🌷 अध्याय २१ – पुरुषोत्तमपूजनविधि 🌷

 


बालमीकिरुवाच :-

अनलोत्तारणं कृत्वा प्रतिमायास्ततः परम्‌, प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत ह्यन्यथा धातुरेव सा ॥ १ ॥

प्रतिमायाः कपोलौ द्वौ स्पृष्ट्वा दक्षिणपाणिना, प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत तस्यां देवस्य वै हरेः ॥ २ ॥

अकृतायां प्रतिष्ठायां प्राणानां प्रतिमासु च, यथा पूर्वं तथा भागः स्वर्णादीनां न देवता ॥ ३ ॥

अन्येषामपि देवानां प्रतिमास्वपि पार्थिव, प्राणप्रतिष्ठा कर्तव्या तस्यां देवत्वसिद्धये ॥ ४ ॥

पुरुषोत्तमबीजेन तद्विष्णोरित्यनेन च, तथैव हृदयेऽङ्गुष्ठं दत्त्वा शश्वच्च मन्त्रवित्‌ ॥ ५ ॥

एभिर्मन्त्रैः प्रतिष्ठां हृदयेऽपि समाचरेत्‌, अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

बाल्मीकि मुनि बोले – इसके बाद फिर प्रतिभा की अनलोत्तारण क्रिया करके प्राणप्रतिष्ठा करे, अन्यथा यदि प्राणप्रतिष्ठा नहीं करता है तो वह प्रतिमा धातु ही कही जायगी अर्थात्‌ उसमें देवता का अंश नहीं होता है ॥ १ ॥

दाहिने हाथ से प्रतिमा के दोनों कपालों का स्पर्श कर हरि भगवान्‌ की उस प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा अवश्य करे ॥ २ ॥

प्रतिमाओं में प्राणों की प्रतिष्ठा न करने से सुवर्ण आदि का भाग पूर्व के समान ही रहता है उनमें देवता वास नहीं करते हैं ॥ ३ ॥

हे पार्थिव! दूसरे देवताओं की प्रतिमा में भी देवत्वसिद्धि के लिये प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ ४ ॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बीजमन्त्र से और “तद्विष्णोः परमम्पदँ सदा” इस मन्त्र से करना चाहिये, मन्त्रवेत्ता उसी प्रकार प्रतिमा के हृदय पर अंगुष्ठ निरन्तर रख कर ॥ ५ ॥

हृदय में भी इन मन्त्रों से प्राणप्रतिष्ठा को करे, इस प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठित हों, इस प्रतिमा में प्राण चलायमान हों ॥ ६ ॥

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अस्यै देवत्वमर्चायै स्वाहेति यजुरीरयन्‌. मूलमन्त्रैरङ्गमन्त्रैर्वैदिकैरित्यनेन च ॥ ७ ॥

प्राणप्रतिष्ठां सर्वत्र प्रतिमासु समाचरेत्‌. अथवा नाममस्त्रैश्च चतुर्थ्यन्तैः प्रयत्नतः ॥ ८ ॥

स्वाहान्तैश्च प्रकुर्वीत तत्तद्देवाननुस्मरन्‌.एवं प्राणान्‌ प्रतिष्ठाय ध्यायेच्छ्रीपुरुषोत्तमम्‌ ॥ ९ ॥

श्रीवत्सवक्षसं शान्तं नीलोत्पलदलच्छविम्‌. त्रिभङ्गललितं ध्यायेत्‌ स-राधं पुरुषोत्तमम्‌ ॥ १० ॥

देशकालौ समुल्लिख्य नियतो वाग्यतः शुचिः. षोडशैरुपचारैश्च पूजयेत्‌ पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ११ ॥

आगच्छ देव देवेश श्रीकृ्ष्ण पुरुषोत्तम. राधया सहितश्चात्र गृहाण पूजनं मम ॥ १२ ॥

श्रीराधिकासहितपुरुषोत्तमाय नमः आवाहनं समर्पयामि. इत्यावाहनम्‌. नानारत्नसमायुक्तंक कार्तस्वरविभूषितम्‌. आसनं देवदेवेश गृहाण पुरुषोत्तम ॥ १३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रतिमा की पूजा के लिये देवत्व प्राप्त हो स्वाहा, इस तरह यजुर्मन्त्र को कहता हुआ मूलमन्त्रों से, अंगमन्त्रों से, वैदिकमन्त्रों से ॥ ७ ॥

