दृढधन्वोवाच :-
अथ सम्यग्वद ब्रह्मन्नु्द्यापनविधिं मुने, पुरुषोत्तममासीयव्रतिनां कृपया नृणाम् ॥ १ ॥
बाल्मीकिरुवाच :-
समासतःप्रवक्ष्यामि मासे श्रीपु्रुषोत्तमे, उद्यापनविधिं सम्यग्व्रत सम्पूर्णहेतवे ॥ २ ॥
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां नवम्यां पुरुषोत्तमे, अष्टम्यांवाथ कर्तव्यमुद्यापनमुदीरितम् ॥ ३ ॥
यथालब्धोपहारेण मासे श्रीपुरुषोत्तमे, पुण्येऽस्मिन्प्रातरुत्थाय कृत्वा पौर्वाह्णिकी क्रिया ॥ ४ ॥
समाहितमना भूत्वा त्रिंशद्विप्रान्निमन्त्रयेत्, सपत्नीाकान् सदाचारान् विष्णुभक्तिपरायणान् ॥ ५ ॥
यथाशक्त्याऽथवा सप्त पञ्च वित्तानुसारतः, ततो मध्याह्नसमये द्रोणमानेन भूपते ॥ ६ ॥
तदर्धेन तदर्धेन निजशक्त्यनुसारतः, पञ्चधान्येन कुर्वीत सर्वतोभद्रमुत्तमम् ॥ ७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
दृढ़धन्वा बोला – हे ब्रह्मन्! हे मुने! अब आप पुरुषोत्तम मास के व्रत करने वाले मनुष्यों के लिए कृपाकर उद्यापन विधि को अच्छी तरह से कहिए ॥ १ ॥
बाल्मीकि मुनि बोले – पुरुषोत्तम मास व्रत के सम्पूर्ण फल की प्राप्ति के लिए श्रीपुरुषोत्तम मास के उद्यापन विधि को थोड़े में अच्छी तरह से कहूँगा ॥ २ ॥
पुरुषोत्तम मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, नवमी अथवा अष्टमी को उद्यापन करना कहा है ॥ ३ ॥
इस पवित्र पुरुषोत्तम मास में प्रातःकाल उठकर यथालब्ध पूजन के सामान से पूर्वाह्न की क्रिया को कर ॥ ४ ॥
एकाग्र मन होकर सदाचारी, विष्णुभक्ति में तत्पर, स्त्री सहित ऐसे तीस ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे ॥ ५ ॥
हे भूपते! अथवा यथाशक्ति अपने धन के अनुसार सात अथवा पाँच ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे, बाद मध्याह्न के समय सोलह सेर ॥ ६ ॥
अथवा उसका आधा अथवा उसका आधा यथाशक्ति पंचधान्य से उत्तम सर्वतोभद्र बनावे ॥ ७ ॥
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चत्वारः कलशाः स्थाप्या हैमा वा राजताः शुभाः, ताम्रा वा मृन्मयाः शुद्धा अव्रणा मण्डलोपरि ॥ ८ ॥
चतुर्दिक्षु चतुर्व्यूहप्रीतये श्रीफलान्विताः, सद्वस्त्रवेष्टिता नागवल्लीवदलसमन्विताः ॥ ९ ॥
वासुदेवं हलधरं प्रद्युम्नं देवमुत्तमम्, अनिरुद्धं चतुर्ष्वेवं स्थापयेत्कलशेषु च ॥ १० ॥
पुरुषोत्तमव्रतारम्भे स्थापितं पुरुषोत्तमम्, सराधं देवदेवेशं कलशेन स्रमन्वितम् ॥ ११ ॥
तत आनीय तन्मध्ये मण्डलोपरि विन्यसेत्, आचार्यं वैष्णवं कृत्वा वेदवेदाङ्गपारगम् ॥ १२ ॥
विप्राश्चित्वार एवात्र वरणीया जपार्थिना, द्वे द्वे वस्त्रे च दातव्ये हस्तमुद्रादिसंयुते ॥ १३ ॥
आचार्यं समलंकृत्य वस्त्रभूषादिभिर्मुदा, ततो देहविशुद्धयर्थं प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ १४ ॥
