🌷 अध्याय १ - शुकागमने 🌷


 श्रीगणेशाय नमः, श्रीगुरुभ्यो नमः, श्रीगोपीजनवल्‍लभाय नमः ॥

वन्दे वन्दारुमन्दारं वृन्दावनविनोदिनम्‌, वृन्दावनकलानाथं पुरुषोत्तममद्‌भुतम्‌ ॥ १ ॥

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्‌, देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्‌ ॥ २ ॥

नैमिषायण्यमाजग्मुर्मुनयः सत्रकाम्यया, असितो देवलः पैलः सुमन्तुः पिप्पलायनः ॥ ३ ॥

सुमतिः काश्यपश्चैव जाबालिर्भृगुरङ्गिराः, वामदेवः सुतीक्ष्णश्च शरभङ्गश्च पर्वतः ॥ ४ ॥

आपस्तम्बोऽथमाण्डव्योऽगस्त्यः कात्यायनस्तथा, रथीतरो ऋभुश्चैव कपिलो रैभ्य एव च ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावनबिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ ॥ २ ॥

यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये॥ जैसे – असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन ॥ ३ ॥

सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत ॥ ४ ॥

आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य ॥ ५ ॥

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गौतमो मुद्‌गलश्‍चैव कौशिको गालवः क्रतुः, अत्रिर्बभ्रुस्त्रितः शक्तिर्बुधो बौधायनो वसुः ॥ ६ ॥

कौण्डिन्यः पृथुहारीतौ धूम्रः शंकुश्च सङ्‌कृतिः, शनिविभाण्डकः पङ्को गर्गः काणाद एव च ॥ ७ ॥

जमदग्निर्भरद्वाजो धूमपो मौनभार्गवः, कर्कशः शौनकश्‍चैव शतानन्दो महातपाः ॥ ८ ॥

विशालाख्यो विष्णुवृद्धो जर्जरो जय-जङ्गमौ, पारः पाशधरः पूरो महाकायोऽथ जैमिनिः ॥ ९ ॥

महाग्रीवो महाबाहुर्महोदरमहाबलौ, उद्दालको महासेन आर्त आमलकप्रियः ॥ १० ॥

ऊर्ध्वबाहुरूर्ध्वपाद एकपादश्‍च दुर्धरः, उग्रशीलो जलाशी च पिङ्गलोऽत्रिर्ऋभुस्तथा ॥ ११ ॥

शाण्‍डीरः करुणः कालः कैवल्यश्च कलाधरः, श्‍वेतबाहू रोमपादः कद्रुः कालाग्निरुद्रगः ॥ १२ ॥

श्‍वेताश्वतर एवाद्यः शरभङ्ग पृथुश्रवाः, एते सशिष्‍या ब्रह्मिष्ठा वेदवेदाङ्गपारगाः ॥ १३ ॥

लोकानुग्रहकर्तारः परोपकृतिशालिनः, परप्रियरताश्‍चैव श्रौतस्‍मार्तपरायणाः ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु ॥ ६ ॥

कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद ॥ ७ ॥

जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गब, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द ॥ ८ ॥

विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि ॥ ९ ॥

महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय ॥ १० ॥

ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु ॥ ११ ॥

शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्‍वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग ॥ १२ ॥

श्‍वेताश्‍वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले, ब्रह्मनिष्ठ ॥ १३ ॥

संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले ॥ १४ ॥

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नैमिषारण्‍यमासाद्य सत्रं कर्तुं समुद्यताः, तीर्थयात्रामथोद्दिश्‍य गेहात्‌ सूतोऽपि निर्गतः ॥ १५ ॥

पृथिवीं पर्यटन्नेव नैमिषे दृष्टवान्‌ मुनीन्‌, तान्‌ सशिष्‍यान्नमस्‍कर्तुं संसारार्णवतारकान्‌ ॥ १६ ॥

सूतः प्रहर्षितः प्रागाद्यत्रासंस्ते मुनीश्वराः, ततः सूतं समायान्तं रक्तवल्कलधारिणम्‌ ॥ १७ ॥

प्रसन्नवदनं शान्तं परमार्थविशारदम्‌, अशेषगुणसम्पन्नमशेषानन्दसस्प्लुतम्‌ ॥ १८ ॥

ऊर्ध्वपुण्‍ड्रधरं श्रीमन्नाममुद्राविराजितम्‌, शङ्खचक्रधरं दिव्यं गोपीचन्दनमृत्स्नया ॥ १९ ॥

