📚 वेदमूर्ति चि. देवव्रत महेश रेखे 📚

 



श्री काशी क्षेत्र में वेदमूर्ति चि. देवव्रत महेश रेखे र. अहिल्यानगर के मात्र 19 वर्षीय मेधावी युवा ने पूर्ण किया शुक्ल यजुर्वेद मध्यदीन शाखा का 'दंडक्रम पारायण'

19 वर्ष के देवव्रत महेश रेखे जी ने जो उपलब्धि हासिल की है, वो जानकर मन प्रफुल्लित हो गया है। उनकी ये सफलता हमारी आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बनने वाली है। 

भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर एक व्यक्ति को ये जानकर अच्छा लगेगा कि श्री देवव्रत ने शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा के 2000 मंत्रों वाले 'दण्डकर्म पारायणम्' को 50 दिनों तक बिना किसी अवरोध के पूर्ण किया है। इसमें अनेक वैदिक ऋचाएं और पवित्रतम शब्द उल्लेखित हैं, जिन्हें उन्होंने पूर्ण शुद्धता के साथ उच्चारित किया। ये उपलब्धि हमारी गुरु परंपरा का सबसे उत्तम रूप है। 

काशी से सांसद के रूप में, मुझे इस बात का गर्व है कि उनकी यह अद्भुत साधना इसी पवित्र धरती पर संपन्न हुई। उनके परिवार, संतों, मुनियों, विद्वानों और देशभर की उन सभी संस्थाओं को मेरा प्रणाम, जिन्होंने इस तपस्या में उन्हें सहयोग दिया।

'दंडक्रम पारायण' - विधि

निम्न व्हिडिओ में प्रकृतिपाठ का पदपाठ का विधिवत पाठ है, अधिक जानकारी के लिए उपरोक्त लिंक पर क्लिक करे





📚 अपौरुषेय एवं ईश्वरोक्त वाणी वेद 📚

 अपौरुषेय एवं ईश्वरोक्त वाणी वेद

 


वेदपाठ की ११ प्रकार की विधि और भेद

३ प्रकृतिपाठ में #संहितापाठ,#पदपाठ, #क्रमपाठ यह तीन प्रकार की विधि है। 

८ विकृतिपाठो में - #१जटा, #२माला, #३शिखा, #४रेखा, #५ध्वज, #६दण्ड, #७रथ, #८घन। यह आठ विकृतिपाठो की विधि है

 #जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथोघनः।

#अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा महर्षिभिः॥

गुरुमुख से प्रकृतिपाठ के संहिता के अध्ययन के बाद पदपाठ और क्रमपाठ  संहिता के साथ कुल ११ प्रकार की विधि है।

३ प्रकार की विधि प्रकृति पाठ की और 

८ प्रकार की विधि  विकृतिपाठ की 

संहितापाठ + १ पदपाठ,२ क्रमपाठ,३ जटापाठ ,४ मालापाठ, ५ शिखापाठ, ६ रेखापाठ, ७ ध्वजापाठ, ८ दण्डपाठ, ९ रथपाठ, १० घनपाठ  - वेद में उच्चारणभेद तथा अर्थभेद निवारण तथा उनका शुद्धता बनाये रखने के लिए विविध प्रकार के पाठ का व्यवस्था किया गया इतने प्रकार से वेदपाठ की पद्धति वैदिक काल मे थी । महर्षियाँ युगद्रष्टा होते है । अतः उन्हें पूर्व से ही यह ज्ञात था कि भविष्य में पाठभ्रम हो सकता है । जिसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार के अभेद्य व्युह का निर्माण किया गया था ।

शब्दराशिको सुरक्षित तथा पूर्णतः अपरिवर्तितरूपमें मानवसमाजके कल्याणके लिये अक्षुण्ण रखनेहेतु ऋषियोंने इसकी पाठ-विधियोंका निषेधों का रहस्यों का परंपरा से उपदेश किया है जो सार्वजनिक नहीं कर सकता । ये सभी पाठ ऋषियोंके द्वारा दृष्ट हैं,अतःअपौरुषेय हैं।इनमें तीन प्रकृतिपाठ तथा आठ विकृतिपाठ हैं।  

३ प्रकृतिपाठो में - १ संहितापाठ, २ पदपाठ, और क्रमपाठ ये तीन प्रकृतिपाठ हैं। 

८ विकृतिपाठो में - १ जटा, २ माला, ३ शिखा, ४ रेखा, ५ ध्वज, ६ दण्ड,७  रथ और ८ घन। यह आठ विकृतिपाठो की विधि है

#जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथोघनः।

#अष्टौ विकृतयःप्रोक्ताःक्रमपूर्वा महर्षिभिः ॥

इस प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि महर्षियोंने क्रमपाठ एवं विकृतिपाठोंका दर्शन करनेके अनन्तर उनका उपदेश किया। 

