अथोद्यापनानन्तरं व्रतनियममोक्षणमुच्यते
बाल्मीकिरुवाच :-
अशेषपापनाशार्थं गरुडध्वजतुष्टये, गृहीतनियमत्यागश्चोच्यते विधिपूर्वकः ॥ १ ॥
नक्तभोजी नरो राजन् ब्राह्मणान् भोजयेदथ, अयाचिते व्रते चैव स्वर्णदानं समाचरेत् ॥ २ ॥
अमावास्याशनो यस्तु प्रदद्याद् गां सदक्षिणाम्, धात्रीस्नानं नरो यस्तु दधि वा क्षीरमेव च ॥ ३ ॥
फलानां नियमे राजन् फलदानं समाचरेत्, तैलस्थाने घृतं देयं घृतस्थाने पयस्तथा ॥ ४ ॥
धान्यानां नियमे राजन् गोधूमान् शालितण्डुलान्, भूमौ च शयने राजन् सतूलीं सपरिच्छदाम् ॥ ५ ॥
सुखदां चात्मनो न्यस्य ह्यन्तर्यामी प्रियो जनः, पत्रभोजी नरो यस्तु भोजनं घृतशर्कराम् ॥ ६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
अब उद्यापन के पीछे व्रत के नियम का त्याग कहते हैं,
बाल्मीकि मुनि बोले – सम्पूर्ण पापों के नाश के लिये गरुडध्वज भगवान् की प्रसन्नता के लिये धारण किये व्रत नियम का विधि पूर्वक त्याग कहते हैं ॥ १ ॥
हे राजन्! नक्तव्रत करनेवाला मनुष्य समाप्ति में ब्राह्मणों को भोजन करावे और बिना माँगे जो कुछ मिल जाय उसको खा कर रहने में सुवर्णदान करना ॥ २ ॥
अमावास्या में भोजन का नियम पालन करने वाला दक्षिणा के साथ गोदान देवे,और जो आँवला जल से स्नान करता है वह दही अथवा दूध का दान देवे ॥ ३ ॥
हे राजन्! फलों का नियम किया है तो फलों का दान करे, तेल का नियम किया है अर्थात् तैल छोड़ा है तो समाप्ति में घृतदान करे और घृत का नियम किया है तो दूध का दान करे ॥ ४ ॥
हे राजन्! धान्यों के नियम में गेहूँ और शालि चावल का दान करे, हे राजन् यदि पृथ्वी में शयन का नियम किया है तो रूई भरे हुए गद्देृ और चाँदनी के सहित ॥ ५ ॥
अपने को सुख देने वाली तकिया आदि रख कर शय्या का दान करे, वह मनुष्य भगवान् को प्रिय होता है, जो मनुष्य पत्र में भोजन करता है वह ब्राह्मणों को भोजन करावे, घृत चीनी का दान करे ॥ ६ ॥
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मौने घण्टां तिलांश्चैव सहिरण्यान् प्रदापयेत्, दम्पत्योर्भोजनं चैव सस्नेहं च सुभोजनम् ॥ ७ ॥
नखकेशधरो राजन्नादर्शं दापयेद् बुधः, उपानहौ प्रदातव्ये उपानहविवर्जनात् ॥ ८ ॥
लवणस्य परित्यागे दातव्या विविधा रसाः, दीपदाने नरो दद्यात् पात्रयुक्तंज च दीपकम् ॥ ९ ॥
अधिमासे नरो भक्त्या स वैकुण्ठे वसेत् सदा, दीपं च सघृतं ताम्रं काञ्चनीवर्तिसंयुतम् ॥ १० ॥
पलमात्रं प्रदेयं स्याद् व्रतसम्पूर्ण हेतवे, एकान्तरोपवासे च कुम्भानष्टौ प्रदापयेत् ॥ ११ ॥
सवस्त्रान् काञ्चनोपेतान् मृन्मयानथ काञ्चनान्, मासान्ते मोदकांस्त्रिंशच्छत्रोपानहसंयुतान् ॥ १२ ॥
अनड्वांश्च प्रदातव्यो धौरेयस्तु धुरि क्षमः, सर्वेषामप्यलाभे च यथोक्तकरणं विना ॥ १३ ॥
द्विजवाक्यं स्मृतं राजन् सम्पूर्णव्रतसिद्धिदम्, एकान्नेकन नरो यस्तु मलमासं निषेवते ॥ १४ ॥
