🌷 अध्याय ८ - कुमारीविलापो 🌷


सूत उवाच :-

नारदः कृतवान्‌ प्रश्नं पुनरेव तपोधनाः, विष्णुश्री कृष्णसंवादं श्रुत्वा सन्तुष्टमानसः ॥ १ ॥

नारद उवाच :-

वैकुण्ठं गतवति रुक्मिणीशे कि जातं तदनुवद प्रभो मे, वृत्तान्तं हरिसुतकृष्णयोश्च सर्वेषां हितकरमादिपुंसोः ॥ २ ॥

इति संप्रश्न२संहृष्टो भगवान्‌ बदरीपतिः, उवाच पुनरेवामुं जगदानन्ददं बृहत्‌ ॥ ३ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

अथ श्रीरुक्मिणीनाथो वैकुण्ठं गतवान्‌ मुदा, तत्र गत्वाऽधिमासं तं वासयामास नारद ॥ ४ ॥

तत्रत्यवसतिं प्राप्य मोदमानोऽभवत्तदा, मासानामधिपो भूत्वा रमते विष्णुना सह ॥ ५ ॥

द्वादशस्वपि मासेषु मलमासं वरं प्रभुः, विधाय मनसा तुष्टो बभूव प्रकृतिप्रिपः ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सूतजी बोले – हे तपोधन! विष्णु और श्रीकृष्ण के संवाद को सुन सन्तुष्टमन नारद, नारायण से पुनः प्रश्न करने लगे ॥ १ ॥

नारदजी बोले – हे प्रभो! जब विष्णु बैकुण्ठ चले गये तब फिर क्या हुआ? कहिये, आदिपुरुष कृष्ण और हरिसुत का जो संवाद है वह सब प्राणियों को कल्याणकर है ॥ २ ॥

इस प्रकार प्रश्न् सुन फिर भगवान् बदरीनारायण जगत् को आनन्द देने वाला बृहत् आख्यान कहने लगे ॥ ३ ॥

श्रीनारायण बोले – तदनन्तर विष्णु बड़े प्रसन्न होकर बैकुण्ठ गये और वहाँ जाकर हे नारद! अधिमास को अपने पास ही बसा लिया ॥ ४ ॥

अधिमास बैकुण्ठ में वास पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बारहों मासों का राजा होकर विष्णु के साथ रहने लगा ॥ ५ ॥

बारहों मासों में मलमास को श्रेष्ठ बनाकर विष्णु मन से सन्तुष्ट हुए ॥ ६ ॥

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अथार्जुनमुवाचेदं भगवान्‌ भक्तवत्सलः, युधिष्ठिरं च पाञ्चाली निरीक्षन्‌ कृपया मुने ॥ ७ ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

जानेऽहं राजशार्दूल तपोवनमुपागतैः, भवद्भिर्दुःखसम्मग्नैर्नादृतः पुरुषोत्तमः ॥ ८ ॥

वृन्दावनकलानाथवल्लभः पुरुषोत्तमः, प्रमादाद्गतवान्‌ मासो भवतां काननौकसाम्‌ ॥ ९ ॥

युष्माभिर्नैव विज्ञातो भयद्वेषसमन्वितैः, गाङ्गेयद्रोणकर्णेभ्यो भयसन्त्रस्तमानसैः ॥ १० ॥

कृष्णद्वैपायनादाप्तविद्याराधनतत्परे, इन्द्रकीलं गतवति बीभत्सौ रणशालिनि ॥ ११ ॥

तद्वियोगपरिक्लिष्टैर्न ज्ञातः पुरुषोत्तमः, युष्माभिः किं प्रकर्तव्यमदृष्टमवलम्ब्यताम्‌ ॥ १२ ॥

अदृष्टं यादृशं पुंसां तादृशं भासते सदा, अवश्यमेव भोक्तव्यमदृष्टजनितं फलम्‌ ॥ १३ ॥

