नारद उवाच :-
वैकुण्ठाधिपतिर्गत्वा गोलोके किं चकार ह, तद्वदस्व कृपां कृत्वा मह्यं शुश्रूषवेऽनघ ॥ १ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
श्रृणु नारद वक्ष्येऽहं यज्जातं तत्र तेऽनध, विष्णुर्गोलोकमगमदधिमासेन संयुतः ॥ २ ॥
तन्मध्ये भगवद्धामणिस्तम्भैः सुशोभितम्, ददर्श दूरतो विष्णुर्ज्योतिर्धाम मनोहरम् ॥ ३ ॥
तत्तेजः पिहिताक्षोऽसौ शनैरुन्मील्य लोचने, मन्दं मन्दं जगामाधिमासंकृत्वा स्वपृष्ठतः ॥ ४ ॥
उपमन्दिरमासाद्य साधिमासो मुदान्वितः, उत्थितैर्द्वारपालैश्च वन्दिताङ्घ्रिर्हरिः शनैः ॥ ५ ॥
प्रविष्टो भगवद्धाम शोभासंमुष्टलोचनः, तत्र गत्वा ननामाशु श्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
नारदजी बोले – भगवान् गोलोक में जाकर क्या करते भये? हे पापरहित! मुझ श्रोता के ऊपर कृपा करके कहिये ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले – हे नारद! पापरहित! अधिमास को लेकर भगवान् विष्णु के गोलोक जाने पर जो घटना हुई वह हम कहते हैं, सुनो ॥ २ ॥
उस गोलोक के अन्दर मणियों के खम्भों से सुशोभित, सुन्दर पुरुषोत्तम के धाम को दूर से भगवान् विष्णु देखते हुए ॥ ३ ॥
उस धाम के तेज से बन्द हुए नेत्र वाले विष्णु धीरे-धीरे नेत्र खोलकर और अधिमास को अपने पीछे कर धीरे-धीरे धाम की ओर जाते भये ॥ ४ ॥
अधिमास के साथ भगवान् के मन्दिर के पास जाकर विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और उठकर खड़े हुए द्वारपालों से अभिनन्दित भगवान् विष्णु पुरुषोत्तम भगवान् की शोभा से आनन्दित होकर धीरे-धीरे मन्दिर में गये और भीतर जाकर शीघ्र ही श्रीपुरुषोत्तम कृष्ण को नमस्कार करते हुए ॥ ५-६ ॥
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गोपिकावृन्दमध्यस्थं रत्नसिंहासनासनम्, नत्वोवाच रमानाथो बद्धाञ्जलिपुटः पुरः ॥ ७ ॥
श्रीविष्णुरुवाच :-
वन्दे विष्णुं गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम्, अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ॥ ८ ॥
कोशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम्, नवीननीरदश्याोमं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ॥ ९ ॥
वृन्दावनवनाभ्यन्ते रासमण्डलसंस्थितम्, लसत्पीतपटं सौम्यं त्रिभङ्गललिताकृतिम् ॥ १० ॥
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्, द्विभुजं मुरलीहस्तं पीतवाससमच्युतम् ॥ ११ ॥
इत्येवमुक्त्वाा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरे, पार्षदैः सत्कृमतो विष्णुः स उवास तदाज्ञया ॥ १२ ॥
इति विष्णुकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत्, पापानि तस्य नश्ययन्ति दुःस्वप्नः सत्फलप्रदः ॥ १३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीनारायण बोले – यह विष्णु का किया हुआ स्तोत्र प्रातःकाल उठ कर जो पढ़ता है, उसके समस्त पाप नाश हो जाते हैं और अनिष्ट स्वप्न भी अच्छे फल को देते हैं ॥ १३ ॥
गोपियों के मण्डल के मध्य में रत्नमसिंहासन पर बैठे हुए कृष्ण को नमस्कार कर पास में खड़े होकर विष्णु बोले ॥ ७ ॥
श्रीविष्णु बोले – गुणों से अतीत, गोविन्द, अद्वितीय, अविनाशी, सूक्ष्म, विकार रहित, विग्रहवान, गोपों के वेष के विधायक ॥ ८ ॥
छोटी अवस्था वाले, शान्त स्वरूप, गोपियों के पति, बड़े सुन्दर, नूतन मेघ के समान श्याम, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर ॥ ९ ॥
