🌷 अध्याय ३ - अधिमासस्य वैकुण्ठमापणं 🌷


ऋषय ऊचुः :-

नारायणो नरसखा यदुवाच शुभं वचः, नारदाय महाभाग तन्नो वद सविस्तरम्‌ ॥ १ ॥

सूत उवाच :-

नारायणवचो रम्यं श्रुयतां द्विजसत्तमाः, यदुक्तं नारदायैतत्‌ प्रवक्ष्यामि यथाश्रुतम्‌ ॥ २ ॥

श्रीनारायण उवाच:-

श्रृणु नारद वक्ष्यामि यदुक्‍तं हरिणा पुरा, राज्ञे युधिष्ठिरायैवं श्रीकृष्णेन महात्मना ॥ ३ ॥

एकदा धार्मिको राजाऽजातशत्रुर्युधिष्ठिरः, द्यूते पराजितो दुष्टैकर्धार्तराष्ट्रै श्छलप्रियैः ॥ ४ ॥

समक्षमग्निसम्भूता कृष्णा धर्मपरायणा, दुःशासनेन दुष्‍टैन कचेष्वादाय कर्षिता ॥ ५ ॥

आकृष्टानि च वासांसि श्रीकृष्णेन सुरक्षिता, पश्चाद्राज्यं प्रित्यज्य प्रयाताः काम्यकं वनम्‌ ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

ऋषिगण बोले – हे महाभाग! नर के मित्र नारायण नारद के प्रति जो शुभ वचन बोले वह आप विस्तार पूर्वक हमसे कहें ॥ १ ॥

सूतजी बोले – हे द्विजसत्तमो! नारायण ने नारद के प्रति जो सुन्दर वचन कहे वह जैसे मैंने सुने हैं, वैसे ही कहता हूँ आप लोग सुनें ॥ २ ॥

नारायण बोले – हे नारद! पहिले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने राजा युधिष्ठिर से जो कहा था, वह मैं कहता हूँ सुनो ॥ ३ ॥

एक समय धार्मिक राजा अजातशत्रु युधिष्ठिर, छलप्रिय धृतराष्ट्र के दुष्टपुत्रों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार गये ॥ ४ ॥

सबके देखते-देखते अग्नि से उत्पन्न हुई धर्मपरायणा द्रौपदी के बालों को पकड़ कर दुष्ट दुःशासन ने खींचा ॥ ५ ॥

और खींचने के बाद उसके वस्त्र उतारने लगा तब भगवान् कृष्ण ने उसकी रक्षा की, पीछे पाण्डव राज्य को त्याग काम्यक वन को चले गये ॥ ६ ॥

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अत्यन्तं क्लेशमापन्नाः पार्था वन्यफलाशिनः, विष्वक्कचाचिताः सर्वे राजा इव वनौकसः ॥ ७ ॥

अथ तान्‌ दुःखितान्‌ द्रष्‍टुं भगवान्‌ देवकीसुतः, जगाम काम्यकवनं मुनिभिः परिवारितः ॥ ८ ॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्तस्थुर्देहाः प्राणानिवागतान्‌, पार्थाः सम्वजिरे प्रीत्या श्रीकृष्णं प्रेमविह्वलाः ॥ ९ ॥

ते चानिनमतां भक्‍त्या हरिपदाम्बुजम्‌, द्रौपदी तं ननामाशु शनैः शनैरतन्द्रिता ॥ १० ॥

तान्‌ दृष्ट्वा दुःखितान्‌ पार्थान्‌ रौरवाजिनवाससः, धूलिभिर्धूसरान्‌ रुक्षान्‌ सर्वतः कचसंयुतान्‌ ॥ ११ ॥

पाञ्चालीमपि तन्वङ्गीं तादृशीं दुखसंवृताम्‌, तेषां दुःखमतोवोग्रं दृष्‍ट्‌वैवातीत दुःखितः ॥ १२ ॥

धार्त्तराष्ट्रान्‌ दग्धुकामो भगवान्‌ भक्तवत्सलः, चक्रे कोपं स विश्वात्मा भ्रूभङ्गकुटिलेक्षणः ॥ १३ ॥