सर्वत्र प्रतिमाओं में प्राणप्रतिष्ठा को करे अथवा अच्छी तरह चतुर्थ्यन्त नाम मन्त्रों से ॥ ८ ॥

स्वाहा पद अन्त में जोड़ कर तत्तद्‌ देवताओं का अनुस्मरण करता हुआ प्राणप्रतिष्ठा को करे, इस प्रकार प्राणों की प्रतिष्ठा करके श्रीपुरुषोत्तम का ध्यान करे ॥ ९ ॥

श्रीवत्स चिह्न से चिह्नित वक्षःस्थल वाले, शान्त, नील कमल के दल के समान छविवाले, तीन जगहों से टेढ़ी आकृति होने से सुन्दर, राधा के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करे ॥ १० ॥

देश काल को कह कर अर्थात्‌ संकल्प करके, नियम में स्थित होकर, मौन होकर, पवित्र होकर, षोडशोपचार से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे ॥ ११ ॥

हे देव! हे देवेश! हे श्रीकृष्ण! हे पुरुषोत्तम! राधा के साथ आप यहाँ मुझसे दिये हुए पूजन को ग्रहण कीजिये ॥ १२ ॥

श्रीराधिका सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार है, यह कह कर आवाहन करे, हे देवदेवेश! हे पुरुषोत्तम! अनेक रत्नों से युक्त अर्थात्‌ जटित और कार्तस्वर (सुवर्ण) से विभूषित इस आसन को ग्रहण करें, इस तरह कह कर आसन समर्पण करे ॥ १३ ॥

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श्रीराधिकासहितपुरुषोत्तमाय नमः आसनं समर्पयामि, गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्यो मया प्रार्थनयाऽऽहृतम्‌, तोयमेतत्सुखस्पर्शं पाद्यार्थं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ १४ ॥

इति पाद्यम्‌, नन्दगोपगृहे जातो गोपिकानन्दहेतवे, गृहाणार्ध्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥ १५ ॥

इत्यर्ध्यम्‌, गङ्गाजलं समानीतं सुवर्णकलशस्थितम्‌, आचम्यतां हृषीकेश पुराणपुरुषोत्तम ॥ १६ ॥

इत्याचमनम्‌, कार्यं मे सिद्धिमायातु पूजिते त्वयि धातरि, पञ्चामृतैर्मयाऽऽनीतै राधिकासहितो हरे ॥ १७ ॥

इति स्नानम्‌, पयो दधि घृतं गव्यं माक्षिकं शर्करा तथा गृहाणेमानि द्रव्याणि राधिकानन्ददायक ॥ १८ ॥

इति पञ्चामृतस्नानम्‌, योगेश्व्राय देवाय गोवर्धनधराय च, यज्ञानां पतये नाथ गोविन्दाय नमो नमः ॥ १९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

गंगादि समस्त तीर्थों से प्रार्थना पूर्वक लाया हुआ यह सुखस्पर्श वाला जल पाद्य के लिये ग्रहण करें, इस प्रकार कह कर पाद्य समर्पण करे ॥ १४ ॥

हे हरे! गोपिकाओं के आनन्द के लिए महाराज नन्द गोप के घर में प्रकट हुए, आप राधिका के सहित मेरे दिये हुए अर्ध्य को ग्रहण करें, यह कह कर अर्ध्य समर्पण करे ॥ १५ ॥

हे हृषीकेश! अर्थात्‌ हे विषयेन्द्रिय के मालिक! हे पुराण-पुरुषोत्तम! अच्छी तरह से लाया गया और सुवर्ण के कलश में स्थित गंगाजल से आप आचमन करें, यह कह कर आचमन समर्पण करे ॥ १६ ॥

हे हरे! मेरे से लाये गये पंचामृत से राधिका के सहित जगत्‌ के धाता आपके पूजित होने पर अर्थात्‌ आपके पूजन से मेरे कार्य सिद्धि को प्राप्त हों ॥ १७ ॥

हे राधिका के आनन्द दाता! दूध, दही, गौ का घृत, शहद और चीनी, इन द्रव्यों को ग्रहण करें, यह कह कर पंचामृत से स्नान समर्पण करे ॥ १८ ॥

हे नाथ! योगेश्वर, देव, गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, यज्ञों के स्वामी गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है ॥ १९ ॥