वृन्दावन के अन्दर रासमण्डल में बैठने वाले पीतरंग के पीताम्बर से शोभित, सौम्य, भौंहों के चढ़ाने पर मस्तक में तीन रेखा पड़ने से सुन्दर आकृति वाले ॥ १० ॥
रासलीला के स्वामी, रासलीला में रहने वाले, रासलीला करने में सदा उत्सुक, दो भुजा वाले, मुरलीधर, पीतवस्त्रधारी, अच्युत ॥ ११ ॥
ऐसे भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ॥ इस प्रकार स्तुति करके भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार कर, पार्षदों द्वारा सत्कृत विष्णु रत्नतसिंहासन पर कृष्ण की आज्ञा से बैठे ॥ १२ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
भक्तिर्भवति गोविन्दे पुत्रपौत्रविवर्द्धिनी, अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्तिर्वर्द्धते चिरम् ॥ १४ ॥
उपविष्टस्ततो विष्णुः श्रीकृष्णचरणाम्बुजे, नामयामास तं मासं वेपमानं तदग्रतः ॥ १५ ॥
तदा पप्रच्छ श्रीकृष्णः कोऽयं कस्मादिहागतः, कस्माद्रुदति गोलोके न कश्चिद्दुःखमश्नुनते ॥ १६ ॥
गोलोकवासिनः सर्वे सदाऽऽनन्दपरिप्लुताः, स्वप्नेऽपि नैव श्रृण्वन्ति दुर्वार्तां च दुरन्वयाम् ॥ १७ ॥
तस्मादयं कथं विष्णो मदग्रे दुःखितः स्थितः, मुञ्चन्नश्रूणि नेत्राभ्यां वेपते च मुहुर्मुहुः ॥ १८ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
नवाम्बुदानीकमनोहरस्य गोलोकनाथस्य वचो निशम्य, उवाच विष्णुर्मलमासदुःखं प्रोत्थाय सिंहासनतः समग्रम् ॥ १९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
और पुत्रपौत्रादि को बढ़ाने वाली भक्ति श्रीगोविन्द में होती है, आकीर्ति का नाश होकर सत्कीर्ति की वृद्धि होती है ॥ १४ ॥
फिर भगवान् विष्णु बैठ गये और कृष्ण के आगे काँपते हुए अधिमास को कृष्ण के चरण कमलों में नमन कराते भये ॥ १५ ॥
तब श्रीकृष्ण ने विष्णु से पूछा, कि यह कौन है? कहाँ से यहाँ आया है? क्यों रोता है? इस गोलोक में तो कोई भी दुःखभागी होता नहीं है ॥ १६ ॥
इस गोलोक में रहने वाले तो सर्वदा आनन्द में मग्न रहते हैं, ये लोग तो स्वप्न में भी दुष्टवार्ता या दुःखभरा समाचार सुनते ही नहीं ॥ १७ ॥
अतः हे विष्णो! यह क्यों काँपता है और आँखों से आँसू बहाता दुःखित हमारे सम्मुख किस लिये खड़ा है? ॥ १८ ॥
श्रीनारायण बोले – नवीन मेघ के समान श्यामसुन्दर, गोलोक के नाथ का वचन सुन, सिंहासन से उठकर महाविष्णु मलमास की सम्पूर्ण दुःख-गाथा कहते हुए ॥ १९ ॥
श्रीविष्णुरुवाच :-
वृन्दावनकलानाथ श्रीकृष्ण मुरलीधर, श्रूयतामधिमासीयं दुःखं वच्चि तवाग्रतः ॥ २० ॥
तस्मादहमिहायातो गृहीत्वामुं निरीश्वररम्, वानलं दुःखदातीव्रमेतदीयं निराकुरु ॥ २१ ॥
अयं त्वधिक्रमासोऽस्ति व्यपेतरविसंक्रमः, मलिनोऽयमनर्होऽस्ति शुभकर्मणि सर्वदा ॥ २२ ॥
न स्नानं नैव दानं च कर्तव्यं प्रभुवर्जिते, एवं तिरस्कृतः सर्वैर्वनस्पतिलतादिभिः ॥ २३ ॥
मासैर्द्वादशभिश्चैव कलाकाष्ठालवादिभिः, अयनैर्हायनैश्चैव स्वामिगर्वसमन्वितैः ॥ २४ ॥
इति दुःखानलेनैव दग्धोऽयं मर्तुमुन्मुखः, अन्यैर्दयालुभिः पश्चात्प्रेरितो मामुपागतः ॥ २५ ॥
शरणार्थो हृषीकेश वेपमानो रुदन्मुहुः, सर्वं निवेदयामास दुःखजालमसंवृतम् ॥ २६ ॥
एतदीयं महद्दुःखमनिवार्यं भवदृते, अतस्त्वामाश्रितो नूनं करे कृत्वा निराश्रयम् ॥ २७ ॥
परदुःखासहिष्णुस्त्वमिति वेदविदो जगुः, अत एनं निरातङ्कं सानन्दं कृपया कुरु ॥ २८ ॥
त्वदीयचरणाम्भोजं गतो नैवावशोचते, इति वेदविदो वाक्यं भावि मिथ्या कथं प्रभो ॥ २९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीविष्णु बोले – हे वृन्दावन की शोभा के नाथ! हे श्रीकृष्ण! हे मुरलीधर! इस अधिमास के दुःख को आपके सामने कहता हूँ, आप सुने ॥ २० ॥