मधुशिक्षाके अनुसार 

#जटापाठके ऋषि व्याडि,

#मालापाठके ऋषि वसिष्ठ, 

#शिखापाठके ऋषि भृगु, 

#रेखापाठके ऋषि अष्टावक्र, 

#ध्वजापाठके ऋषि विश्वामित्र, 

#दण्डपाठके ऋषि पराशर, 

#रथपाठके ऋषि कश्यप तथा 

#घनपाठके द्रष्टा ऋषि अत्रि हैं। 

इस प्रकार ये सभी पाठ ऋषिदृष्ट होनेके कारण अपौरुषेय हैं ।इन पाठोंके द्वारा विविध प्रकारसे अभ्यास किये जानेके कारण वेदको आम्नाय ( 'आसमन्तात् म्नायते अभ्यस्यते') कहा गया है। इन विविध पाठोंकी महिमाके कारण ही आज भी मूल वेदशब्दराशि एक भी वर्ण अथवा मात्राका विपर्यय न होते हुए हमको उपलब्ध हो रही है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसी कोई अविच्छिन्न उच्चारण-परम्परा दृष्टिगोचर नहीं 5 होती। यह वैदिक शब्दराशिका वैशिष्ट्य है।

#प्रथम प्रकृतिपाठ संहितापाठ 

#संहितापाठ मे वर्णानामेकप्राण योगः संहिता' (कात्यायन), 'परः सन्निकर्षः संहिता' (पाणिनि), आदि सूत्रोंके द्वारा संहिताका स्वरूप बतलाया गया है। वेदवाणीका प्रथमपाठ जो गुरुओंकी परम्परासे अध्ययनीय है और जिसमें वर्षों तथा पदोंकी एकश्वासरूपता अर्थात् अत्यन्त सांनिध्यके लिये सम्प्रदायानुगत सन्धियों तथा अवसानों (निश्चित स्थलोंपर विराम) से युक्त एवं उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित इन तीन स्वरोंमें अपरिवर्तनीयतासे पठनीय वेदपाठको 'संहिता' कहते हैं। इसका स्वरूप है-

#गुरुक्रमेणाध्येतव्यः ससन्धिः सावसानकः । #त्रिस्वरोऽपरिवर्त्यश्च पाठ आद्यस्तु संहिता ॥ यह संहिता का वेदपाठ पुण्यप्रदा यमुना नदीका स्वरूप है तथा संहितापाठसे यमुनाके स्रानका पुण्य मिलता है- 'कालिन्दी संहिता श्रेया' (या० शि०)। संहितारूप वेदका पाठ सूर्यलोककी प्राप्ति कराता है-'संहिता नयते सूर्यपदम्, (या० शि०)। संहितापाठ पदपाठका मूल है। 'पदप्रकृतिः संहिता' (यास्क), 'संहिता पदप्रकृतिः' (दुर्गाचार्य) आदि वचनोंके आधारपर यह प्रथम प्रकृतिपाठ है। ऋषियोंने मन्त्रोंके संहितारूप वेदपाठका ही दर्शन किया और यज्ञ, देवता-स्तुति आदि कार्योंमें वेदके संहितापाठका प्रयोग किया जाता है। कहा भी गया है- =»'#आचार्याः सममिच्छन्ति पदच्छेदं तु पण्डिताः। संहिता प्रथम प्रकृतिपाठ है।

२ पदपाठ - संहिता पाठ से कठिन पदपाठ होता है, पदपाठ तथा उसकी महिमा 'अर्थः पदम् वा० प्रा०), 'सुप्तिङन्तं पदम्' (पाणिनि) आदि सूत्रोंके द्वारा पदका स्वरूप बतलाया गया है। इसका तात्पर्य है कि किसी अर्थका बोध करानेके लिये पाणिनीय आदि व्याकरणके अनुसार 'सुप्-तिङ्' आदि प्रत्ययोंसे युक्त वर्णात्मक इकाईको 'पद' कहते हैं। वेदके संहितापाठकी परम्पराके अनुसार स्वरवर्णोंकी सन्धिका विच्छेद करके वैदिक मन्त्रोंका सस्वर पाठ पदपाठ कहा जाता है।

वेदके संहितापाठका जिन ऋषियोंने दर्शन किया, उनका स्मरण विनियोग आदिमें किया जाता है। वस्तुतः सर्वप्रथम परमेश्वरने ही वेदशब्द-संहिताका दर्शन किया - तथा उन्होंने इसका उपदेश किया। इसी प्रकार पदपाठके आद्य द्रष्टा #रावण और क्रमपाठके बाभ्रव्य ऋषि हैं। मधुशिक्षाका वचन है-

#भगवान् संहितां प्राह पदपाठं तु रावणः । #बाभ्रव्यर्षिःक्रमं प्राह जटां व्याडिरवोचत् ॥

प्रत्येक शाखाके पृथक् पदपाठके ऋषि भी उल्लिखित हैं, यथा---

#ऋग्वेदकी शाकलशाखाके शाकल्य, #यजुर्वेदकी तैत्तिरीय शाखाके आत्रेय तथा #सामवेदकी कौथुमशाखाके गार्ग्य ऋषि पदपाठके द्रष्टा हैं। 

