर उठे, शुद्ध मिट्टी को ले ॥ १४ ॥

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गन्धलेपक्षयकरं कुर्याच्छौचमतन्द्रितः, एका लिङ्गे गुदे पञ्च त्रिर्वामें दश चोभयोः ॥ १५ ॥

द्विसप्त पादयोश्चैव गार्हस्थ्यं शौचमुच्यते, कृत्वा शौचं तु प्रक्षाल्य पादौ हस्तौ च मृज्जशलैः ॥ १६ ॥

तीर्थे शौचं न कुर्वीत कुर्वीतोद्धृतवारिणा, अरत्नि द्वयसञ्चारि त्यक्त्वाप कुर्यादनुद्धृते ॥ १७ ॥

पश्चात्तच्छोधयेत्तीर्थमशुद्धमन्यथा हि तत्‌, एवं शौचं प्रकुर्वीत पुरुषोत्तमसद्‌व्रती ॥ १८ ॥

ततः षोडश गण्डूषान्प्रकुर्याद्‌द्वादशैव वा, मूत्रोत्सर्गे तु गण्डूषानष्टौ वा चतुरो गृही ॥ १९ ॥

उत्थाय नेत्रे प्रक्षाल्य दन्तकाष्ठं समाहरेत्‌, इमं मन्त्रं समुच्चार्य दन्तधावनमाचरेत्‌ ॥ २० ॥

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च, ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥ २१ ॥

अपामार्गं बादरं वा द्वादशाङ्‌गुलमव्रणम्‌, कनिष्ठाङ्गुलिवत्स्थूलं पूर्वार्द्धकृतकूर्चकम्‌ ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

आलस्य छोड़कर दुर्गन्ध दूर करने के लिये मृत्तिका से शुद्धि करे, लिंग में एक बार, गुदा में पाँच बार, बायें हाथ में तीन बार, दोनों हाथों में दश बार मिट्टी लगावे ॥ १५ ॥

दोनों पैरों में १४ बार लगावे, यह गृहस्थाश्रमी को शौच कहा है, इस तरह शौच कर मिट्टी और जल से पैर और हाथ धोकर दूसरा कार्य करे ॥ १६ ॥

तीर्थ में शौच न करे, तीर्थ से जल निकाल कर शौच करे, दो हाथ जलवाले गढ़ई को छोड़ कर यदि अनुद्‌धृत जल में अर्थात्‌ तीर्थ में शौच करे ॥ १७ ॥

तो बाद तीर्थ की शुद्धि करे अन्यथा तीर्थ अशुद्ध हो जाता है, इस प्रकार पुरुषोत्तम का उत्तम व्रत करने वाला शौच करे ॥ १८ ॥

तदनन्तर सोलह कुल्ला अथवा बारह कुल्ला करे, मूत्र का त्याग करने के बाद आठ अथवा चार कुल्ला गृहस्थ करे ॥ १९ ॥

उठकर प्रथम नेत्रों को धो डाले, बाद दतुअन ले आवे और इस मन्त्र को अच्छी तरह कह कर दन्तधावन करे ॥ २० ॥

हे वनस्पते! आयु, बल, यश, वर्च, प्रजा, पशु, वसु, ब्रह्मज्ञान और मेधा को मेरे लिए दो ॥ २१ ॥

अपामार्ग अथवा बैर की बारह अंगुल की छेदरहित दँतुअन कानी अंगुली के समान सोटी हो जिसके पर्व के आधे भाग में कूची बनी हो उस दँतुअन से मुख शुद्धि करे ॥ २२ ॥

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शुचिर्द्वादशगण्डूषैर्निषिद्धं भानुवासरे, आचम्य प्रयतः सम्यक्‌ प्रातः स्नानं समाचरेत्‌ ॥ २३ ॥

स्नानादनन्तरं तावत्तर्पयेतीर्थदेवताः, समुद्रगानदीस्नानमुत्तमं परिकीतितम्‌ ॥ २४ ॥

वापीकूपतडागेषु मध्यमं कथितं बुधैः, गृहे स्नानं तु सामान्यं गृहस्थस्य प्रकीर्त्तितम्‌ ॥ २५ ॥

ततश्च वाससी शुद्धे शुक्ले च परिधाय च, उत्तरीयं सदा धार्यं ब्राह्मणेन विजानता ॥ २६ ॥

उपविश्य शुचौ देशे प्राङ्‌मुखो वा उदङ्‌मुखः, भूत्वा बद्धशिखः कुर्यादन्तर्जानुभुजद्वयम्‌ ॥ २७ ॥

सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्‌, नोच्छिष्टं तत्पवित्रं तु भुक्त्वो्च्छिष्टं तु वर्जयेत्‌ ॥ २८ ॥

आचम्य तिलकं कुर्याद्गोपीचन्दनमृत्स्नया, ऊर्ध्वपुण्ड्रमृजुं सौम्यं दण्डाकारं प्रकल्पयेत्‌ ॥ २९ ॥

ऊर्ध्वपुण्ड्रं त्रिपुण्ड्रं वा मध्ये छिद्रं प्रकल्पयेत्‌, निवसत्यूर्ध्वपुण्ड्र तु श्रिया सह हरिः स्वयम्‌ ॥ ३० ॥

हिंदी अनुवाद :-

रविवार के दिन काष्ठ से दँतुअन करना मना किया है, इसलिये बारह कुल्ला  से मुखशुद्धि करे, बाद आचमन कर अच्छी तरह प्रातःकाल में स्नान करे ॥ २३ ॥

स्नान के बाद उसी समय तीर्थ के देवताओं को तर्पण के द्वारा जल देवे और समुद्र में मिली हुई नदी में स्नान करना उत्तम कहा है ॥ २४ ॥

बावली कूप तालाब में स्नान करना विद्वानों ने मध्यम कहा है और गृहस्थ को गृह में स्नान करना सामान्य कहा है ॥ २५ ॥

स्नान के बाद शुद्ध और शुक्ल ऐसे दो वस्त्रों को धारण करे, ब्राह्मण कन्धे पर रखे जानेवाले उत्तरीय वस्त्र को सावधानी के साथ हमेशा धारण करे ॥ २६ ॥

पवित्र स्नान में पूर्व मुख अथवा उत्तर मुख होकर बैठे और शिखा बाँध कर दोनों जाँघों के अन्दर हाथों को रखे ॥ २७ ॥

कुश की पवित्री हाथ में धारण कर आचमन क्रिया को करे, ऐसा करने से पवित्री अशुद्ध नहीं होती है, परन्तु भोजन करने से पवित्री अशुद्ध हो जाती है, इसलिये भोजन के बाद उस पवित्री का त्याग करे ॥ २८ ॥

आचमन के बाद गोपीचन्दन की मिट्टी से तिलक धारण करे, वह तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र हो, सीधा हो, सुन्दर हो, दण्ड के आकार का हो ऐसा धारण करे ॥ २९ ॥

ऊर्ध्वपुण्ड्र हो अथवा त्रिपुण्ड्र हो उसके मध्य में छिद्र बनावे, ऊर्ध्वपुण्ड्र में लक्ष्मी के साथ हरि भगवान्‌ स्वयं निवास करते हैं ॥ ३० ॥

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त्रिपुण्ड्रे धूर्जटिः साक्षादुमया सह सर्वदा विना छिद्रं तु तत्पुण्ड्रं शुनः पादसगं विदुः ॥ ३१ ॥

श्वेपतं ज्ञानकरं प्रोक्तं रक्तं वश्यकरं नृणाम्‌, पीतं सर्वर्द्धिदं प्रोक्तमन्यत्तु परिवर्जयेत्‌ ॥ ३२ ॥

शङ्खचक्रादिकं धार्यं गोपीचन्दनमृत्स्नया, सर्वपापक्षयकरं पूजाङ्गं परिकीर्त्तितम्‌ ॥ ३३ ॥

शङ्खचक्रादिचिह्नानि दृश्यन्ते यस्य विग्रहे, मर्त्यो मर्त्यो न विज्ञेयः स नित्यं भगवत्तनुः ॥ ३४ ॥

पापं सुकृतरूपं तु जायते तस्य देहिनः, शङ्खचक्रादिचिह्नानि यो धारयति नित्यशः ॥ ३५ ॥

नारायणायुधैर्नित्यं चिह्नितो यस्य विग्रहः, पापकोटियुतस्यापि तस्य किं कुरुते यमः ॥ ३६ ॥

प्राणायामं ततः कृत्वा सन्ध्यावन्दनमाचरेत्‌, पूर्वसन्ध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथाविधि ॥ ३७ ॥

गायत्रीमभ्यसेत्तावद्यावदादित्यदर्शनम्‌, सावित्रैरनघैर्मन्त्रैरुपस्थाय कृताञ्जलिः ॥ ३८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

