🌷 अध्याय २३ – दृढधन्वोपाख्याने 🌷

 


राजोवाच :-

किं फलं दीपदानस्य मासे श्रीपुरुषोत्तमे, तन्मे वद मुनिश्रेष्ठ कृपया दीनवत्सल ॥ १ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इत्थं विज्ञापितः प्राह बाल्मीकिर्मुनिसत्तमः, प्रवृद्धहर्षो राजानं विनीतं प्रहसन्निव ॥ २ ॥

बाल्मीकिरुवाच :-

श्रृणुष्व राजशार्दूल कथां पापप्रणाशिनीम्‌, यां श्रुत्वा विलयं याति पापं पञ्चविधं महत्‌ ॥ ३ ॥

सौभाग्यनगरे राजा चित्रबाहुरिति श्रुतः, सत्यसन्धो महाप्राज्ञश्चासीच्छूरतरः परः ॥ ४ ॥

सहिष्णुः सर्वधर्मज्ञः शीलरूपदयान्वितः, ब्रह्मण्यो भगवद्भक्तः कथाश्रवणतत्परः ॥ ५ ॥

स्वदारनिरतः शश्वत्‌ पशुपुत्रसमन्वितः, चतुरङ्गबलोपेतः समृद्धया धनदोपमः ॥ ६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

दृढ़धन्वा राजा बोला – हे मुनियों में श्रेष्ठ! हे दीनों पर दया करने वाले! श्रीपुरुषोत्तम मास में दीप-दान का फल क्या है? सो कृपा करके मुझसे कहिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार राजा दृढ़धन्वा के पूछने पर अत्यन्त प्रसन्न, मुनियों में श्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि ने हँसते हुए विनीत अत्यन्त नम्र राजा दृढ़धन्वा से कहा ॥ २ ॥

बाल्मीकि मुनि बोले – हे राजाओं में सिंहसदृश पराक्रमवाले! पापों का नाश करने वाली कथा को सुनिये जिसके सुनने से पाँच प्रकार के महान्‌ पाप नाश को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥

सौभाग्य नगर में चित्रबाहु नाम से प्रसिद्ध, बड़ा बुद्धिमान्‌, अत्यन्त बलवान्‌ राजा था ॥ ४ ॥

वह क्षमाशील, समस्त धर्मों को जानने वाला, शील रूप और दया से युक्त, ब्राह्मणों का भक्त, भगवान्‌ का भक्त, कथा के श्रवण में तत्पर ॥ ५ ॥

हमेशा अपनी स्त्री में प्रेम करने वाला, पशु पुत्र से युक्त, चतुरंगिणी सेना से युक्त, ऐश्वर्य में कुबेर के समान था ॥ ६ ॥

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तस्य भार्या चन्द्रकला चतुःषष्टिकलान्विता, पतिव्रता महाभागा भगवद्भक्तिसंयुता ॥ ७ ॥

तया सह महीपालो बुभुजे मेदिनीं युवा, विना श्रीकृष्णदें स नैव जानाति दैवतम्‌ ॥ ८ ॥

एकस्मिन्दिवसे राजा चित्रबाहुर्महीपतिः, दृष्ट्वा समागतं दूरादगस्त्यं मुनिपङ्गवम्‌ ॥ ९ ॥

प्रणम्य दण्डवद्भूमौ विधिना तमपूजयत्‌, कल्पयित्वाऽऽसनं भक्त्या तस्थौ मुनिवराग्रतः ॥ १० ॥

विनयावनतो भूत्वा जगाद मुनिसत्तमम्‌, राजोवाच, अद्य मे सफलं जन्म ह्यद्य मे सफलं दिनम्‌ ॥ ११॥

अद्य में सफलं राज्यमद्य में सफलं गृहम्‌, यस्त्वं समागतो मेऽद्य गृहे श्रीकृष्णसेवकः ॥ १२ ॥

मुक्तोऽहं पापसङ्घाताद्यत्त्वयाऽहं निरीक्षितः, तुभ्यं समर्पितं राज्यं गजाश्वरथसंयुतम्‌ ॥ १३ ॥

वैष्णवोऽसि मुनिश्रेष्ठ नास्त्यदेयं मया तव, मेरुतुल्यं भवेत्‌ स्वल्पं वैष्णवाय समर्पितम्‌ ॥ १४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उसकी चन्द्रकला नाम की स्त्री चौंसठ कला को जानने वाली, पतिव्रता, महान्‌ भाग्यवती, भगवान्‌ की भक्ति को करने वाली थी ॥ ७ ॥