इसी प्रकार प्रातिशाख्यमें पदपाठ मे वेदों के मंत्रों को भिन्न पदों में विभाजित करके पढ़ा जाता है, प्रत्येक पद को अलग-अलग पढ़ाने के कारण वेदाध्ययन के मंत्रों का अर्थ और उच्चारण शुद्धि स्पष्टोच्चारण होता है। यह पाठ पुण्यप्रदा देवनदी सरस्वती का स्वरूप है इसलिए सरस्वती में स्नान करने का फल मिलता है। 'नवपदशय्या: एकादश पदभक्तय:' (या० शि० ) पदमुक्ता सरस्वती इस पाठ से चंद्रलोक की प्राप्ति होती है। पदं च शशिनः पदम्' (या० शि०)।एतरेय आरण्यकानुसार (३-१-३)  पदपाठ स्वर्गकामना की पूर्ति के लिए किया जाता है। यह ऋग्वेद प्रतिवर्गद्वय वृत्ति शाख्यानुसार है

वाराहपुराण अनुसार पदपाठ से तीन गुना पुण्य प्राप्त होता है। पदं च शशिनः पदम्' (या० शि०)। विद्वज्जन अर्थज्ञानकी सुविधाके लिये पदपाठको विशेषरूपसे ग्रहण करते हैं। वेदमन्त्रोंके पदपाठसे आराध्य देवके गुणोंका गान किया जाता है। तैत्तिरीय आदि अनेक शाखाओंमें संहिताके प्रत्येक पदका पदपाठमें साम्प्रदायिक उच्चारण है। ऋग्वेदमें भिन्न पदगर्भित पदोंमें अनानुपूर्वी संहिताको स्पष्ट पद-स्वरूप देकर पढ़ा जाता है। #शुक्लयजुर्वेदकी शाखाओंमें प्रातिशाख्यके नियमोंके अनुसार एकाधिक बार आये हुए विशेष पदोंको पदपाठमें विलुप्त कर दिया जाता है। शास्त्रीय परिभाषामें ऐसे विलुप्त पदोंको गलत्पद तथा ऐसे स्थलके पाठको संक्रम कहा जाता है। पदपाठमें प्रत्येक पदको अलग करनेके साथ यदि कोई पद दो पदोंके समाससे बना हो तो उसे माध्यन्दिनीय शाखामें 'इतिकरण' के साथ दोहरा करके स्पष्ट किया जाता है। प्रातिशाख्यके नियमोंके अनुसार कतिपय विभक्तियोंमें तथा वैदिक लोप, आगम, वर्णविकार, प्रकृतिभाव आदिमें भी 'इतिकरण' के साथ पदका मूल स्वरूप स्पष्ट किया जाता है। पदपाठमें स्वरवर्णोंकी सन्धिका विच्छेद तथा अवग्रह आदि विशेष विधियोंके प्रभावसे यह पाठ संहितासे भी अधिक कठिन हो जाता है। इन नियमोंके कारण ही यह पदच्छेद नहीं है, किंतु पदपाठ कहा जाता है। विकृतिपाठों का अध्ययनाध्यापन भी प्रचलित है । चरणव्यूह आदि ग्रन्थोंके (वारे शास्त्री प्रभृतिद्वारा सम्पादित) प्रामाणिक संस्करणोंमें विकृतियोंका उल्लेख होने के कारण अन्य शाखाओंमें भी विकृतिपाठ करना अत्यन्त प्रामाणिक है। 

स्कन्दपुराणके ब्रह्मखण्डानुसार- जगत्‌की आधारभूता वेदात्मिका गौ जटा-घन आदि विकृतियोंसे विभूषित है।

#सर्वस्याधारभूताया वत्सधेनुस्त्रयीमयी। 

#अस्यां प्रतिष्ठितं विश्वं विश्वहेतुश्च या मता ॥ #ऋक्पृष्ठासौ यजुर्मध्या सामकुक्षिपयोधरा। #इष्टापूर्तविषाणा च साधुसूक्ततनूरुहा ।। #शान्तिपुष्टि शकृन्मूत्रा वर्णपादप्रतिष्ठिता।

#उपजीव्यमाना जगतां पदक्रमजटाघनैः ।।

इसके द्वारा चतुर्वेदात्मिका त्रयीवाणी जटा-घन आदि विकृतिपाठोंसे प्राणियोंपर अनुग्रह करती है, यह स्पष्ट निर्देश है। विकृतिपाठ-सम्बन्धी इन वचनोंको वैदिक परम्परामें प्रामाणिक माना जाता है; क्योंकि वेदसम्मत स्मृतिवचनों तथा आचारोंका प्रामाण्य मीमांसा एवं धर्मशास्त्रमें सर्वांशतः माना गया है।

३ क्रमपाठ -  अपृक्त आदि विशेष स्थलों को छोड़कर दो दो पदों का सन्धि युक्त अवसान पर्यंत पाठ ही क्रम पाठ सिद्ध है संपूर्ण अध्याय के मंत्र क्रम का पुनरावर्तन करके आत्मसात करने के लिए पढ़ा जाता है । 

#द्वे द्वे पदे सन्दधात्युत्तरेणोत्तरभावसानमपृक्तवर्जनम् (वा०प्र०) आदि सूत्रों से क्रमपाठ का बोध होता है पाणिनि के धातुपाठ के अनुसार क्रमपाठ में भी एक एक पद को आगे बढ़ाकर पढने के कारण ही यह क्रमपाठ का बोध होता है। क्रमपाठ के दृष्टा #बाभ्रव्य ऋषि है।

