🌷अध्याय २७ – कदर्योपाख्याने 🌷

 


श्रीनारायण उवाच :-

इत्युक्त्वा विरतं राजा मुनीश्व रमनीनमत्‌, अपूजयत्ततो भक्त्या सपत्नीको मुदान्वितः ॥ १ ॥

उररीकृत्य तत्पूजामाशीर्वादमुदीरयत्‌, स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि सरयूं पापनाशिनीम्‌ ॥ २ ॥

आवयोर्वदतोरेवं सायङ्कालाऽधुनाऽभवत्‌, इत्युक्त्वाऽऽशुजगामैव बाल्मीकिर्मुनिसत्तमः ॥ ३ ॥

आसीमान्तमनुव्रज्य राजाऽप्यागतवान्‌ गृहम्‌, आगत्य स्वप्रियामाह सुन्दरीं गुणसुन्दरीम्‌ ॥ ४ ॥

दृढधन्वोवाच :-

अयि सुन्दरि संसारे ह्यसारे किं सुखं नृणाम्‌, रागद्वेषादिषट्‌शत्रौ गंधर्वनगरोपमे ॥ ५ ॥

कृमिविड्‌भस्मरूपेऽस्मिन्‌ देहे मे किं प्रयोजनम्‌, वातपित्त कफोद्रेकमलमूत्रासृगाकुले ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार कह कर मौन हुए मनीश्वार बाल्मीकि मुनि को सपत्नीतक राजा दृढ़धन्वा ने नमस्कार किया, बाद प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक पूजन किया ॥ १ ॥

उस राजा दृढ़धन्वा से की हुई पूजा को लेकर आशीर्वाद को दिया, तुम्हारा कल्याण हो, पापों का नाश करने वाली सरयू नदी को मैं जाऊँगा ॥ २ ॥

इस समय हम दोनों को इस प्रकार बात करते सायंकाल हो गया है, यह कह कर मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि शीघ्र चले गये ॥ ३ ॥

राजा दृढ़धन्वा भी सीमा तक बाल्मीकि मुनि को पहुँचा कर अपने घर लौट आया, घर जाकर अपनी गुणसुन्दरी नामक सुन्दरी स्त्री से बोला ॥ ४ ॥

राजा दृढ़धन्वा बोला – अयि सुन्दरी! राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छ शत्रुओं से युक्त, गन्धर्व नगर के समान इस असार संसार में मनुष्यों को क्या सुख है? ॥ ५ ॥

कीट विष्टा भस्म रूप और वात पित्त कफ इनसे युक्त मल, मूत्र, रक्त से व्यप्त ऐसे इस शरीर से मेरा क्या प्रयोजन है ॥ ६ ॥

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अध्रुवेण शरीरेण ध्रुवमर्जयितुं वने, गमिष्यामि वरारोहे संस्मरन्पुरुषोत्तम्‌ ॥ ७ ॥

तदाकर्ण्य प्रिया प्राह साध्वी सा गुणसुंदरी, विनयावनता भूत्वा बद्धांजलिपुटा शुचा ॥ ८ ॥

गुणसुंदर्युवाच :-

अहमप्यागमिष्यामि त्वयैव सह भूपते, पतिव्रतानां स्त्रीणां तु पतिरेव हि दैवतम्‌ ॥ ९ ॥

पत्यौ गते तु या नारी गृहे तिष्ठति सौनवे, स्नुषाधीना तु सा नारी शुनीव परवेश्मनि ॥ १० ॥

मितं पिता ददात्येव मितं भ्राता मितं सुतः, अमितस्य प्रदातारं भर्तारं का नु न व्रजेत्‌ ॥ ११ ॥

ऊरीकृत्य प्रियावाक्यं सुतं राज्येभिषिच्य च, सहपत्न्या् ययौशीघ्रमरण्यं मुनिसेवितम्‌ ॥ १२ ॥

हिमाचलसमीपे च गंगामासाद्य दंपती, त्रिकालं चक्रतुः स्नानं संप्राप्तेा पुरुषोत्तमे ॥ १३ ॥