हिंदी अनुवाद :-
मौनव्रत में सुवर्ण के सहित घण्टा और तिलों का दान करे, सपत्नीघक ब्राह्मण को घृतयुक्त पदार्थ से भोजन करावे ॥ ७ ॥
हे राजन्! नख तथा केशों को धारण करने वाला बुद्धिमान् दर्पण का दान करे, जूता का त्याग किया है तो जूता का दान करे ॥ ८ ॥
लवण के त्याग में अनेक प्रकार के रसों का दान करे, दीपत्याग किया है तो पात्र सहित दीपक का दान करे ॥ ९ ॥
जो मनुष्य अधिकमास में भक्ति से नियमों का पालन करता है वह सर्वदा वैकुण्ठ में निवास करता है, ताँबे के पात्र में घृत और सुवर्ण की वत्ती रख कर दीपक का दान करे ॥ १० ॥
व्रत की पूर्ति के लिये पलमात्र का ही दान देवे, एकान्त में वास करने वाला आठ घटों का दान करे ॥ ११ ॥
वे घट सुवर्ण के हों या मिट्टी के उनको वस्त्र और सुवर्ण के टुकड़ों के सहित देवे और मास के अन्त में छाता-जूता के साथ ३० (तीस) मोदक का दान करे ॥ १२ ॥
और भार ढोने में समर्थ बैल का दान करे, इन वस्तुओं के न मिलने पर अथवा यथोक्त करने में असमर्थ होने पर ॥ १३ ॥
हे राजन्! सम्पूर्ण व्रतों की सिद्धि को देने वाला ब्राह्मणों का वचन कहा गया है अर्थात् ब्राह्मण से सुफल के मिलने पर व्रत पूर्ण हो जाता है, जो मलमास में एक अन्न का सेवन करता है ॥ १४ ॥
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चतुर्भुजो नरो भूत्वा स याति परमां गतिम्, एकान्नान्नापरं किञ्चित्पवित्रमिह विद्यते ॥ १५ ॥
एकान्नान्मुनयः सिद्धाःपरं निर्वाणमागताः, अधिमासे नरो नक्तं यो भुङ्क्ते स नराधिपः ॥ १६ ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति नरो नैवात्र संशयः, पूर्वाह्णे भुञ्जते देवा मध्याह्ने मुनयस्तथा ॥ १७ ॥
अपराह्णे पितृगणाः स्वात्मार्थस्तु चतुर्थकः, सर्व वेलामतिक्रम्य यस्तु भुङ्क्ते नराधिप ॥ १८ ॥
ब्रह्महत्यादिपापानि नाशं यान्ति जनाधिप, नक्तभोजी महीपाल सर्वपुण्याधिको भवेत् ॥ १९ ॥
दिने दिनेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति मानवः, तस्मिन्विवर्जयेन्माषमधिमासे हरिप्रिये ॥ २० ॥
सर्वस्मान्मुच्यते पापाद्विष्णुलोकं स गच्छति, तिलयन्त्राणि पापात्मा कुरुते ब्राह्मणोऽपि सन् ॥ २१ ॥
तिलानां संख्यया राजन् स वै तिष्ठति रौरवे, चाण्डालयोनिमाप्नोति कुष्ठरोगेण पीडयते ॥ २२ ॥
हिंदी अनुवाद :-
वह चतुर्भुज होकर परम गति को पाता है, इस लोक में एकान्न से बढ़कर दूसरा कुछ भी पवित्र नहीं है ॥ १५ ॥
एक अन्न के सेवन से मुनि लोग सिद्ध होकर परम मोक्ष को प्राप्त हो गये, अधिकमास में जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह राजा होता है ॥ १६ ॥
वह मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करता है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है, देवता लोग दिन के पूर्वाह्ण में भोजन करते हैं और मुनि लोग मध्याह्न में भोजन करते हैं ॥ १७ ॥