प्रथम तीनप्रकार प्रकृतिपाठ और ८प्रकार विकृतिपाठ से वेदपाठ की विधि है - 


१संहिता,२पदपाठ,३क्रमपाठ ,५जटापाठ ,५मालापाठ,६शिखापाठ, ७रेखापाठ, ८ध्वजापाठ, ९दण्डपाठ, १०रथपाठ, ११घनपाठ 

८ विकृतिपाठो में - १ जटा, २ माला, ३ शिखा, ४ रेखा, ५ ध्वज, ६ दण्ड,७  रथ और ८ घन। यह आठ विकृतिपाठो की विधि है

#जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथोघनः।

#अष्टौ विकृतयःप्रोक्ताःक्रमपूर्वा महर्षिभिः ॥

इस प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि महर्षियोंने क्रमपाठ एवं विकृतिपाठोंका दर्शन करनेके अनन्तर उनका उपदेश किया।  मधुशिक्षाके अनुसार 

#जटापाठके ऋषि व्याडि,

#मालापाठके ऋषि वसिष्ठ, 

#शिखापाठके ऋषि भृगु, 

#रेखापाठके ऋषि अष्टावक्र, 

#ध्वजापाठके ऋषि विश्वामित्र, 

#दण्डपाठके ऋषि पराशर, 

#रथपाठके ऋषि कश्यप तथा 

#घनपाठके द्रष्टा ऋषि अत्रि हैं। 

इस प्रकार ये सभी पाठ ऋषिदृष्ट होनेके कारण अपौरुषेय हैं ।इन पाठोंके द्वारा विविध प्रकारसे अभ्यास किये जानेके कारण वेदको आम्नाय ( 'आसमन्तात् म्नायते अभ्यस्यते') कहा गया है। इन विविध पाठोंकी महिमाके कारण ही आज भी मूल वेदशब्दराशि एक भी वर्ण अथवा मात्राका विपर्यय न होते हुए हमको उपलब्ध हो रही है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसी कोई अविच्छिन्न उच्चारण-परम्परा दृष्टिगोचर नहीं 5 होती। यह वैदिक शब्दराशिका वैशिष्ट्य है।

#१जटापाठ - जटापाठ इस प्रथम विकृतिपाठमें दो पदोंको अनुक्रम तथा संक्रम इस प्रकार तीन बार सन्धिपूर्वक अवसानरहित पढ़ा जाता है। 

जैसे- 'विष्णोः', कर्माणि विष्णोर्विष्णोः कर्माणि।' इत्यादि। जटापाठ पञ्चसन्धियुक्त भी होता है। इसमें अनुक्रम, उत्क्रम, व्युत्क्रम, अभिक्रम तथा संक्रम-ये पाँच क्रम होते हैं। पदोंको संख्याके साथ प्रदर्शित करते हुए इसका स्वरूपे इस प्रकार है-'विष्णोः कर्माणि (अनुक्रम), कर्माणि, कर्माणि (उत्क्रम), कर्माणि विष्णोः (व्युत्क्रम), विष्णोर्विष्णोः (अभिक्रम) और विष्णोः कर्माणि (संक्रम)।'क्रमपाठ की विधि में भेद करके आत्मसात करने के लिए जटापाठ उपयुक्त है जो आत्मसंयम और ध्यान की शक्ति को बढ़ाता है।

#२मालापाठ -  इसके दो भेद हैं- 

#१ पुष्पमाला, #२ क्रममाला। 

अधिक प्रचलित पुष्पमालापाठमें जटाकी भाँति ही तीनों क्रम पढ़े जाते हैं, किंतु प्रत्येकके बीचमें विराम किया जाता है। जैसे- 'विष्णोः कर्माणि। कर्माणि विष्णोः। विष्णोः कर्माणि।' इत्यादि।

#३शिखापाठ - जटापाठके त्रिविध क्रमोंके बाद एक आगेका पद ग्रहण करनेपर शिखापाठ हो जाता है।जैसे- 'विष्णोः कर्माणि कर्माणि विष्णोर्विष्णोः कर्माणि पश्यत।' इत्यादि। 

#प्रथम अनुक्रम - विष्णोः कर्माणि। यतो व्रतानि।इन्द्रस्य युज्यः ।इन्द्रस्य। 

व्युत्क्रम-कर्माणि विष्णोः। व्रतानि यतः। युज्य

#द्वितीय अनुक्रम - विष्णोः कर्माणि। यतो व्रतानि।

#४रेखापाठ - रेखापाठ में आधी ऋचा अथवा सम्पूर्ण ऋचाके दो पदोंका क्रमपाठ, तीन पदोंका क्रमपाठ, चार पदोंका क्रमपाठ-इस प्रकार क्रमशः किया जाता है। इसी प्रकार व्युत्क्रममें भी करनेके बाद संक्रममें दो दो पदोंका ही पाठ होता है। प्रत्येक क्रमके आरम्भमें एक पूर्ववर्तिपद छोड़ते हुए अवसानपूर्वक यह पाठ होता है। जैसे- ओषधयः सं। समोषधयः । ओषधयः सं ॥ सं वदन्ते सोमेन। सोमेन वदन्ते सं। सं वदन्ते ॥ वदन्ते सोमेन सह राज्ञा। राज्ञा सह सोमेन वदन्ते। वदन्ते सोमेन । सोमेन सह। सह राज्ञा। इत्यादि