ततः पूर्वोक्तविधिना पूजा कार्या सह स्त्रिया, चतुर्व्यूहजपः कार्यो वृतैविप्रैश्चतुर्विधैः ॥ १५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
बाद सर्वतोभद्र मण्डल के ऊपर सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी के छिद्र रहित शुद्ध चार कलश स्थापन करना चाहिये ॥ ८ ॥
चार व्यूह के प्रीत्यर्थ चारों दिशाओं में बेल से युक्त, उत्तम वस्त्र से वेष्टित, पान से युक्त उन कलशों को करना ॥ ९ ॥
उन चारों कलशों पर क्रम से वासुदेव, हलधर, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध देव को स्थापित करे ॥ १० ॥
पुरुषोत्तम मास व्रत के आरम्भ में स्थापित किये हुए राधिका सहित देवदेवेश पुरुषोत्तम भगवान् को कलशयुक्त ॥ ११ ॥
वहाँ से लाकर मण्डल के ऊपर मध्यभाग में स्थापित करे, वेद-वेदांग के जानने वाले वैष्णव को आचार्य बनाकर ॥ १२ ॥
जप के लिए चार ब्राह्मणों का वरण करे, उनको अँगूठी के सहित दो-दो वस्त्र देना चाहिये ॥ १३ ॥
प्रसन्न मन से वस्त्र-आभूषण आदि से आचार्य को विभूषित करके फिर शरीरशुद्धि के लिय प्रायश्चित्त गोदान करे ॥ १४ ॥
तदनन्तर स्त्री के साथ पूर्वोक्त विधि से पूजा करनी चाहिए और वरण किए हुए चार ब्राह्मणों से चार व्यूह का जप कराना चाहिए ॥ १५ ॥
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चतुर्दिक्षु प्रकर्तव्या दीपाश्चात्वार उद्धृताः, अर्ध्यदानं ततः कार्यं नारिकेलादिभिः क्रमात् ॥ १६ ॥
पञ्चरत्नसमायुक्तैर्जानुभ्यां सक्तभूतलः, स्वपाणिपुटमध्यस्थैर्यथालब्धैः फलैः शुभैः ॥ १७ ॥
श्रद्धाभक्तिसमायुक्तः सपत्नीाको मुदान्वितः, अर्ध्यं दद्यात् प्रहृष्टैभन मनसा श्रीहरि स्मरन् ॥ १८ ॥
अथ अर्ध्यमन्त्रः, देवदेव नमस्तुभ्यं पुराणपुरुषोत्तम, गृहाणार्ध्यं मया दत्तं राधया सहिता हरे ॥ १९ ॥
वन्दे नवघनश्यामं द्विभुजं मुरलीधरम्, पीताम्बरधरं देवं सराधं पुरुषोत्तमम् ॥ २० ॥
एवं भक्त्या हरिं नत्वा सराधं पुरुषोत्तमम्, चतुर्थ्यन्तैर्नाममन्त्रैस्तिलहोमं च कारयेत् ॥ २१ ॥
ततस्तदन्ते तन्मन्त्रैः कार्ये तर्पणमार्जने, नीराजयेत्ततो देवं सराधं पुरुषोत्तमम् ॥ २२ ॥
अथ नीराजनमन्त्रः, नीराजयामि देवेशमिन्दीवरदलच्छविम्, राधिकारमणं प्रेम्णा कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ॥ २३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
और चार दिशाओं में चार दीपक ऊपर के भाग में स्थापित करना चाहिये, फिर नारियल आदि फलों से क्रम के अनुसार अर्ध्यदान करना चाहिए ॥ १६ ॥
घुटनों के बल से पृथिवी में स्थित होकर पञ्च रत्नत और यथालब्ध अच्छे फलों को दोनों हाथ में लेकर ॥ १७ ॥
श्रद्धा भक्ति से युक्त स्त्री के साथ हर्ष से युक्त हो प्रसन्न मन से श्रीहरि भगवान् का स्मरण करता हुआ अर्ध्यदान करे ॥ १८ ॥