पुरुषोत्तमं समासाद्य विधिना तत्र नारद, तपस्तेपे सपत्नीकः संस्मरन्पुरुषोत्तमम्‌ ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे वरारोहे! अध्रुव शरीर से ध्रुववस्तु एकत्रित करने के लिये पुरुषोत्तम का स्मरण कर वन को जाता हूँ ॥ ७ ॥

तब वह गुणसुन्दरी ऐसा सुन के विनय से नम्रता युक्त तथा शुद्धता से हाथ जोड़ अपने पति से बोली ॥ ८ ॥

गुणसुन्दरी बोली – हे नृपते! मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, पतिव्रता स्त्रियों के पति ही देवता हैं ॥ ९ ॥

जो स्त्री पति के जाने पर पुत्र के गृह में रहती है, वह स्त्री पुत्रवधू के आधीन हो पराये गृह में कुत्ते के समान रहती है ॥ १० ॥

पिता स्वल्प देता है और भाई भी स्वल्प ही देता है अत्यन्त देवेवाले पति के साथ कौन स्त्री न जायगी? ॥ ११ ॥

इस प्रकार प्रिया की बात को स्वीकार कर पुत्र का अभिषेक कर स्त्री सहित शीघ्र ही मुनियों से सेवित वन को गया ॥ १२ ॥

दोनों स्त्री-पुरुष हिमालय के समीप गंगाजी के निकट जाकर पुरुषोत्तम मास के आनेपर दोनों काल में स्नान करने लगे ॥ १३ ॥

हे नारद! वहाँ पुरुषोत्तम मास को प्राप्त कर विधि से पुरुषोत्तम का स्मरण कर भार्या सहित तपस्या करने लगे ॥ १४ ॥

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ऊर्ध्वबाहुनिरालंबःपादांगुष्ठेन संस्थितः, नभोदृष्टिनिराहारः श्रीकृष्णं तमजीजपत्‌ ॥ १५ ॥

एवं व्रतविधौ तस्य तस्थुषश्च तपोनिधेः, सेवाविधौ प्रसन्नासीन्महिषी सा पतिव्रता ॥ १६ ॥

एवं कृतवतस्तस्य संपूर्णे पुरुषोत्तमे, विमानमगमत्तत्र किंकिणीजालमंडितम्‌ ॥ १७ ॥

पुण्यशीलसुशीलाभ्यां सेवितं सहसागतम्‌, तद्‌दृष्ट्वा विस्मयाविष्टः सपत्नी को महीपतिः ॥ १८ ॥

अनीनमद्विमानस्थौ पुण्यशीलसुशीलकौ, ततस्तौ तं सपत्नी कं विमानं निन्यतुर्नृपम्‌ ॥ १९ ॥

विमानमधिरुह्याथ सपत्नीशको नराधिपः, गोलोकं गतवाञ्छीकघ्रं दिव्यं धृत्वा वपुर्नवम्‌ ॥ २० ॥

एवं तप्त्वा् तपो राजा मासे श्रीपुरुषोत्तमे, निर्भयं लोकमासाद्य मुमोद हरिसन्निधौ ॥ २१ ॥

पतिव्रता च तत्पत्नीा सापि तल्लोरकमाययौ, पुरुषोत्तमे तपस्यन्तं संसेव्य निजवल्लौभम्‌ ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

ऊपर हाथ किये बिना अवलम्ब पैर के अंगूठे पर स्थिर आकाश में दृष्टि लगाये निराहार होकर राजा श्रीकृष्ण का जप करने लगे ॥ १५ ॥

इस प्रकार व्रत की विधि में स्थित हुए तपोनिधि राजा की पतिव्रता रानी सेवा में तत्पर हुई ॥ १६ ॥

इस प्रकार तप करते हुए राजा का पुरुषोत्तम मास सम्पूर्ण होने पर घंटिमाओं के जल से विभूषित विमान वहाँ आया ॥ १७ ॥

ऐसे तत्काल आये हुए पुण्यशील और सुशील सेवित विमान को देख स्त्री सहित राजा आश्चर्य युक्त हो ॥ १८ ॥