#५ ध्वजपाठ - ध्वजपाठ इसके अन्तर्गत प्रथम दो पदोंका क्रम तथा अन्तिम पदोंका क्रम, इस प्रकार साथ-साथ आदिसे अन्त और अन्तसे आदितक पाठ होता है। यह एक मन्त्रमें अथवा एक वर्गमें आदिसे अन्ततक हो सकता है। जैसे- ओषधयः सं। पारयामसीति पारयामसि। सं वदन्ते। राजन् पारयामसि। वदन्ते सोमेन। तं राजन्। इत्यादि।

#६दण्डपाठ-  दण्डपाठ अनुक्रमसे दो पदोंके पाठके अनन्तर व्युत्क्रममें क्रमशः एक-एक पद बढ़ाते हुए पाठ करना दण्डपाठ है। यह विधि अर्धचंतक चलती है। जैसे 'ओषधयः सं। समोषधयः। ओषधयः सं। सं वदन्ते ॥ वदन्ते समोषधयः । ओषधयः सं। सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन ॥ सोमेन वदन्ते समोषधयः ।' इत्यादि ।

#७रथपाठ - रथपाठ के तीन भेद हैं- १द्विचक्र, २ त्रिचक तथा ३ चतुश्चक्र। 

१द्विचक्र रथ अर्धचंशः होता है। 

२त्रिचक्र रथ समानपद संख्यावाले तीन पदोंकी गायत्री छन्दकी ऋचामें ही पादशः होता है। 

३चतुश्चक्र रथ भी पादशः होता है। 

त्रिचक्र रथका उदाहरण यह है-#प्रथम अनुक्रम - विष्णोः कर्माणि। यतो व्रतानि। इन्द्रस्य युज्यः ।

#व्युत्क्रम - कर्माणि विष्णोः। व्रतानि यतः। युज्य इन्द्रस्य।

#द्वितीय अनुक्रम - विष्णोः कर्माणि। यतो व्रतानि। इन्द्रस्य युज्यः। कर्माणि पश्यत। व्रतानि पस्पशे। युज्यः सखा।

#व्युत्क्रम - पश्यत कर्माणि विष्णोः । पस्पशे व्रतानि यतः। सखा युज्य इन्द्रस्य। इत्यादि

#८घनपाठ - घनपाठ-वैदिक विद्वानोंमें सर्वाधिक समादृत घनपाठ भी चार प्रकारका है। घनके दो भेद तथा घनवल्लभके भी दो भेद हैं। घनपाठमें शिखापाठ करके उसका विपर्यास करनेके बाद पुनः उन तीन पदोंका पाठ किया जाता है। जैसे 'ओषधयः सं समोषधय ओषधयः सं वदन्ते वदन्ते समोषधय ओषधयः सं वदन्ते ॥' इत्यादि। घनवल्लभमें पञ्चसन्धियुक्त पाठ होता है। अनुक्रम, उत्क्रम, व्युत्क्रम, अभिक्रम और संक्रम- इन पाँच प्रकारकी सन्धियोंसे युक्त होनेके कारण इसे पञ्चसन्धियुक्त घन भी कहते हैं। इसका उदाहरण इस प्रकार है-

'पावका नः। नो नः। नः पावका। पावका पावका। पावकानः। पावका नो नः पावका पावका नः सरस्वती सरस्वती नः पावका पावका नः सरस्वती।' इत्यादि।

वेदपाठ के प्रकारभेद ।

वेद में उच्चारणभेद तथा अर्थभेद निवारण तथा उनका शुद्धता बनाये रखने के लिए विविध प्रकार के पाठ का व्यवस्था किया गया है । वह इसप्रकार के हैं -

#संहितापाठ

1- पदपाठ ।

2- क्रम पाठ ।

3-जटा पाठ ।

4-घनपाठ ।

5-माला पाठ ।

6- शिखापाठ ।

7-रेखापाठ ।

8-ध्वजापाठ ।

9-दण्डपाठ ।

10-रथपाठ ।

इतने प्रकार से वेदपाठ की पद्धति वैदिक काल मे थी । महर्षियाँ युगद्रष्टा होते है । अतः उन्हें पूर्व से ही यह ज्ञात था कि भविष्य में पाठभ्रम हो सकता है । जिसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार के अभेद्य व्युह का निर्माण किया गया था ।