कोटिकालकरालास्य-प्रलयाग्निरिवोत्थितः, सन्दष्टौष्ठपुटः प्रोच्चेस्विलोकीं ज्वलयन्निव ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

वहाँ अत्यन्त क्लेश से युक्त वे वन के फलों को खाकर जीवन बिताने लगे॥ जैसे जंगली हाथियों के शरीर में बाल रहते हैं इसी प्रकार पाण्डवों के शरीर में बाल हो गये ॥ ७ ॥

इस प्रकार दुःखित पाण्डवों को देखने के लिये भगवान् देवकीसुत मुनियों के साथ काम्यक वन में गये ॥ ८ ॥

उन भगवान् को देखकर मृत शरीर में पुनः प्राण आ जाने की तरह युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन आदि प्रेमविह्वल होकर सहसा उठ खड़े हुए और प्रीति से श्रीकृष्ण के गले मिले ॥ ९ ॥

और भगवान् कृष्ण के चरण कमलों में भक्ति से नमस्कार करते भये द्रौपदी धीरे-धीरे वहाँ आय आलस्यरहित होकर भगवान् को शीघ्र नमस्कार करती भई ॥ १० ॥

उन दुःखित पाण्डवों को रुरुमृग के चर्म के वस्त्रों को पहिरे देख और समस्त शरीर में धूल लगी हुई, रूखा शरीर, चारों तरफ बाल बिखरे हुए ॥ ११ ॥

द्रौपदी को भी उसी प्रकार दुर्बल शरीरवाली और दुःखों से घिरी हुई देखा॥ इस तरह दुःखित पाण्डवों को देखकर अत्यन्त दुःखी ॥ १२ ॥

भक्तवत्सल भगवान्‌ धृतराष्ट्र के पुत्रों को जला देने की इच्छा से उन पर क्रुद्ध हुए, विश्‍व के आत्मा, भाहों को चढ़ा गुरेर कर देखने वाले ॥ १३ ॥

करोड़ों काल के कराल मुख की तरह मुखवाले, धधकती हुई प्रलय की अग्नि के समान उठे हुए, ओठों को दाँत के नीचे जोर से दबाकर तीनों लोकों को जला देने की तरह ॥ १४ ॥

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सीतावियोगसन्तप्तः साक्षाद्दशरथिर्यथा, तमालोक्य तदा वीरो बीभत्सुर्जातवेपथुः ॥ १५ ॥

उत्थाय कृष्णं तु्ष्टाव बद्धाञ्जलिपुटं भिया, धर्मानुमोदितः शीघ्रं द्रौपद्या च तथापरैः ॥ १६ ॥

अर्जुन उवाच :-

हे कृष्ण जगतां नाथ नाथ नाहं जगद्वहिः, त्वमेव जगतां पाता मां न पासि कथं प्रभो ॥ १७ ॥

यच्चक्षुःणतनेनैव ब्रह्मणः पतनं भवेत्‌, किं तत्कोपेन न भवेत्‌ को वेद किं भविष्यति ॥ १८ ॥

क्रोधं संहर संहर्तस्ताततात जगत्पते, त्वद्विधानां च कापेन जगतः प्रलयो भवेत्‌ ॥ १९ ॥

वन्दे त्वां सर्वतत्त्वज्ञं सर्वकारणकारणम्‌, वेदवेदांगबाजस्य बीजं श्रीकृष्णमीश्वरम्‌ ॥ २० ॥

त्वमीश्वरोऽसृजः सर्वं जगदेतच्चराचरम्‌, सर्वमङ्गलमाड्गल्यं बीजरूपः सनातनः ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीसीता के वियोग से सन्तप्त भगवान् रामचन्द्र को रावण पर जैसा क्रोध आया था, उस प्रकार से क्रुद्ध भगवान् को देखकर काँपते हुए अर्जुन ॥ १५ ॥

कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए द्रौपदी, धर्मराज तथा और लोगों से भी अनुमोदित होकर शीघ्र ही हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १६ ॥

