सूत उवाच :-
राजा पृष्टं शुकेनोक्तं श्रीमद्भागवतं परम्, शुकप्रसादात्तच्छ्रुत्वा दृष्ट्वा राज्ञो विमोक्षणम् ॥ १ ॥
अत्राहमागतो विधान् सत्रोद्यमपरायणान्, द्रष्टुकामः कृतार्थोऽहं जातो दीक्षितदर्शनात् ॥ २ ॥
ऋषय ऊचुः :-
साधो वार्त्तान्तरं त्यक्त्वा पूर्वं यत्तु श्रुतं त्वया, कृष्णद्वैपायनमुखाद्यच्छ्रुतं तद्वदस्व नः ॥ ३ ॥
सारात् सारतरां पुण्यां कथामात्मप्रसादनीम्, पाययस्व महाभाग सुधाधिकतरां पराम् ॥ ४ ॥
सूत उवाच ॥ विलोमजोऽपि धन्योऽस्मि यन्मां पृच्छत सत्तमाः, यथाज्ञानं प्रवक्ष्यामि यच्छ्रुतं व्यासवक्त्रतः ॥ ५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
सूतजी बोले – राजा परीक्षित् के पूछने पर भगवान् शुक द्वारा कथित परम पुण्यप्रद श्रीमद्भागवत शुकदेवजी के प्रसाद से सुनकर अनन्तर राजा का मोक्ष भी देख कर ॥ १ ॥
अब यहाँ यज्ञ करने को उद्यत ब्राह्मणों को देखने के लिये मैं आया हूँ और यहाँ यज्ञ में दीक्षा लिये हुए ब्राह्मणों का दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ ॥ २ ॥
ऋषि बोले – हे साधो! अन्य विषय की बातों को त्यागकर भगवान् कृष्णद्वैपायन के प्रसाद से उनके मुख से जो आपने सुना है वही अपूर्व विषय हे सूत! आप हम लोगों से कहिये॥ ३ ॥
हे महाभाग! संसार में जिससे परे कोई सार नहीं है, ऐसी मन को प्रसन्न करने वाली और जो सुधा से भी अधिकतर हितकर है ऐसी पुण्य कथा, हम लोगों को सुनाइये॥ ४ ॥
सूतजी बोले – विलोम (ब्राह्मण के चरु में क्षत्रिय का चरु मिल जाने) से उत्पन्न होने पर भी मैं धन्य हूँ जो श्रेष्ठ पुरुष भी आप लोग मुझसे पूछ रहे हैं, भगवान् व्यास के मुख से जो मैंने सुना है वह यथाज्ञान मैं कहता हूँ ॥ ५ ॥
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
एकदा नारदोऽगच्छन्नरनारायणालयम्, तापसैर्बहुभिः सिद्धैर्देवैरपि निषेवितम् ॥ ६ ॥
बदर्यक्षामलैर्विल्वैराम्रैराम्रातकैरपि, कपित्थैर्जम्बुनीपधैर्वृक्षैरन्यैर्विराजितम् ॥ ७ ॥
विष्णुपादोदकी पुण्याऽलकनन्दाऽस्ति तत्र च, तत्र गत्वाऽनमद्दवें नारायणमहामुनिम् ॥ ८ ॥
परब्रह्मणि संलग्नमानसं च जितेन्द्रियम्, जितारिषट्कममलं प्रस्फुरद्बहुलप्रभम् ॥ ९ ॥
नमस्कृत्वा च साष्टाङ्गं देवदेवं तपस्विनम्, कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तुष्टाव नारदो विभुम् ॥ १० ॥
नारद उवाच :-
देवदेवजगन्नाथ कृपाकूपारसत्पते, सत्यव्रतस्रिसत्योऽसि सत्यात्मा सत्यसंभवः ॥ ११ ॥
सत्ययोने नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः, तपस्तेऽखिलशिक्षार्थं मर्यादास्थापनाय च ॥ १२ ॥
यथैकेन कृतात् पापात् कलौ मज्जति मेदिनी, तथैवैककृतात् पुण्यात्तरतायं न संशयः ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
एक समय नारदमुनि नरनारायण के आश्रम में गये, जो आश्रम बहुत से तपस्वियों, सिद्धों तथा देवताओं से भी युक्त है॥ ६ ॥
और बैर, बहेड़ा, आँवला, बेल, आम, अमड़ा, कैथ, जामुन, कदम्बादि और भी अनेक वृक्षों से सुशोभित है ॥ ७ ॥
भगवान् विष्णु के चरणों से निकली हुई पवित्र गंगा और अलकनन्दा भी जहाँ बह रही है, ऐसे नर नारायण के स्थान में श्री नारद मुनि ने जाकर महामुनि नारायण को प्रणाम किया ॥ ८ ॥