उसके साथ युवा चित्रबाहु राजा पृथ्वी का भोग करने लगा, बिना श्रीकृष्ण के दूसरे देवता को नहीं जानता था ॥ ८ ॥

एक दिन पृथिवीपति राजा चित्रबाहु ने दूर से ही आये हुए मुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्य मुनि को देख कर ॥ ९ ॥

पृथिवी में दण्डवत्‌ प्रणाम कर उनकी विधिपूर्वक पूजा की, और भक्ति से आसन देकर मुनिश्रेष्ठ के सम्मुख बैठ गया ॥ १० ॥

विनय से नम्र होकर मुनिश्रेष्ठ से कहा, राजा बोला – आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा दिन सफल हुआ ॥ ११ ॥

आज मेरा राज्य सफल हुआ, आज मेरा गृह सफल हुआ जो आप श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक आज मेरे गृह में आये हैं ॥ १२ ॥

आपसे देखा गया मैं तापपुञ्जष से मुक्त हो गया, आपको हाथी घोड़े रथ से युक्त समस्त राज्य समर्पण किया ॥ १३ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! आप वैष्णव हो, आपके लिये कोई भी अदेय वस्तु नहीं है, वैष्णव को थोड़ा भी दिया हुआ मेरु पर्वत के समान होता है ॥ १४ ॥

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कपर्दिकाप्रमाणं तु व्यञ्जनं वान्नमुत्तम्‌, न यच्छति दिने यस्तु वैष्णवाय द्विजन्मने ॥ १५ ॥

तद्दिनं विफलं तस्य कथितं वेदपारगैः, विष्णुभक्ताश्च ये केचित्‌ सर्वे पूज्या द्विजातयः ॥ १६ ॥

तेषां सम्भावना कार्या वाङ्मनः कायकर्मभिः, कथितं मम गर्गेण गौतमेन सुमन्तुना ॥ १७ ॥

तावत्प्रभा च ताराणां यावन्नोदयते रविः, तावदन्ये द्विजन्मानो यावन्नायाति वैष्णवः ॥ १८ ॥

अगस्त्य उवाच :-

चित्रबाहो महाभाग धन्यस्त्वं साम्प्रतं नृप, इमा धन्याः प्रजाः सर्वा यस्त्वं रक्षसि वैष्णवम्‌ ॥ १९ ॥

तस्मिन्‌ राष्ट्रे न वस्तव्यं यस्य राजा न वैष्णवः, वरो वासो वने शून्ये न तु राष्ट्रेव ह्यवैष्णवे ॥ २० ॥

चक्षुर्हीनो यथा देहः पतिहीना यथा प्रिया, निरक्षरो यथा विप्रस्तथा राष्ट्रमवैष्णवम्‌ ॥ २१ ॥

दन्तहीनो यथा हस्ती पक्षहीनो यथा खगः, द्वादशी दशमीविद्धा तथा राष्ट्रमवैष्णवम्‌ ॥ २२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जो कौड़ी के बराबर शाक अथवा उत्तम अन्न जिस दिन वैष्णव ब्राह्मण को नहीं देता है ॥ १५ ॥

वह दिन उसका विफल है, ऐसा वेद के जाननेवालों ने कहा है, जो कोई द्विजाति विष्णुभक्त हों वे सब पूज्य हैं ॥ १६ ॥

उनका वाणी मन कर्म से सत्कार करना चाहिये, ऐसा मुझसे गर्ग, गौतम, सुमन्तु, ऋषि ने कहा है ॥ १७ ॥

जब तक सूर्योदय नहीं होता है तभी तक तारागण की प्रभा रहती है, जब तक वैष्णव ब्राह्मण नहीं आता है, तभी तक दूसरे ब्राह्मण कहे गये हैं ॥ १८ ॥

अगस्त्य मुनि बोले – हे चित्रबाहो! हे महाभाग! हे नृप इस समय तुम धन्य हो, ये सब प्रजा धन्य हैं जो तुम वैष्णवों की रक्षा करते हो ॥ १९ ॥

जो राज्य वैष्णव का नहीं हो उसके राज्य में वास नहीं करना, शून्य वन में वास करना अच्छा है, परन्तु अवैष्णव के राज्य में रहना अच्छा नहीं है ॥ २० ॥

