सूत उवाच :-
भवद्भिर्यः कृतः प्रश्न स्तमचीकरदाशुगः, यदुत्तरमुवाचेशस्तद्वदामि तपोधनाः ॥ १ ॥
नारद उवाच :-
विष्टरश्रवसि मौनमास्थिते सन्निवेद्य परदुःखमपारम्, किं चकार पुरुषोत्तमः परस्तद्वदस्व बदरीपतेऽधुना ॥ २ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
गोलोकनाथो यदुवाच विष्णुं तदेव गुह्यं कथयामि वत्स, वाच्यं सुभक्ताय सदास्तिकाय शुश्रूषवे दम्भविवर्जिताय ॥ ३ ॥
सुकीर्तिकृत् पुण्यकरं यशस्यं सत्पुत्रदं वश्यककरं च राज्ञाम्, दारिद्रदावाग्निरनल्पपुण्यः श्राव्यं तथा कार्यमनन्यभक्त्यास ॥ ४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
सूतजी बोले – हे तपोधन! आप लोगों ने जो प्रश्नप किया है, वही प्रश्न नारद ने नारायण से किया था सो नारायण ने जो उत्तर दिया वही हम आप लोगों से कहते हैं ॥ १ ॥
नारदजी बोले – विष्णु ने अधिमास का अपार दुःख निवेदन करके जब मौन धारण किया तब हे बदरीपते! पुरुषोत्तम ने क्या किया? सो इस समय आप हमसे कहिये ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले – हे वत्स! गोलोकनाथ श्रीकृष्ण ने विष्णु के प्रति जो कहा वह अत्यन्त गुप्त है परन्तु भक्त, आस्तिक, सेवक, दम्भरहित, अधिकारी पुरुष को कहना चाहिये, अतः मैं सब कहता हूँ सुनो ॥ ३ ॥
यह आख्यान सत्कीर्ति, पुण्य, यश, सुपुत्र का दाता, राजा को वश में करने वाला है और दरिद्रता को नाश करने वाला एवं बड़े पुण्यों से सुनने को मिलता है, जिस प्रकार इसको सुने उसी प्रकार अनन्य भक्ति से सुने हुए कर्मों को करना भी चाहिये ॥ ४ ॥
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श्रीपुरुषोत्तम उवाच :-
समीचीनं कृतं विष्णो यदत्रागतवान् भवान्, मलमासं करे कृत्वा लोके कीर्तिमवाप्स्यसि ॥ ५ ॥
यस्त्वयोरीकृतो जीवः स मयैवोररीकृतः, अत एनं करिष्यामि सर्वोपरि यथा अहम् ॥ ६ ॥
गुणैःकीर्त्याऽनुभावेन षड्भगैश्च पराक्रमैः, भक्तानां वरदानेन गुणैरन्यैश्च मासकैः ॥ ७ ॥
अहमेतैर्यथालोके प्रथितः पुरुषोत्तमः, तथाऽयमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ ८ ॥
अस्मै समर्पिताः सर्वे ये गुणा मयि संस्थिताः, पुरुषोत्तमेति यन्नाम प्रथितं लोकवेदयोः ॥ ९ ॥
तदप्यस्मै मया दत्तं तव तुष्ट्यै जनार्दन, अहमेवास्य सञ्जोतः स्वामी च मधु्सूदन ॥ १० ॥
एतन्नाम्ना जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यसि, मत्सादृश्यवमुपागम्य मासानामधिपो भवेत् ॥ ११ ॥
जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोऽयं तु भविष्यति, पूजकानां च सर्वेषां दुःखदारिद्रयखण्डनः ॥ १२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
श्रीपुरुषोत्तम बोले – हे विष्णो! आपने बड़ा अच्छा किया जो मलमास को लेकर यहाँ आये, इससे आप लोक में कीर्ति पावेंगे ॥ ५ ॥
आपने जिसका उद्धार स्वीकार किया, उसको हमने ही स्वीकार किया, ऐसा समझें, अतः इसको हम अपने समान सर्वोपरि करेंगे ॥ ६ ॥
गुणों से, कीर्ति के अनुभाव से, षडैश्वयर्य से, पराक्रम से, भक्तों को वर देने से और भी जो मेरे गुण हैं, उनसे मैं पुरुषोत्तम जैसे लोक में प्रसिद्ध हूँ, वैसे ही यह मलमास भी लोकों में पुरुषोत्तम करके प्रसिद्ध होगा ॥ ७-८ ॥
मेरे में जितने गुण हैं, वे सब आज से मैंने इसे दे दिये, पुरुषोत्तम जो मेरा नाम लोक तथा वेद में प्रसिद्ध है ॥ ९ ॥