सुखं दुःखं भयं क्षेममदृष्टात्‌ प्राप्यते जनैः, तस्माददृष्टनिष्ठैश्च भवद्भिः स्थीयतां सदा ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे मुने! अनन्तर भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले भगवान् युधिष्ठिर और द्रौपदी की ओर देखते हुए, कृपा करके अर्जुन से यह बोले ॥ ७ ॥

श्रीकृष्ण बोले – हे राजशार्दूल! हमको मालूम होता है, कि तपोवन में आकर आप लोगों ने दुःखित होने के कारण पुरुषोत्तम मास का आदर नहीं किया ॥ ८ ॥

वृन्दावन की शोभा के नाथ भगवान् का प्रियपात्र पुरुषोत्तम मास आप वनवासियों का प्रमाद से व्यतीत हो गया ॥ ९ ॥

भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण के भय से सन्त्रस्त मन आप सब लोगों ने भय और द्वेष से मुक्त होने के कारण प्राप्त पुरुषोत्तम मास का ध्यान नहीं किया ॥ १० ॥

कृष्णद्वैपायन व्यासदेव से प्राप्त विद्या के आराधन में तत्पर, रणवीर अर्जुन के इन्द्रकील पर्वत पर चले जाने पर ॥ ११ ॥

उसके वियोग से दुःखित आप लोगों ने पुरुषोत्तम मास को नहीं जाना, अब यदि आप यह पूछें कि हम क्या करें? तो मैं यही कहूँगा कि भाग्य का अवलम्बन करो ॥ १२ ॥

पुरुषों का जैसा अदृष्ट होता है, वैसा ही सदा भासता है, भाग्य से उत्पन्न जो फल है वह अवश्य ही भोगना पड़ता है ॥ १३ ॥

सुख, दुःख भय, कुशलता इत्यादि भाग्यानुसार ही मनुष्यों को प्राप्त होते हैं, अतः अदृष्ट पर विश्वास रखने वाले आप लोगों को अदृष्ट पर निर्भर रहना चाहिये ॥ १४ ॥

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अथापरं प्रवक्ष्यामि भवतां दुःखकारणम्‌, सेतिहासं महाराज श्रूयतां मन्मुखादहो ॥ १५ ॥

श्रीकृष्ण उवाच :-

पाञ्चालीयं महाभागा पूर्वजन्मनि सुन्दरी, मेधाविद्विजमुख्यस्य पुत्री जाता सुमध्यमा ॥ १६ ॥

कालेन गच्छता राजन्‌ सञ्जाता दशवार्षिकी, रूपलावण्यललिता नयनापाङ्गशालिनी ॥ १७ ॥

चातुर्यगुणसम्पन्ना पितुरेकैव पुत्रिका, वल्लभातीव तेनेयं चतुरा गुणसुन्दरी ॥ १८ ॥

लालिता पुत्रवन्नित्यं न कदाचित्‌ प्रलम्भिता, साहित्यशास्त्रकुशला नीतावपि विशारदा ॥ १९ ॥

तन्माता स्वर्गतो पूर्वं पित्रा सा पोषिता मुदा, पार्श्वलस्थालिसुखं दृष्ट्वा पुत्रपौत्रसुखस्पृहा ॥ २० ॥

तर्कयन्ती तदा बाला मामेवं च कथं भवेत्‌, गुणभाग्यनिधिर्भर्ता सुखदः सत्सुताः कथम्‌ ॥ २१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

अब इसके बाद आप लोगों के दुःख का दूसरा कारण और बड़ा आश्चर्यजनक इतिहास के सहित कहते हैं – हे महाराज! हमारे मुख से कहा हुआ सुनो ॥ १५ ॥

श्रीकृष्ण बोले – यह भाग्यशालिनी द्रौपदी पूर्व जन्म में बड़ी सुन्दरी मेधावी ऋषि के घर में उत्पन्न हुई थी, समय व्यतीत होने पर जब १० वर्ष की हुई तब क्रम से रूप और लावण्य से युक्त, अति सुन्दरी और आकर्णान्त नेत्र से शोभायमान हुई ॥ १६-१७ ॥