विमान में बैठे हुए पुण्यशील और सुशील को नमस्कार किया, पुनः वे स्त्री सहित राजा को विमान में बैठने की आज्ञा दिये ॥ १९ ॥

स्त्री सहित राजा विमान में बैठ के सुन्दर नवीन शरीर धारण कर तत्काल गोलोक को गये ॥ २० ॥

इस प्रकार पुरुषोत्तम मास में तप करके भय रहित लोक को प्राप्त होकर हरि के निकट आनन्द करने लगे ॥ २१ ॥

और पतिव्रता स्त्री भी पुरुषोत्तम में तप करते हुए पति की सेवा कर उसी लोक को प्राप्त हुई ॥ २२ ॥

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श्रीनारायण उवाच :-

वर्णयामि किमद्याहं यदेकरसना मम, पुरुषोत्तमसमं किंचिन्नास्ति नारद भूतले ॥ २३ ॥

सहस्रजन्मतप्तेन तपसा यन्न गम्यते, तत्फलं गम्यते पुम्भिः पुरुषोत्तमसेवनात्‌ ॥ २४ ॥

व्याजतोऽपि कृते तस्मिन्मासे श्रीपुरुषोत्तमे, उपवासेन दानेन स्नानेन च जपादिना ॥ २५ ॥

कोटिजन्मकृतानेकपापराशिर्लयं व्रजेत्‌, यथाशाखामृगस्याशु त्रिरात्रस्नानमात्रतः ॥ २६ ॥

अजानतोपि दुष्टस्य प्राक्तनानां कुकर्मणाम्‌, संचयो विलयं यातो मासे श्रीपुरुषोत्तमे ॥ २७ ॥

सोऽपि दिव्यं वपुर्धृत्वा विमानमधिरुह्य च, अगमद्दिव्यगोलोकं जरामृत्युविवर्जितम्‌ ॥ २८ ॥

अतः श्रेष्ठतमो मासः सर्वेभ्यः पुरुषोत्तमः, दुष्टं शाखामृगं योऽसौ व्याजेनापि हरि नयेत्‌ ॥ २९ ॥

अहो मूढा न सेवन्ते मासं श्रीपुरुषोत्तमम्‌, ते धन्याः कृतकृत्यास्ते तेषां च सफलो भवः ॥ ३० ॥

हिंदी अनुवाद :-

श्रीनारायण बोले – हे नारद! मेरी एक जिह्वा है इस समय इसका क्या वर्णन करूँ? इस पृथ्वी पर पुरुषोत्तम के समान कुछ भी नहीं है ॥ २३ ॥

सहस्र जन्म में तप करने से जो फल प्राप्त नहीं होता है वह फल पुरुषोत्तम के सेवन से पुरुष को प्राप्त हो जाता है ॥ २४ ॥

श्री पुरुषोत्तम मास में बुद्धि पूर्वक अथवा अबुद्धि पूर्वक किसी भी बहाने यदि उपवास, स्नान, दान और जप आदि किया जाय तो करोड़ों जन्म पर्यन्त किये पाप नष्ट हो जाते हैं, जैसे दुष्ट बन्दर ने अबुद्धि पूर्वक तीन रात तक पुरुषोत्तम मास में केवल स्नान कर लिया तो उसके पूर्व जन्म के समस्त कुकर्मों का नाश हो गया ॥ २५-२६-२७ ॥

और वह बन्दर भी दिव्य शरीर धारण कर विमान पर चढ़कर जरामरण रहित गोलोक को प्राप्त हुआ ॥ २८ ॥

इसलिये यह पुरुषोत्तम मास संपूर्ण मासों में अत्यन्त श्रेष्ठ मास है क्योंकि इसने बिना जाने से ही पुरुषोत्तम मास में किये गये स्नानमात्र से दुष्ट वानर को हरि भगवान्‌ के समीप पहुँचाया ॥ २९ ॥

अहो आश्चर्य है! श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन जो नहीं करनेवाले हैं वे महामूर्ख हैं, वे धन्य हैं और कृतकृत्य हैं तथा उनका जन्म सफल है ॥ ३० ॥