लसच्‍छ्रीतुलसीमालं जटामकुटमण्‍द्दितम्‌, जपन्तं परमं मन्त्रं हरेः शरणमद्‍भुतम्‌ ॥ २० ॥

सर्वशास्त्रार्थसारज्ञं सर्वलोकहि ते रतम्‌, जितेन्द्रियं जितक्रोधं जीवन्मुक्‍तं जग द्‌गुरुम्‌ ॥ २१ ॥

व्यासप्रसादसम्पन्नं व्यासवद्विगतस्पृहम्‌, तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय नैमिषेयां महर्षयः ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए, इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले ॥ १५ ॥

और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा, संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये ॥ १६ ॥

पहले से जहाँ वे इकट्‌ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे ॥ १७ ॥

इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण ॥ १८ ॥

ऊर्ध्वपुण्‍ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये ॥ १९ ॥

तुलसी की माला से शोभित, जटा-मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए ॥ २० ॥

समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए, जीवन्मुक्त, जगद्‍गुरु ॥ २१ ॥

श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह्‌ आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए ॥ २२ ॥

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श्रोतुकामाः समावब्रुविचित्रा विविधाः कथाः, ततः सूतो विनीतात्मा सर्वानृषिवरान्‌, बद्घाञ्जलिपुटो भूत्वा ननाम दण्डन्मुहुः ॥ २३ ॥

ऋषय ऊचु :-

 सूत सूत चिरञ्जीव भव भागवतो भवान्‌, अस्माभिस्त्वासनं तेऽद्य कल्पितं सुमनोगरम्‌ ॥ २४ ॥

अत्रास्यतां महाभाग श्रान्‍तोऽसीत्यवदन्‌ द्विजाः, ततस्तु सूपविष्‍टैषु सर्वेषु च तपस्विषु ॥ २५ ॥

तपोवृद्धास्ततः दृष्ट्वा सर्वान्‌ मुनिगणान्‌ मुदा, निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाद्रौमहर्षणिः ॥ २६ ॥

सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च, श्रोतुकामाः कथाः पुण्‍या इदं वचनमब्रुवन्‌ ॥ २७ ॥

ऋषय ऊचुः :-

सूत सुत महाभाग भाग्यवानसि साम्प्रतम्‌, पाराशर्यवचा हार्दं त्वं वेद कृपया गुरोः ॥ २८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे,  तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करते भये ॥ २३ ॥

ऋषि लोग बोले – हे सूतजी! आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो, हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है ॥ २४ ॥

हे महाभाग! आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये, ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा, इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी ॥ २५ ॥

तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठते भये ॥ २६ ॥

तदनन्तर सूत को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि यह बोले ॥ २७ ॥

ऋषि लोग बोले – हे सूतजी! हे महाभाग! आप भाग्यवान् हैं, भगवान् व्यास के वचनों के हार्दि्‌क अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं ॥ २८ ॥

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सुखी कच्चिद्भवानद्य चिराद्‍दृष्टः कथं वने, श्‍लाघनीयोऽसि पूज्योऽसि व्यासशिष्यशिरोमणे ॥ २९ ॥

संसारेऽस्मिन्नसारे तु श्रोतब्यानि सहस्रशः, तत्र श्चेयस्करं स्वल्पं सारभूतं च यद्भवेत्‌ ॥ ३० ॥

तन्नो वद महाभाग यत्ते मनसि निश्चितम्‌, संसारोर्णवमग्नानां पारदं शुभदं च यत्‌ ॥ ३१ ॥

अज्ञानतिमिरान्धानां नेत्रदानपरायण, वद शीघ्रं कथासारं भवरोगरसायनभ्‌ ॥ ३२ ॥

हरिलीलारसोपेतं परमानन्दकारणम्‌, एवं पृष्टः शौनकाद्यैः सूतः प्रोवाच प्राञ्जलिः ॥ ३३ ॥

सूत उवाच :-

श्रृण्वन्तु मुनयः सर्वे मदुक्तं सुमनोहरम्‌, आदावहं गतो विप्रास्तीर्थं पुष्‍करसंज्ञितम्‌ ॥ ३४ ॥

स्‍नात्वा तृप्त्वा ऋषीन्‌ पुण्यान्‌ सुरान्‌ पितृगणाथ, ततः प्रायातो यमुनां प्रतिबन्धविनाशिनीम्‌ ॥ ३५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

क्या आप सुखी तो हैं? आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारे? आप प्रशंसा के पात्र हैं, हे व्यासशिष्यशिरोमणे! आप पूज्य हैं ॥ २९ ॥

इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं परन्तु उनमें श्रेयस्कर, थोड़ा-सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिये ॥ ३० ॥