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गङ्गाजलसमं शीतं नदीतीर्थसमुद्भवम्‌, स्नानं दत्तं मया कृष्ण गृह्यतां नन्दनन्दन ॥ २० ॥

इति पुनः स्नानम्‌, पीताम्बरयुगं देव सर्वकामार्थसिद्धये, मया निवेदितं भक्त्या गृहाण सुरसत्तम ॥ २१ ॥

इति वस्त्रम्‌, आचमनम्‌, दामोदर नमस्तेऽस्तु त्राहि मां भवसागरात्‌, ब्रह्मसूत्रं सोत्तरीयं गृहाण पुरुषोत्तम ॥ २२ ॥

उपवीतम्‌, आचमनम्‌, श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढयं सुमनोहरम्‌, विलेपनं सुरश्रेष्ठ प्रीत्यर्थं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ २३ ॥

चन्दनम्‌, अक्षतास्तु सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ताः सुशोभिताः, मया निवेदिता भक्त्या गृहाण पुरुषोत्तम ॥ २४ ॥

इत्यक्षतान्‌, माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो, मयाऽऽहृतानि पूजार्थं पुष्पाणि प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ २५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे कृष्ण! गंगाजल के समान नदी तीर्थ का मेरे से दिया गया यह जल है, नन्द का आनन्द देनेवाले! आप इसको ग्रहण करें, यह कहकर फिर स्नान समर्पण करे ॥ २० ॥

हे देव! समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये इन दो पीताम्बरों को भक्ति के साथ मैंने निवेदन किया है, हे सुरसत्तम! आप ग्रहण करें, यह कह कर वस्त्र समर्पण करे और वस्त्र धारण के बाद आचमन देवे ॥ २१ ॥

हे दामोदर! आपको नमस्कार है, इस भवसागर से मेरी रक्षा करें, हे पुरुषोत्तम! उत्तरीय वस्त्र के साथ जनेऊ को आप ग्रहण करें, यह कह कर जनेऊ समर्पण करे और आचमन देवे ॥ २२ ॥

हे सुरश्रेष्ठ! अत्यन्त मनोहर सुगन्धित, दिव्य, श्रीखण्ड चन्दन विलेपन आपके लिये है इसको ग्रहण करें, यह कहकर चन्दन समर्पण करे ॥ २३ ॥

हे सुरश्रेष्ठ! केशर से रंगे हुए शोभमान अक्षतों को भक्ति से मैंने निवेदन किया है, हे पुरुषोत्तम! आप ग्रहण करें, यह कहकर अक्षत समर्पण करे ॥ २४ ॥

हे प्रभो! मैं मालती आदि सुगन्धित पुष्पों को आपके पूजन के लिये लाया हूँ, आप इनको ग्रहण करें, यह कह कर पुष्प समर्पण करे ॥ २५ ॥

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इति पुष्पाणि, ततोऽङ्गपूजा, नन्दात्मजो यशोदायास्तनयः केशिसूदनः, भूभारोत्तारकश्चैथव ह्यनन्तो विष्णुरूपधृक्‌ ॥ २६ ॥

प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च श्रीकण्ठः सकलास्त्रधृक्‌, वाचस्पतिः केशवश्च सर्वात्मेति च नामतः ॥ २७ ॥

पादौ गुल्फौ तथा जानू जघने च कटी तथा, मेढ्रं नाभिं च हृदयं कण्ठं बाहू मुखं तथा॥ २८ ॥

नेत्रे शिरश्च सर्वाङ्गं विश्व्रूपिणमर्चयेत्‌, पुष्पाण्यादाय क्रमशश्चतुर्थ्यन्तैर्जगत्पतिम्‌ ॥ २९ ॥

प्रत्यङ्गपूजां कृत्वा तु पुनश्च केशवादिभिः, चतुविंशतिमन्त्रैश्च चतुर्थ्यन्तैश्च  नामभिः ॥ ३० ॥

पुष्पमादाय प्रत्येकं पूजयेत्‌ पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ३१ ॥

वनस्पतिरसो दिव्यो गन्धाढयो गन्ध उत्तमः, आघ्रेयः सर्वदेवानांधूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ३२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

बाद अंगों का पूजन करे, नंद-यशोदा के पुत्र, केशि दैत्य को मारने वाले, पृथ्वी के भार को उतारने वाले, अनन्त विष्णुरूप धारण करने वाले ॥ २६ ॥