अर्ध्यदान का मन्त्र – हे देवदेव! हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है, हे हरे! राधिका के साथ आप मुझसे दिये गये अर्ध्य को ग्रहण करें ॥ १९ ॥
नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण, दो भुजाधारी, मुरली हाथ में धारण किये, पीताम्बरधारी, देव, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार है ॥ २० ॥
इस प्रकार भक्ति के साथ राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करके चतुर्थ्यन्त नाममन्त्रों से तिल की आहुति देवे ॥ २१ ॥
इसके बाद उनके मन्त्रों से तर्पण और मार्जन करे। बाद राधिका के सहित पुरुषोत्तम देव की आरती करे ॥ २२ ॥
अब नीराजन का मन्त्र-कमल के दल के समान कान्ति वाले, राधिका के रमण, कोटि कामदेव के सौन्दर्य को धारण करनेवाले देवेश का प्रेम से नीराजन करता हूँ ॥ २३ ॥
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अथ ध्यानम्, अन्तर्ज्योतिरनन्तरत्नरचिते सिंहासने संस्थितं वंशीनादविमोहितव्रजवधूवृन्दावने सुन्दरम्, ध्यायेद्राधिकया सकौस्तुभमणिप्रद्योतितोरस्थलं राजद्रत्निकिरीटकुण्डलधरं प्रत्यग्रपीताम्बरम् ॥ २४ ॥
ततःपुष्पाञ्जलिं दत्त्वा राधिका सहिते हरौ, नमस्कारं प्रकुर्वीत साष्टाङ्गंगृहिणीयुतः ॥ २५ ॥
नौमि नित्यं घनश्यामं पीतवाससमच्युतम्, श्रीवत्सभासितोरस्कं राधिकासहितं हरिम् ॥ २६ ॥
पूर्णपात्रं ततो दद्याद् ब्रह्मणे सहिरण्यकम्, आचार्याय ततो दद्याद्दक्षिणां विपुलां मुदा ॥ २७ ॥
आचार्यं तोषयेद्भक्त्या वस्त्रैराभरणैरपि, सपत्नीरकं ततो दद्यादृत्विग्भ्यो दक्षिणां पराम् ॥ २८ ॥
घेनुरेका प्रदातव्या सुशीला च पयस्विनी, सचैला च सवत्सा च घण्टाभरणभूषिता ॥ २९ ॥
ताम्रपृष्ठी हेमश्रृङ्गी सरौप्यखुरभूषिता, घृतपात्रं ततो दद्यात्तिलपात्रं तथैव च ॥ ३० ॥
हिंदी अनुवाद :-
अथ ध्यान मन्त्र-अनन्त रत्नों से शोभायमान सिंहासन पर स्थित, अन्तर्ज्योति, स्वरूप, वंशी शब्द से अत्यन्त मोहित व्रज की स्त्रियों से घिरे हुए हैं इसलिये वृन्दावन में अत्यन्त शोभायमान, राधिका और कौस्तुभमणि से चमकते हुए हृदय वाले शोभायमान रत्नों से जटित किरीट और कुण्डल को धारण करनेवाले, आप नवीन पीताम्बर को धारण किए हैं इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान करें ॥ २४ ॥
फिर राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् को पुष्पाञ्जंलि देकर स्त्री के साथ साष्टांग नमस्कार करे ॥ २५ ॥
नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण पीतवस्त्रधारी, अच्युत, श्रीवत्स चिन्ह से शोभित उरस्थल वाले राधिका सहित हरि भगवान् को नमस्कार है ॥ २६ ॥
ब्राह्मण को सुवर्ण के साथ पूर्णपात्र देवे, बाद प्रसन्नता के साथ आचार्य को बहुत-सी दक्षिणा देवे ॥ २७ ॥