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पुरुषोत्तममासं ये सेवन्ते विधिपूर्वकम्‌, स्नानदानजपैर्होमैरुपोषणपुरः सरैः ॥ ३१ ॥

नारद उवाच :-

सर्वार्थसाधनं वेदे मानुषं जनुरुच्यते, अयं शाखामृगोऽप्यद्धा मुक्तो यद्‌व्याजसेवनात्‌ ॥ ३२ ॥

तद्वदस्व कथामेतां सर्वलोकहिताय मे, कुत्रासौ कृतवान्‌ स्नानं त्रिरात्रं तपसां निधे ॥ ३३ ॥

कोऽसौ कपिः किमाहारः कुत्र जातः क्क चावसत्‌, व्याजेन तस्य किं पुण्यं जातं श्रीपुरुषोत्तमे ॥ ३४ ॥

तत्सर्वं विस्तरेणैव मह्यं शुश्रूषवे वद, न तृप्तिर्जायते त्वत्तः श्रृण्वतो मे कथामृतम्‌ ॥ ३५ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

कश्चित्केरलदेशीयो द्विजः परमलोलुपः, नित्यं धनचये दक्षः सरघेव धनप्रियः ॥ ३६ ॥

लोके कदर्य इत्याख्यां गतस्तेनैव कर्मणा, चित्रशर्मा पुरा नाम तस्यासीत्पितृकल्पितम्‌ ॥ ३७ ॥

सदन्नं च सुवस्त्रं च न भुक्तंण तेन कुत्रचित्‌, न स्वाहा न स्वधा वापि कृता तेन कुबुद्धिना ॥ ३८ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास का विधि के साथ स्नान, दान, जप, हवन, उपवासपूर्वक सेवन करते हैं ॥ ३१ ॥

नारद मुनि बोले – वेद में समस्त अर्थों का साधन करनेवाला मनुष्य शरीर कहा गया है, परन्तु यह वानर भी व्याज से पुरुषोत्तम मास का सेवन कर साक्षात्‌ मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥

हे तपोनिधे! संपूर्ण प्राणियों के कल्याण के निमित्त मुझसे इस कथा को कहिये, इस वानर ने तीन रात्रि तक स्नान कहाँ पर किया? ॥ ३३ ॥

यह वानर कौन था? आहार क्या करता था? उत्पन्न कहाँ हुआ? कहाँ रहता था? और श्रीपुरुषोत्तम मास में व्याज से उसको क्या पुण्य हुआ? ॥ ३४ ॥

यह सब विस्तार से सुनने की इच्छा करने वाले मेरे से कहिये। आप से कथामृत श्रवण करते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है ॥ ३५ ॥

श्रीनारायण बोले – कोई केरल देश का अत्यन्त लालची, शहद की मक्खियों के समान धन में प्रेम रखनेवाला, सर्वदा धन के संचय करने में तत्पर रहनेवाला ब्राह्मण था ॥ ३६ ॥

उसी कर्म से लोक में कदर्यनाम से प्रसिद्ध था, उसके पिता ने भी प्रथम उसका नाम चित्रशर्म्मा रक्खा था ॥ ३७ ॥

उस कदर्य ने सुन्दर अन्न, सुन्दर वस्त्र का किसी समय उपभोग नहीं किया, उस कुबुद्धि ने अग्नि में आहुति, पितरों का श्राद्ध भी नहीं किया ॥ ३८ ॥

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यशाऽर्थे न कृतं किञ्चित्पोष्यवर्गो न पोषितः, सर्वं भूमिगतं च क्रे धनमन्यायसञ्चितम्‌ ॥ ३९ ॥

न माघे तिलदानं च कृतं तेन कदाचन, कार्तिके दीपदानं च ब्राह्मणानां च भोजनम्‌ ॥ ४० ॥

वैशाखे धान्यदानं च व्यतीपाते च काञ्चनम्‌, वैधृतौ राजतं दानं सर्वदानान्यमूनि च ॥ ४१ ॥

