🌷 अध्याय ५ - विष्णोर्गोलोकगमने 🌷

नारद उवाच :-

किमुवाच महाभाग श्रुत्वा तद्वचनं हरिः, चरणाग्रे निपतितमधि मासं तपोनिधे ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

श्रृणु नारद वक्ष्यामि यदुक्तं हरिणाऽनघ, धन्योऽसि त्वं मुनिश्रेष्ठ यन्मां पृच्छसि सत्कथाम्‌ ॥ २ ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

श्रृणु तत्रत्यवृत्तान्तं प्रवक्ष्यामि तवाग्रतः, नेत्रकोणसमादिष्टस्तदानीं हरिणाऽर्जुन ॥ ३ ॥

बीजयामास पक्षेण तं मासं मूर्च्छितं खगः, उत्थितः पुनरेवाह नैतन्मे रोचते विभो ॥ ४ ॥

अधिमास उवाच :-

पाहि पाहि जगद्धातः पाहि विष्णो जगत्पते, उपेक्षसे कथं नाथ शरणं मामुपागतम्‌ ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नारद जी बोले – हे महाभाग! हे तपोनिधे! इस प्रकार अधिमास के वचनों को सुनकर हरि ने चरणों के आगे पड़े हुए अधिमास से क्या कहा? ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले – हे पापरहित! हे नारद! जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं, सुनो! हे मुनिश्रेष्ठ! आप जो सत्कथा हमसे पूछते हैं, आप धन्य हैं ॥ २ ॥

श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन! बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम तुम्हारे सम्मुख कहते हैं, सुनो! मलमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूर्छित मलमास को पंख से हवा करने लगे, हवा लगने पर अधिमास उठ कर फिर बोला हे विभो! यह मुझको नहीं रुचता है ॥ ३-४ ॥

अधिमास बोला – हे जगत्‌ को उत्पन्न करने वाले! हे विष्णो! हे जगत्पते! मेरी रक्षा करो! रक्षा करो! हे नाथ! मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं ॥ ५ ॥

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इत्युक्त्वार वेपमानं तं विलपन्त मुहुमुर्हुः, तमुवाच हृषीकेशो वैकुण्ठनिलयो हरिः ॥ ६ ॥

श्रीविष्णुरुवाच :-

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रंते विषादं वत्स मा कुरु, त्वद्‌दुःखं दुर्निवार्यं मे प्रतिभाति निरीश्वर ॥ ७ ॥

इत्युक्त्वा मनसि ध्यात्वा तदुपायं क्षणं प्रभुः, विनिश्चित्य पुनर्वाक्यदमुवाच मधुसूदनः ॥ ८ ॥

श्रीविष्णुरुवाच :-

वत्सागच्छ मया सार्धं गोलोकं योगिदुर्लभम्‌, यत्रास्ते भगवान्‌ कृष्णः पुरुषोत्तम ईश्वरः ॥ ९ ॥

गोपिकावृन्दमध्यस्थो द्विभुजो मुरलीधरः, नवीननीरदश्यामो रक्तपङ्कजलोचनः ॥ १० ॥

शरत्पूर्णेन्दु्सौन्दर्यसमशोभायुताननः, कोटिकन्दर्पलावण्यलीलाधाममनोहरः ॥ ११ ॥

पीताम्बरधरः स्रग्वी वनमालाविभूषितः, सद्रत्न भूषणः प्रेमभूषणो भक्तवत्सलः ॥ १२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी-घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से, बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले ॥ ६ ॥

श्रीविष्णु बोले – उठो-उठो तुम्हारा कल्याण हो, हे वत्स! विषाद मत करो॥ हे निरीश्वरर! तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है ॥ ७ ॥

ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिमास से मधुसूदन बोले ॥ ८ ॥

श्रीविष्णु बोले – हे वत्स! योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है, वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं ॥ ९ ॥

गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले ॥ १० ॥

शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम ॥ ११ ॥

पीताम्बर धारण किये हुए, माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले ॥ १२ ॥

