🌷 अध्याय ४ - मलमासविज्ञप्तिर्नाम 🌷


श्रीनारायण उवाच :-

श्रृणु नारद वक्ष्येऽहं लोकानां हितकाम्यया, अधिमासेन यत्प्रोक्‍तं हरेरग्रे शुभं वचः ॥ १ ॥

अधिमास उवाच :-

अयि नाथ कृपानिधे हरे न कथं रक्षसि मामिहागतम्‌, कृपणं प्रबलैर्निकृतं मलमासेत्यभिधां विधाय मे ॥ २ ॥

शुभकर्मणि वर्जितंहि मां निरधीशं मलिनं सदैवतैः, अवलोकयतो दयालुता क्क गता तेऽद्य कठोरता कथम्‌ ॥ ३ ॥

वसुदेववराड्गना यथा खलकंसानलतः सुरक्षिता, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – हे नारद! भगवान् पुरुषोत्तम के आगे जो शुभ वचन अधिमास ने कहे वह लोगों के कल्याण की इच्छा से हम कहते हैं, सुनो ॥ १ ॥

अधिमास बोला – हे नाथ! हे कृपानिधे! हे हरे! मेरे से जो बलवान् हैं, उन्होंने ‘यह मलमास है’ ऐसा कहकर मुझ दीन को अपनी श्रेणी से निकाल दिया है, ऐसे यहाँ आये हुए मेरी आप रक्षा क्यों नहीं करते? ॥ २ ॥

अपने स्वामी देवता वाले मासादिकों द्वारा शुभ कर्म में वर्जित मुझ स्वामिरहित को देखते ही आपकी दयालुता कहाँ चली गयी और आज यह कठोरता कैसे आ गयी? ॥ ३ ॥

हे भगवन्! कंसरूप अग्नि से जलती हुई वसुदेव की स्त्री (देवकी) की रक्षा जैसे आपने की वैसे ही हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते? ॥ ४ ॥

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द्रुपदस्य सुता यथा खलदुःशासनदुःखतोऽविता, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ५ ॥

यमुनाविषतो यादवोऽविताः पशुपालाः पशवो यथा त्वया, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ६ ॥

पशवः पशुपास्तदङ्गना अविता दावधनञ्जयाद्यथा, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ७ ॥

पृथिवीपतयो यथाविता मगधेशालयबन्धनात्त्वया, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ८ ॥

गजनायक एत्य रक्षितो झटिति ग्राहमुखाद्यथा त्वया, वद मां शरणागतं कथं न तथाद्यावसि दीनवत्सल ॥ ९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

पहिले द्रुपद राजा की कन्या द्रौपदी की दुःशासन के दुःख से जैसे आपने रक्षा, की वैसे हे दीनदयाला! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते? ॥ ५ ॥

यमुना में कालिय नाग के विष से गौ चरानेवालों तथा पशुओं की आपने जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते? ॥ ६ ॥

पशु और पशुओं को पालने वालों एवं पशुपालकों की स्त्रियों की जैसे पहिले व्रज में सर्पतके वन में लगी हुई अग्नि से आपने रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते ॥ ७ ॥

मगध देश के राजा जरासंध के बन्धन से राजाओं की जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आप कैसे रक्षा नहीं करते ॥ ८ ॥

आपने ग्राह के मुख से गजराज की झट आकर जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते ॥ ९ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

इति विज्ञाप्य भूमानं विरराम निरीश्वरः, मलमासोऽश्रु वदनस्तिष्ठन्नग्रे जगत्पतेः ॥ १० ॥

तदानीं श्रीहरिस्तूर्णं कृपयाप्लावितो भृशम्‌, उवाच दीनवदनं मलमासं पुरःस्थितम्‌ ॥ ११ ॥

श्रीहरिरुवाच :-

वत्स वत्स किमत्यन्तं दुःखमग्नोऽसि साम्प्रतम्‌, एतादृशं महत्‌ दुःखं किं ते मनसि वर्तते ॥ १२ ॥

त्वामहं दुःखसंमग्नमुद्धरिष्यामि मा शुचः, न मे शरणमापन्नः पुनः शोचितुमर्हति ॥ १३ ॥

इहागत्य महादुःखी पतितोऽपि न शोचति, किमर्थं त्वमिहागत्य शोकसंमग्नमानसः ॥ १४ ॥

अशोकमजरं नित्यं सानन्दं मृत्युवर्जितम्‌, वैकुण्ठमीदृशं प्राप्य कथं दुःखान्वितो भवान्‌ ॥ १५ ॥