त्रिपु्ण्ड्र में पार्वती सहित साक्षात्‌ शंकर भगवान्‌ सर्वदा वास करते हैं, बिना छिद्र का पुण्ड्र कुत्ते के पैर के समान विद्वानों ने कहा है ॥ ३१ ॥

सफेद तिलक ज्ञान को देनेवाला है, लाल तिलक मनुष्यों को वशीकरण करनेवाला कहा है, पीला समस्त ऋद्धि को देनेवाला कहा है, इससे भिन्न तिलक को नहीं लगावे ॥ ३२ ॥

गोपीचन्दन की मिट्टी से शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि धारण करे, यह सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाला और पूजा का अंग कहा गया है ॥ ३३ ॥

जिसके शरीर में शंख चक्रादि भगवान्‌ के आयुधों का चिह्न देखने में आता है उस मनुष्य को, मनुष्य नहीं समझना, वह भगवान्‌ का शरीर है ॥ ३४ ॥

जो शंख चक्र आदि चिह्नों को नित्य धारन करता है, उस देही के पाप पुण्यरूप हो जाते हैं ॥ ३५ ॥

नारायण के आयुधों से जिसका शरीर चिह्नित रहता है उसका कोटि-कोटि पाप होने पर भी यमराज क्या कर सकता है? ॥ ३६ ॥

बाद प्राणायाम करके सन्ध्यावन्दन करे, प्रातःकाल की सन्ध्या विधिपूर्वक नक्षत्र के रहने पर करे ॥ ३७ ॥

जब तक सूर्यनारायण का दर्शन न हो तब तक गायत्री मन्त्र का जप करे और सूर्योपस्थान के मन्त्रों से उठकर अञ्जकलि बाँध कर उपस्थान करे ॥ ३८ ॥

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आत्मपादौ तथा भूमौ सन्ध्याकालेऽभिवादयेत्‌, यस्य स्मृत्येति मन्त्रेण यदूनं परिपूरयेत ॥ ३९ ॥

यस्तु संध्यामुपासीत श्रद्धया विधिवद्‌द्विजः, न तस्य किञ्चिद्‌दुष्प्रापं त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ४० ॥

दिवसस्यादिमे भागे कृत्यमेतदुदीरितम्‌, एवं कृत्वा क्रियां नित्यं हरिपूजां समाचरेत्‌ ॥ ४१ ॥

उपलिप्तेद शुचौ देशे नियतो वाग्यतः शुचिः, वृत्तं वा चतुरस्रं पा मण्डलं गोमयेन तु ॥ ४२ ॥

विधायाष्टदलं कुर्यात्तण्डुलैर्व्रतसिद्धये, सौवर्णं राजतं ताम्रं मृन्मयं सुडृढं नवम्‌ ॥ ४३ ॥

अव्रणं कलशं शुद्धं स्थापयेन्मण्डलोपरि, तत्रोदकं समापूर्य शुद्धतीर्थाहृतं शिवम्‌ ॥ ४४ ॥

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः, मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ॥ ४५ ॥

कुक्षो तु सागराः सर्वे सप्त द्वीपा वसुन्धरा, ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः ॥ ४६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सायंकाल के समय अपने पैर को पृथिवी में करके नमस्कार करे, यस्य स्मृत्या च नामोक्त्याम तपोयज्ञक्रियादि्षु, न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्‌ ॥ जो कमी रह गई हो उसको इस मन्त्र से पूर्ण करे ॥ ३९ ॥

जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) श्रद्धा के साथ सन्ध्या करता है उसको तीनों लोक में कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं है ॥ ४० ॥

दिन के आदि भाग (प्रातःकाल) में होने वाले कृत्य को कहा! इस प्रकार प्रातःकाल की नित्य क्रिया को करके हरि भगवान्‌ की पूजा को करे ॥ ४१ ॥

लीपे हुए शुद्ध स्थान में नियम में स्थित होकर और मौन तथा पवित्र होकर गोबर से गोल अथवा चौकोर मण्डल को ॥ ४२ ॥

बना कर व्रत की सिद्धि के लिये चावलों से अष्टदल कमल बनावे, बाद सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी का मजबूत और नवीन ॥ ४३ ॥

छिद्र रहित शुद्ध कलश को उस मण्डल के ऊपर स्थापित करे और उस कलश में शुद्ध तीर्थों से लाये हुए कल्याणप्रद जल को भर कर ॥ ४४ ॥

कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र भगवान्‌ अच्छी तरह वास करते हैं। उसके मूल में ब्रह्मा जी स्थित रहते हैं, मध्य भाग में मातृगण कहे गये हैं ॥ ४५ ॥