और परब्रह्म की चिन्ता में लगा हुआ है मन जिसका ऐसे, जितेन्द्रिय, काम क्रोधादि छओ शत्रुओं को जीते हुए, निर्मल, चमक रही है अत्यन्त प्रभा जिनके शरीर से, ऐसे देवताओं के भी देव, तपस्वी नारायण को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर और हाथ जोड़कर नारद उस मुनि व्यापक प्रभु की स्तुति करने लगे ॥ ९-१० ॥
नारदजी बोले – हे देवदेव! हे जगन्नाथ! हे कृपासागर सत्पते! आप सत्यव्रत हो, त्रिसत्य हो, सत्य आत्मा हो, और सत्यसम्भव हो ॥ ११ ॥
हे सत्ययोने! आप को नमस्कार है, मैं आपकी शरण में आया हूँ, आपका जो तप है वह सम्पूर्ण प्राणियों की शिक्षा के लिये और मर्यादा की स्थापना के लिये है ॥ १२ ॥
यदि आप तपस्या न करें तो – जैसे कलियुग में एक के पाप करने से सारी पृथ्वी डूबती है, वैसे ही एक के पुण्य करने से सारी पृथ्वी तरती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है ॥ १३ ॥
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
कृतादिषु यथा पूर्वमेकरं तत्समस्तगम्, तादृक्स्थिति निराकृत्य कलौ कर्त्तेव केवलम् ॥ १४ ॥
लिप्यते पुण्यपापाभ्यामिति ते तपसि स्थितिः, भगवान् प्राणिनः सव विषयासक्तमानसाः ॥ १५ ॥
दारापत्यगृहासक्तास्तेषां हितकरं च यत्, ममापि हितकृत्किञ्चिद्विचार्य वक्तुमर्हसि ॥ १६ ॥
त्वन्मुखाच्छ्रोतुकामोऽहं ब्रह्मलोकादिहागतः, उपकारप्रियो विष्णुरिति वेदे विनिश्चितम् ॥ १७ ॥
तस्माल्लोकोपकाराय कथासारं वदाऽधुना, यस्य श्रवणमात्रेण निर्भयं पदम् ॥ १८ ॥
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य भगवानृषिः, कथां कथितुमारेभे पुण्यां भुवनपावनीम् ॥ १९ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
गोपाङ्गनावदनपङ्कजषट्पदस्य रासेश्वरस्य रसिकाभरणस्य पुंसः, वृन्दावने विहरतो व्रजभर्तुरादेः पुण्यां कथां भगवतः श्रृणु नारद त्वम् ॥ २० ॥
हिंदी अनुवाद :-
‘पहिले सत्ययुग आदि में जैसे एक पाप करता था, तो सभी पापी हो जाते थे’ ऐसी स्थिति हटाकर कलियुग में केवल कर्ता ही पापों से लिप्त होता है, यह आप के तप की स्थिति है, हे भगवन्! कलि में जितने प्राणी हैं सब विषयों में आसक्त हैं ॥ १४-१५ ॥
स्त्री, पुत्र गृह में लगा है, चित्त जिनका ऐसे प्राणियों का हित करने वाला जो हो और मेरा भी थोड़ा कल्याण हो ऐसा विषय विचार कर आप कहने के योग्य हैं ॥ १६ ॥
आपके मुख से सुनने की इच्छा से मैं ब्रह्मलोक से यहाँ आया हूँ, उपकारप्रिय विष्णु हैं ऐसा वेदों में निश्रित है ॥ १७ ॥
इसलिये लोकोपकार के लिये कथा का सार इस समय आप सुनाइये, जिसके श्रवणमात्र से निर्भय मोक्षपद को प्राप्त करते हैं ॥ १८ ॥
इस प्रकार नारदजी का वचन सुन भगवान् ऋषि आनन्द से खिलखिला उठे और भुवन को पवित्र करने वाली पुण्यकथा आरम्भ की ॥ १९ ॥
श्रीनारायण बोले – गोपों की स्त्रियों के मुखकमल के भ्रमर, रास के ईश्वर, रसिकों के आभरण, वृन्दावनबिहारी, व्रज के पति आदिपुरुष भगवान् की पुण्य कथा को कहते हैं, हे नारद! आप सुनो ॥ २० ॥
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
चक्षुर्निमेषपततो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः, त्वं चापि नारदमुने भगवच्चरित्रं जानासि सारसरसं वचसामगम्यम् ॥ २१ ॥