जिस प्रकार नेत्रहीन शरीर, पतिहीन स्त्री, बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण निन्द्य है वैसे ही वैष्णव रहित देश निन्द्य है ॥ २१ ॥

जैसे दाँत के बिना हाथी, पंख के बिना पक्षी, दशमीविद्धा द्वादशी (एकादशी) कही गई है वैसे ही वैष्णव रहित देश है ॥ २२ ॥

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दर्भहीना यथा सन्ध्या तिलहीनं च तर्पणम्‌, वृत्त्यर्थं देवसेवा च तथा राष्ट्रमवैष्णवम्‌ ॥ २३ ॥

सकेशा विधवा यद्वद्‌व्रतं स्ना‌नविवजितम्‌, शूद्रश्च ब्राह्मणीगामी तथा राष्ट्रमवैष्णवम्‌ ॥ २४ ॥

स राजा प्रोच्यते सद्भिर्यः श्रीकृष्णपदाश्रयः, तद्राष्ट्रं वर्धते नित्यं सुखी भवति तत्प्रजा ॥ २५ ॥

दृष्टिर्मे सफला राजन्‌ यन्मया त्वं निरीक्षतः, अद्य मे सफला वाणी ह्यच्युते यत्त्वा सह॥ २६ ॥

इदं राज्यं त्वया राजन्‌ प्रकर्त्तव्यं ममाज्ञया, प्रतिष्ठितो मया राज्ये गमिष्याम्यस्तु स्वस्ति ते ॥ २७ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इत्युक्त्या गन्तुकामं तमगत्स्यं मुनिपुङ्गवम्‌, ननाम परया भक्त्या महिषी सा पतिव्रता ॥ २८ ॥

अगस्त्य उवाच :-

अवैधव्यं सदा तेऽस्तु भक्त्या भज पतिं शुभे, दृढा तेऽस्तु सदा भक्तिः श्रीगोपीजनवल्लभे ॥ २९ ॥

हिंदी अनुवाद :-

जैसे कुशा रहित सन्ध्या, तिलहीन तर्पण, वृत्ति के लिये देवता की सेवा है वैसे ही वैष्णव रहित देश कहा है ॥ २३ ॥

जैसे केशों को धारण करनेवाली विधवा स्त्री, स्नान रहित व्रत, ब्राह्मणी में गमन करनेवाला शूद्र है वैसे ही बिना वैष्णव का राष्ट्र निन्द्य है ॥ २४ ॥

जो श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का आश्रय करने वाला है सत्पुरुषों से राजा कहा गया है उसका राष्ट्र हमेशा वृद्धि को प्राप्त होता है और उसकी प्रजा सुखी होती है ॥ २५ ॥

हे राजन्‌! जो मैंने तुमको देखा इसलिए मेरी दृष्टि सफल हुई, भगवद्भक्त आपके साथ बात करने से आज मेरी वाणी सफल हुई ॥ २६ ॥

हे राजन्‌! मेरी आज्ञा से यह राज्य तुमको करना चाहिए, मैंने इस राज्य में तुमको प्रतिष्ठित किया, तुम्हारा कल्याण हो मैं जाऊँगा ॥ २७ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार कह कर जाने की इच्छा करनेवाले श्रेष्ठ मुनि अगस्त्य को चित्रबाहु राजा की पतिव्रता स्त्री ने परमभक्ति के साथ प्रणाम किया ॥ २८ ॥

अगस्त्य मुनि बोले – हे शुभे! तू सदा सौभाग्यवती हो और भक्ति से पति की सेवा कर, श्रीगोपीजन के वल्लरभ श्रीकृष्णचन्द्र में तेरी सदा दृढ़ भक्ति हो ॥ २९ ॥

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इत्थमाशीर्ददानं तं भूयः प्राह महीपतिः, बद्धाञ्जशलिपुटो भूत्वा विनयानतकन्धरः ॥ ३० ॥

चित्रबाहुरुवाच :-

विपुला मे कथं लक्ष्मीः कथं राज्यमकण्टकम्‌, पतिव्रता कथं पत्नी किं कृतं सुकृतं मया ॥ ३१ ॥

एतन्मे ब्रूहि विप्रेन्द्र तवाहं शरणं गतः, करामलकवत्सर्वं जानासि त्वं मुनीश्वर ॥ ३२ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