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चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः कस्तूरीकुंकुमान्वितः, श्रीवत्सवक्षाः संभ्राजत्कौ्स्तुभेन विराजितः ॥ १३ ॥

सद्रत्न्साररचितकिरीटी कुण्डलोज्ज्वलः, रत्न सिंहासनारूढः पार्षदैः परिवेष्टितः ॥ १४ ॥

स एव परमं ब्रह्म पुराणपुरुषोत्तमः, स्वेच्छामयः सर्वबीजं सर्वाधारः परात्परः ॥ १५ ॥

निरीहो निर्विकारश्च परिपूर्णतमः प्रभुः, प्रकृतेः पर ईशानो निर्गुणो नित्यविग्रहः ॥ १६॥

गच्छावस्तत्र त्वद्‌दुखं श्रीकृष्णो् व्यपनेष्यनति, 

श्रीनारायण उवाच :-

इत्युक्त्वा तं करे कृत्वा गोलोकं गतवान्‌ हरिः ॥ १७ ॥

अज्ञानान्धतमोध्वंसं ज्ञानवर्त्मप्रदीपकम्‌, ज्योतिःस्वरूपं प्रलये पुरासीत्के्वलं मुने ॥ १८ ॥

सूर्यकोटिनिभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्‌, विभोः स्वेच्छामयस्यैव तज्ज्योतिरुल्बणं महत्‌ ॥ १९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित ॥ १३ ॥

श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नोंस के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए, पार्षदों से घिरे हुए जो हैं ॥ १४ ॥

वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं, वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं, ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे ॥ १५ ॥

निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी ॥ १६ ॥

ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं वहाँ हम दोनों चलते हैं, वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे,

श्रीनारायण बोले – ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये ॥ १७ ॥

हे मुने! जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे ॥ १८ ॥

जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी ॥ १९ ॥

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ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम्‌, तस्यैवोपरि गोलोकः शाश्व्तो ब्रह्मवन्मुने ॥ २० ॥

त्रिकोटियोजनायामो विस्तीर्णो मण्ड्लाकृतिः, तेजःस्वरूपः सुमहद्रत्नभूमिमयः परः ॥ २१ ॥

अदृश्यो योगिभिः स्वप्ने दृश्यो गम्यश्च वैष्णवैः, ईशेन विघृतो योगैरन्तःरिक्षस्थितो वरः ॥ २२ ॥

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितः, सद्ररत्नभूषितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितः ॥ २३ ॥

तदधा दक्षिणे वामे पञ्चाशत्कोटिविस्तरात्‌ , वैकुण्ठः शिवलोकश्च तत्समः सुमनोहरः ॥ २४ ॥

कोटियोजनविस्तीर्णो वैकुण्ठो मण्डलाकृतिः, लसत्पीतपटा रम्या यत्र तिष्ठन्ति वैष्णवाः ॥ २५ ॥

शङ्खचक्रगदापद्मश्रियाजुष्टचतुर्भुजाः स्त्रियो लक्ष्मीसमाः सर्वाः कूजन्नूपरमेखलाः ॥ २६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं, हे मुने! उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है ॥ २० ॥

तीन करोड़ योजन का चैतर्फा जिसका विस्तार है और मण्डलाकार जिसकी आकृति है, लहलहाता हुआ साक्षात् मूर्तिमान तेज का स्वरूप है, जिसकी भूमि रत्नमय है ॥ २१ ॥

योगियों द्वारा स्वप्न में भी जो अदृश्य है, परन्तु जो विष्णु के भक्तों से गम्य और दृश्य है, ईश्वकर ने योग द्वारा जिसे धारण कर रखा है ऐसा उत्तम लोक अन्तरिक्ष में स्थित है ॥ २२ ॥

आधि, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है, श्रेष्ठ रत्नों से भूषित असंख्य मकार्नो से शोभित है ॥ २३ ॥

उस गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन के विस्तार के भीतर दाहिने बैकुण्ठ और बाँयें उसी के समान मनोहर शिवलोक स्थित है ॥ २४ ॥