सपत्नीक आचार्य को भक्ति से वस्त्र आभूषण से प्रसन्न करे, फिर ऋत्विजों को उत्तम दक्षिणा देवे ॥ २८ ॥
बछड़ा सहित, वस्त्र सहित, दूध देनेवाली, सुशीला गौ को घण्टा आभूषण से भूषित करके उसका दान करना चाहिये ॥ २९ ॥
ताँबे का पीठ, सुवर्ण का श्रृंग, चाँदी के खुर से भूषित कर देवे, बाद घृतपात्र देवे और उसी प्रकार तिलपात्र देवे ॥ ३० ॥
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उमामहेश्वरं दद्याद्दम्पत्योः परिधायकम्, पदमष्टविधं दद्यादुपानद्युगलं तथा ॥ ३१ ॥
श्रीमद्भागवतं दद्याद्वैष्णवाय द्विजन्मने, शक्तिश्चे॥न्न विलम्बेत चलमायुर्विचारयन् ॥ ३२ ॥
श्रीमद्भागवतं साक्षाद्भगवद्रूपमद्भुतम्, यो दद्याद्वैष्णवायैव पण्डिताय द्विजन्मने ॥ ३३ ॥
स कोटिकुलमुद्धृत्य ह्यप्सरोगणसेवितः, विमानमधिरुह्यैति गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ ३४ ॥
कन्यादानसहस्राणि वाजपेयशतानि च, सधान्यक्षेत्रदानानि तुलादानानि यानि च ॥ ३५ ॥
महादानानि यान्यष्टौ छन्दोदानानि यानि च, श्रीभागवतदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३६ ॥
तस्माद्यत्ने३न तद्देयं वैष्णवाय द्विजन्मने, सम्भूष्य वस्त्रभूषाभिर्हेमसिंहासनस्थितम् ॥ ३७ ॥
कांस्यानि सम्पुटान्येव त्रिंशद्देयानि सर्वथा, त्रिंशत्त्रिंशदपूपैश्च मध्ये सम्पूरितानि च ॥ ३८ ॥
प्रत्यपूपं तु यावन्ति छिद्राणि पृथिवीपते, तावद्वर्षसहस्राणि वैकुण्ठे वसते नरः ॥ ३९ ॥
हिंदी अनुवाद :-
स्त्री-पुरुष को पहिनने के लिए उमा-महेश्व र के प्रीत्यर्थ वस्त्र का दान करे, आठ प्रकार का पद देवे और एक जोड़ा जूता देवे ॥ ३१ ॥
यदि शक्ति हो तो आयु की चंचलता को विचारता हुआ वैष्णव ब्राह्मण को श्रीमद्भागवत का दान करे, देरी नहीं करे ॥ ३२ ॥
श्रीमद्भागवत साक्षात् भगवान् का अद्भुत रूप है, जो वैष्णव पण्डित ब्राह्मण को देवे ॥ ३३ ॥
तो वह कोटि कुल का उद्धार कर अप्सरागणों से सेवित विमान पर सवार हो योगियों को दुर्लभ गोलोक को जाता है ॥ ३४ ॥
हजारों कन्यादान सैकड़ों वाजपेय यज्ञ, धान्य के साथ क्षेत्रों के दान और जो तुलादान आदि ॥ ३५ ॥
आठ महादान हैं और वेददान हैं वे सब श्रीमद्भागवत दान की सोलगवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ ३६ ॥
इसलिये श्रीमद्भागवत को सुवर्ण के सिंहासन पर स्थापित कर वस्त्र-आभूषण से अलंकृत कर विधिपूर्वक वैष्णव ब्राह्मण को देवे ॥ ३७ ॥
काँसे के ३० (तीस) सम्पुट में तीस-तीस मालपूआ रखकर ब्राह्मणों को देवे ॥ ३८ ॥
हे पृथिवीपते! हर एक मालपूआ में जितने छिद्र होते हैं उतने वर्ष पर्यन्त वैकुण्ठ लोक में जाकर वास करता है ॥ ३९ ॥