चातुर्य गुण से युक्त यह अपने पिता की एकमात्र इकलौती कन्या थी, अतः चतुरा, गुणवती, सुन्दरी, यह पिता की बड़ी लाड़ली थी ॥ १८ ॥

मेधावी ने सदा लड़के की तरह इसे माना, कभी भी अनादर नहीं किया, यह भी साहित्यशास्त्र में पण्डिता और नीतिशास्त्र में भी प्रवीणा थी ॥ १९ ॥

इसकी माता इसकी छोटी अवस्था में ही मर गई थी, पिता ने ही प्रसन्नतापूर्वक पाला-पोसा था, पास में रहने वाली अपनी सखी के पुत्र-पौत्रादि सुख को देख इसको भी स्पृहा हुई ॥ २० ॥

और तब यह सोचने लगी, कि हमें भी यह सुख कैसे प्राप्त होगा? गुण और भाग्य का निधि, सुख देने वाला पति और सत्पुत्र कैसे होंगे? ॥ २१ ॥

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एवं मनोरथं चक्रे दैवेन ध्वंसितं पुरा, किं कृत्वा किं विदित्वाऽहं कमुपास्ये सुरेश्वरम्‌ ॥ २२ ॥

किं वा मुनिमुपातिष्ठे किं वा तीर्थमुपाश्रये, मम भाग्यं कथं सुप्तंः भर्ता कोऽपि न वाञ्छति ॥ २३ ॥

पण्डितोऽपि पिता मूढो मम भाग्यवशादहो, विवाहकाले सम्प्राप्तेक न दत्ता सदृशे वरे ॥ २४ ॥

अध्यक्षाहं सखीमध्ये कुमारी दुःखपीडिता, नाहं स्वामिसुखाभिज्ञा यथा चालिगणो मम ॥ २५ ॥

मम भाग्यवती माता कथं स्वर्गं गता पुरा, एवं चिन्ताकुला बाला मनोरथमहोदधौ ॥ २६ ॥

निमग्ना मोहसलिले शोकमोहोर्मिपीडिता, मेधावी ऋषिराजोऽसौ विचचार महीतले ॥ २७ ॥

कन्यादाननिमित्तं च विचिन्वन्‌ सदृशं वरम्‌, तादृशं वरमप्राप्य निराशः स्वमनोरथे ॥ २८ ॥

सुतास्वकीयभाग्याभ्यां भग्नसङ्कल्पपञ्जरः, अवाप दैवयोगेन ज्वरं तीव्रं सुदारुणमृ ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार मनोरथ विचारती हुई सोचने लगी, कि पहिले मेरा विवाह उपस्थित था, परन्तु भाग्य ने बिगाड़ दिया, अब क्या करने से अथवा क्या जानने से एवं किस देवता की उपासना करने से ॥ २२ ॥

या किस मुनि के शरण जाने से अथवा किस तीर्थ का आश्रय करने से मेरी मनःकामना पूर्ण होगी, मेरा भाग्य कैसा सो गया कि कोई भी पति मुझको वरण नहीं करता है ॥ २३ ॥

पण्डित भी मेरा पिता मेरे ही दुर्भाग्य से मूर्ख हो गया है, बड़ा आश्चर्य है! विवाह का समय उपस्थित होने पर भी मेरे समान वर को पिता ने नहीं दिया ॥ २४ ॥

मैं अपनी सहेलियों के बीच में प्रमुख हूँ, परन्तु कुमारी होने के कारण पति दुःख से पीड़ित हूँ, जैसे मेरी सखियाँ पति-सुख को भोगनेवाली हैं वैसे मैं नहीं हूँ ॥ २५ ॥