इत्थमावेदितो राज्ञा ह्यगस्त्यो मुनिपुङ्गवः, समाहितमना भूत्वा जगाद नृपसत्तमम्‌ ॥ ३३ ॥

अगस्त्य उवाच :-

मया विलोकितं सर्वं प्राक्तनं चरितं तव, तत्सर्वं कथयाम्यद्य सेतिहासं पुरातनम्‌ ॥ ३४ ॥

चमत्कारपुरे रम्ये मणिग्रीवाभिधानभृत्‌, त्वमभूः शूद्रजातीयो जीवहिंसापरायणः ॥ ३५ ॥

नास्तिको दुष्टचारित्रः परदारप्रधर्षकः, कृतध्नो दुर्विनीतश्च शिष्टाचारविवर्जितः ॥ ३६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार आशीर्वाद देते हुए अगस्त्य ऋषि से विनयपूर्वक शिर नवा कर और अञ्ज लि बाँध कर चित्रबाहु राजा ने फिर कहा ॥ ३० ॥

चित्रबाहु बोला – हे विप्रेन्द्र! यह विपुल लक्ष्मी कैसे हुई? निष्कण्टक राज्य कैसे हुआ? यह मेरी स्त्री इतनी पतिव्रता कैसे हुई? और मैंने कौन-सा पुण्य किया था? ॥ ३१ ॥

हे विप्रेन्द्र! यह सब मेरे से आप कहिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे मुनीश्वर! आप हाथ में स्थित दर्पण के समान सब जानते हो ॥ ३२ ॥

श्रीनारायण बोले – इस प्रकार राजा चित्रबाहु के कहने पर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य एकाग्रचित्त होकर राजश्रेष्ठ चित्रबाहु से बोले ॥ ३३ ॥

अगस्त्य मुनि बोले – हे राजन्‌! मैंने तुम्हारे पूर्वजन्म का चरित्र देख लिया है, इतिहास के सहित प्राचीन उस चरित्र को कहता हूँ ॥ ३४ ॥

सुन्दर चमत्कार पुर में शूद्र जाति में जीव हिंसा करने में तत्पर मणिग्रीव कामधारी तुम हुए ॥ ३५ ॥

सो तुम नास्तिक, दुष्टचरित्र वाले, दूसरे की स्त्री को हरण करनेवाले, कृतध्न, दुर्विनीत, शिष्टाचार से रहित हुए ॥ ३६ ॥

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या चेयं भवतो भार्या पूर्वजन्मनि सुन्दरी, कर्मणा मनसा वाचा पतिसेवापरायणा ॥ ३७ ॥

पतिव्रता महाभागा धर्मनिष्ठा मनस्विनी, भावं न कुरुते दुष्टं तवोपरि कदाचन ॥ ३८ ॥

ज्ञातिभिस्त्वं परित्यक्तो बन्धुभिः पापकर्मकृत्‌, राज्ञा क्रुद्धेन ते सर्वं गृहीतं धनमुत्तमम्‌ ॥ ३९ ॥

ततोऽवशिष्टं यत्‌ किञ्चिद्‌ गृहीतं ज्ञातिभिस्तदा, गते द्रव्ये धनाकाङ्क्षा तवाऽऽसीद्विपुला तदा ॥ ४० ॥

क्षीयमाणे धने साध्वी न त्वामत्यजदुन्मनाः, एवं तिरस्कृतः सर्वैर्गतवान्निर्जनं वनम्‌ ॥ ४१ ॥

हत्वा जीवाननेकांश्च त्वं चकर्थात्मपोषणम्‌, एवं वर्तयतस्तस्य पत्न्या् सह महीपते ॥ ४२ ॥

एकदा धनुरुद्यम्य मणिग्रीवो वनं गतः, बहुव्यालमृगाकीर्णं मृगमांसजिघृक्षया ॥ ४३ ॥

तस्मिन्निर्मानुषेऽरण्ये मध्ये मार्गं महामुनिः, उग्रदेव इतिख्यातो दिङ्‌मूढो विह्वलोऽभवत्‌ ॥ ४४ ॥

हिंदी अनुवाद :-

और तुम्हारी यह जो स्त्री है यही पूर्व जन्म में भी स्त्री थी, यह कर्म, मन और वचन से पतिसेवा में परायण थी ॥ ३७ ॥

पतिव्रता, महाभागा, धर्म में प्रेम करनेवाली, मनस्विनी इसने कभी भी तुम्हारे विषय में दुष्टभाव नहीं किया ॥ ३८ ॥