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ततः प्रयाति गोलोकं निर्गुणं योगिदुर्लभम्, यद्गत्वा न निवर्तन्ते ज्योतिर्धाम सनातनम् ॥ ४० ॥
सार्धप्रस्थद्वयं कांस्यसम्पुटं परिकीतितम्, निर्धनेन यथाशक्त्यैतत्कार्यं व्रतपूर्त्तये ॥ ४१ ॥
अथवाऽपूपसामग्रीमपक्कां सफलां पराम्, तत्राधाय प्रदेयं तत् पुरुषोत्तमप्रीतये ॥ ४२ ॥
निमन्त्रितानां विप्राणां सस्त्रीकाणां नराधिप, सङ्कल्पं च प्रकुर्वीत पुरुषोत्तमसन्निधौ ॥ ४३ ॥
अथ प्रार्थना :-
श्रीकृष्ण जगदाधार जगदानन्ददायक, ऐहिकामु्ष्मिकान्कामान् निखिलान्पूरयाशु मे ॥ ४४ ॥
इति सम्प्रार्थ्य गोविन्दं भोजयेद्ब्राह्मणान्मुदा, सपत्नीाकान् सदाचारान् संस्मरन्पुरुषोत्तमम् ॥ ४५ ॥
संपूज्य विधिवद्भक्त्या भोजयेत् घृतपायसैः, विप्ररूपं हरिं स्मृत्वा स्त्रीरूपां राधिकां स्मरन् ॥ ४६ ॥
भोजनस्य तु सङ्कल्पमाचरेद्विधिना व्रती, द्राक्षाभिः कदलीभिश्च चूतैश्च विविधैरपि ॥ ४७ ॥
हिंदी अनुवाद :-
बाद योगियों को दुर्लभ, निर्गुण गोलोक को जाता है, जिस सनातन ज्योतिर्धाम गोलोक को जाकर नहीं लौटते हैं ॥ ४० ॥
अढ़ाई सेर काँसे का सम्पुट कहा गया, निर्धन पुरुष यथाशक्ति व्रतपूर्ति के लिये सम्पुट दान करे ॥ ४१ ॥
अथवा पुरुषोत्तम भगवान् के प्रीत्यर्थ मालपूआ का कच्चा सामान, फल के साथ सम्पुट में रखकर देवे ॥ ४२ ॥
हे नराधिप! निमन्त्रित सपत्नीक ब्राह्मणों को पुरुषोत्तम भगवान् के समीप संकल्प करके देवे ॥ ४३ ॥
अब प्रार्थना लिखते हैं – हे श्रीकृष्ण! हे जगदाधार! हे जगदानन्ददायक! अर्थात् हे जगत् को आनन्द देने वाले! मेरी समस्त इस लोक तथा परलोक की कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करें ॥ ४४ ॥
इस प्रकार गोविन्द भगवान् की प्रार्थना कर प्रसन्नता पूर्वक पुरुषोत्तम भगवान् का स्मरण करता हुआ स्त्रीसहित सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे ॥ ४५ ॥
ब्राह्मणरूप हरि और ब्राह्मणीरूप राधिका का स्मरण करता हुआ भक्ति पूर्वक गन्धाक्षत से पूजन कर घृत पायस का भोजन करावे ॥ ४६ ॥
व्रत करने वाला विधिपूर्वक भोजन सामान का संकल्प करे, अंगूर, केला, अनेक प्रकार के आम के फल ॥ ४७ ॥
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घृतपाचितपक्कान्नैःम शुभैश्च माषकैर्वटैः, शर्कराघृतपूपैश्च फाणितैः खण्डमण्डकैः ॥ ४८ ॥
ऊर्वारुकर्कटीशाकैरार्द्रकैश्च सुनिम्बुकैः, अन्यैश्च विविधैः शाकैराम्रैः पक्वैः पृथक् पृथक् ॥ ४९ ॥
चतुर्धा भोजनैरेव षड्रसैः सह सङ्गतैः, वासितान् गोरसांस्तत्र परिवेष्य मृदु ब्रुवन् ॥ ५० ॥
इदं स्वादु मुदा भोज्यं भवदर्थे प्रकल्पितम्, याच्यतां रोचते ब्रह्मन् यन्मया पाचितं प्रभो ॥ ५१ ॥
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मिजातं मे जन्मसार्थकम्, भोजयित्वा मुदा विप्रान् देयास्ताम्बूलदक्षिणाः ॥ ५२ ॥