कोख में समस्त समुद्र और सात द्वीप वाली वसुन्धरा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वण वेद ॥ ४६ ॥

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अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः, एवं संस्थाप्य कलशं तत्र तीर्थानि योजयेत्‌ ॥ ४७ ॥

गङ्गा गोदावरी चैव कावेरी च सरस्वती, आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः ॥ ४८ ॥

ततः सम्पूज्य कलशमुपचारैः समन्त्रकैः, गन्धाक्षतैश्च नैवेद्यैः पुष्पैस्तत्कालसम्भवैः ॥ ४९ ॥

तस्योपरि न्यसेत्पात्रं ताम्रं पीताम्बरावृतम्‌, तस्योपरि न्यसेद्धैमं राधया सहितं हरिम्‌ ॥ ५० ॥

राधया सहितः कार्यः सौवर्णः पुरुषोत्तमः, तस्य पूजा प्रकर्तव्या विधिना भक्तितत्परैः ॥ ५१ ॥

पुरुषोत्तममासस्य दैवतं पुरुषोत्तमः, तस्य पूजा प्रकर्त्तव्या सम्प्राप्ते् पुरुषोत्तमे ॥ ५२ ॥

संसारसागरे मग्नमुत्तारयति यो ध्रुवम्‌, को न सेवेत तं लोके मर्त्यो मरणधर्मवान्‌ ॥ ५३ ॥

पुनर्ग्रामाः पुनर्वित्तं पुनः पुत्राः पुनर्गृहम्‌, पुनः शुभाशुभं कर्म न शरीरं पुनः पुनः ॥ ५४ ॥

तद्रक्षितं तु धर्मार्थे धर्मो ज्ञानार्थमेव हि, ज्ञानेन सुलभो मोक्षस्तस्माद्धर्मं समाचरेत्‌ ॥ ५५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

व्याकरण आदि अंगों के साथ सब कलश में स्थित हों इस प्रकार कलश को स्थापित करके उसमें तीर्थों का आवाहन करे ॥ ४७ ॥

गंगा, गोदावरी, कावेरी और सरस्वती मेरी शान्ति के लिये तथा पापों के नाश करने के हेतु आवें ॥ ४८ ॥

तदनन्तर उस कलश का मन्त्रपाठ पूर्वक गन्ध, अक्षत, नैवेद्य और उस काल में होने वाले पुष्प आदि उपचारों से पूजन करके ॥ ४९ ॥

उसके ऊपर पीले वस्त्र से लपेटा हुआ ताँबे का पात्र स्थापित करे, उस पात्र के ऊपर राधा के साथ हरि की मूर्ति को स्थापित करे ॥ ५० ॥

राधा के सहित सुवर्ण की पुरुषोत्तम भगवान्‌ की प्रतिमा बनावे और भक्ति में तत्पर होकर विधि के साथ उस प्रतिमा की पूजा करे ॥ ५१ ॥

पुरुषोत्तम मास के पुरुषोत्तम देवता हैं, पुरुषोत्तम मास के आने पर उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५२ ॥

जो इस संसारसागर में डूबे हुये को उबारता है उसकी इस लोक में भी मृत्यु धर्म वाला कौन मनुष्य पूजा नहीं करता है? ॥ ५३ ॥

ग्राम फिर मिलते हैं, धन फिर मिलता है, पुत्र फिर मिलते हैं, गृह फिर मिलता है, शुभ-अशुभ कर्म फिर मिलते हैं, परन्तु शरीर फिर-फिर नहीं मिलता है। ॥ ५४ ॥

उस शरीर की रक्षा धर्म के लिये और धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये हुआ करती है और ज्ञान से मोक्ष सुलभ हुआ करता है, इसलिये धर्म को करना चाहिये ॥ ५५ ॥

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देहरूपस्य वृक्षस्य फलं धर्मः सनातनः, धर्महीनस्तु यो देहो निष्फलो वन्ध्यवृक्षवत्‌ ॥ ५६ ॥

न माता च सहायार्थे न कलत्रसुतादयः, न पिता सोदरा वित्तं धर्मस्तिष्ठति केवलम्‌ ॥ ५७ ॥

जरा व्याघ्रीव भयदा व्याधयः शत्रवो यथा, आयुर्याति प्रतिदिनं भग्नभाण्डात्‌ पयो यथा ॥ ५८ ॥

तरङ्गत्तरला लक्ष्मीर्यौवनं कुसुमोपमम्‌, विषयाः स्वप्नविषया इव सर्वे निरर्थकाः ॥ ५९ ॥