रविसंक्रमणे काले न दत्तानि कदाचन, चन्द्रसूर्योपरागे च न जप्तंव न हुतं क्कचित्‌ ॥ ४२ ॥

अवीवदद्दीनवाचं सर्वत्राश्रुपरिप्लुतः, वर्षवातातपक्लिष्टः कृशः श्यामकलेवरः ॥ ४३ ॥

चचार धनलोभेन मूढधीर्भूतले सदा, कोऽपि यच्छतु यत्किञ्चित्पामराय मुहुर्वदन्‌ ॥ ४४ ॥

स गोदोहनमात्रं हि कुत्रापि स्थातुमक्षमः, लोकधिक्काषरसंदग्धो बभ्रामोद्विग्नमानसः ॥ ४५ ॥

तन्मित्रं वाटिकानाथः कश्चिदासोद्वनेचरः व स तं निवेदयामास स्वदुःखं संरुदन्मुहुः ॥ ४६ ॥

तिरस्कुर्वन्ति मां नित्यं पुटभेदनवासिनः, अतस्तत्र मया स्थातुं न शक्यं पुटभेदने ॥ ४७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

यश के लिये कुछ नहीं किया और आश्रित वर्ग का पोषण नहीं किया, अन्याय से धन को इकट्‌ठा कर पृथिवी में गाड़ दिया ॥ ३९ ॥

माघमास में उसने कभी तिलदान नहीं किया, कार्तिक मास में दीपदान और ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया ॥ ४० ॥

वैशाख मास में धान्य का दान नहीं किया और व्यतीतपात योग में सुवर्ण का दान नहीं किया, वैधृति योग में चाँदी का दान नहीं किया और ये सब दान ॥ ४१ ॥

कभी सूर्य संक्रान्ति काल में नहीं दिया, चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण के समय न जप किया और न अग्नि में आहुति दी ॥ ४२ ॥

सर्वत्र नेत्रों में आँसू भरकर दीन वचन कहा करता था, वर्षा, वायु, आतप से दुःखित, दुबला और काले शरीर वाला वह मूर्ख ॥ ४३ ॥

सर्वदा धन के लोभ से पृथिवी पर घूमा करता था, ‘कोई भी इस पामर को कुछ दे देता’ इस तरह बार-बार कहता हुआ ॥ ४४ ॥

गौ के दोहन समय तक कहीं भी ठहरने में असमर्थ था, लोक के प्राणियों के धिक्काररने से जला हुआ और उद्विग्ना मन होकर घूमता था ॥ ४५ ॥

उसका मित्र कोई बनेचर बाटिका का मालिक था, उस कदर्य ने उस माली से बार-बार रोते हुए अपने दुख को कहा ॥ ४६ ॥

नगर के वासी मेरा नित्य तिरस्कार करते हैं इसलिये उस नगर में मैं नहीं रह सकता हँ ॥ ४७ ॥

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इत्येवं वदतस्तस्य कदर्यस्य द्विजन्मनः, अतिदीनतरां वाचमाकर्ण्य कृपयाऽलुतः ॥ ४८ ॥

मालाकारः प्रपन्नं तं दीनं मत्वाऽकरोद्दयाम्‌, हे कदर्य त्वमत्रैव वाटिकायां वसाऽधुना ॥ ४९ ॥

मालाकारवचः श्रुत्वा कदर्यः सर्वनागरैः, तिरस्कृतः स तद्वाटीमध्युवास मुदा युतः ॥ ५० ॥

नित्यं तन्निकटस्थायी तदाज्ञापरिपालकः, तेन वाटीपतिस्तस्मिन्विश्वादसमकरोद्‌दृढम्‌ ॥ ५१ ॥

अतिविश्वस्तचित्तेन तस्मिन्‌ स वाटिकापतिः, तमेवाचीकरद्विप्रं स्वकल्पं वाटिकापतिम्‌ ॥ ५२ ॥

ततः सर्वात्मभावेन ममायमिति निश्चयात्‌, विहाय वाटिकाचिन्तां सिषेवे राजमान्दरम्‌ ॥ ५३ ॥