त्वामत्र दुःखितं दृष्ट्वा वैकुण्ठस्थाः सुविस्मिताः, किमर्थं मर्तुकामोऽसि तन्मे वत्स वदाधुना ॥ १६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार भगवान्‌ को कह स्वामीरहित मलमास, आँसू बहता मुख लिये जगत्पति के सामने चुपचाप खड़ा रहा ॥ १० ॥

उसको रोते देखते ही भगवान् शीघ्र ही दयार्द्र हो गये और पास में खड़े दीनमुख मलमास से बोले ॥ ११ ॥

श्रीहरि बोले – हे वत्स! क्यों इस समय अत्यन्त दुःख में डूबे हुए हो ऐसा कौन बड़ा भारी दुःख तुम्हारे मन में है? ॥ १२ ॥

दुःख में डूबते हुए तुझको हम बचावेंगे, तुम शोक मत करो, मेरी शरण में आया फिर शोक करने के योग्य नहीं रहता है ॥ १३ ॥

यहाँ आकर महादुःखी नीच भी शोक नहीं करता, किसलिये तुम यहाँ आकर शोक में मन को दबाये हुए हो ॥ १४ ॥

जहाँ आने से न शोक होता है, न कभी बुढ़ौती आती है, न मृत्यु का भय रहता है, किन्तु नित्य आनन्द रहा करता है इस प्रकार के बैकुण्ठ में आकर तुम कैसे दुःखित हो? ॥ १५ ॥

तुमको यहाँ पर दुःखित देखकर वैकुण्ठवासी बड़े विस्मय को प्राप्त हो रहे हैं, हे वत्स! तुम कहो इस समय तुम मरने की क्यों इच्छा करते हो? ॥ १६ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

श्रुत्वेदं भगवद्वाक्‍यं विभार इव भारभृत्‌, श्वासोच्छ्वावाससमायुक्त उवाच मधुसूदनम्‌ ॥ १७ ॥

अधिमास उवाच :-

अज्ञातं तब नैवास्ति किञ्चिदप्यत्र संसृति, आकाश इव सर्वत्र विश्‍वं व्याप्य व्यवस्थितः ॥ १८ ॥

चराचरगतो विष्णुः साक्षी सर्वस्य विश्वदृक्‌, कूटस्थे त्वयि सर्वाणि भूतानि च व्यवस्थया ॥ १९ ॥

संस्थितानी जगन्नाथ न किञ्चिद्भवता विना, किन्न जानासि भगवन्निर्भाग्यस्य मम व्यथाम्‌ ॥ २० ॥

तथापि वच्मि हे नाथ दुःखजालमपावृतम्‌, तादृशं नैव कस्यापि न श्रुतं नावलोकितम्‌ ॥ २१ ॥

क्षणा लवा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा दिवानिशम्‌, स्वामिनामधिकारैस्ते मोदन्ते निर्भयाः सदा ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार भगवान् के वाक्य सुनकर बोझा लिये हुए आदमी जैसे बोझा रख कर श्‍वास पर श्‍वास लेता है इसी प्रकार श्‍वासोच्छ्‌वास लेकर – अधिमास मधुसूदन से बोला ॥ १७ ॥

अधिमास बोला – हे भगवन्! आप सर्वव्यापी हैं, आप से अज्ञात कुछ नहीं है, आकाश की तरह आप विश्‍व में व्याप्त होकर बैठे हैं ॥ १८ ॥

चर-अचर में व्याप्त विष्णु आप सब के साक्षी हैं, विश्‍व भर को देखते हैं, विषय की सन्निधि ने भी विकार शून्य आप में शास्त्रमर्यादा के अनुसार सब भूत ॥ १९ ॥

स्थित हैं हे जगन्नाथ! आप के बिना कुछ भी नहीं है॥ क्या आप मुझ अभागे के कष्ट को नहीं जानते हैं? ॥ २० ॥

तथापि हे नाथ! मैं अपनी व्यथा को कहता हूँ जिस प्रकार मैं दुःखजाल से घिरा हुआ हूँ वैसे दुःखित को मैंने न कहीं देखा है और न सुना है ॥ २१ ॥

क्षण, निमेष, मुहूर्त, पक्ष, मास, दिन और रात सब अपने-अपने स्वामियों के अधिकारों से सर्वदा बिना भय के प्रसन्न रहते हैं ॥ २२ ॥