चलं चित्तं चलं वित्तं चलं संसारजं सुखम्‌, एवं ज्ञात्वा विरक्तः सन्‌ धर्माभ्यासपरो भवेत्‌ ॥ ६० ॥

अर्धग्रस्तोऽहिना भेको मक्षिकामत्तुंमिच्छाते, कालग्रस्तस्तया जीवः परपीडाधनाहृतः ॥ ६१ ॥

मृत्युग्रस्तायुषः पुंसः किं सुखं हर्षयत्यहो, आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव निरर्थकम्‌ ॥ ६२ ॥

धर्मार्थं च यदा चित्तं न वित्तं सुलभं तदा, यदा वित्तं न च तदा चित्तं धर्मोन्मुखं भवेत्‌ ॥ ६३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

देहरूप वृक्ष का फल सनातनधर्म कहा गया है जो शरीर धर्म से रहित है वह बाँझ वृक्ष के समान निष्फल है ॥ ५६ ॥

सहायता के लिये न माता कही गई है न स्त्री-पुत्र आदि कहे गये हैं तथा न पिता, न सहोदर भाई, न धन कहे गये हैं, केवल धर्म ही उसका प्रधान कारण कहा गया है ॥ ५७ ॥

वृद्धावस्था सिंहिनी के समान भय देने वाली है और रोग शत्रु के समान पीड़ा देने वाले हैं, फूटे हुए बर्तन से जल गिरने के समान आयु प्रतिदिन क्षीण होती रहती है ॥ ५८ ॥

जल के तरंग के समान चंचल लक्ष्मी, पुष्प के समान क्षणमात्र में मुरझाने वाली युवावस्था, स्वप्न के राज्यसुख के समान संसार के विषयसुख प्रभृति सब निरर्थक हैं ॥ ५९ ॥

धन चंचल है, चित्त चंचल है और संसार में होने वाला सुख चंचल है, ऐसा जान कर संसार से विरक्त होकर धर्म के साधन में तत्पर होवे ॥ ६० ॥

जैसे सर्प से आधा देह निगले जाने पर भी मेढक मक्खी को खाने की इच्छा करता ही रहता है, उसी प्रकार काल से ग्रसा हुआ जीव दूसरे को पीड़ा देने में तथा दूसरे का धन अपहरण करने में प्रेम करता है ॥ ६१ ॥

मृत्यु से ग्रस्त आयु वाले पुरुष को सुख क्या हर्ष करता है? वध के लिये वधस्थान को पहुँचाये जाने वाले पशु के समान सब सुख व्यर्थ हैं ॥ ६२ ॥

जब धर्म करने के लिये चित्त होत है तो उस समय धन का मिलना सुलभ नहीं होता है, जब धन होता है तो उस समय चित्त धर्म करने के लिये उत्सुक नहीं होता है ॥ ६३ ॥

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चित्तं वित्तं यदा स्यातां सत्पात्रं न तदा लभेत्‌, एतत्त्रितयसम्बन्धो यदा काले तु सम्भवेत्‌ ॥ ६४ ॥

अविचार्य तदा धर्म यः करोति स बुद्धिमान्‌, वित्तप्राचुर्यसंसाध्यधर्माः सन्ति सहस्रशः ॥ ६५ ॥

पुरुषोत्तमे स्वल्पवित्तसाध्यो धर्मो महान्‌ भवेत्‌, स्नानं दानं कथायां च विष्णोः स्मरणमेव च ॥ ६६ ॥

एतन्मात्रोऽपि सद्धर्मस्त्रायते महतो भयात्‌ ॥ ६७ ॥

गङ्गैव तीर्थं स्मर एक धन्वी वित्तं तु विद्यैव गुणास्तु रूपम्‌, मासेषु सर्वेषु तथैव साक्षान्मासोत्तमोऽयंपुरुषोत्तमो हि ॥ ६८ ॥

यद्यप्यसौ निन्द्यतमः पुराऽऽसीत्‌ सर्वेषु कृत्येषु मखादिकेषु, तथापि साक्षाद्भगवत्प्रसादात्तन्नामनाम्नाभुवि विश्रुतोऽभूत्‌ ॥ ६९ ॥

यथा हस्तिपदे लीनं सर्वप्राणिपदं भवेत्‌, धर्माः कलास्तथा सर्वे विलीनाः पुरुषोत्तमे ॥ ७० ॥