एला-लवङ्ग-कर्पूर-नागवल्लीदलानि च, कस्तूरी मुरामांसी च चूर्णं च खदिरं शुभम् ॥ ५३ ॥
एतैश्चमीलितैर्देयं ताम्बूलं भगवत्प्रियम्, तस्मादेवं विधायैव देयं ताम्बूलमादरात् ॥ ५४ ॥
ताम्बूलं यो द्विजाग्र्याय एवं कृत्वा प्रयच्छति, सुभगश्च भवेदत्र परत्रामृतभुग्भवेत् ॥ ५५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
घी के पके हुए, सुन्दर उड़द के बने बड़े, चीनी घी के बने घेवर, फेनी, खाँड़ के बने मण्डक ॥ ४८ ॥
खरबूजा, ककड़ी का शाक, अदरख, सुन्दर नीबू, आम और अनेक प्रकार के अलग-अलग शाक ॥ ४९ ॥
इस प्रकार षट्रसों से युक्त चार प्रकार का भोजन सुगन्धित पदार्थ से वासित गोरस को परोस कर, कोमल वाणी बोलता हुआ ॥ ५० ॥
यह स्वादिष्ट है, इसको आपके लिए तैयार किया है, प्रसन्नता के साथ भोजन कीजिये, हे ब्रह्मन्! हे प्रभो! जो इस पकाये हुए पदार्थों में अच्छा मालूम हो उसको माँगिये ॥ ५१ ॥
मैं धन्य हूँ, आज मैं ब्राह्मणों के अनुग्रह का पात्र हुआ, मेरा जन्म सफल हुआ, इस प्रकार कह कर आनन्द पूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराकर ताम्बूल और दक्षिणा देवे ॥ ५२ ॥
इलायची, लौंग, कपूर, नागरपान, कस्तूरी, जावित्री, कत्था और चूना ॥ ५३ ॥
इन सब पदार्थों को मिलाकर भगवान् के लिये प्रिय ताम्बूल को देना चाहिये, इसलिये इन सामानों से युक्त करके ही आदर के साथ ताम्बूल देना चाहिए ॥ ५४ ॥
जो इस प्रकार ताम्बूल को ब्राह्मण श्रेष्ठ के लिये देता है वह इस लोक में ऐश्वार्य सुख भोग कर परलोक में अमृत का भोक्ता होता है ॥ ५५ ॥
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परितोष्य सपत्नीरकान् हस्ते दद्याच्च मोदकान्, पत्नीणभ्यो वैष्णवीर्दद्यादलङ्कृत्य विधानतः ॥ ५६ ॥
आसीमान्तमनुव्रज्य ब्राह्मणांस्तान् विसर्जयेत्, मन्त्रहीनेति मन्त्रेण क्षमाप्य पुरुषोत्तमम् ॥ ५७ ॥
यस्य स्मृत्येति मन्त्रेण नमस्कृत्य जनार्दनम्, यदूनं तत्तु सम्पूर्णं विधाय विचरेत् सुखम् ॥ ५८ ॥
अन्नंस विभज्य भूतेभ्यो यथाभागमकुत्सयन्, भुञ्जीत स्वजनैः सार्धं मिथ्यावादविवर्जितः ॥ ५९ ॥
दर्शस्य दिवसे प्राप्तेभ कुर्याज्जागरणं निशि, राधिकासहितं हैमं पूजयत् पुरुषोत्तमम् ॥ ६० ॥
पूजान्ते च नमस्कृत्य सपत्नी्को मुदान्वितः, व्रती विसर्जयेद्देवं सराधं पुरुषोत्तमम् ॥ ६१ ॥
आचार्याय ततो दद्यादुपहारं समूर्तिकम्, अन्नदानं यथायोग्यं दद्यादिच्छानुसारतः ॥ ६२ ॥
येन केनाप्युपायेन व्रतमेतत् समाचरेत्, कुर्याच्च् परया भक्त्या दानं वित्तानुसारतः ॥ ६३ ॥
हिंदी अनुवाद :-
स्त्री के साथ ब्राह्मणों को प्रसन्न कर हाथ में मोदक देवे और ब्राह्मणियों को विधिपूर्वक वस्त्र आभूषण से अलंकृत कर वंशी देवे ॥ ५६ ॥