राजद्वारे सदा कार्यं तस्यात्यन्तमबीभवत्‌, पराधीनतया चासौ वाटिकां न जगाम ह ॥ ५४ ॥

तत्फलानि कदर्यस्तु जघास निर्भरं मुदा, व्यक्रीणतावशिष्टानि लोभेनातीव दुर्बलः ॥ ५५ ॥

अगृह्णाद्‌द्रविणं तज्जं सर्वं स्वयमशङ्कितः, यदाऽपृच्छद्वनाधीशस्तदग्रेऽवीवदन्मृषा ॥ ५६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार कहते हुए उस कदर्य ब्राह्मण के अत्यन्त दीन वचन को सुन कर माली दयार्द्र चित्त हो गया ॥ ४८ ॥

शरण में आये हुए उस दीन ब्राह्मण पर माली ने दया कर कहा कि हे कदर्य! इस समय तुम इसी वाटिका में वास करो ॥ ४९ ॥

नगरवासियों से तिरस्कृत हुआ वह कदर्य उस माली के वचन को सुन प्रसन्न होकर उस वाटिका में रहने लगा ॥ ५० ॥

नित्य उस माली के पास वास करता और उसकी आज्ञा का पालन करता था, इसलिये उस कदर्य में माली ने दृढ़ विश्वाउस किया ॥ ५१ ॥

और उस कदर्य में अत्यन्त विश्वायस होने के कारण माली ने उस कदर्य ब्राह्मण को अपने से छोटा बगीचे का मालिक बना दिया ॥ ५२ ॥

इसके बाद उस माली ने यह निश्चय किया कि कदर्य हमारा आदमी है, इसलिये वाटिका की चिन्ता को छोड़कर राजमन्दिर का सेवन किया ॥ ५३ ॥

राजा के यहाँ उस माली को बहुत कार्य रहता था इसलिए और पराधीनतावश वाटिका की ओर वह कभी नहीं आया ॥ ५४ ॥

वह अत्यन्त दुर्बल कदर्य उस वाटिका के फलों को आनन्द से अच्छी तरह भोजन करता और लोभवश बचे हुए फलों को बेंच देता था ॥ ५५ ॥

निर्भय पूर्वक उस बगीचा के फलों को बेंचकर सब धन स्वयं ले लेता था, जब माली पूछता था तो उसके सामने झूठ बोलता था कि ॥ ५६ ॥

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भ्रामं भ्रामं च नगरं याचं याचं च भैक्षकम्‌, घासं घासं दिवारात्रौ परिचर्यामिते वनम्‌ ॥ ५७ ॥

तथाप्यस्य फलान्याशन्मासं गच्छन्ति पक्षिणः, पश्याश्न न्तो मया केचिन्नाशिताः खचरा भृशम्‌ ॥ ५८ ॥

तेषां मांसानि पक्षाणि पतितानीह सर्वतः, तद्‌दृष्ट्वाऽतीव विश्वास्य जगाम वाटिकापतिः ॥ ५९ ॥

एवं प्रवर्तमानस्य जग्मुर्वर्षाणि दुर्मतेः, सप्ताशीतिः कदर्यस्य जराजर्जरितस्ततः ॥ ६० ॥

ममार मूढधीरेतत्र नैवाप वह्निदारुणी, नाभुक्तं  क्षीयते पापमिति वेदविदोऽवदन्‌ ॥ ६१ ॥

तस्माद्धाहा प्रकुर्वाणे मुद्गराघातपीडितः, अजीगमन्महामार्गं कृच्छ्रेणातिविभीषणम्‌ ॥ ६२ ॥

स्मरन्‌ पूर्वकृतं कर्म प्रलपन्‌ बुद्‌बुदाक्षरम्‌, अहो मे पश्यताज्ञानं कदर्यस्य च दुर्मतेः ॥ ६३ ॥

आसाद्य मानुषं देहं दुर्लभं त्रिदशैरपि, खण्डेऽस्मिन्‌ भारते पुण्ये कृष्णसारमृगान्विते ॥ ६४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