वह भी आपकी प्रसन्नता का अर्थ आज मैंने इसे दे दिया, हे मधुसूदन! आज से मैं इस अधिमास का स्वामी भी हुआ ॥ १० ॥
इसके पुरुषोत्तम इस नाम से सब जगत् पवित्र होगा, मेरी समानता पाकर यह अधिमास सब मासों का राजा होगा ॥ ११ ॥
यह अधिमास जगत्पूज्य एवं जगत् से वन्दना करवाने के योग्य होगा, इसकी पूजा और व्रत जो करेंगे उनके दुःख और दारिद्रय का नाश होगा ॥ १२ ॥
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सर्वे मासाः सकामाश्च निष्कामोऽयं मया कृतः, मोक्षदः सर्वलोकानां मत्तुल्योऽयं मया कृतः ॥ १३ ॥
अकामः सर्वकामो वा योऽधिमासं प्रपूजयेत्, कर्माणि भस्मसात्कृऽत्वा मामेवैष्यत्यसंशयम् ॥ १४ ॥
यदर्थं च महाभागा यतिनो ब्रह्मचारिणः, तपस्यन्ति महात्मानो निराहारा दृढव्रताः ॥ १५ ॥
फलपत्रानिलाहाराः कामक्रोधविवर्जिताः, जितेन्द्रियाश्चःर सर्वे प्रोवृट्काले निराश्रयाः ॥ १६ ॥
शीतातपसहाश्चैरव यतन्ते गरुडध्वज, तथापि नैव मे यान्ति परमं पदमव्ययम् ॥ १७ ॥
पुरुषोत्तमस्य भक्तास्तु मासमात्रेण तत्पदम्, अनायासेन गच्छन्ति जरामृत्युविवर्जितम् ॥ १८ ॥
सर्वसाधनतः श्रेष्ठः सर्वकामार्थसिद्धिदः, तस्मात् संसेव्यतामेष मासोऽयं पुरुषोत्तमः ॥ १९ ॥
सीतानिक्षिप्तबीजानिवर्धन्ते कोटिशो यथा, तथा कोटिगुणं पुण्यं कृतं मे पुरुषोत्तमे ॥ २० ॥
हिंदी अनुवाद :-
चैत्रादि सब मास सकाम हैं, इसको हमने निष्काम किया है, इसको हमने अपने समान समस्त प्राणियों को मोक्ष देने वाला बनाया है ॥ १३ ॥
जो प्राणी सकाम अथवा निष्काम होकर अधिमास का पूजन करेगा वह अपने सब कर्मों को भस्म कर निश्चय मुझको प्राप्त होगा ॥ १४ ॥
जिस परम पद-प्राप्ति के लिये बड़े भाग्यवाले, यति, ब्रह्मचारी लोग तप करते हैं और महात्मा लोग निराहार व्रत करते हैं एवं दृढ़व्रत लोग फल, पत्ता, वायु-भक्षण कर रहते हैं और काम, क्रोध रहित जितेन्द्रिय रहते हैं वे, और वर्षाकाल में मैदान में रहने वाले, जाड़े में शीत, गरमी में धूप सहन करने वाले – मेरे पद के लिये यत्नद करते रहते हैं, हे गरुडध्वज! तब भी वे मेरे अव्यय परम पद को नहीं प्राप्त होते हैं ॥ १५-१६-१७ ॥
परन्तु पुरुषोत्तम के भक्त एक मास के ही व्रत से बिना परिश्रम जरा, मृत्यु रहित उस परम पद को पाते हैं ॥ १८ ॥
यह अधिमास व्रत सम्पूर्ण साधनों में श्रेष्ठ साधन है और समस्त कामनाओं के फल की सिद्धि को देने वाला है, अतः इस पुरुषोत्तम मास का व्रत सबको करना चाहिये ॥ १९ ॥
हल से खेत में बोये हुए बीज जैसे करोड़ों गुणा बढ़ते हैं, तैसे मेरे पुरुषोत्तम मास में किया हुआ पुण्य करोड़ों गुणा अधिक होता है ॥ २० ॥
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चातुर्मास्यादिभिर्यज्ञैः स्वर्गं गच्छन्ति केचन, तत्रत्यं भोगमासाद्य पुनर्गच्छन्ति भूतलम् ॥ २१ ॥
विधिवत् सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्, कुलं स्वकीयमुद्घृत्य मामेवैष्यत्यसंशयम् ॥ २२ ॥
मामुपेतोऽत्र संसारं जन्ममृत्यु भयाकुलम्, आधिव्याधिजराग्रस्तं न पुनर्याति मानवः ॥ २३ ॥
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम, इतिच्छन्दोवचः सत्यमसत्यं जायते कथम् ॥ २४ ॥
एतन्मासाधिपश्चाहं मयैवायं प्रतिष्ठितः, पुरुषोत्तमेति मन्नाम तदप्यस्मै समर्पितम् ॥ २५ ॥