तथापि वक्ष्ये पुरुषोत्तमस्य माहात्म्यमत्यद्भुतमादरेण, दारिद्रयवैधव्यहरं यशस्यं सत्पुत्रदं मोक्षदमाशु सेव्यम् ॥ २२ ॥
नारद उवाच :-
पुरुषोत्तमस्तु को देवो माहात्म्यं तस्य किं मुने, अत्यद्भुतमिवाभाति विस्तरेण वदस्व हे ॥ २३ ॥
सूत उवाच :-
नारदोक्तं वचः श्रुत्वा मुनिर्नारायणोऽब्रवीत्, समाधाय मनः सम्यक् मुहूर्तं पुरुषोत्तमे ॥ २४ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
पुरुषोत्तमेति मासस्य नामाप्यस्ति सहेतुकम्, तस्य स्वामी कृपासिन्धु पुरुषोत्तम उच्यते ॥ २५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जो निमेपमात्र समय में जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, उनके कर्मों को हे वत्स! इस पृथ्वी पर कौन वर्णन कर सकता है? हे नारदमुने! आप भी भगवान् के चरित्र का सरस सार जानते हैं और यह भी जानते हैं कि भगवच्चरित्र वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता ॥ २१ ॥
तथापि अद्भुत पुरुषोत्तम माहात्म्य आदर से कहते हैं, यह पुरुषोत्तम माहात्म्य दरिद्रता और वैधव्य को नाश करने वाला, यश का दाता एवं सत्पुत्र और मोक्ष को देने वाला है, अतः शीघ्र ही इसका प्रयोग करना चाहिये ॥ २२ ॥
नारद बोले – हे मुने! पुरुषोत्तम नामक कौन देवता हैं? उनका माहात्म्य क्या है? यह अद्भुत-सा प्रतीत होता है, अतः आप मुझसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ २३ ॥
सूतजी बोले – श्रीनारद का वचन सुन नारायण क्षणमात्र पुरुषोत्तम में अच्छी तरह मन लगाकर बोले ॥ २४ ॥
श्रीनारायण बोले – ‘पुरुषोत्तम’ यह मास का नाम जो पड़ा है, वह भी कारण से युक्त, पुरुषोत्तम मास के स्वामी दयासागर पुरुषोत्तम ही हैं ॥ २५ ॥
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
ऋषिभिः प्रोच्यते तस्मान्मासः श्रापुरुषोत्तमः, तस्य व्रतविधानेन प्रीतः स्यात् पुरुषोत्तमः ॥ २६ ॥
नारद उवाच :-
सन्ति मध्वादयो मासाः सेश्वरास्ते श्रुता मया, तन्मध्ये न श्रुतो मासः पुरुषोत्तमसंज्ञक ॥ २७ ॥
पुरुषोत्तमस्तु को मासस्तस्य स्वामी कृपानिधिः, पुरुषोत्तमः कथं जातस्तन्मे ब्रूहि कृपानिधे ॥ २८ ॥
स्वरूपं तस्य मासस्य सविधानं वद प्रभो, किं कर्तव्यं कथं स्नानं किं दानं तत्र सत्पते ॥ २९ ॥
जपपूजोपवासादि साधनं किं च भण्यताम्, तुष्येत् कृतेन को देवः किं फलं वा प्रयच्छति ॥ ३० ॥
एतदन्यच्च यत्किञ्चित्तत्त्वं ब्रूहि तपोधन, अनापृष्ठमपि ब्रूयुः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ३१ ॥
नरा ये भुवि जायन्ते परभाग्यानुवर्तिनः, दारिद्रयपीडिता नित्यं रोगिणः पुत्रकाङ्क्षिणाः ॥ ३२ ॥
जडा मूका दामभिकाश्च हीनविद्याः कुचैलिनः, नास्तिका लम्पटा नीचा जर्जराः परसेविनः ॥ ३३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
इसीलिये ऋषिगण इसको पुरुषोत्तमास कहते हैं, पुरुषोत्तम मास के व्रत करने से भगवान् पुरुषोत्तम प्रसन्न होते हैं ॥ २६ ॥
नारदजी बोले – चैत्रादि मास जो हैं, वे अपने-अपने स्वामी देवताओं से युक्त हैं, ऐसा मैंने सुना है, परन्तु उनके बीच में पुरुषोत्तम नाम का मास नहीं सुना है ॥ २७ ॥
पुरुषोत्तम मास कौन हैं? और पुरुषोत्तम मास के स्वामी कृपा के निधि पुरुषोत्तम कैसे हुए? हे कृपानिधे! यह आप मुझसे कहिये ॥ २८ ॥