अर्जुन बोले – हे कृष्ण! हे जगत्‌ के नाथ! हे नाथ! मैं जगत् के बाहर नहीं हूँ, आपही जगत् की रक्षा करने वाले हैं, हे प्रभो! क्या मेरी रक्षा आप न करेंगे? ॥ १७ ॥

जिनके नेत्र के देखने से ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है, उनके क्रोध करने से क्या नहीं हो सकता है, यह कौन जानता है, कि क्या होगा? ॥ १८ ॥

हे संहार करने वाले! क्रोध का संहार कीजिये, हे तात के पात! हे जगत्पते! आप ऐसे महापुरुषों के क्रोध से संसार का प्रलय हो जाता है ॥ १९ ॥

सम्पूर्ण तत्त्व को जानने वाले सर्व वस्तुओं के कारण के कारण, वेद और वेदांग के बीज के बीज आप साक्षात् श्रीकृष्ण हैं, मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥ २० ॥

आप ईश्‍वर हैं, इस चराचरात्मक संसार को आपने उत्पन्न किया है, सर्वमंगल के मांगल्य हैं और सनातन के बीजरूप हैं ॥ २१ ॥

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स कथं स्वकृतं हन्याद्विश्वमेकापराधतः, मशकान्‌ भस्मासात्कर्तुं को वा दहति मन्दिरम्‌ ॥ २२ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इति विज्ञाप्य श्रीकृष्णं फाल्गुनः परवीरहा, बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा प्रणनाम जनार्दनम्‌ ॥ २३ ॥

सूत उवाच :-

हरिः क्रोधं निरस्याशु सौम्योऽभूच्चन्द्रमा इव, समालक्ष्य तदा सर्वे पाण्डवाः स्वास्थ्यमागताः ॥ २४ ॥

प्रीत्युत्फुल्लमुखाः सर्वे प्रणेमुः प्रेमविह्वलाः, श्रीकृष्णं पूजयाञ्चकुर्वन्यैर्मूलफलादिभिः ॥ २५ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

ततः प्रसन्नं श्रीकृष्णं शरण्यं भक्तवत्सलम्‌, विज्ञायावनतो भूत्वा बृहतोमपरिप्लुतः ॥ २६ ॥

बद्धाञ्जलिर्गुङाकेशो नामं नामं पुनः पुनः, तं तथा कृतवान्‌ प्रश्‍नं यथा पृच्छति यं भवान्‌ ॥ २७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इसलिये एक के अपराध से अपने बनाए समस्त विश्‍व का आप नाश कैसे करेंगे? कौन भला ऐसा होगा जो मच्छरों को जलाने के लिये अपने घर को जला देता हो? ॥ २२ ॥

श्रीनारायण बोले – दूसरों की वीरता को मर्दन करने वाले अर्जुन ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन कर प्रणाम किया ॥ २३ ॥

सूतजी बोले – श्रीकृष्णजी ने अपने क्रोध को शान्त किया और स्वयं भी चन्द्रमा की तरह शान्त होते भये, इस प्रकार भगवान्‌ को शान्त देखकर पाण्डव स्वस्थ होते भये ॥ २४ ॥

प्रेम से प्रसन्नमुख एवं प्रेमविह्नल हुए सबों ने भगवान् को प्रणाम किया और जंगली कन्द, मूल, फल आदि से उनकी पूजा की ॥ २५ ॥

नारायण बोले – तब शरण में जाने योग्य, भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले श्रीकृष्ण को प्रसन्न जान, विशेष प्रेम से भरे हुए, नम्र ॥ २६ ॥

अर्जुन ने बारम्बार नमस्कार किया और जो प्रश्‍न आपने हमसे किया है, वही प्रश्‍न उन्होंने श्रीकृष्ण से किया ॥ २७ ॥

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श्रुत्वैवं भगवान्‌ दध्यौ मुहुर्तं मनसा हरिः, ध्यात्वाऽऽश्‍वास्य सुहृद्वर्गं पाञ्चालीं च धृतव्रताम्‌, उवाच वदतां श्रेष्ठः पाण्डवानां हितं वचः ॥ २८ ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