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न मे नाम न मे स्वामी न हि कश्चिन्ममाश्रयः, तस्मान्निराकृतः सर्वैः साधिदेवैः सकर्मणः ॥ २३ ॥

निषिद्धो मलमासोऽयमित्यन्धोऽवटगः सदा, तस्माद्विनष्‍टुमिच्छामि नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २४ ॥

कुजीविताद्वरं मृत्युर्नित्यदग्धः कथं स्वपेत्‌, अतः तरं महाराज वक्तव्यं नावशिष्यते ॥ २५ ॥

परदुःखासहिष्णुस्त्वमुपकारप्रियो मतः, वेदेषु च पुराणेषु प्रसिद्धः पुरुषोत्तमः ॥ २६ ॥

निजधर्मं समालोच्य यथारुचि तथा कुरु, पुनः पुनः पामरेण न वक्तव्यः प्रभुर्महान्‌ ॥ २७ ॥

मरिष्येऽहं मरिष्येऽहं मरिष्येऽहं पुनः पुनः, इत्युक्‍त्वा मलमासोऽयं विरराम विधेः सुत ॥ २८ ॥

ततः पपात सहसा सन्निधौ श्रीरमापते, तत्र तं पतितं दृष्ट्वा संसज्जाता सुविस्मिता ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

मेरा न कुछ नाम है, न मेरा कोई अधिपति है और न कोई मुझको आश्रय है अतः क्षणादिक समस्त स्वामी वाले देवों ने शुभ कार्य से मेरा निरादर किया है ॥ २३ ॥

यह मलमास सर्वदा त्याज्य है, अन्धा है, गर्त में गिरने वाला है, ऐसा सब कहते हैं, इसी के कारण से मैं मरने की इ्च्छा करता हूँ अब जीने की इ्च्छा नहीं है ॥ २४ ॥

निन्द्य जीवन से तो मरना ही उत्तम है, जो सदा जला करता है, वह किस तरह सो सकता है, हे महाराज! इससे अधिक मुझको और कुछ कहना नहीं है ॥ २५ ॥

वेदों में आपकी इस तरह प्रसिद्धि है, कि पुरुषोत्तम आप परोपकार प्रिय हैं और दूसरों के दुःख को सहन नहीं करते हैं ॥ २६ ॥

अब आप अपना धर्म समझकर जैसी इच्छा हो वैसा करें, आप प्रभु और महान् हैं, आपके सामने मुझ जैसे पामर को घड़ी-घड़ी कुछ कहते रहना उचित नहीं है ॥ २७ ॥

मैं मरूँगा, मैं मरूँगा, मैं अब न जीऊँगा, ऐसा पुनः पुनः कहकर वह अधिमास, हे ब्रह्मा के पुत्र! चुप हो गया ॥ २८ ॥

और एकाएक श्रीविष्णु के निकट गिर गया, तब इस प्रकार गिरते हुए मलमास को देख भगवान् की सभा के लोग बड़े विस्मय को प्राप्त हुए ॥ २९ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

इत्युक्‍त्वा विरतिमुपागतेऽधिमासे श्रीकृष्णो बहुलकृपाभरावसन्नः, प्रावोचज्जलदगभीररावरम्य निर्वाणं शिशिरमयूखवन्नयंस्तम्‌ ॥ ३० ॥

सूत उवाच :-

नारायणस्य निगमर्द्धिपरायणस्य पापौघवार्धिवडवाग्निवचोऽवदातम्‌, श्रुत्वा प्रहर्षितमना मुनिराबभाषे शुश्रूषुरादिपुरुषस्य वचांसि विप्राः ॥ ३१ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये मलमासविज्ञप्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार कहकर चुप हुए अधिमास के प्रति बहुत कृपा-भार से अवसन्न हुए श्रीकृष्ण, मेघ के समान गम्भीर वाणी से चन्द्रमा की किरणों की तरह उसे शान्त करते हुए बोले ॥ ३० ॥

सूतजी बोले – हे विप्रो! वेदरूप ऋद्धि के आश्रित नारायण का पापों के समूहरूप समुद्र को शोषण करने वाला बड़वानल अग्नि से समान वचन सुनकर प्रसन्न हुए नारदमुनि, पुनः आदिपुरुष के वचनों को सुनने की इच्छा से बोले ॥ ३१ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

अध्याय ५ - विष्णोर्गोलोकगमने

मुख्य सुचि

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