हे महाभाग! संसार-समुद्र में डूबते हुओं को पार करने वाला तथा शुभफल देने वाला, आपके मन में निश्चित विषय जो हो वही हम लोगों से कहिये ॥ ३१ ॥

हे अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुओं को ज्ञानरूप चक्षु देने वाले! भगवान् के लीलारूपी रस से युक्त, परमानन्द का कारण, संसाररूपी रोग को दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिये, इस प्रकार शौनकादिक ऋषियों के पूछने पर हाथ जोड़कर सूतजी बोले ॥ ३२-३३ ॥

सूतजी बोले – हे समस्त मुनियों! मेरी कही हुई सुन्दर कथा को आप लोग सुनिये, हे विप्रो! पहिले मैं पुष्कर तीर्थ को गया ॥ ३४ ॥

वहाँ स्‍नान करके पवित्र ऋषियों, देवताओं तथा पितरों को तर्पणादि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबन्धों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया ॥ ३५ ॥

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क्रमादन्यानि तीर्थानि गत्वा गङ्गामुपागतः, ततः काशीमुपागम्य गयां गत्वा ततः परम्‌ ॥ ३६ ॥

पितॄनिष्ट्वा ततो वेणीं कृष्णां च तदनन्तरम्‌, ततः स्‍नात्वा च गण्डक्यां पुलहाश्रममाव्रजम्‌ ॥ ३७ ॥

धेनुमत्यामहं स्‍नात्वा ततः सारस्वते तटे, त्रिरात्रमुषितो विप्रास्ततो गोदावरीं गतः ॥ ३८ ॥

कृतमालां च कावेरीं निर्विन्ध्यां ताम्रपर्णिकाम्‌, तापीं वैहायसीं नन्दां नर्मदां शर्मदां गतः ॥ ३९ ॥

गत्वा चर्मण्वतीं पश्चात्‌ सेतुबन्धमथागमम्‌, ततो नारायणं द्रष्‍टुं गतोऽहं बदरीवनम्‌ ॥ ४० ॥

ततो नारायणं दृष्ट्वा तापसानभिवाद्य च, नत्वा स्तुत्वा च तं देवं सिद्धक्षेत्रमुपागतः ॥ ४१ ॥

एवमादिषु तीर्थेषु भ्रमन्नागतवान्‌ कुरून्‌, जाङ्गलं देशमासाद्य हस्तिनापुरगोऽभवम्‌ ॥ ४२ ॥

तत्रश्रुतं विष्‍णुरातो राज्यमुत्सृज्य जग्निमवान्‌, गङ्गातीरं महापुण्यमृषिभिर्बहुभिद्विजाः ॥ ४३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

फिर क्रम से अन्य तीर्थों को जाकर गंगा तट पर गया, पुनः काशी आकर अनन्तर गयातीर्थ पर जाय ॥ ३६ ॥

पितरों का श्राद्ध कर तब त्रिवेणी पर गया, तदनन्तर कृष्णा के बाद गण्डकी में स्‍नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया ॥ ३७ ॥

धेनुमती में स्‍नान कर फिर सरस्वती के तीर पर गया, वहाँ हे विप्रो! त्रिरात्रि उपवास कर गोदावरी गया ॥ ३८ ॥

फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णिका, तापी, वैहायसी, नन्दा, नर्मदा, शर्मदा, नदियों पर गया ॥ ३९ ॥

पुनः चर्मण्वती में स्‍नान कर पीछे सेतुबन्ध रामेश्‍वर पहुँच, तदनन्तर नारायण का दर्शन करने के हेतु बदरी वन गया ॥ ४० ॥

तब नारायण का दर्शन कर, वहाँ तपस्वियों को अभिनन्दन कर, पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुँचा ॥ ४१ ॥

इस प्रकार बहुत से तीर्थों में घूमता हुआ कुरुदेश तथा जांगल देश में घूमता-घूमता फिर हस्तिनापुर में गया ॥ ४२ ॥

हे द्विजो! वहाँ यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य को त्याग बहुत ऋषियों के साथ परम पुण्यप्रद गंगातीर गये हैं ॥ ४३ ॥

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तत्र सिद्धाः समाजग्मुर्योगिनः सिद्धिभूष्णाः, देवर्षयश्च तत्रैव निराहाराश्च केचन ॥ ४४ ॥

वाताम्बुपर्णाहाराश्च श्‍वासाहाराश्च केचन, फलाहाराः परे केचित्‌ फेनाहाराश्‍च केचन ॥ ४५ ॥