एक करोड़ योजन विस्तार के मण्डल का बैकुण्ठ, शोभित है, वहाँ सुन्दर पीताम्बरधारी वैष्णव रहते हैं ॥ २५ ॥

उस बैकुण्ठ के रहने वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए लक्ष्मी के सहित चतुर्भुज हैं, उस बैकुण्ठ में रहने वाली स्त्रियाँ, बजते हुए नूपुर और करधनी धारण की हैं, सब लक्ष्मी के समान रूपवती हैं ॥ २६ ॥

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वामेन शिवलोकश्च कोटियोजनविस्तृतः, लयशून्यश्च सृष्टौ च पार्षदैः परिवारितः ॥ २७ ॥

निवसन्ति महाभागा गणा यत्र कपर्दिनः, भस्मोद्‌घूलितसर्वाङ्गा नागयज्ञोपवीतिनः ॥ २८ ॥

अर्धचन्द्रलसद्भालाः शूलपट्टिशपाणयः, सर्वे गङ्गाधराः शूरास्त्र्यम्बका जयशालिनः ॥ २९ ॥

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम्‌, परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारणम्‌ ॥ ३० ॥

ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा, तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम्‌ ॥ ३१ ॥

तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम्‌, इन्दीवरदलश्याामं पङ्कजारुणलोचनम्‌ ॥ ३२ ॥

कोटिशारदपूर्णेन्दुशश्वच्छोभायुता ननम्‌, कोटिमन्मथसौन्दर्य-लीलाधाम मनोहरम्‌ ॥ ३३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

गोलोक के बाँयें तरफ जो शिवलोक है उसका करोड़ योजन विस्तार है और वह प्रलयशून्य है, सृष्टि में पार्षदों से युक्त रहता है ॥ २७ ॥

बड़े भाग्यवान्‌ शंकर के गण जहाँ निवास करते हैं, शिवलोक में रहने वाले सब लोग सर्वांग भस्म धारण किये, नाग का यज्ञोपवीत पहिरे हुए ॥ २८ ॥

अर्धचन्द्र जिनके मस्तक में शोभित है, त्रिशूल और पट्टिशधारी, सब गंगा को धारण किये वीर हैं और सबके सब शंकर के समान जयशाली हैं ॥ २९ ॥

गोलोक के अन्दर अति सुन्दर एक ज्योति है, वह ज्योति परम आनन्द को देने वाली और बराबर परमानन्द का कारण है ॥ ३० ॥

योगी लोग बराबर योग द्वारा ज्ञानचक्षु से आनन्द जनक, निराकार और पर से भी पर उसी ज्योति का ध्यान करते हैं ॥ ३१ ॥

उस ज्योति के अन्दर अत्यन्त सुन्दर एक रूप है, जो कि नीलकमल के पत्तों के समान श्याम, लाल कमल के समान नेत्र वाले ॥ ३२ ॥

करोड़ों शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान शोभायमान मुखवाले, करोड़ों कामदेव के समान सौन्दर्य की, लीला का सुन्दर धाम ॥ ३३ ॥

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द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम्‌, श्रीवत्सवक्षसंभ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्‌ ॥ ३४ ॥

सद्रत्नेकोटिखचित-किरीटकटकोज्ज्वलम्‌, रत्न,सिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम्‌ ॥ ३५ ॥

तदेव परमं ब्रह्म पूर्णं श्रीकृष्णसंज्ञकम्‌, स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्‌ ॥ ३६ ॥

किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्‌, कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्यं भक्तनुग्रहकारकम्‌ ॥ ३७ ॥

निरीहं निर्विकारं च परिपूर्णतमं प्रभुम्‌, रासमण्डपमध्यस्थं शान्तं रासेश्वरं हरिम्‌ ॥ ३८ ॥

मङ्गलं मङ्गलार्हं च सर्वमङ्गलमङ्गलम्‌, परमानन्दराजं च सत्यमक्षरमव्ययम्‌ ॥ ३९ ॥

सर्वसिद्धेश्वरं सर्वसिद्धिरूपं च सिद्धिदम्‌, प्रकृतेः परमीशानं निर्गुणं नित्यविग्रहम्‌ ॥ ४० ॥