तस्मादेतस्य भक्तानां मम चिन्ता दिवानिशम्, तद्भक्तकामनाः सर्वाः पूरणीया मयैव हि ॥ २६ ॥
कदाचिन्मम भक्तानामपराधोऽधिगण्यते, पुरुषोत्तमभक्तानां नापराधः कदाचन ॥ २७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
कोई चातुर्मास्यादि यज्ञ करने से स्वर्ग में जाते हैं, वह भी भोगों को भोगकर पृथ्वी पर आते हैं ॥ २१ ॥
परन्तु जो पुरुष आदर से विधिपूर्वक अधिमास का व्रत करता है, वह अपने समस्त कुल का उद्धार कर मेरे में मिल जाता है इसमें संशय नहीं है ॥ २२ ॥
हमको प्राप्त होकर प्राणी पुनः जन्म, मृत्यु, भय से युक्त एवं आधि, व्याधि और जरा से ग्रस्त संसार में फिर नहीं आता ॥ २३ ॥
जहाँ जाकर फिर पतन नहीं होता सो मेरा परम धाम है, ऐसा जो वेदों का वचन है, वह सत्य है, असत्य कैसे हो सकता है? ॥ २४ ॥
यह अधिमास और इसका स्वामी मैं ही हूँ और मैंने ही इसे बनाया है और ‘पुरुषोत्तम’ यह जो मेरा नाम है सो भी मैंने इसे दे दिया है ॥ २५ ॥
अतः इसके भक्तों की मुझे दिन-रात चिन्ता बनी रहती है, उसके भक्तों की मनःकामनाओं को मुझे ही पूर्ण करना पड़ता है ॥ २६ ॥
कभी-कभी मेरे भक्तों का अपराध भी गणना में आ जाता है, परन्तु पुरुषोत्तम मास के भक्तों का अपराध मैं कभी नहीं गिनता ॥ २७ ॥
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मदाराधनतो विष्णो मदीयाराधनं प्रियम्, मद्भक्तकामनादाने विलम्बेऽहं कदाचन ॥ २८ ॥
मदीयमासभक्तानां न विलम्बे कदाचन, मदीयमासभक्ता ये ते ममातीव वल्लभाः ॥ २९ ॥
य एतस्मिन्महामूढ जपदानादिवर्जिताः, सत्कर्मस्नानरहिता देवतीर्थद्विजद्विषः ॥ ३० ॥
जायन्ते दुर्भगा दुष्टाः परभाग्योपजीविनः, न कदाचित्सुखं तेषां स्वप्नेऽपि शशश्रृङ्गवत् ॥ ३१ ॥
तिरस्कुर्वन्ति ये मूढा मलमासं मम प्रियम्, नाचरिष्यन्ति ये धर्मं ते सदा निरयालयाः ॥ ३२ ॥
पुरुषोत्तममासाद्य वर्षे तृतीयके, नाचरिष्यन्ति धर्मं ये कुम्भीपाके पतन्ति ते ॥ ३३ ॥
इह लोके महद्दुःखं पुत्रपौत्रकलत्रजम्, प्राप्नुवन्ति महामूढा दुःखदावानलस्थिताः ॥ ३४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
हे विष्णो! मेरी आराधना से मेरे भक्तों की आराधना करना मुझे प्रिय है, मेरे भक्तों की कामना पूर्ण करने में मुझे कभी देर भी हो जाती है ॥ २८ ॥
किन्तु मेरे मास के जो भक्त हैं, उनकी कामना पूर्ण करने में मुझे कभी भी विलम्ब नहीं होता है, मेरे मास के जो भक्त हैं वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ २९ ॥
जो मनुष्य इस अधिमास में जप, दान नहीं करते वे महामूर्ख हैं और जो पुण्य कर्मरहित प्राणी स्नान भी नहीं करते एवं देवता, तीर्थ द्विजों से द्वेष करते हैं ॥ ३० ॥
वे दुष्ट अभागी और दूसरे के भाग्य से जीवन चलने वाले होते हैं, जिस प्रकार खरगोश के सींग कदापि नहीं होते वैसे ही अधिमास में स्नानादि न करने वालों को स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता है ॥ ३१ ॥
जो मूर्ख मेरे प्रिय मलमास का निरादर करते हैं और मलमास में धर्माचरण नहीं करते वे सर्वदा नरकगामी होते हैं ॥ ३२ ॥
प्रति तीसरे वर्ष पुरुषोत्तम मास प्राप्त होने पर जो प्राणी धर्म नहीं करते वे कुम्भीपाक नरक में गिरते हैं ॥ ३३ ॥