पापकर्म को करनेवाले तुम्हारा जाति और बान्धवों ने त्याग कर दिया और क्रुद्ध होकर राजा ने सब उत्तम धन ले लिया ॥ ३९ ॥

फिर उस समय बचा हुआ जो कुछ अवशेष धन था उसको जातिवालों ने भी लिया, तब उस समय धन के चले जाने से तुमको धन की भारी इच्छा हुई ॥ ४० ॥

परन्तु धन के नाश होने पर भी मन मलीन होकर इस पतिव्रता ने तुम्हारा त्याग नहीं किया, इस प्रकार सब लोगों से तिरस्कृत होने पर तुम निर्जन वन को गये ॥ ४१ ॥

हे महीपते! वन में जाकर अनेक पशुओं को मारकर अपनी आत्मा का रक्षण किया, इस प्रकार स्त्री के सहित जीवन निर्वाह करते हुए ॥ ४२ ॥

धनुष को उठाकर मणिग्रीव मृग के मांस को खाने की इच्छा से बहुत से सर्प और मृग से भरे हुए वन को गया ॥ ४३ ॥

उस मनुष्यरहित वन के मध्य मार्ग में उग्रदेव नाम के महामुनि दिशाज्ञान के नष्ट हो जाने से व्याकुल हो गये ॥ ४४ ॥

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तृषा सम्पीडितोऽत्यर्थं मध्यन्दिनगते रवौ, तत्रैव पतितो राजन्‌ मुमूर्षुरभवत्तदा ॥ ४५ ॥

तं दृष्ट्वा ते दया जाता दिग्भ्रष्टं  दुःखितं द्विजम्‌, उत्थाप्य तं द्विजन्मानं गृहीत्वा स्वाश्रमं गतः ॥ ४६ ॥

दम्पतिभ्यां कृता सेवा दुःखितस्य द्विजन्मनः, उग्रदेवो महायोगी मुहूर्तानन्तरं तदा ॥ ४७ ॥

अवाप्य चेतनां यत्र विस्मयं समजीगमत्‌‌, तत्रास्थोऽयं कुतश्चात्र केनानीतो वनान्तरम्‌ ॥ ४८ ॥

श्रीनारायण उवाच :-

मणिग्रीवोऽवदद्विप्रं रमणीयमिदं सरः, अत्रास्ते शीतलं वारि पद्मिनीपुष्पवासितम्‌ ॥ ४९ ॥

तत्र स्नात्वा जले शीते कृत्वा पौर्वाह्निकीः क्रियाः, कुरु ब्रह्मन्‌ फलाहारं पिब वारि सुशीतलम्‌ ॥ ५० ॥

सुखेन कुरु विश्रामं मया संरक्षितोऽधुना, उत्तिष्ठ त्वं मुनिश्रेष्ठ प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ ५१ ॥

अगस्त्य उवाच :-

लब्धसंज्ञस्तदा विप्र उग्रदेवो गतश्रमः, मणिग्रीववचः श्रुत्वा समुत्तस्थौ तृषातुरः ॥ ५२ ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे राजन्‌! मध्याह्न के समय तृषा से अत्यन्त पीड़ित हो वहाँ ही गिरकर मरणासन्न हो गये, उस समय ॥ ४५ ॥

रास्ते को भूले हुए उस दुःखित ब्राह्मण को देख कर तुमको दया आई, बाद उस ब्राह्मण को उठाकर और उसको साथ लेकर तुम अपने आश्रम को गये ॥ ४६ ॥

उस दुःखित ब्राह्मण की तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने सेवा की, एक मुहूर्त के बाद उस समय महायोगी उग्रदेव ॥ ४७ ॥

चैतन्यता को प्राप्त हो आश्चर्य करने लगे, कि मैं वहाँ था यहाँ कैसे आ गया? उस वन के बीच से कौन लाया? ॥ ४८ ॥

श्रीनारायण बोले – मणिग्रीव ने उस ब्राह्मण से कहा, कि यह सुन्दर तालाब है इसमें कमलिनी के पुष्प से सुगन्धित शीतल जल है ॥ ४९ ॥

हे ब्रह्मन्‌! उस शीतल जल में स्नान करके मध्याह्न की क्रिया करके फलाहार करें और सुन्दर शीतल जल का पान करें ॥ ५० ॥