मेरी भाग्यवती माता क्यों पहिले मर गयी? इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल कन्या, मनोरथ रूप समुद्र के ॥ २६ ॥

मोहरूप जल में निमग्न हो शोकमोहरूप लहरों से पीड़ित हो गई, इसके पिता मेधावी ऋषि भी ॥ २७ ॥

कन्यादान के लिये कन्या के समान वर ढूँढ़ने के हेतु देश-विदेश भ्रमण करने के लिये निकले, परन्तु कन्या के अनुरूप वर न मिलने से अपने मनोरथ में निराश हुए ॥ २८ ॥

कन्या के और अपने भाग्य से कन्या-दानरूप संकल्प के पूर्ण न होने से, दैवयोग के कारण बड़ा भारी दारुण ज्वर उन्हें आगया ॥ २९ ॥

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स्फुटत्सर्वाङ्गसम्भिन्नतापज्वालासमाकुलः, श्वाडसोच्छ्वाससमायुक्तो महादारुणमूर्च्छया ॥ ३० ॥

प्रस्खलन्निपपतन्भूमौ मदिरामत्तवद्‌भृशम्‌, आगच्छन्नेव भवनं स पपात धरातले ॥ ३१ ॥

यावत्सुता समायाता पितरं भयविह्वला, तावन्मुमूर्षुः सञ्जातो भूसुरस्तामनुस्मरन्‌ ॥ ३२ ॥

भाविनार्थबलेनैव सहसा जातवेपथुः, कन्यादानसङ्गोत्थमहोत्सवविवर्जितः ॥ ३३ ॥

अथ प्राचीनगार्हस्थ्यकृतधर्मपरिश्रमात्‌, संसारवासनां त्यक्त्वाज हरौ चित्तमधारयत्‌ ॥ ३४ ॥

सस्मार श्रीहरिं तूर्णं मेधावी पुरुषोत्तमम्‌, इन्दीवरदलश्यामं त्रिभङ्गललिताकृतिम्‌ ॥ ३५ ॥

रासेश राधारमण प्रचण्डदोर्दण्डदूराहतनिर्जरारे, अत्युग्रदावानलपानकर्तः कुमारिकोत्तारितवस्त्रहर्तः ॥ ३६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

सब अंग ऐसे फूटने लगे जैसे समस्त अंग टूट-टूट कर अलग हो जायँगे और ज्वर की ज्वाला से व्याकुल हुए श्वासोच्छ्वास लेते महादारुण मूर्च्छा से ॥ ३० ॥

मदिरा पान से उन्मत्त की तरह पैर लड़खड़ाते गिरते-पड़ते किसी तरह घर में आये और आते ही पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ३१ ॥

भय से विह्वल कन्या जब तक पिता को देखने आवे तब तक कन्या को स्मरण करते हुए मेधावी मुनि मरणासन्न हो गये, भाग्य के फलरूप बल से एकाएक काँपने लगे और कन्या-दान प्रसंग से उठा हुआ जो महोत्सव था वह जाता रहा ॥ ३२-३३ ॥

तदनन्तर पहिले किये हुए गृहस्थाश्रम धर्म के परिश्रम के प्रभाव से संसारवासना को त्याग कर भगवान् में चित्त को लगाते भए ॥ ३४ ॥

उस मुमूर्षु मेधावी ऋषि ने शीघ्र ही नीलकमल के समान श्याम, त्रिवलिसे सुन्दर आकृति वाले श्रीपुरुषोत्तम हरि का स्मरण किया ॥ ३५ ॥

हे रास के स्वामी! हे राधारमण! हे प्रचण्ड भुजदण्ड से दूर से ही देवताओं के शत्रु दैत्य को मारने वाले! हे अति उग्र दावानल को पान कर जाने वाले! हे कुमारी गोपिकाओं के उतारे हुए वस्त्रों को हरण करने वाले! ॥ ३६ ॥