आद्यं पुरुषमव्यक्तंव पुरुहूतं पुरुष्टु तम्‌, नित्यं स्वतन्त्रमेकं च परमात्मस्वरूपकम्‌ ॥ ४१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

दो भुजा वाले, मुरली हाथ में लिए, मन्दहास्य युक्त, पीताम्बर धारण किए, श्रीवत्स चिह्न से शोभित वक्षःस्थल वाले, कौस्तुभमणि से सुशोभित ॥ ३४ ॥

करोड़ों उत्तम रत्नों से जटित चमचमाते किरीट और कुण्डलों को धारण किये, रत्न के सिंहासन पर विराजमान्‌, वनमाला से सुशोभित ॥ ३५ ॥

वही श्रीकृष्ण नाम वाले पूर्ण परब्रह्म हैं, अपनी इच्छा से ही संसार को नचाने वाले, सबके मूल कारण, सबके आधार, पर से भी परे ॥ ३६ ॥

छोटी अवस्था वाले, निरन्तर गोपवेष को धारण किये हुए, करोड़ों पूर्ण चन्द्रों की शोभा से संयुक्त, भक्तों के ऊपर दया करने वाले ॥ ३७ ॥

निःस्पृह, विकार रहित, परिपूर्णतम, स्वामी रासमण्डप के बीच में बैठे हुए, शान्त स्वरूप, रास के स्वामी ॥ ३८ ॥

मंगलस्वरूप, मंगल करने के योग्य, समस्त मंगलों के मंगल, परमानन्द के राजा, सत्यरूप, कभी भी नाश न होने वाले विकार रहित ॥ ३९ ॥

समस्त सिद्धों के स्वामी, सम्पूर्ण सिद्धि के स्वरूप, अशेष सिद्धियों के दाता, माया से रहित, ईश्वनर, गुणरहित, नित्यशरीरी ॥ ४० ॥

आदिपुरुष, अव्यक्त, अनेक हैं नाम जिनके, अनेकों द्वारा स्तुति किए जाने वाले, नित्य, स्वतन्त्र, अद्वितीय, शान्त स्वरूप, भक्तों को शान्ति देने में परायण ऐसे परमात्मा के स्वरूप को ॥ ४१ ॥

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ध्यायन्ते वैष्णवाः शान्ताः शान्तं शान्तिपरायणम्‌, एवं रूपं परं बिभ्रद्भगवानेक एव सः ॥ ४२ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

एवमुक्त्वा ततो विष्णुररधिमाससमन्वितः, गोलोकमगमच्छीघ्रं विरजो वेष्टितं परम्‌ ॥ ४३ ॥

सूत उवाच :-

इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये मुनीश्वरे तूष्णीमवस्थिते मुनिः, जगाद वाक्यं विधिजो महोत्सवाच्छुश्रूषुरानन्दनिधेर्नवाः कथाः ॥ ४४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये विष्णोर्गोलोकगमने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

हिंदी अनुवाद :-

शान्तिप्रिय, शान्त और शान्ति परायण जो विष्णुभक्त हैं, वे ध्यान करते हैं, इस प्रकार के स्वरूप वाले भगवान्‌ कहे जाने वाले, वही एक आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र हैं ॥ ४२ ॥

श्रीनारायण बोले – ऐसा कहकर भगवान्, सत्त्व स्वरूप विष्णु अधिमास को साथ लेकर शीघ्र ही परब्रह्मयुक्त गोलोक में पहुंचे ॥ ४३ ॥

सूतजी बोले – ऐसा कहकर सत्क्रिया को ग्रहण किये हुए नारायण मुनि के चुप हो जाने पर आनन्द सागर पुरुषोत्तम से विविध प्रकार की नयी कथाओं को सुनने की इच्छा रखने वाले नारद मुनि उत्कण्ठा पूर्वक बोले ॥ ४४ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीय पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये विष्णोर्गोलोकगमने पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥

अध्याय ६ - पुरुषोत्तमविज्ञप्तिर्नाम

मुख्य सुचि

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