इसके दुःखित होने के कारण ही स्वामी रहित अधिमास को लेकर मैं आपके पास आया हूँ, इसके उग्र दुःखरूप अग्नि को आप शान्त करें ॥ २१ ॥
यह अधिमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है, मलिन है, शुभकर्म में सर्वदा वर्जित है ॥ २२ ॥
स्वामी रहित मास में स्नान आदि नहीं करना चाहिये, ऐसा कहकर वनस्पति आदिकों ने इसका निरादर किया है ॥ २३ ॥
द्वादश मास, कला, क्षण, अयन, संवत्सर आदि सेश्विरों ने अपने-अपने स्वामी के गर्व से इसका अत्यन्त निरादर किया ॥ २४ ॥
इसी दुःखाग्नि से जला हुआ यह मरने के लिये तैयार हुआ, तब अन्य दयालु व्यक्तियों द्वारा प्रेरित होकर ॥ २५ ॥
हे हृषीकेश! शरण चाहने की इच्छा से हमारे पास आया और काँपते-काँपते, घड़ी-घड़ी रोते-रोते अपना सब दुःखजाल इसने कहा ॥ २६ ॥
इसका यह बड़ा भारी दुःख आपके बिना टल नहीं सकता, अतः इस निराश्रय का हाथ पकड़कर आपकी शरण में लाया हूँ ॥ २७ ॥
‘दूसरों का दुःख आप सहन नहीं कर सकते हैं’ ऐसा वेद जानने वाले लोग कहते हैं, अतएव इस दुःखित को कृपा करके सुख प्रदान कीजिये ॥ २८ ॥
हे जगत्पते! ‘आपके चरणकमलों में प्राप्त प्राणी शोक का भागी नहीं होता है’ ऐसा वेद जाननेवालों का कहना कैसे मिथ्या हो सकता है? ॥ २९ ॥
मदर्थमपि कर्तव्यमेतद्दुःखनिवारणम्, सर्वं त्यक्त्वाकहमायातो यातं मे सफलं कुरु ॥ ३० ॥
मुहुर्मुहुर्न वक्तव्यं कदापि प्रभुसन्निधौ, वदन्त्येवं महाप्राज्ञा नित्यं नीतिविशारदाः ॥ ३१ ॥
इति विज्ञाप्य भूमानं बद्धाञ्जलिपुटो हरिः, पुरस्तस्थौ भगवतो निरीक्षंस्तन्मुखाम्बुजम् ॥ ३२ ॥
ऋषय ऊचुः :-
सूत सूत वदान्योऽसि जीव त्वं शाश्वतीः समाः, पिबामो यन्मुखात्सेव्यं हरिलीलाकथामृतम् ॥ ३३ ॥
गोलोकवासिना सूत किमुक्तंय किं कृतं वद, विष्णुश्रीकृष्णसंवादः सर्वलोकोपकारकः ॥ ३४ ॥
विधिसुतः किमपृच्छदृषीश्वरं तदधुना वद सूत तपस्विनः, परमभागवतः स हरेस्तनुस्तदुदितं वचनं परमौषधम् ॥ ३५ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तमविज्ञप्तिर्नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
मेरे ऊपर कृपा करके भी इसका दुःख दूर करना आपका कर्तव्य है, क्योंकि सब काम छोड़कर इसको लेकर मैं आया हूँ मेरा आना सफल कीजिये ॥ ३० ॥
‘बारम्बार स्वामी के सामने कभी भी कोई विषय न कहना चाहिये’ ऐसी नीति के जानने वाले बड़े पण्डित सर्वदा कहा करते हैं ॥ ३१ ॥
इस प्रकार अधिमास का सब दुःख भगवान् कृष्ण से कहकर हरि, कृष्ण के मुखकमल की ओर देखते हुए कृष्ण के पास ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गये ॥ ३२ ॥
ऋषि लोग बोले – हे सूतजी! आप दाताओं में श्रेष्ठ हैं आपकी दीर्घायु हो, जिससे हम लोग आपके मुख से भगवान् की लीला के कथारूप अमृत का पान करते रहें ॥ ३३ ॥
हे सूत! गोलोकवासी भगवान् कृष्ण ने विष्णु के प्रति फिर क्या कहा? और क्या किया? इत्यादि लोकोपकारक विष्णु-कृष्ण का संवाद सब आप हम लोगों से कहिये ॥ ३४ ॥
परम भगवद्भक्त नारद ने नारायण से क्या पूछा? हे सूत! इसको आप इस समय हम लोगों से कहिये, नारद के प्रति कहा हुआ भगवान् का वचन तपस्वियों के लिये परम औषध है ॥ ३५ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥ ६ ॥
अध्याय ७ - अधिमासस्यैश्वर्यप्राप्तिर्नाम
मुख्य सुचि
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