प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, श्रीकण्ठ, सकलास्त्रधृक, वाचस्पति, केशव और सर्वात्मा, इन नामों से ॥ २७ ॥

पैर, गुल्फ, जानु, जघन, कटी, मेढ्‌, नाभि, हृदय, कण्ठ, बाहु और मुख ॥ २८ ॥

नेत्र, शिर और सर्वांग का पुष्पों को हाथों में लेकर चतुर्थ्यन्त नामों को कह कर विश्व,रूपी जगत्पति भगवान्‌ का पूजन करे ॥ २९ ॥

इस प्रकार प्रत्यंग का पूजन कर फिर चतुर्थ्यन्त केशवादि नाममन्त्रों से ॥ ३० ॥

एक-एक पुष्प हाथ में लेकर पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे ॥ ३१ ॥

दिव्य वनस्पतियों के रस से बना हुआ, गन्ध से युक्त, उत्तम गन्ध, समस्त देवताओं के सूँघने के योग्य यह धूप है, इसको आप ग्रहण करें यह कहकर धूप समर्पण करे ॥ ३२ ॥

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इति धूपम्‌, त्वं ज्योतिः सर्व देवानां तेजसां तेज उत्तमम्‌, आत्मज्योति परं धाम दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ३३ ॥

इति दीपम्‌, नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्तिं मे ह्यचलां कुरु, ईप्सितं मे वरं देहि परत्र च परां गतिम्‌ ॥ ३४ ॥

इति नैवेद्यम्‌ मध्ये पानीयम्‌, उत्तरापोशनम्‌, गगङ्गाजलं समानीतं सुवर्णकलशे स्थितम्‌, आचम्यतां हृषीकेश त्रैलोक्यव्याधिनाशन ॥ ३५ ॥

इत्याचमनम्‌, इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव, तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ ३६ ॥

इति श्रीफलम्‌, गन्धकर्पूरसंयुक्तंथ कस्तूर्यादिसुवासितम्‌, करोद्वर्तनकंदेव गृहाण परमेश्वहर ॥ ३७ ॥

इति करोद्वर्तनम्‌, पूगीफलसमायुक्तंसकर्पूरं मनोहरम्‌, भक्त्या दत्तं मया देव ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्‌ ॥ ३८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे भगवन्‌! आप समस्त देवताओं के ज्योति हैं, तेजों में उत्तम तेज हैं, आत्मज्योति के परमधाम यह दीप आप ग्रहण करें, यह कहकर दीप समर्पण करे ॥ ३३ ॥

हे देव! नैवेद्य को ग्रहण करें और मेरी भक्ति को अचल करें, इच्छानुकूल वर को देवें और परलोक में उत्तम गति को देवें, यह कह कर नैवेद्य समर्पण करे, मध्य में जल समर्पण करे, आखिर में आचमन जल को देवें ॥ ३४ ॥

हे हृषीकेश! हे त्रैलोक्य के व्याधियों को शमन करने वाले! अच्छी तरह से सुवर्ण के कलश में गंगाजल को लाया हूँ, इस जल से आप आचमन करें, यह कहकर आचमन देवे ॥ ३५ ॥

हे देव! मैंने इस फल को आपके सामने स्थापित किया है, इसलिये मेरे को जन्म-जन्म में सुन्दर फलों की प्राप्ति हो, यह कहकर श्रीफल (बेल) समर्पण करे ॥ ३६ ॥

हे देव! हे परमेश्वलर! गन्ध कपूर से युक्त, कस्तूरी आदि से सुवासित इस करोद्वर्तन (हाथ की शुद्धि के लिये उबटन) को ग्रहण करे, यह कहकर करोद्वर्तन समर्पण करे ॥ ३७ ॥

हे देव! सुपारी से युक्त कर्पूर सहित, मनोहर, भक्ति से दिये गये इस ताम्बूल को ग्रहण करें, यह कहकर ताम्बूल समर्पण करे ॥ ३८ ॥

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इति ताम्बूलम्‌, हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः, अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ ३९ ॥

इति दक्षिणाम्‌, शारदेन्दीवरश्यामं त्रिभङ्गललिताकृतिम्‌, नीराजयामि देवेशं राधया सहितं हरिम्‌ ॥ ४० ॥

इति नीराजनम्‌, रक्ष रक्ष जगन्नाथ रक्ष त्रैलोक्यनायक, भक्तानुग्रहकर्त्ता त्वं गृहाणेमां प्रदक्षिणाम्‌ ॥ ४१ ॥