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श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे राधेश दामोदर दीननाथ! मां पाहि संसारसमुद्रमग्नं नमो नमस्ते हृषीकेश्व राय ॥ ३७ ॥

इति मुनिवचनं निशम्य दूता झटिति समाययुर्मुकुन्दलोकात्‌, तदनुमृत मुनिं करे गृहीत्वा चरणसरोरुहमीयुरीश्वयरस्य ॥ ३८ ॥

प्राणोत्क्रमणामालोक्य हाहेति साऽरुदत्सुता, अङ्के कृत्वा पितुर्देहं विललाप सुदुःखिता ॥ ३९ ॥

कुररीव चिरं सा तु विलप्यात्यन्तदुःखिता, उवाच पितरं बाला जीवन्तमिव विह्वला ॥ ४० ॥

बालोवाच :-

हा हा पितः कृपासिन्धो आत्मजानन्ददायक ॥ कस्याङ्के मां निधायाऽद्य गतोऽसि वैष्णवं पुरम्‌ ॥ ४१ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे श्रीकृष्ण! हे गोविन्द! हे हरे! हे मुरारे! हे राधेश! हे दामोदर! हे दीनानाथ! मुझ संसार में निमग्न की रक्षा कीजिये, इन्द्रियों के ईश्वार आपको प्रणाम है ॥ ३७ ॥

इस प्रकार मेधावी के वचनों को दूर से ही सुन कर श्रीभगवान् के दूत चट-पट मुकुन्द लोक से आते हुए और उस मरे हुए मुनि को हाथ से पकड़ कर ईश्व र के चरणकमलों में ले आये ॥ ३८ ॥

इस प्रकार अपने पिता के प्राणों को निकलता देख वह कन्या हाहाकार करके रोने लगी और पिता के शरीर को अपनी गोद में रखकर अति दुःख से विलाप करने लगी ॥ ३९ ॥

चील्ह पक्षी की तरह बहुत देर तक विलाप करके अत्यन्त दुःख से विह्नल हुई और पिता को जीवित की तरह समझ कर बोली ॥ ४० ॥

बाला बोली – हाय-हाय हे पिता! हे कृपासिन्धो! हे अपनी कन्या को सुख देने वाले! मुझे आज किसके पास छोड़ कर आप बैकुण्ठ सिधारे हैं? ॥ ४१ ॥

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पितृहीनां च मां तात को वा सम्भावयिष्यति, भ्राता नैव बन्धुश्च न मे माता तपस्विनी ॥ ४२ ॥

भोजनाच्छादने चिन्तां को मे तात करिष्यति, कथं तिष्ठाम्यहं शून्ये वेदध्वनिविवर्जिते ॥ ४३ ॥

आश्रमे ते मुनिश्रेष्ठ अरण्य इव निर्जने, अतः परं मरिष्योमि जीवने किं प्रयोजनम्‌ ॥ ४४ ॥

असम्पाद्यैव वैवाहं विधिं दुहितृवत्सल, क्क गतोऽसि पितस्तात इहागच्छ तपोनिधे ॥ ४५ ॥

वाणीं वद सुधाकल्पां कथं तूष्णीमवस्थितः, उत्तिष्ठोत्तिष्ठ हे तात चिरं सुप्तोऽसि साम्प्रतम्‌ ॥ ४६ ॥

इत्युक्त्वाधऽश्रुमुखी बाला विललाप मुहुर्मुहुः, मुक्तकण्ठं रुरोदार्ता कुररीव सुदुःखिता ॥ ४७ ॥

तत्सुतारोदनं श्रुत्वा विप्रास्तद्वनवासिनः, अतीव करुणं को वा रोदित्यस्मिंस्तपोवने ॥ ४८ ॥