हिंदी अनुवाद :-

जब चित्त और धन दोनों होते हैं तो उस समय सम्पात्र नहीं मिलते हैं, इसलिये चित्त, वित्त, सत्पात्र इन तीनों का जिस समय सम्बन्ध हो जाय ॥ ६४ ॥

उसी समय बिना विचार किये ही जो धर्म को करता है वही बुद्धिमान्‌ कहा गया है, अधिक धन के व्यय से होने वाले हजारों धर्म हैं ॥ ६५ ॥

पुरुषोत्तम मास में थोड़े धन से महान्‌ धर्म होता है, स्नान, दान और कथा में विष्णु भगवान्‌ का स्मरण करना ॥ ६६ ॥

इतना भी उत्तम धर्म यदि किया जाय तो वह महान्‌ भय से रक्षा करता है ॥ ६७ ॥

जिस प्रकार गंगा ही तीर्थ हैं, कामदेव ही धनुषधारी हैं, विद्या ही धन है और गुण ही रूप है उसी तरह संपूर्ण महीनों में उत्तम पुरुषोत्तम मास साक्षात्‌ पुरुषोत्तम ही हैं ॥ ६८ ॥

यद्यपि यह पुरुषोत्तम मास प्रथम समस्त कार्यों में तथा यज्ञों में अत्यन्त निन्द्य था तो भी भगवान्‌ के प्रसाद से पृथिवी में साक्षात्‌ भगवान्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ६९ ॥

जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर लीन हो जाते हैं उसी तरह समस्त धर्म और कला समस्त पुरुषोत्तम में विलीन हो जाते हैं ॥ ७० ॥

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यथाऽमरतरङ्गिण्या न समाः सकलापगाः, कल्पवृक्षेण न समा यथा सकलपादपाः ॥ ७१ ॥

चिन्तारत्नेन रत्नानि न समानि यथा भुवि, कामधेन्वा यथा गावो न राजा पुरुषाः समाः ॥ ७२ ॥

न वेदैः सर्वशास्त्राणि पुण्यकालास्तथाखिलाः, पुरुषोत्तममासेन समो मासो न कर्हिचित्‌ ॥ ७३ ॥

पुरुषोत्तममासस्य दैवतं पुरुषोत्तमः, तस्मात्सम्पूजयेद्भक्त्या  श्रद्धया पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ७४ ॥

शास्त्रज्ञं निपुणं शुद्धं वैष्णवं सत्यवादिनम्‌, विप्राचार्यमथाहूय पूजां तेन प्रकल्पयेत्‌ ॥ ७५ ॥

संसार-सागरमतीव-गभीर वेगमन्तःस्थ-मोह-मदनादि-तिमिङ्गिगिलौघम्‌, उल्ल ङ्घय गन्तुमभिवाञ्छति भारतेऽस्मिन्‌ सम्पूजयेत्‌ स पुरुषोत्तममादिदेवम्‌ ॥ ७६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने आह्निककथनं नाम विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥

हिंदी अनुवाद :-

जिस प्रकार और-और नदियों की तुलना गंगा के समान नहीं की जा सकती, कल्पवृक्ष के समान अन्य समस्त वृक्ष नहीं कहे जा सकते ॥ ७१ ॥

चिन्तामणि के समान दूसरे रत्न पृथिवी में नहीं हो सकते, कामधेनु के समान दूसरी गौ नहीं हो सकती, राजा के समान दूसरे पुरुष नहीं हो सकते ॥ ७२ ॥

वेदों के समान समस्त शास्त्र नहीं होते, उसी प्रकार समस्त पुण्यकाल इस पुरुषोत्तम मास के पुण्यकाल के समान नहीं हो सकते ॥ ७३ ॥

पुरुषोत्तम मास के देवता पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, इसलिये भक्ति और श्रद्धा से पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करनी चाहिये ॥ ७४ ॥

शास्त्र को जाननेवाला, कुशल, शुद्ध, वैष्णव, सत्यवादी और विप्र आचार्य को बुलाकर उसके द्वारा पुरुषोत्तम की पूजा करे ॥ ७५ ॥

अन्तःकरण में होनेवाले मोह, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि रूप बड़ी-बड़ी मछलियों से पूर्ण, अत्यन्त गम्भीर वेगवाले इस संसाररूप सागर को पार करने की इच्छा करता है वह इस भारतवर्ष में आदिदेवता पुरुषोत्तम भगवान्‌ का अच्छी तरह पूजन करे ॥ ७६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढ़धन्वोपाख्याने आह्निककथनं नाम विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥

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