और इस लोक में दुःख रूप अग्नि में बैठे स्त्री, पुत्र, पौत्र आदिकों से उत्पन्न बड़े भारी दुःखों को भोगते हैं ॥ ३४ ॥
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ते कथं सुखमेधन्ते येषामज्ञानतो गतः, श्रीमान् पुण्यतमो मासो मदीयः पुरुषोत्तमः ॥ ३५ ॥
याः स्त्रियः सुभगाः पुत्रसुखसौभाग्यहेतवे, पुरुषोत्तमे करिष्यन्ति स्नानदानार्चनादिकम् ॥ ३६ ॥
तासां सौभाग्यसम्पत्तिसुखपुत्रप्रदो ह्यहम्, यासां मासो गतः शून्यो मन्नामा पुरुषोत्तमः ॥ ३७ ॥
न तासामनुकूलोऽहं न सुखं स्वामिजं भवेत्, भ्रातृपुत्रधनानां सुखं स्वप्नेऽपि दुर्लभम् ॥ ३८ ॥
तस्मात्सर्वात्मना सर्वैः स्नानपूजाजपादिकम्, विशेषेण प्रकर्तव्यं दानं शक्त्योनुसारतः ॥ ३९ ॥
येनाऽहमर्चितो भक्त्या मासेऽस्मिन् पुरुषोत्तमे, धनपुत्रसुखं भुक्त्वार पञ्चाद्गोलोकवासभाक् ॥ ४० ॥
ममाज्ञया जनाः सर्वे पूजयिष्यन्ति मामकम्, सर्वेषामपि मासानामुत्तमोऽयं मया कृतः ॥ ४१ ॥
हिंदी अनुवाद :-
जिन प्राणियों को यह मेरा पुण्यतम पुरुषोत्तम मास अज्ञान से व्यतीत हो जाय वे प्राणी कैसे सुखों को भोग सकते हैं? ॥ ३५ ॥
जो भाग्यशालिनी स्त्रियाँ सौभाग्य और पुत्र-सुख चाहने की इच्छा से अधिमास में स्नान, दान, पूजनादि करती हैं ॥ ३६ ॥
उन्हें सौभाग्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति और पुत्रादि यह अधिमास देत है, जिनका यह मेरे नामवाला पुरुषोत्तम मास दानादि से रहित बीत जाता है ॥ ३७ ॥
उनके अनुकूल मैं नहीं रहता और न उन्हें पति-सुख प्राप्त होता है, भाई, पुत्र, धनों का सुख तो उसे स्वप्न में भी दुर्लभ है ॥ ३८ ॥
अतः विशेष करके सब प्राणियों को अधिमास में स्नान, पूजा, जप आदि और विशेष करके शक्ति के अनुसार दान अवश्य कर्तव्य है ॥ ३९ ॥
जो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास में भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करते हैं वे धन, पुत्र और अनेक सुखों को भोगकर पुनः गोलोक के वासी होते हैं ॥ ४० ॥
मेरी आज्ञा से सब जन मेरे अधिमास का पूजन करेंगे, मैंने सब मासों से उत्तम मास इसे बनाया है ॥ ४१ ॥
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अतस्त्वमधिमासस्य चिन्तां त्यक्त्वाा रमापते, गच्छ वैकुण्ठमतु लं गृहीत्वा पुरुषोत्तमम् ॥ ४२ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
इति रसिकवचो निशम्य विष्णुः प्रबलमुदा परिगृह्य मासमेनम्, नवजलदरुचं प्रणम्य देवं झटिति जगाम निजालयं खगेन ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादेऽधिमासस्यैश्वर्यप्राप्तिर्नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
इसलिये अधिमास की चिन्ता त्याग कर हे रमापते! आप इस अतुलनीय पुरुषोत्तम मास को साथ सेकर अपने बैकुण्ठ में जाओ ॥ ४२ ॥
श्रीनारायण बोले – इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से रसिक वचन श्रवण कर विष्णु, अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इस मलमास को अपने साथ लेकर, नूतन जलधर के समान श्याम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम कर, गरुड़ पर सवार हो शीघ्र बैकुण्ठ के प्रति चल दिये ॥ ४३ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ७ ॥
मुख्य सुचि
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