सीमा तक उन ब्राह्मणों को पहुँचाकर विसर्जन करे, (मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन, यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥ १ ॥) इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान् को क्षमापन समर्पण करके ॥ ५७ ॥
(यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु, न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो बन्दे तमच्युतम् ॥ १ ॥) इस मन्त्र से जनार्दन भगवान् को नमस्कार कर जो कुछ कमी रह गई हो वह अच्युत भगवान् की कृपा से पूर्ण फल देनेवाला हो यह कहकर यथासुख विचरे ॥ ५८ ॥
अन्न का यथाभाग विभाग कर भूतों को देकर मिथ्याभाषण से रहित हो, अन्न की निन्दा न करता हुआ कुटुम्बिजनों के साथ भोजन करे ॥ ५९ ॥
अमावस्या के दिन रात्रि में जागरण करे, सुवर्ण की प्रतिमा में राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् का पूजन करे ॥ ६० ॥
पूजा के अन्त में सपत्नीमक व्रती प्रसन्नचित्त हो नमस्कार कर राधिका के साथ पुरुषोत्तम देव का विसर्जन करे ॥ ६१ ॥
फिर आचार्यं को मूर्ति के सहित चढ़ा हुआ सामान को देवे, अपनी इच्छानुसार यथायोग्य अन्नुदान को देवे ॥ ६२ ॥
जिस किसी उपाय से इस व्रत को करे और उत्तम भक्ति से द्रव्य के अनुसार दान देवे ॥ ६३ ॥
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नारी वाथ नरो वापि व्रतमेतत् समाचरेत्, दुःखदारिद्रयदौर्भाग्यं नाप्नुयाज्जयन्मजन्मनि ॥ ६४ ॥
ये कुर्वन्ति जना लोके नानापूर्णमनोरथाः, विमानान्यधिरुह्यैव यान्ति वैकुण्ठमुत्तमम् ॥ ६५ ॥
श्रीनारायण उवाच :-
इत्थं यो विधिमवलम्ब्य चर्करीति श्रीकृष्णप्रियतममासमादरेण, गोलोकं व्रजति विधूय पापराशिं चात्रत्यं सुखमनुभूय पूर्वपुम्भिः ॥ ६६ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे नारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने व्रतोद्यापनविधिकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
हिंदी अनुवाद :-
स्त्री अथवा पुरुष इस व्रत को करने से जन्म-जन्म में दुःख, दारिद्रय और दौर्भाग्य को नहीं प्राप्त होते हैं ॥ ६४ ॥
जो लोग इस व्रत को करते हैं वे इस लोक में अनेक प्रकार के मनोरथों को प्रात्प करके सुन्दर विमान पर चढ़कर श्रेष्ठ वैकुण्ठ लोक को जाते हैं ॥ ६५ ॥
श्रीनारायण बोले – इस प्रकार जो पुरुष श्रीकृष्ण भगवान् का प्रिय पुरुषोत्तम मासव्रत विधिपूर्वक आदर के साथ करता है वह इस लोक के सुखों को भोगकर और पापराशि से मुक्त होकर अपने पूर्व पुरुषों के साथ गोलोक को जाता है ॥ ६६ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये दृढधन्वोपाख्याने व्रतोद्यापनविधिकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
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