तं समाजं प्रष्‍टुकामस्तत्राहमगमं द्विजाः, तत्राजगाम भगवान्‌ ब्रह्मभूतो महामुनिः ॥ ४६ ॥

व्यासपुत्रो महातेजाः शुकदेवः प्रतापवान्‌, श्रीकृष्‍णचरणाम्भोजे मनसो धारणां दधत्‌ ॥ ४७ ॥

तं द्वयष्टवर्षं योगेशं कम्बुकण्‍ठं मदोन्नतम्‌, स्निग्धालकावृतमुखं गूढजत्रुं ज्वलत्प्रभम्‌ ॥ ४८ ॥

अवधूतं ब्रह्मभूतं ष्ठीवद्भिर्बालकैर्वृतम्‌, स्त्रीगणैर्धूलिहस्तैश्च मक्षिकाभिर्गजो यथा ॥ ४९ ॥

धूलिधूसरसर्वाङ्गं शुकं दृष्ट्वा महामुनिम्‌, मुनयः सहसोत्तस्थुर्बद्धाञ्जलिपुटा मुदा ॥ ५० ॥

हिंदी अनुवाद :-

और उस गंगातट पर बहुत से सिद्ध, सिद्धि हैं भूषण जिनका ऐसे योगिलोग और देवर्षि वहाँ पर आये हैं उसमें कोई निराहार ॥ ४४ ॥

कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पीकर, कोई पत्ते खाकर, कोई   श्‍वास ही को आहार कर, कोई फलाहार कर और कोई-कोई फेन का आहार कर रहते हैं ॥ ४५ ॥

हे द्विजो! उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गये, वहाँ ब्रह्मस्वरूप भगवान् महामुनि, व्यास के पुत्र, बड़े तेजवाले, बड़े प्रतापी, श्रीकृष्ण के चरण-कमलों को मन से धारण किये हुए श्रीशुकदेव जी आये ॥ ४६-४७ ॥

उन १६ वर्ष के योगिराज, शँख की तरह कण्ठवाले, बड़े लम्बे, चिकने बालों से घिरे हुए मुखवाले, बड़ी पुष्ट कन्धों की सन्धिवाले, चमकती हुए कान्तिवाले ॥ ४८ ॥

अवधूत रूपवाले, ब्रह्मरूप, थूकते हुए लड़कों से घिरे हुए मक्षिकाओं से जैसे मस्त हस्ती घिरा रहता है उसी प्रकार धूल हाथ में ली हुई स्त्रियों से घिरे हुए ॥ ४९ ॥

सर्वांग धूल रमाए महामुनि शुकदेव को देख सब मुनि प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर सहसा उठकर खड़े हो गये ॥ ५० ॥

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स्त्रियो मूढाश्च बालास्ते तं दृष्ट्वा दूरतः स्थिताः पश्चात्तापसमायुक्ताः शुकं नत्वा गृहान्‌ ययुः ॥ ५१ ॥

आसनं कल्पयाञ्चकुः शुकायोन्नतमुत्तमम्‌, आसेदुर्मुनयोऽम्भोजकणिकायश्छ्दाइव ॥ ५२ ॥

तत्रोपविष्टो भगवान्‌ महामुनिर्व्यासात्मजो ज्ञानमहाब्धिचन्द्रमाः, पूजां दधद्‌ब्राह्मण कल्पितां तदा रराजतारावृत्तचन्द्रमा इव ॥ ५३ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये शुकागमने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार महामुनियों द्वारा सत्कृत भगवान् शुक को देखकर पश्चात्ताप करती (पछताती) हुई स्त्रियाँ और साथ के बालक जो उनको चिढ़ा रहे थे, दूर ही खड़े रह गये और भगवान् शुक को प्रणाम करके अपने-अपने घर के प्रति जाते भये ॥ ५१ ॥

इधर मुनि लोगों ने शुकदेव के लिए बड़ा ऊँचा और उत्तम आसन बिछाय, उस आसन पर बैठे हुए भगवान् शुक को कमल की कर्णिका को जैसे कमल के पत्ते घेरे रहते हैं उसी प्रकार मुनि लोग उनको घेर कर बैठ गये ॥ ५२ ॥

यहाँ बैठे हुए ज्ञानरूप महासागर के चन्द्रमा भगवान् महामुनि व्यासजी के पुत्र शुकदेव ब्राह्मणों द्वारा की हुई पूजा को धारण कर तारागणों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह शोभा को प्राप्त होते भये ॥ ५३ ॥

इति बृहन्नारदीये श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्ये प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥ १ ॥

अध्याय २ - प्रश्‍नविधिर्नाम

मुख्य सुचि

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