मेधाऋषेः सुताशब्दं शनैर्निश्चित्य तापसाः, ससम्भ्रमाः समाजग्मुर्हाहाकारसमन्विताः ॥ ४९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे तात! पितृहीन मेरी कौन रक्षा करेगा? आज मेरे भाई, बन्धु, माता आदि कोई भी नहीं है, हे तात! मेरे भोजन, वस्त्र की चिन्ता कौन करेगा? कैसे मैं रहूँगी, इस शून्य, वेद-ध्वनि-रहित ॥ ४२-४३ ॥

निर्जन वन की तरह आपके घर में, हे मुनिश्रेष्ठ! अब मैं मर जाऊँगी ऐसे जीने में क्या रक्खा है? ॥ ४४ ॥

हे कन्या में प्रेम रखने वाले पिता! हे तात! विवाहविधि बिना किए ही आप कहाँ चले गये? हे तपोनिधे! अब यहाँ आइये ॥ ४५ ॥

और अमृत के समान मधुर भाषण कीजिए, क्यों आप चुप हो गये! हे तात! बहुत देर से आप सोये हुए हैं अब जागिये ॥ ४६ ॥

ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई घड़ी-घड़ी कन्या विलाप करने लगी और पिता के मरने से दुःखित हुई आर्ता, चील्ह पक्षी की तरह मुक्तकण्ठ से रोने लगी ॥ ४७ ॥

उस लड़की का रोदन सुन उस वन में रहने वाले ब्राह्मण आपस में कहने लगे कि इस तपोवन में अत्यन्त करुण शब्द से कौन रो रहा है? ॥ ४८ ॥

ऐसा कहकर सब तपस्वी चुप होकर ‘यह मेधावी ऋषि की कन्या का शब्द है’ ऐसा निश्चय कर घबड़ाये हुए हाहाकार करते मेधावी के घर में आये ॥ ४९ ॥

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आगत्य ददृशुः सर्वे सुताङ्कस्थं मृतं मुनिम्‌, ततः संरुरुदुः सर्वे मुनयः काननौकसः ॥ ५० ॥

सुतोत्सड्गाच्छवं नीत्वा श्मनशाने शिवसन्निधौ, अन्त्ये ष्टिं विधिना कृत्वा तेऽदहम्‌ काष्ठवेष्टितम्‌ ॥ ५१ ॥

ततः कन्यां समाश्वाास्य सर्वे ते स्वगृहान्‌ ययुः, कन्याऽपि धैर्यमालम्ब्य यथाशक्त्याकरोद्‌व्ययम्‌ ॥ ५२ ॥

इत्यौर्ध्वदेहिकविधिं प्रणिंधाय पित्र्यं पुत्री निवासमकरोच्च तपोवनेऽस्मिन्‌, सा विव्यथे पितृजदुःखदवाग्निदग्धा रम्भेव वत्समरणात्‌ सुरभीव बाला ॥५३ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कुमारीविलापो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

और वहाँ आकर सबने कन्या के गोद में मरे हुए मेधावी ऋषि को देखा और देख कर उस वन के रहने वाले सब मुनि भी रोने लगे ॥ ५० ॥

और कन्या की गोद से शव को लेकर शिव मन्दिर के पास श्मशान पर गये, वहाँ काष्ठ की चिता लगाकर विधि से अन्त्येष्टि कर्मकर उसका दाह किये ॥ ५१ ॥

दाह के अनन्तर कन्या को समझा कर सब ऋषि अपने-अपने आश्रम गये, इधर कन्या भी धैर्य धारण कर यथाशक्ति क्रिया के लिए द्रव्य खर्च करती हुई ॥ ५२ ॥

इस प्रकार पिता की मरण-क्रिया को करके कन्या इसी तपोवन में निवास करने लगी और पिता के मरणरूप दुःखाग्नि से जली हुई रम्भा की तरह व्यथित होती हुई एवं बछड़े के मर जाने से जैसे गौ चिल्लाती है और खाती नहीं दुर्बल होती है वैसे ही यह बाला भी दुःखित हुई ॥ ५३ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ८ ॥

अध्याय ९ - दुर्वाससस्तपोवनगमनं

मुख्य सुचि

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