श्रृणु राजन्‌ महाभाग वीभत्सो ह्यथ मद्वचः, अपूर्वोऽयं कृतः श्‍नोनोत्तरं वक्‍तुमुत्सहे ॥ २९ ॥

एष गुह्यतरो लोके ऋषाणामपि दुर्घटः, तथापि वक्ष्ये मित्रत्वाद्भक्तत्वाच्व तवार्जुन ॥ ३० ॥

तदुत्तरमतीवोग्रं क्रमतः श्रृणु सुव्रत, मध्वादयश्च ये मासा लवपक्षाश्च नाडिकाः ॥ ३१ ॥

यामास्त्रियामा ऋतवो मुहूर्तान्ययने उभे, हायनं च युगान्येवं परार्धान्ता परे च ये ॥ ३२ ॥

नद्योऽर्णवहृदाः कूपा वापीपल्वलनिर्झराः, लतौषधिद्रुमाश्चैव त्वक्‌साराः पादपाश्च ये ॥ ३३ ॥

वनस्पतिपुरग्रामगिरयः पत्तनानि च, एते सवे मूतिमन्तः पूज्यन्ते स्वात्मनो गुणैः ॥ ३४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार अर्जुन का प्रश्‍न सुनकर श्रीकृष्‍ण क्षणमात्र मन से सोचकर अपने सुहृद्वर्ग पाण्डवों को और व्रत को धारण की हुई द्रौपदी को आश्‍वासन देते हुए वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पाण्डवों से हितकर वचन बोले ॥ २८ ॥

श्रीकृष्णजी बोले – हे राजन्‌! हे महाभाग! हे बीभत्सो! अब मेरा वचन सुनो, आपने यह प्रश्‍न अपूर्व किया है, आपको उत्तर देने में मुझे उत्साह नहीं हो रहा है॥ ॥ २९ ॥

इस प्रश्‍न का उत्तर गुप्त से भी गुप्त है ऋषियों को भी नहीं विदित है, फिर भी हे अर्जुन! मित्र के नाते अथवा तुम हमारे भक्त हो इस कारण से हम कहते हैं ॥ ३० ॥

हे सुव्रत! वह जो उत्तर है, वह अति उग्र है, अतः क्रम से सुनो! चैत्रादि जो बारह मास, निमेष, महीने के दोनों पक्ष, घड़ियाँ ॥ ३१ ॥

प्रहर, त्रिप्रहर, छ ऋतुएँ, मुहूर्त दक्षिणायन और उत्तरायण, वर्ष चारों युग, इसी प्रकार परार्ध तक जो काल है, यह सब ॥ ३२ ॥

और नदी, समुद्र, तालाब, कुएँ, बावली, गढ़इयाँ, सोते, लता, औषधियों, वृक्ष, बाँस आदि पेड़ ॥ ३३ ॥

वन की औषधियाँ, नगर, गाँव, पर्वत, पुरियाँ ये सब मूर्तिवाले हैं और अपने गुणों से पूजे जाते हैं ॥ ३४ ॥

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न तेषां कश्चिदप्यस्ति ह्यपूर्वः स्वामिवर्जुतः, स्वे स्वेऽधिकारे सततं पूजयन्ते फलदायिनः ॥ ३५ ॥

स्वस्वामियोगमाहात्म्यात्‌ सर्वे सौभाग्यशालिनः, अधिमासः समुत्पन्नः कदाचित्‌ पाण्डुनन्दन ॥ ३६ ॥

तमूचुः सकला लोका असहायं जुगुप्सितम्‌, अनर्हो मलमासोऽयं रविसङ्कमवर्जितः ॥ ३७ ॥

अस्पृश्यो मलरूपत्वाच्छुभे कर्मणि गर्हितः, श्रुत्वैतद्वचनं लोकान्निरुद्योगो हतप्रभः ॥ ३८ ॥

दुःखान्वितोऽतिखिन्नात्मा चिन्ताग्रस्तैकमानसः, मुमूर्षरभवत्तेन हृदयेन विदूयता, पश्चाद्धैर्यं समालम्ब्य मामसौ शरणं गतः ॥ ३९ ॥