इति प्रदक्षिणाम्‌, यज्ञेश्वराय देवाय तथा यज्ञोद्भवाय च, यज्ञानां पतये नाथ गोविन्दाय नमो नमः ॥ ४२ ॥

इति मन्त्रपुष्पम्‌, विश्वे्श्वथराय विश्वा य तथा विश्वोगद्भवाय च, विश्व्स्य पतये तुभ्यं गोविन्दाय नमो नमः ॥ ४३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

ब्रह्मा के गर्भ में स्थित, अग्नि के बीज, अनन्त पुण्य के फल को देने वाला सुवर्ण आप ग्रहण करें और मेरे लिये शान्ति को देवें, यह कहकर दक्षिणा समर्पण करे ॥ ३९ ॥

शरत्‌ काल में होने वाले कमल के समान श्याम, तीन जगहों से टेढ़े होने से सुन्दर आकृति वाले, देवेश, राधिका के सहित हरि भगवान्‌ की आरती करता हूँ यह कह कर नीराजन समर्पण करे ॥ ४० ॥

हे जगन्नाथ! रक्षा करो, रक्षा करो, हे त्रैलोक्य के नायक! रक्षा करो आप भक्तों पर कृपा करने वाले हों, मेरी प्रदक्षिणा को ग्रहण करें, ऐसा कह कर प्रदक्षिणा समर्पण करे ॥ ४१ ॥

यज्ञेश्वणर, देव यज्ञ के कारण, यज्ञों के स्वामी, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है, यह कह कर मन्त्रपुष्पाञ्जयलि समर्पण करे ॥ ४२ ॥

विश्वे्श्वरर, विश्वारूप, विश्वा के उत्पन्न करने वाले, विश्वस के स्वामी, नाथ, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है, नमस्कार है, यह कह कर नमस्कार समर्पण करे ॥ ४३ ॥

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इति नमस्कारान्‌, मन्त्रहीनेति मन्त्रेण क्षमाप्य पुरुषोत्तमम्‌, स्वाहान्तैर्नाममन्त्रैश्च तिलहोमो दिने दिने ॥ ४४ ॥

दीपः कार्यस्त्वखण्डश्च यावन्मासं च सर्पिषा, पुरुषोत्तमस्य प्रीत्यर्थं सर्वार्थफलसिद्धये ॥ ४५ ॥

यस्य स्मृत्येति मन्त्रेण नमस्कृत्य जनार्दनम्‌, यदूनं तत्तु सम्पूर्णं विधाय विचरेत्‌ सुखम्‌ ॥ ४६ ॥

इत्थं श्रीपुरुषोत्तमं नवघनश्यामं सराधं मुदा सम्प्राप्तेत पुरुषोत्तमेऽवनितले लब्ध्वा जनुर्मानवम्‌, भक्त्या यः परिपूजयेत्‌ प्रतिदिनं कृत्वा गुरुं वैष्णवं भुक्त्वाह्यत्र सुखं समस्तमतुलं गच्छेत्‌ पदं पावनम्‌ ॥ ४७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने पुरुषोत्तमपूजनविधिर्नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

“मन्त्रहीनं क्रियाहीनं” इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान्‌ को क्षमापन समर्पण करके स्वाहान्त नाम मन्त्रों से प्रतिदिन तिल से हवन करे ॥ ४४ ॥

पुरुषोत्तम मास पर्यन्त घृत का अखण्ड दीप समस्त फल की सिद्धि के लिये और पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ समर्पण करे ॥ ४५ ॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु॰ इस मन्त्र से जनार्दन भगवान्‌ को नमस्कार करके ‘प्रमादात्‌ कुर्वतां कर्म॰।’ इस मन्त्र से जो कुछ कमी रह गई हो उसको सम्पूर्ण करके सुख पूर्वक रहे ॥ ४६ ॥

इस प्रकार जो इस पृथिवी तल पर मनुष्य शरीर प्राप्त करके पुरुषोत्तम मास के आने पर वैष्णव ब्राह्मण को आचार्य बनाकर मेघ के समान श्यामवर्ण वाले, राधा के सहित श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ का हर्ष और भक्ति के साथ प्रति दिन पूजन करेगा वह इस पृथिवी के अतुल समस्त सुखों को भोगकर बाद परम पद को जायगा ॥ ४७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने पुरुषोत्तमपूजनविधिर्नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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