अपराह्ण में पितृगण भोजन करते हैं, इसलिये अपने लिये भोजन का समय चतुर्थ प्रहर कहा गया है, हे नराधिप! जो सब बेला को अतिक्रमण कर चतुर्थ प्रहर में भोजन करता है ॥ १८ ॥
हे जनाधिप! उसके ब्रह्महत्यादि पाप नाश हो जाते हैं, हे महीपाल! रात्रि में भोजन करने वाला समस्त पुण्यों से अधिक पुण्य फल का भागी होता ॥ १९ ॥
और वह मनुष्य प्रतिदिन अश्व मेध यज्ञ के करने का फल प्राप्त करता है, भगवान् के प्रिय पुरुषोत्तम मास में उड़द का त्याग करे ॥ २० ॥
वह उड़द छोड़ने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है, जो पातकी ब्राह्मण होकर यन्त्र में तिल पेरता है ॥ २१ ॥
हे राजन्! वह ब्राह्मण तिल की संख्या के अनुसार उतने वर्ष पर्यन्त रौरव नरक में वास करता है फिर चाण्डाल योनि में जाता है और कुष्ठ रोग से पीड़ित होता है ॥ २२ ॥
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शुक्ले कृष्णे नरो भक्त्या द्वादशीं समुपोषयेत्, आरुह्य गरुडं याति नरो भूत्वा चतुर्भुजः ॥ २३ ॥
स देवैः पूज्यमानोऽपि ह्यप्सरोगणसेवितः, दशमीं द्वादशीं चैव एकभुक्तं च कारयेत् ॥ २४ ॥
प्रीयते देवदेवस्य नरः स्वर्गमवाप्नुयात्, भक्त्या च सर्वदा राजन् दर्भकूर्चं न वर्जयेत् ॥ २५ ॥
दर्भेण मार्जयेद्यस्तु पुरीषं मूत्रमेव च, श्लेनष्माणं रुधिरं वापि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ २६ ॥
पवित्राः परमा दर्भा दर्भहीना वृथाः क्रियाः, दर्भमूले वसेद् ब्रह्मा मध्ये देवो जनार्दनः ॥ २७ ॥
दर्भाग्रे तु ह्युमानाथस्तस्माद्दर्भेण मार्जयेत्, न दर्भानुद्धरेच्छूद्रो न पिबेत्कपिलापयः ॥ २८ ॥
पत्रमध्ये न भुञ्जीत ब्रह्मपत्रस्य भूपते, नोच्चरेत् प्रणवं मन्त्रं पुरोडाशं न भक्षयेत् ॥ २९ ॥
नासनं नोपवीतं च नाचरेद्वैदिकीं क्रियाम्, निर्विध्याचरणं कुर्वन् पितृभिः सह मज्जतति ॥ ३० ॥
हिंदी अनुवाद :-
जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि में उपवास करता है वह मनुष्य चतुर्भुज हो गरुड़ पर बैठ कर वैकुण्ठ लोक को जाता है ॥ २३ ॥
और वह देवताओं से पूजित तथा अप्सराओं से सेवित होता है एकादशी व्रत करनेवाला दशमी और द्वादशी के दिन एक बार भोजन करे ॥ २४ ॥
जो मनुष्य देवदेव विष्णु भगवान् के प्रीत्यर्थ व्रत करता है वह मनुष्य स्वर्ग को जाता है हे राजन्! सर्वदा भक्ति से कुशा का मुट्ठा धारण करे, कुशमुष्टि का त्याग न करे ॥ २५ ॥
जो मनुष्य कुशा से मल, मूत्र, कफ, रुधिर को साफ करता है वह विष्ठा में कृमियोनि में जाकर वास करता है ॥ २६ ॥
कुशा अत्यन्त पवित्र कहे गये हैं, बिना कुशा की क्रिया व्यर्थ कही गई है क्योंकि कुशा के मूल भाग में ब्रह्मा और मध्य भाग में जनार्दन वास करते हैं ॥ २७ ॥