इस मास का स्वरूप विधान के सहित हे प्रभो! कहिये, हे सत्पते! इस मास में क्या करना? कैसे स्नान करना? क्या दान करना? ॥ २९ ॥
इस मास का जप पूजा उपवास आदि क्या साधन है? कहिये, इस मास के विधान से कौन देवता प्रसन्न होते हैं? और क्या फल देते हैं? ॥ ३० ॥
इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी तथ्य हो वह हे तपोधन! कहिये, साधु दीनों के ऊपर कृपा करने वाले होते हैं, वे बिना पूछे कृपा करके सदुपदेश दिया करते हैं ॥ ३१ ॥
इस पृथ्वी पर जो मनुष्य दूसरों के भाग्य के अनुवर्ती, दरिद्रता से पीड़ित, नित्य रोगी रहने वाले, पुत्र चाहने वाले ॥ ३२ ॥
जड़, गूँगे, ऊपर से अपने को बड़े धार्मिक दरसाने वाले, विद्या विहीन, मलिन वस्त्रों को धारण करने वाले, नास्तिक, परस्त्रीगामी, नीच, जर्जर, दासवृत्ति करने वाले ॥ ३३ ॥
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
नष्टाशा भग्नसङ्कल्पाः क्षीणतत्त्वा कुरूपिणः, रोगिणः कुष्ठिनो व्यङ्गा नेत्रहीनाश्च केचन ॥ ३४ ॥
इष्टमित्रकलत्राप्तपितृमातृवियोगिनः, शोकदुःखादिशुष्काङ्गाः स्वेष्टवस्तुविवर्जिताः ॥ ३५ ॥
पुनर्नवंविधास्ते स्युर्यत्कृतेन श्रुतेन च, पठितेनानुचीर्णेन तद्वदस्व मम प्रभो ॥ ३६ ॥
वैधव्यं वन्ध्यतादोषं हीनाङ्गत्वदुराधयः, रक्तपित्ताद्यपस्मारराजयक्ष्मादयश्च ये ॥ ३७ ॥
एतैर्दोषसमूहैश्चदुःखितान् वीक्ष्यमानवान्, दुःखितोऽस्मि जगन्नाथ कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ ३८ ॥
विस्तरेण वद ब्रह्मन् मन्मनोमोदहेतुकम्, सर्वज्ञः सर्वतत्त्वानां निधानं त्वमसि प्रभो ॥ ३९ ॥
सूत उवाच:-
इति विधितनयोदितं रसालं जनहितहेतुं निशम्य देवदेवः, अभिनवघनरावरम्यवाचाऽवददभिपूज्य मुनिं सुधांशुशान्तम् ॥ ४० ॥
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे प्रश्नविधिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हिंदी अनुवाद :-
आशा जिनकी नष्ट हो गयी है, संकल्प जिनके भग्न हो गये हैं, तत्त्व जिनके क्षीण हो गये हैं, कुरुपी, रोगी, कुष्ठी, टेढ़े-मेढ़े अंग वाले, अन्धे ॥ ३४ ॥
इष्टवियोग, मित्रवियोग, स्त्रीवियोग, आप्तपुरुषवियोग, मातापिताविहीन, शोक दुःख आदि से सूख गये हैं अंग जिनके, अपनी इष्ट वस्तु से रहित उत्पन्न हुआ करते हैं ॥ ३५ ॥
वैसे जिस अनुष्ठान के करने और सुनने से, पुनः उत्पन्न न हों, हे प्रभो! ऐसा प्रयोग हमको सुनाइये ॥ ३६ ॥
वैधव्य, वन्ध्यादोष, अंगहीनता, दुष्ट व्याधियाँ, रक्तपित्त आदि, मिर्गी राजयक्ष्मादि जो दोष हैं ॥ ३७ ॥
इन दोषों से दु:खित मनुष्यों को देखकर हे जगन्नाथ! मैं दुःखी हूँ, अतः मेरे ऊपर दया करके ॥ ३८ ॥
हे ब्रह्मन्! मेरे मन को प्रसन्न करने वाले विषय को विस्तार से कहिये, हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, समस्त तत्त्वों के आयतन हैं ॥ ३९ ॥
सूतजी बोले – इस प्रकार नारद के परोपकारी मधुर वचनों को सुन कर देवदेव नारायण, चन्द्रमा की तरह शान्त महामुनि नारद से नये मेघ के समान गम्भीर वचन बोले ॥ ४० ॥
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अध्याय ३ - अधिमासस्य वैकुण्ठमापणं
मुख्य सुचि
No comments:
Post a Comment