१ - 📚 महाभारतम् - आदिपर्व 📚 ✍

॥ श्रीहरिः ॥

🌷 महाभारतके आदिपर्व के प्रत्येक अध्यायकी पूरी विषयसूची 🌷

✍🏻 प्रस्तावना 

🙏🏻 नम्र निवेदन 🙏🏻

📚 महाभारतम् 📚

१.० - आदिपर्व - अनुक्रमणिका

१.१ - अनुक्रमणिकापर्वणि - प्रथमोऽध्यायः

१.२ - पर्वसंग्रहपर्वणि - द्वितीयोऽध्यायः

१.३ - पौष्यपर्वणि - तृतीयोऽध्यायः

१.४ - पौलोमपर्वणि कथाप्रवेशो नामचतुर्थोऽध्यायः

१.५ - पौलोमपर्वणि - पुलोमाग्निसंवादेपञ्चमोऽध्यायः

.६ - पौलोमपर्वणि - अग्निशापे षष्ठोऽध्यायः

.७ - पौलोमपर्वणि - अग्निशापमोचने सप्तमोऽध्यायः

.८ - पौलोमपर्वणि - प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः

.९ - पौलोमपर्वणि - प्रमद्वराजीवने नवमोऽध्यायः

.१० - पौलोमपर्वणि - रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः

.११ - पौलोमपर्वणि - डुण्डुभशापमोक्ष एकादशोऽध्यायः

.१२ - पौलोमपर्वणि - सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः

.१३ - आस्तीकपर्वणि - जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः

.१४ - आस्तीकपर्वणि - वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः

.१५ - आस्तीकपर्वणि - सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः

.१६ - आस्तीकपर्वणि - सार्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः

.१७ - आस्तीकपर्वणि - अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः

.१८ - आस्तीकपर्वणि - अमृतमन्थनेऽष्टादशोऽध्यायः

.१९ - आस्तीकपर्वणि - अमृतमन्थनसमाप्तिर्नामैकोनविंशोऽध्यायः

.२० - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे विंशोऽध्यायः

.२१ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे एकविंशतितमोऽध्यायः

.२२ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः

.२३ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे त्रयोविंशोऽध्यायः

.२४ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे चतुर्विशोऽध्यायः

.२५ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः

१.२६ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णेषड्विंशोऽध्यायः

१.२७ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णेसप्तविंशोऽध्यायः

१.२८ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णेअष्टाविंशोऽध्यायः

१.२९ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णेएकोनत्रिंशोऽध्यायः

१.३० - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे त्रिंशोऽध्यायः

१.३१ - आस्तीकपर्वणि - सौपर्णे एकत्रिंशोऽध्यायः


🌞 राघवयादवीयम् 🌕

 


राघवयादवीयम एक संस्कृत स्त्रोत्र है। यह कांचीपुरम के १७वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि द्वारा रचित एक अद्भुत ग्रन्थ है।

'राघवयादवीयम्' में एकसाथ पढ़ें 🌞 रामकथा और 🌕 कृष्णकथा 
 
राघवयादवीयम् ' एक ऐसा ग्रंथ जिसमें ...

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा, शुरू से अंत को पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा, अंत से शुरू की ओर पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे। जी हां, किसी भी भाषा के ऐसे विद्वान पूरी दुनिया में नहीं मिलेंगे।

इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल ३० श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी ३० श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं ६० श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है राघवयादवीयम। उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

अनुलोम श्लोक
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अनुलोम अर्थ
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूँ जिनके ह्रदय में सीताजी रहती हैं तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्रि की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापस लौटे।

विलोम श्लोक
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

विलोम अर्थ
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हू जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान हैं तथा जिनकी शोभा समस्त रत्नों की शोभा को हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

श्री वेंकटद्वारी
इसकी रचना श्री वेंकटद्वारी ने की थी जिनका जन्म कांचीपुरम के निकट अरसनीपलै में हुआ था। वे वेदान्त देशिक के अनुयायी थे। वे काव्यशास्त्र के पण्डित थे। उन्होने १४ ग्रन्थों की रचना की जिनमें से 'लक्ष्मीसहस्रम्' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कहते हैं कि इस ग्रन्थ की रचना पूर्ण होते ही उनकी दृष्टि वापस प्राप्त हो गयी थी।




दक्षिण भारत का अति दुर्लभ और ...

🌷 ॥ पुरुषोत्तम मास ॥ 🌷

शास्त्रों के अनुसार हर तीसरे साल सर्वोत्तम यानी पुरुषोत्तम मास की उत्पत्ति होती है। इस मास के दौरान जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। इस मास में श्रीकृष्‍ण, श्रीमद्‍भगवतगीता, श्रीराम कथा वाचन और विष्‍णु भगवान की उपासना की जा‍ती है। इस माह उपासना करने का अपना अलग ही महत्व है।

 पुरुषोत्तम मास में कथा पढ़ने, सुनने से भी बहुत लाभ प्राप्त होता है। इस मास में जमीन पर शयन, एक ही समय भोजन करने से अनंत फल प्राप्त होते हैं। सूर्य की बारह संक्रांति के आधार पर ही वर्ष में 12 माह होते हैं। प्रत्येक तीन वर्ष के बाद पुरुषोत्तम माह आता है।

 पंचांग के अनुसार सारे तिथि-वार, योग-करण, नक्षत्र के अलावा सभी मास के कोई न कोई देवता स्वामी है, किंतु पुरुषोत्तम मास का कोई स्वामी न होने के कारण सभी मंगल कार्य, शुभ और पितृ कार्य वर्जित माने जाते हैं।

 दान, धर्म, पूजन का महत्व : पुराणे शास्त्रों में बताया गया है कि यह माह व्रत-उपवास, दान-पूजा, यज्ञ-हवन और ध्यान करने से मनुष्य के सारे पाप कर्मों का क्षय होकर उन्हें कई गुना पुण्य फल प्राप्त होता है। इस माह आपके द्वारा दान दिया गया एक रुपया भी आपको सौ गुना फल देता है। 