इस समय मैंने रक्षा की है, आप सुख से विश्राम करें, हे मुनिश्रेष्ठ! आप उठिये और आप कृपा करने के योग्य हैं ॥ ५१ ॥

अगस्त्यजी बोले – उस समय उग्रदेव ब्राह्मण श्रमरहित सावधान हो मणिग्रीव का वचन सुन कर तृषा से व्याकुल हो उठा ॥ ५२ ॥

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मणिग्रीवभुजालम्बी जगाम सरसीतटम्‌, उपविष्टश्चित्रबाहो तत्तटे वटशोभिते ॥ ५३ ॥

विश्रम्य तत्क्षणं विप्रो वटच्छायामधिश्रितः, स्नात्वा नित्यविधिं कृत्वा वासुदेवमपूजयत्‌ ॥ ५४ ॥

देवान्‌ पितॄंश्च सन्तर्प्य पपौ नीरं सुशीतलम्‌, उग्रदेवस्ततः शीघ्रं वटमूलमुपाश्रितः ॥ ५५ ॥

मणिग्रीवः सपत्नीको ननाम मुनिसत्तमम्‌, विनयेनावदद्वाचमातिथ्यं कर्तुमुन्मनाः ॥ ५६ ॥

मणिग्रीव उवाच :-

अस्मत्सन्तारणायाद्य मदाश्रममुपागतः, ब्रह्मंस्त्वद्दर्शनादेव पापं मे विलयं गतम्‌ ॥ ५७ ॥

इत्युक्वा तं प्रियामाह मणिग्रीवो मुदान्वितः, अयि सुन्दरि पक्कानि स्वादूनि यानि यानि च ॥ ५८ ॥

तानि चूतफलानि त्वं शीघ्रमानय मा चिरम्‌, अन्यत्कन्दादि यत्किञ्चित्तदानय शुभानने ॥ ५९ ॥

निजनाथवचः श्रुत्वा फलान्यादाय सुन्दरी, कन्दादिकं च विप्राग्रे स्थापयामास हर्षतः ॥ ६० ॥

हिंदी अनुवाद :-

हे चित्रबाहो! मणिग्रीव की भुजा पकड़ कर वट-वृक्ष से शोभित तालाब के तट पर जाकर बैठ गये ॥ ५३ ॥

वट की छाया में बैठकर क्षणमात्र विश्राम कर स्नान और नित्यकर्म कर वासुदेव भगवान्‌ का पूजन किया ॥ ५४ ॥

देवता पितरों को तर्पण कर सुन्दर शीतल जल को पान कर उग्रदेव ब्राह्मण शीघ्र वट के मूल भाग में आकर बैठ गये ॥ ५५ ॥

पत्नी  सहित मणिग्रीव ने मुनिश्रेष्ठ उग्रदेव को नमस्कार किया और अतिथि सत्कार करने की इच्छा से विनययुक्त वाणी से बोला ॥ ५६ ॥

मणिग्रीव बोला – हे ब्रह्मन्‌! आज मुझको तारने के लिये आप मेरे आश्रम को आये, आपके दर्शन से मेरे पाप नष्ट हो गये ॥ ५७ ॥

इस प्रकार उस ब्राह्मण से कह कर प्रसन्न मणिग्रीव स्त्री से बोला – अयि! सुन्दरी! जो जो स्वादिष्ट पके हुए फल हैं ॥ ५८ ॥

उन आम्रफलों को तुम जल्दी लाओ विलम्ब मत करो, हे शुभानने! और जो कुछ कन्द आदि हों उनको भी लाओ ॥ ५९ ॥

इस प्रकार स्त्री अपने पति के वचन को सुन फलों को और कन्दादिकों को लाकर हर्ष से ब्राह्मण के सामने रखती हुई ॥ ६० ॥

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मणिग्रीवः पुनर्वाक्यमुवाच मुनिसत्तमम्‌, फलान्यङ्गीकुरु ब्रह्मन्‌ कृतार्थीकुरु दम्पती ॥ ६१ ॥

उग्रदेव उवाच :-

त्वामहं नैव जानामि कस्त्वं भो कथयस्व मे, अज्ञातस्य न भोक्तव्यं ब्राह्मणेन विजानता ॥ ६२ ॥

मणिग्रीव उवाच :-

शूद्रोऽहं द्विजशार्दूल मणिग्रीवाभिधानतः, स्वजनैर्जातिवर्गैश्चा परित्यक्तः स्वबान्धवैः ॥ ६३ ॥