कुशा के अग्रभाग में महादेव वास करते हैं इसलिये कुशा से मार्जन करे शूद्र जमीन से कुशा को न उखाड़े और कपिला गौ का दूध न पीवे ॥ २८ ॥
हे भूपते! पलाश के पत्र में भोजन न करे, प्रणवमन्त्र का उच्चा रण न करे, यज्ञ का बचा हुआ अन्न न भोजन करे ॥ २९ ॥
शूद्र कुशा के आसन पर न बैठे, जनेऊ को धारण न करे और वैदिक क्रिया को न करे, यदि विधि का त्याग कर मनमाना काम करता है तो वह शूद्र अपने पितरों के सहित नरक में डूब जाता है ॥ ३० ॥
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पतन्ति नरके घोरे यावदिन्द्राश्चतुर्दश, पश्चाच्च कौक्कुमटीं योनिं सूकरीं वानरीं च वा ॥ ३१ ॥
एतस्मात्कारणाच्शूद्रः प्रणवं वर्जयेत्सदा, नमस्कारेण विप्राणां शूद्रो नश्यति भूमिप ॥ ३२ ॥
एतत्कृत्वा महाराज परिपूर्णं व्रतं चरेत्, अदत्त्वा दक्षिणां वापि नरकं यान्ति वै नराः ॥ ३३ ॥
व्रतवैकल्यमासाद्य ह्यन्धः कुष्ठी प्रजायते ॥ ३४ ॥
धरामराणां वचनैर्नरोत्तमा दिवौकसां वै पदमाप्नुवन्ति, नोल्लअङ्घयेद्भूप वचांसि तेषां श्रेयोऽभिकामी मनुजः स विद्वान् ॥ ३५ ॥
इदं मया धर्मरहस्यमुत्तमं श्रेयस्करं पापविमर्दनं च, फलप्रदं माधवपुष्टिहेतोः पठेच्च नित्यं मनसोऽभिरामम् ॥ ३६ ॥
यः श्रृणोति नरो राजन् पठते वापि सर्वदा, स याति परमं लोकं यत्र योगीश्वरो हरिः ॥ ३७ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे गृहीतनियमत्यागो नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
हिंदी अनुवाद :-
चौदह इन्द्र तक नरक में पड़ा रहता है फिर मुरगा, सूकर, बानर योनि को जाता है ॥ ३१ ॥
इसलिये शूद्र हमेशा प्रणव का त्याग करे, हे भूमिप! शूद्र ब्राह्मणों के नमस्कार करने से नष्ट हो जाता है ॥ ३२ ॥
हे महाराज! इतना करने से व्रत परिपूर्ण कहा है, अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा न देने से मनुष्य नरक के भागी होते हैं ॥ ३३ ॥
व्रत में विध्न होने से अन्धा और कोढ़ी होता है ॥ ३४ ॥
हे भूप! मनुष्यों में श्रेष्ठ मनुष्य पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के वचन से स्वर्ग को जाते हैं, हे भूप! इसलिये कल्याण को चाहने वाला विद्वान् मनुष्य उन ब्राह्मणों के वचनों का उल्लंमघन न करे ॥ ३५ ॥
यह मैंने उत्तम, कल्याण को करनेवाला, पापों का नाशक, उत्तम फल को देनेवाला माधव भगवान् को प्रसन्न करने वाला, मन को प्रसन्न करने वाला धर्म का रहस्य कहा इसका नित्य पाठ करे ॥ ३६ ॥
हे राजन्! जो इसको हमेशा सुनता है अथवा पढ़ता है वह उत्तम लोक को जाता है जहाँ पर योगीश्वऽर हरि भगवान् वास करते हैं ॥ ३७ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे गृहीतनियमत्यागो नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
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