नगर मैं फिरता-फिरता, भिक्षा माँगता-माँगता और खाता-खाता तुम्हारे वन की रक्षा करता हूँ ॥ ५७ ॥

फिर भी पक्षीगण इस बगीचे के फलों को महीने में आकर खा जाते हैं, देखिये, मैंने कुछ खाते हुए पक्षियों को अच्छी तरह से मार डाला है ॥ ५८ ॥

यहाँ चारों तरफ उन पक्षियों के मांस और पंख गिरे पड़े हैं उन मांस के टुकड़ों को और पंखों को देखकर उसका अत्यन्त विश्वा स कर माली चला गया ॥ ५९ ॥

इस प्रकार अत्यन्त जर्जर उस दुष्ट कदर्य के वास करते ८७ (सत्तासी) वर्ष व्यतीत हो गये। बाद ॥ ६० ॥

वह मूढ़ वहाँ ही मर गया और उसको अग्नि और काष्ठ भी नहीं मिला, बिना भोगे पापों का नाश नहीं होता है ऐसा वेद के जानने वाले कहते हैं ॥ ६१ ॥

इस कारण हाहाकार करता हुआ यमद्रूतों के मुद्‌गर के आघात से पीड़ित कष्ट के साथ अत्यन्त भयंकर दीर्घ मार्ग को गया ॥ ६२ ॥

पूर्व में किये हुए कर्मों को स्मरण करता हुआ और प्रलाप करता हुआ तथा बुद्‌बुद‌ अक्षरों में कहता हुआ कि अहो! आश्चर्य है। मुझ दुष्ट कदर्य के अज्ञान को देखिये ॥ ६३ ॥

कृष्णसार से युक्त पवित्र इस भारतखण्ड में देवताओं को भी दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर ॥ ६४ ॥

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किं कृतं धनलोभेन व्यर्थं नीतं जनुर्मया, तद्धनं तु पराधीनं चिरकालार्जितं मया ॥ ६५ ॥

किं करोमि पराधीनः कालपाशावृतोऽधुना, मानुषं जनुरासाद्य न किञ्चित्‌ कृतवान्‌ शुभम्‌ ॥ ६६ ॥

न दत्तं न हुतं वह्नौ न तप्तं  हिमगह्वरे, न गाङ्गं सेवितं तोयं माघे मकरगे रवौ ॥ ६७ ॥

उपवासत्रयं चान्ते न कृतं पुरुषोत्तमे, न कृतं कार्तिके प्रातःस्नानं सतारकागणम्‌ ॥ ६८ ॥

न पुष्टश्च मया देहो मानुषः पुरुषार्थदः, अहो ये सञ्चितं द्रव्यं स्थितं भूमौ निरर्थकम्‌ ॥ ६९ ॥

जीवो जीवनपर्यन्तं क्लेशितो दुष्टबुद्धिना, कदाचिज्जाठरो वह्निर्नान्नैरनिर्वापितो मया ॥ ७० ॥

नापि सद्वसनाच्छन्नः स्वदेहः पर्वणि क्कचित्‌, न ज्ञातयो बान्धवाश्च स्वजना न स्वसा अपि ॥ ७१ ॥

जामाता च सुता वापि पिता माताऽनुजास्तथा, पतिव्रताऽपि गृहिणी ब्राह्मणा नैव तोषिताः ॥ ७२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

मैंने धन के लोभ से क्या किया? अर्थात्‌ कुछ भी नहीं किया और मैंने जन्म व्यर्थ में खोया तथा मैंने बहुत दिनों में जो धन संचय किया था वह धन तो पराधीन हो गया ॥ ६५ ॥

इस समय कालपाश में बँधा पराधीन होकर क्या करूँ? प्रथम मनुष्य शरीर को प्राप्त कर कुछ भी पुण्यकर्म नहीं किया ॥ ६६ ॥

न तो दान दिया, न अग्नि में आहुति दी, न हिमालय की गुफा में जाकर तपस्या की, मकर के सूर्य होने पर माघ मास में न गंगा के जल का सेवन किया ॥ ६७ ॥