प्राप्तो वैकुण्‍ठभवनं यत्राहमवसं नर, अन्तर्गृहं समागत्य मामसौ दृष्टवान्‌ परम्‌ ॥ ४० ॥

अमूल्यरत्‍नरचिते हेमसिंहासने स्थितम्‌, तदानीं मामसौ दृष्ट्वा दण्‍डवत्‌ पतितो भुवि ॥ ४१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इनमें ऐसा कोई अपूर्व व्यक्ति नहीं है जो अपने अधिष्ठातृ देवता के बिना रहता हो, अपने अपने अधिकार में पूजे जाने वाले ये सभी फल को देने वाले हैं ॥ ३५ ॥

अपने-अपने अधिष्ठातृ देवता के योग के माहात्म्य से ये सब सौभाग्यवान् हैं, हे पाण्डुनन्दन! एक समय अधिमास उत्पन्न हुआ ॥ ३६ ॥

उस उत्पन्न हुए असहाय निन्दित मास को सब लोग बोले, कि यह मलमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है अतः पूजने योग्य नहीं है॥ ॥ ३७ ॥

यह मास मलरूप होने से छूने योग्य नहीं है और शुभ कर्मों में अग्राह्य है, इस प्रकार के वचनों को लोगों के मुख से सुनकर यह मास निरुद्योग, प्रभारहित ॥ ३८ ॥

दुःख से घिरा हुआ, अति खिन्नमन, चिन्ता से ही ग्रस्तमन होकर व्यथित हृदय से मरणासन्न की तरह हो गया, फिर वह धैर्य धारण कर मेरी शरण में आया ॥ ३९ ॥

हे नर! वैकुण्ठ भवन में जहाँ मैं रहता था, वहाँ पहुँचा और मेरे घर में आकर मुझ परम पुरुषोत्तम को इसने देखा ॥ ४० ॥

उस समय अमूल्य रन्तों से जटित सुवर्ण के सिंहासन पर बैठे मुझको देखकर यह भूमि पर साष्टांग दण्डवत् कर ॥ ४१ ॥

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प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा मुञ्चन्नश्रूणि नेत्रतः, वाचा गद्‌गदया सौम्यं बभाषे धैर्यमुद्वहन्‌ ॥ ४२ ॥

सूत उवाच :-

इत्युक्‍त्वा बदरीनाथो विरराम महामुनिः, तच्छ्रुत्वा पुनरेवाह नारदो भक्तवत्सलः ॥ ४३ ॥

नारद उवाच :-

इत्यं गत्वा भवनममलं पूर्णरूपस्य विष्‍णोर्भक्तिप्राप्यं जगदघहरं योगिनामप्यगम्यम्‌, यत्रैवास्ते जगदभयदो ब्रह्मरूपो मुकुन्दस्तत्पादाब्जं शरणमधिगतः सोऽधिमासः किमूचे ॥ ४४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्येऽधिमासस्य वैकुण्ठमापणं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हाथ जोड़कर नेत्रों से बराबर आँसुओं की धारा बहाता हुआ, धैर्य धारण कर गद्‌गद वाणी से बोला ॥ ४२ ॥

सूतजी बोले – इस प्रकार महामुनि बदरीनाथ कथा कहकर चुप होते भये, इस प्रकार नारायण के मुख से कथा सुन भक्तों के ऊपर दया करने वाले नारदमुनि पुनः बोले ॥ ४३ ॥

नारद बोले – इस प्रकार अपनी पूर्ण कला से विराजमान भगवान् विष्णु के निर्मल भवन में जाकर भक्ति द्वारा मिलने वाले, जगत् के पापों को दूर करने वाले, योगियों को भी शीघ्र न मिलने वाले जगत् को अभयदान देने वाले, ब्रह्मरूप, मुकुंद जहाँ पर थे, उनके चरण कमलों की शरण में आया हुआ अधिमास क्या बोला? ॥ ४४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

अध्याय ४ - मलमासविज्ञप्तिर्नाम

मुख्य सुचि

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