 इसलिए अधिक मास के महत्व को ध्यान में रखकर इस माह दान-पुण्य देने का बहुत महत्व है। इस माह भागवत कथा, श्रीराम कथा श्रवण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। धार्मिक तीर्थ स्थलों पर स्नान करने से आपको मोक्ष की प्राप्ति और अनंत पुण्यों की प्राप्ति मिलती है।

पुरुषोत्तम मास का अर्थ जिस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती वह अधिक मास कहलाता होता है। इनमें खास तौर पर सर्व मांगलिक कार्य वर्जित माने गए है, लेकिन यह माह धर्म-कर्म के कार्य करने में बहुत फलदायी है। इस मास में किए गए धार्मिक आयोजन पुण्य फलदायी होने के साथ ही ये आपको दूसरे माहों की अपेक्षा करोड़ गुना अधिक फल देने वाले माने गए हैं।

 पुरुषोत्तम मास में दीपदान, वस्त्र एवं श्रीमद् भागवत कथा ग्रंथ दान का विशेष महत्व है। इस मास में दीपदान करने से धन-वैभव में वृद्घि होने के साथ आपको पुण्‍य लाभ भी प्राप्त होता है। 

🌷 ॥ पुरुषोत्तम मास माहात्म्य ॥ 🌷

🌼 अधिक मास का सम्पूर्ण फल 🌼

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अध्याय १ - शुकागमने

अध्याय २ - प्रश्‍नविधिर्नाम

अध्याय ३ - अधिमासस्य वैकुण्ठमापणं

अध्याय ४ - मलमासविज्ञप्तिर्नाम

अध्याय ५ - विष्णोर्गोलोकगमने

अध्याय ६ - पुरुषोत्तमविज्ञप्तिर्नाम

अध्याय ७ - अधिमासस्यैश्वर्यप्राप्तिर्नाम

अध्याय ८ - कुमारीविलापो

अध्याय ९ - दुर्वाससस्तपोवनगमनं

अध्याय १० - कुमारीशिवाराधनोद्यौगो

अध्याय ११ - शिववाक्यं

अध्याय १२ - पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो

अध्याय १३ - दृढधन्वोपाख्याने दृढधन्वनो मनःखेदो

अध्याय १४ - श्रीनारायणंनारदसंवादे

अध्याय १५ - दृढधन्वो्पाख्यासने सुदेववरप्रदानं 

अध्याय १६ -दृढधन्वोपाख्याने सुदेवप्रतिबोधो

अध्याय १७ - दृढधन्वोपाख्याने सुदेवविलापो

अध्याय १८ - सुदेवपुत्रजीवनं

अध्याय १९ - बाल्मीकिनोक्तदृढधन्वोपाख्याने पुरुषोत्तममासमाहात्म्यकथनं

अध्याय २० - आह्निककथनं

अध्याय २१ - पुरुषोत्तमपूजनविधि

अध्याय २२ - पुरुषोत्तमव्रतनियमकथनं

अध्याय २३ - दृढधन्वोपाख्याने

अध्याय २४ - दीपमाहात्म्यकथनं

अध्याय २५ - व्रतोद्यापनविधिकथनं

अध्याय २६ - गृहीतनियमत्यागो

अध्याय २७ - कदर्योपाख्याने

अध्याय २८ - कपिजन्मनि विमानागमनं

अध्याय २९ - अह्निककथनं

अध्याय ३० - पतिव्रताधर्मनिरूपणं

अध्याय ३१ - श्रवणफलकथनं

Adhik Maas is also known as Purushottam Maas, know Purushottam Maas kahani  and mythological beliefs - अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है,  जानिये इससे जुड़ी खास बातें और पौराणिक

शिव महापुराण - द्वादश ज्योतिर्लिंग कथाएं

 

हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में १२ है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ओंकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघृष्णेश्वर। हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।

🌼 मुख्य ज्योतिर्लिंगों का वर्णन 🌼

संसारमें कोई भी वस्तु शिवके स्वरूपसे भिन्न नहीं है। मुनिश्रेष्ठ शौनक! इस भूमण्डलपर जो मुख्य-मुख्य ज्योतिर्लिंग हैं, उनका मैं वर्णन करता हूँ। उनका नाम सुननेमात्रसे पाप दूर हो जाते हैं -


सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारे परमेश्वरम् ॥

केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशङ्करम् ।

वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ॥

वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।

सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये ॥

द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।

सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत् ॥

अर्थ:-

सौराष्ट्रमें सोमनाथ, श्रीशैलपर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनीमें महाकाल, ओंकारतीर्थमें परमेश्वर, हिमालयके शिखरपर केदार, डाकिनीक्षेत्रें|भीमशंकर, वाराणसीमें विश्वनाथ, गोदावरीके तटपर त्र्यम्बक, चिताभूमिमें वैद्यनाथ, दारुकावनमें नागेश, सेतुबन्धमें रामेश्वर तथा शिवालयमें घुश्मेश्वरका स्मरण करे। जो प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामोंका पाठ करता है, उसके सभी प्रकारके पाप छूट जाते हैं और उसे सम्पूर्ण सिद्धियोंका फल प्राप्त हो जाता है। 

इन लिंगोंपर चढ़ाया गया प्रसाद सर्वदा ग्रहण करनेयोग्य होता है, उसे श्रद्धासे विशेष यत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करनेवालेके समस्त पाप उसी क्षण विनष्ट हो जाते हैं।

हे मुनीश्वरो! म्लेच्छ, अन्त्यज अथवा नपुंसक कोई भी हो, वह ज्योतिर्लिंगके दर्शनके प्रभावसे द्विजकुलमें जन्म लेकर मुक्त हो जाता है। इसलिये ज्योतिर्लिंगका दर्शन अवश्य करना चाहिये।



क्रम.