पुरुषोत्तम मास के अन्त में तीन दिन उपवास भी नहीं किया और कार्तिक मास में तारागण के रहते प्रातः स्नान नहीं किया ॥ ६८ ॥

मैंने पुरुषार्थ को देनेवाले मनुष्य शरीर को भी पुष्ट नहीं किया। अहो! आश्चर्य है, मेरा संचित धन पृथिवी में निरर्थक गड़ा रह गया ॥ ६९ ॥

दुष्ट बुद्धि होने के कारण जीवनपर्यन्त जीव को कष्ट दिया और मैंने जठराग्नि को भी कभी अन्न से तृप्त नहीं किया ॥ ७० ॥

किसी पर्व के समय भी उत्तम वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं किया, न तो जाति के लोगों को, न बान्धवों को, न स्वजनों को, न बहिनों को ॥ ७१ ॥

न दामाद को, न कन्या को, न पिता-माता, छोटे भाई को, न पतिव्रता स्त्री को, न ब्राह्मणों को प्रसन्न किया ॥ ७२ ॥

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मिष्ठान्नै नेकवारं च तर्पिता न मया क्कचित्‌, एवं विलपमानं तं निन्युः कीनाशसन्निधिम्‌ ॥ ७३ ॥

तं दृष्ट्वा चित्रगुप्तस्तु विलोक्यैतच्छुभाशुभम्‌, अवोचत्‌ स्वामिनं धर्मं कदर्योऽयं द्विजाधमः ॥ ७४ ॥

न किञ्चित्‌ सुकृतं त्वस्य धनुलुब्धस्य दुर्मतेः, असावचीकरत्‌ पापं पुष्कलं वाटिकास्थितः ॥ ७५ ॥

अचूचुरत्‌ फलान्यद्धा विश्वस्तो वाटिकापतेः, ततो जघास तान्येव पक्कानि यानि यानि च ॥ ७६ ॥

व्यक्रीणादवशिष्टानि धनलोभेन दुर्मतिः, फलचौर्यकृतं पापं विश्वासघातजं परम्‌ ॥ ७७ ॥

एतत्पापद्वयं चास्मिन्नत्युग्रं वर्तते प्रभो, अन्यान्यपि च पापानि सन्त्यस्मिन्‌ विविधानि च ॥ ७८ ॥

नारद उवाच :-

इत्थं निशम्य विधिनन्दनचित्रगुप्तवाक्यं क्रुद्धा प्रबलयाप्लुतधर्मराजः, आहैष यातु कपिजन्मसहस्रकृत्यो विश्वासघातकृतिजं फलमस्य पश्चात्‌ ॥ ७९ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इन लोगों को एक बार भी मिठाई से कभी तृप्त नहीं किया, इस प्रकार विलाप करते हुए उस कदर्य को यमदूत यमराज के समीप ले गये ॥ ७३ ॥

उसको देखकर चित्रगुप्त ने उसके पाप-पुण्य को देखा और अपने स्वामी धर्मराज से कहा कि हे महाराज! यह ब्राह्मणों में अधम कृपण है ॥ ७४ ॥

धन के लोभी इस दुष्ट कदर्य का कुछ भी पुण्य नहीं है, वाटिका में रह कर इसने बहुत पाप किया है ॥ ७५ ॥

माली का विश्वा्सपात्र बन कर साक्षात्‌ स्वयं फलों को चोराया और जो-जो पके हुए फल थे उनको खाया ॥ ७६ ॥

और जो खाने से बचे हुए फल थे उनको इस दुष्ट ने धन के लोभ से बेच डाला, एक फलों के चोरी का पाप, दूसरा विश्वाखसघात का पाप ॥ ७७ ॥

हे प्रभो! ये दो पाप इस कृपण में अत्यन्त उग्र हैं और भी इसमें कई प्रकार के अनेक पाप हैं ॥ ७८ ॥

नारद मुनि बोले – इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त के वचन को सुन कर अत्यन्त क्रोध से युक्त धर्मराज ने कहा कि यह कदर्य एक हजार बार वानर योनि में जाय और विश्वा सघात का फल इसको बाद होवेगा ॥ ७९ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

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