इत्थं शूद्रवचः श्रुत्वा फलाहारमचीकरत्‌, उग्रदेवः प्रसन्नाशत्मा ततो नीरमपीपिबत्‌ ॥ ६४ ॥

ततो विप्रं सुखासीनं मणिग्रीवोऽवदद्वचः, लालयंस्तत्पदाम्भोजं स्वक्रोडस्थं मुहुर्मुहुः ॥ ६५ ॥

मणिग्रीव उवाच :-

क्व गन्तव्यं मुनिश्रेष्ठ कुतस्त्वं चेह कानने, निर्जने निर्जले दुष्टे हिंस्रजन्तुसमाकुले ॥ ६६ ॥

हिंदी अनुवाद :-

मणिग्रीव फिर मुनिश्रेष्ठ से वचन बोला कि हे ब्रह्मन्‌! इन फलों को ग्रहण कर मुझ स्त्री-पुरुष को कृतार्थ करें ॥ ६१ ॥

उग्रदेव ब्राह्मण बोला – तुमको मैं नहीं जानता हूँ, तुम कौन हो? सो मेरे से कहो, विद्वान्‌ ब्राह्मण को चाहिये कि अपरिचित का भोजन नहीं करे ॥ ६२ ॥

मणिग्रीव बोला – हे द्विजशार्दूल! मैं मणिग्रीव नामक शूद्र जाति का, स्वजनों से, जातिवालों से, अपने बान्धवों से त्यागा हुआ हूँ ॥ ६३ ॥

इस प्रकार शूद्र के वचन को सुनकर प्रसन्नात्मा उग्रदेव ने फलों को खाया, बाद जल को पीया ॥ ६४ ॥

ब्राह्मण को सुख से बैठे देखकर मणिग्रीव उग्रदेव ब्राह्मण के पैरों को अपनी गोद में रख कर दबाता हुआ फिर वचन बोला ॥ ६५ ॥

मणिग्रीव बोला – हे मुनिश्रेष्ठ! आप कहाँ जायँगे? इस निर्जन जलरहित हिंसक जन्तुओं से भरे दुष्ट वन में कहाँ से आये? ॥ ६६ ॥

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उग्रदेव उवाच :-

ब्राह्मणोऽहं महाभाग प्रयागं गन्तुमुत्सहे, अधुनाऽज्ञातमार्गेण सम्प्राप्तो दारुणे वने ॥ ६७ ॥

तत्र श्रान्तस्तृषाक्रान्तो मुर्भूर्षुरभवं क्षणात्‌, जीवितं मे त्वया दत्तं ब्रूहि किं ते ददाम्यहम्‌ ॥ ६८ ॥

अरण्यं केन दुःखेन दम्पतीभ्यां समाश्रितम्‌, तद्‌दुःखमपनेष्यामि मणिग्रीव वदस्व मे ॥ ६९ ॥

अगस्त्य उवाच :-

इत्युग्रदेववचनं ललितं निशम्य पत्न्याः  समक्षमनुनीय मुनीश्वरं तम्‌, दरिद्रयसागरतितीर्षुरसौ स्वकीयं वृत्तान्तमाह निजकर्मविपाकमुग्रम्‌ ॥ ७० ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

हिंदी अनुवाद :-

उग्रदेव बोला – हे महाभाग! मैं ब्राह्मण हूँ प्रयाग जाना चाहता हूँ, इस समय रास्ता न जानने के कारण भयंकर वन में चला आया हूँ॥ ६७ ॥

उस जगह थकावट और प्यास के कारण क्षणभर में ही मरणासन्नह हो गया, बाद तुमने मेरे को प्राण दिया, हे मणिग्रीव! बोलो, तुमको मैं क्या दूँ ॥ ६८ ॥

हे मणिग्रीव! तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने किस दुःख के कारण वन में आश्रय लिया है, उस दुःख को मुझसे कहो मैं उस दुःख को दूर करूँगा ॥ ६९ ॥

अगस्त्य मुनि बोले – इस प्रकार उग्रदेव ब्राह्मण के वचन को सुनकर अपनी स्त्री के सामने उस मुनीश्वोर उग्रदेव की प्रार्थना कर दरिद्रता समुद्र को पार करने की इच्छा वाले मणिग्रीव ने अपने कर्म के भयंकर फलरूप वृत्तान्त को कहा ॥ ७० ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

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