ज्योतिर्लिंग

राज्य

स्थिति

वर्णन

सोमनाथ

गुजरात

प्रभास पाटनसौराष्ट्र

श्री सोमनाथ सौराष्ट्र, (गुजरात) के प्रभास क्षेत्र में विराजमान है। इस प्रसिद्ध मंदिर को अतीत में छह बार ध्वस्त एवं निर्मित किया गया है। १०२२ ई में इसकी समृद्धि को महमूद गजनवी के हमले से सार्वाधिक नुकसान पहुँचा था।

मल्लिकार्जुन

आंध्र प्रदेश

कुर्नूल

आन्ध्र प्रदेश प्रांत के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तटपर श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं। इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं।

महाकालेश्वर

मध्य प्रदेश

महाकालउज्जैन

श्री महाकालेश्वर (मध्यप्रदेश) के मालवा क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तटपर पवित्र उज्जैन नगर में विराजमान है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अवंतिकापुरी कहते थे।

ॐकारेश्वर

मध्य प्रदेश

नर्मदा नदी में एक द्वीप पर

मालवा क्षेत्र में श्रीॐकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के बीच स्थित द्वीप पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन हैवहां से यह स्थान 10 मील दूर है। यहां ॐकारेश्वर और मामलेश्वर दो पृथक-पृथक लिंग हैंपरन्तु ये एक ही लिंग के दो स्वरूप हैं। श्रीॐकारेश्वर लिंग को स्वयंभू समझा जाता है।

केदारनाथ

उत्तराखंड

केदारनाथ

श्री केदारनाथ हिमालय के केदार नामक श्रृंगपर स्थित हैं। शिखर के पूर्व की ओर अलकनन्दा के तट पर श्री बदरीनाथ अवस्थित हैं और पश्चिम में मन्दाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ हैं। यह स्थान हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर उत्तरांचल राज्य में है।

भीमाशंकर

महाराष्ट्र

भीमाशंकर

श्री भीमशंकर का स्थान मुंबई से पूर्व और पूना से उत्तर भीमा नदी के किनारे सह्याद्रि पर्वत पर है। यह स्थान नासिक से लगभग 120 मील दूर है। सह्याद्रि पर्वत के एक शिखर का नाम डाकिनी है। शिवपुराण की एक कथा के आधार पर भीमशंकर ज्योतिर्लिंग को असम के कामरूप जिले में गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुर पहाड़ी पर स्थित बतलाया जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि नैनीताल जिले के काशीपुर नामक स्थान में स्थित विशाल शिवमंदिर भीमशंकर का स्थान है।

काशी विश्वनाथ

उत्तर प्रदेश

वाराणसी

वाराणसी (उत्तर प्रदेश) स्थित काशी के श्रीविश्वनाथजी सबसे प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में एक हैं। गंगा तट स्थित काशी विश्वनाथ शिवलिंग दर्शन हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र है।

त्र्यम्बकेश्वर

महाराष्ट्र

त्र्यम्बकेश्वरनिकट नासिक

श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रांत के नासिक जिले में पंचवटी से 18 मील की दूरी पर ब्रह्मगिरि के निकट गोदावरी के किनारे है। इस स्थान पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गम भी है।

वैद्यनाथ

महाराष्ट्र

बीड जिला

महाराष्ट्र में पासे परभनी नामक जंक्शन हैवहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी हैइस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिंग माना जाता है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से परळी स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को ही प्रमाणिक मान्यता है।

१०

नागेश्वर

गुजरात

दारुकावनद्वारका

श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग बड़ौदा क्षेत्रांतर्गत गोमती द्वारका से ईशानकोण में बारह-तेरह मील की दूरी पर है। निजाम हैदराबाद राज्य के अन्तर्गत औढ़ा ग्राम में स्थित शिवलिंग को ही कोई-कोई नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मानते हैं। कुछ लोगों के मत से अल्मोड़ा से 17 मील उत्तर-पूर्व में यागेश (जागेश्वर) शिवलिंग ही नागेश ज्योतिर्लिंग है।

११

रामेश्वर

तमिल नाडु

रामेश्वरम

श्रीरामेश्वर तीर्थ तमिलनाडु प्रांत के रामनाड जिले में है। यहाँ लंका विजय के पश्चात भगवान श्रीराम ने अपने अराध्यदेव शंकर की पूजा की थी। ज्योतिर्लिंग को श्रीरामेश्वर या श्रीरामलिंगेश्वर के नाम से जाना जाता है।

१२

घृष्णेश्वर

महाराष्ट्र

निकट एलोराऔरंगाबाद जिला

श्रीघुश्मेश्वर (गिरीश्नेश्वर) ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है।



यहाँ आपको शिव महापुराण की मुख्य कथाएं एवं शिव भक्ति का महात्म्य का वर्णन प्राप्त होगा।

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